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रोहित वेमुला, हिंदुत्व राजनीति और दलित प्रश्न

अपने-अपने राजनैतिक झुकाव के मुताबिक, रोहित वेमुला की मौत को कुछ लोग हत्या तो कुछ आत्महत्या बता रहे हैं। रोहित की मौत का मुख्य कारण उसका दलित होना, अंबेडकर स्टूडेन्ट्स एसोसिएशन (एएसए) की गतिविधियों में उसकी भागीदारी और इस दलित समूह की राजनैतिक सक्रियता थी। दलितों से सीधे संबंधित मुद्दे उठाने के अलावा इस एसोसिएशन ने प्रजातांत्रिक अधिकारों से जुड़े कई अन्य मुद्दे भी प्रमुखता से उठाए। इनमें बीफ भक्षण और मुंबई धमाकों के आरोपी याकूब मेमन को दी गई मौत की सज़ा शामिल हैं।  एसोसिएशन ने ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ फिल्म का प्रदर्शन भी आयोजित किया। यह फिल्म मुजफ्फरनगर हिंसा (2013) में सांप्रदायिक शक्तियों की भूमिका को बेनकाब करती है।
 
 
मई 2014 में मोदी सरकार के शासन में आने के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर अतिसक्रिय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीव्हीपी) ने अपने हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के अनुरूप, इन सभी मुद्दों पर एएसए का विरोध किया। शिक्षा के प्रांगणों में अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता, किसी भी प्रजातांत्रिक समाज में अपरिहार्य है। आरएसएस की विद्यार्थी शाखा एबीव्हीपी, एक दलित समूह द्वारा धर्मनिरपेक्षता और प्रजातंत्र से जुड़े मुद्दे उठाए जाने को पचा नहीं सकी। इसमें कोई संदेह नहीं कि वेमुला की मौत का संबंध एएसए द्वारा उठाए गए मुद्दों से था। रोहित की इन मुद्दों पर क्या सोच थी यह उनके फेसबुक पेज से स्पष्ट हो जाता है। उदाहरणार्थ, हम देखें कि बीफ के मुद्दे पर उन्होंने क्या लिखा, ‘‘बीफ खाना और बीफ समारोह आयोजित करना, उन लोगों के साथ अपनी एकता प्रदर्शन करने का प्रयास है जो बीफ से जुड़े कारणों से देश के विभिन्न स्थानों पर अपनी जानें गवां रहे हैं। अगर हम इस तथ्य को नहीं समझ पाएंगे कि भाजपा-आरएसएस-विहिप का बीफ-विरोधी अभियान, मूलतः, इस देश के मुस्लिम अल्पसंख्यकों को प्रताडि़त करने का उपकरण है तो हमें हमेशा यह पछतावा रहेगा कि हम हमारे देश में व्यापक जनाक्रोश के मूकदर्शक बने रहेंगे। गाय के आसपास बुना गया पूरा मिथक आज दलित-विरोधी कम और मुस्लिम-विरोधी अधिक है।’’
 
मानवाधिकारों का धुरविरोधी है हिंदू राष्ट्रवाद
इससे यह स्पष्ट है कि वेमुला केवल तथाकथित दलित मुद्दों तक सीमित नहीं थे वरन् उनकी सोच का कैनवास कहीं अधिक व्यापक था। समाज के हाशिए पर पड़े सभी वर्गों – दलित, आदिवासी, महिलाएं, श्रमिक व धार्मिक अल्पसंख्यक – से जुड़े मुद्दे आपस में गुंथे हुए हैं। वेमुला ने बिल्कुल ठीक कहा था कि आज यदि बीफ भक्षण के मुद्दे पर भावनाएं भड़काईं जा रही हैं तो इसका मुख्य उदे्दश्य मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भयाक्रांत करना है। यह इस तथ्य के बावजूद कि समाज के अन्य वर्गों के सदस्य भी बीफ खाते हैं। एक स्तर पर मुजफ्फरनगर फिल्म का मुद्दा भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों से जुड़ा हुआ है। गहराई से देखने पर यह समझना मुश्किल नहीं है कि मुजफ्फरनगर में जो कुछ हुआ वह सांप्रदायिक राजनीति के समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत कर देश पर हिंदू राष्ट्रवाद लादने के एजेंडे का हिस्सा है। हिंदू राष्ट्रवाद, मानवाधिकारों का धुरविरोधी है। रोहित ने यदि याकूब मेमन को फांसी दिए जाने का विरोध किया तो यह उनके व्यक्तित्व के मानवीय पक्ष को दर्शाता है। वे मृत्युदंड के ही खिलाफ थे। पूरी दुनिया में मृत्यु दंड का विरोध हो रहा है, फिर चाहे यह दंड किसी भी प्रकार के अपराध के दोषी को दिया जा रहा हो। पूरी दुनिया में और भारत में भी मानवीय मूल्यों के हामी लोग मृत्यु दंड को समाप्त किए जाने के पक्ष में हैं। परंतु इसे आतंकवाद के समर्थन के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।
 
एएसए द्वारा धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक व मानवीय मुद्दों को उठाए जाने से एबीव्हीपी व एएसए में वैचारिक स्तर पर टकराव हुआ। एबीव्हीपी अध्यक्ष सुशील कुमार ने यह शिकायत की कि उनकी पिटाई की गई। इस आरोप की जांच के लिए एक समिति नियुक्त की गई, जिसने आरोप को बेबुनियाद पाया। परंतु विश्वविद्यालय में नए कुलपति की नियुक्ति के साथ हालात परिवर्तित होने लगे। केंद्रीय मंत्री बी दत्तात्रेय और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के दबाव में रोहित और उनके चार मित्रों को सज़ा दी गई। उनकी स्कालरशिप बंद कर दी गई और उन्हें होस्टल से निकाल दिया गया।
 
विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति को एक पत्र लिख कर यह अनुरोध किया कि दलित विद्यार्थियों को ज़हर और एक रस्सी दे दी जाए। परंतु पाषाण-हृदय, तानाशाह व दलित-विरोधी कुलपति ने जानबूझकर इस पत्र की अनदेखी की, जिसके नतीजे में यह त्रासदी हुई। रोहित की मृत्यु के बाद, सत्ताधारी दल ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की उससे उसकी राजनीति पूरी तरह बेनकाब हो गई। दत्तात्रेय ने एबीव्हीपी के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि एएसए ‘‘जातिवादी, अतिवादी व राष्ट्रविरोधी राजनीति का अड्डा थी’’। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ने अपनी संकीर्ण सोच के अनुरूप यह कहा कि रोहित की मृत्यु का दलित मुद्दों से कोई लेनादेना नहीं है। कुछ लोगों ने तो यह भी कहा कि चूंकि रोहित की मां दलित और पिता ओबीसी थे, इसलिए रोहित को दलित कहा ही नहीं जा सकता। यह रोहित के साथ हुए घोर अन्याय को नजरअंदाज करने का प्रयास था-वह अन्याय, जिसके चलते रोहित ने अपनी जान ले ली। इन दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो प्रचारित किया जा रहा है जिसमें रोहित को आतंकवादियों का समर्थक बताया गया है।
 
‘‘भारत माता के इस पुत्र’’ को राष्ट्रविरोधी क्यों बता रहे हैं मोदी के चेले
 
टीवी बहसों में आरएसएस-भाजपा के प्रवक्ता ‘‘राष्ट्रविरोधी व जातिवादी राजनीति’’ पर बरस रहे हैं। प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर जो कुछ कहा और वह कहने के लिए जो समय चुना उससे सब कुछ एकदम साफ हो गया। मोदी वैसे तो बहुत वाचाल हैं परंतु वे उन मुद्दों पर चुप्पी साध लेते हैं जिनसे उनके हिंदुत्व के एजेंडे का पर्दाफाश होता हो। मोहम्मद अखलाक की पीट-पीटकर हत्या पर भी उन्होंने बहुत समय तक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। रोहित के मामले में पांच दिन तक चुप्पी साधने के बाद उन्होंने एक छद्म-भावुक वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि ‘‘भारत मां ने अपना एक पुत्र खो दिया है’’। परंतु उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं और कैबिनेट मंत्रियों से यह नहीं पूछा कि वे  ‘‘भारत माता के इस पुत्र’’ को राष्ट्रविरोधी क्यों बता रहे हैं। यह दलितों को प्रताड़ना और विश्वविद्यालय प्रशासन के दलित-विरोधी रूख पर पर्दा डालने का प्रयास था; यह दत्तात्रेय, केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय और एबीव्हीपी की इस घटना में भूमिका को अनदेखा करने की कोशिश थी।
 
एक तरह से यह घटनाक्रम, हिंदुत्व की राजनीति की दुविधा को भी प्रदर्शित करता है। वह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की विरोधी है और दलितों, अल्पसंख्यकों व प्रजातांत्रिक मूल्यों के पैरोकारों को आतंकित कर रही है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, संघ परिवार के सभी संगठनों को मानो पंख लग गए हैं। उन्हें अपने राजनैतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने का लायसेंस मिल गया है। भारत सरकार ने आईआईटी मद्रास में अंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल को प्रतिबंधित करने का असफल प्रयास किया था। अधिकांश विश्वविद्यालय परिसरों में सांप्रदायिक विद्यार्थियों के गुट आक्रामक हो गए हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि यदि विश्वविद्यालय प्रशासन हिंदुत्ववादी न भी हो तो ऊपर से दबाव लाकर उसे भाजपा का एजेंडा लागू करने पर मजबूर किया जा सकता है। सामाजिक न्याय के अभियानों का कड़ा विरोध किया जा रहा है। आरएसएस से जुड़ा सामाजिक समरसता मंच बहुत सक्रिय है। कहा जा रहा है कि संघ जाति में विश्वास नहीं करता और यह भी कि सभी जातियां बराबर हैं! इसका निहितार्थ यह है कि संघ परिवार जाति से जुड़े मुद्दों की अनदेखी कर जातिगत पदक्रम को बनाए रखना चाहता है। अगर हमें अपनी किसी बीमारी को ठीक करना है तो सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम बीमार हैं। अगर हम जाति से जुड़े मुद्दों को नजरअंदाज करेंगे या उन पर चुप्पी साधे रहेंगे तो इससे यह निष्कर्ष निकाला जाना अवश्यंभावी है कि हम वर्तमान जाति समीकरणों को बनाए रखना चाहते हैं।
 
प्रधानमंत्री ने अंबेडकर विश्वविद्यालय में अपने भाषण में  अपनी आंखे भिगोने के पहले, विद्यार्थियों को यह सलाह दी कि उन्हें अंबेडकर के पदचिन्हों पर चलना चाहिए, जिन्होंने बिना किसी शिकायत के अपमान और भेदभाव को बर्दाश्त किया। यही बात राजनाथ सिंह ने भी कही। हम सब को याद है कि इस सरकार द्वारा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर नियुक्त प्रो. वाय सुदर्शन राव ने जातिप्रथा का बचाव करते हुए कहा था कि किसी ने कभी उसके संबंध में शिकायत नहीं की। इस प्रकार, जहां एक ओर अंबेडकर को हिंदुत्व नायक के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें हो रही हैं वहीं हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक संगठन अलग-अलग तरीकों से जाति पदक्रम को संरक्षित रखने का प्रयास कर रहे हैं। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
 
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
 
सौजन्य: हस्तक्षेप
 

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