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RCEP पर भारत की दुविधा : क्या इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता है?

महत्वाकांक्षी क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौते RCEP पर फ़िलहाल एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 16 देशों में बातचीत जारी है. इसमें भारत की स्थिति से न केवल हमारे देश की व्यापार नीति की बेचैनी का पता चलता है, बल्कि इससे घरेलू अर्थव्यवस्था की दुविधा भी नज़र आती है. 
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भारतीय अर्थव्यवस्था अनिश्चितता और अस्थिरता की स्थिति में है। सत्ताधारी एनडीए सरकार इस पर मज़बूती से क़ाबू पाने में भी नाकाम दिख रही है। आंकड़ों से छेड़खानी की आधिकारिक कोशिशों के बावजूद, एशियन डेव्लपमेंट बैंक, ऑर्गेनाइज़ेश फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेव्लपमेंट और आईएमएफ़ जैसे संस्थानों ने 2019-20 में भारत की विकास के 5.9 प्रतिशत से 6.1 प्रतिशत के बीच रहने का अनुमान लगाया है। वैश्विक अर्थव्यवस्था भी कम विकास दर और रुके हुए व्यापार जैसी समस्याओं से जूझ रही है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर ने 2019-20 के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था की विकास दर को 2.6 प्रतिशत से घटाकर 1.2 प्रतिशत कर दिया है।  

हाल की मीडिया रिपोर्टों से पता चला है कि घरेलू अर्थव्यवस्था की धीमी दर, भारत के लिए ‘रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप(RCEP)’ के थमने का सही कारण है। RCEP भारत के लिए अभी तक का सबसे महत्वाकांक्षी मुक्त व्यापार समझौता है। इसमें आसियान के 10 सदस्य समेत चीन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, साउथ कोरिया, जापान और भारत शामिल हैं। 

किसानों के बड़े समूह, ट्रेड यूनियन, सिविल सोसायटी समूह और घरेलू औद्योगिक संगठन, जिसमें डेयरी से लेकर ऑटोमोबाइल तक शामिल हैं, उन्होंने उद्योग मंत्री पीयूष गोयल को RCEP के ख़तरनाक प्रावधानों के बारे में बताया है। हालिया आर्थिक संकट और इससे पैदा हुई बेरोज़गारी तो इस समझौते पर रुकने का कारण हैं ही, इसके अलावा भारत जैसे विकासशील देशों के लिए RCEP समेत मुक्त व्यापार के रास्ते से परहेज़ करने की कुछ बुनियादी वजहात भी हैं।

नई पीढ़ी के ज़्यादातर मुक्त व्यापार समझौतों की तरह ही RCEP भी राष्ट्रीय सीमाओं से परे जाकर कृषि, निर्माण, बौद्धिक संपदा, निवेश, प्रतिस्पर्धा और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग के क्षेत्रों में एक तरह के नियम और समझौते-समन्वय लागू करने का लक्ष्य रखता है। 

कामगार संगठन जैसे ‘साउथ इंडियन कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ फ़ार्मर्स मूवमेंट’ ने पहले ही इस बात पर ध्यान दिलाया है कि 2010 में हुए ‘एशियान-भारत मुक्त व्यापार समझौते’ के बाद काली मिर्च, इलायची, रबड़ और मूंगफली उत्पादों के दूसरे देशों से आए, सस्ते आयात बाज़ार में पहले से ही उपलब्ध हैं। उन्हें डर है कि RCEP समस्याओं की एक नई बाढ़ लाएगा। 

व्यापारिक अर्थशास्त्री बिश्वाजित धर के एक हालिया पेपर से भी इस बात की पुष्टि होती है। इसमें उद्योग मंत्रालय के डायरेक्टर जनरल ऑफ़ कॉमर्शियल इंटेलीजेंस एंड स्टेटिस्टिक्स (DGCIS) के डाटा का विश्लेषण किया गया है। धर ने बताया है कि भारत के RCEP में शामिल देशों, जैसे जापान, आसियान देशों और साउथ कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद वहां से आयात लगातार बढ़ता जा रहा है। 2010 से 2017 के बीच आसियान देशों से 130 प्रतिशत और जापान, दक्षिण कोरिया से 50 से 60 प्रतिशत के बीच आयात में वृद्धि हुई है। 

दूसरी तरफ़, भारत के निर्यात में या तो बहुत कम बढ़ोत्तरी हुई है या इसमें गिरावट दर्ज की गई है। 10 ट्रेड यूनियनों के सरकार को सौंपे गए मेमोरेंडम के मुताबिक़, रोज़गार प्रबल क्षेत्रों जैसे कपड़ा, चमड़ा, रत्न और आभूषण में आयात के चलते उत्पादन में कमी आई है। यह सब RCEP देशों के साथ भारतीय व्यापार घाटे को 112 बिलियन डॉलर कर देते हैं। यह भारत के कुल व्यापार घाटे का 61 प्रतिशत है। इसमें भी चीन के साथ व्यापार घाटा 54 बिलियन डॉलर (2018-19) है। जबकि चीन के साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता भी नहीं है।

ई-कॉमर्स नियमों को शामिल करने पर भी RCEP पर विवाद हुआ था। एक लीक के मुताबिक़ जापान लगातार अमेरिकी ई-कॉमर्स मॉडल के लिए दबाव बना रहा है, जो अमेरिका की ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप के लिए हुई बातचीत का हिस्सा थे। बातचीत में, ‘टेक्नोलॉजी ट्रांसफ़र पर कोई दबाव नहीं’, ‘फ़्री डाटा प्रवाह’, ‘कोई कस्टम ड्यूटी नहीं’, ‘किसी तरह का डाटा लोकलाइज़ेशन भी नहीं’ और डिजिटल टेक्नोलॉजी के लिए मज़बूत पेटेंट जैसे मुद्दे शामिल थे। यह सब इंटरनेट इकोनॉमी पर अमेरिकी प्रभुत्व बनाने की योजना का हिस्सा हैं।

विश्व व्यापार संगठन में डिजिटल दुनिया को लेकर बन रहे क़ानूनों पर भारत और विकासशील देशों की चिंताएं बिलकुल सही थीं। क्योंकि इनके ज़रिये उन्हें एक तरह से डिजिटल उपनिवेशवाद के तहत ग़ुलाम बनाया जा रहा है।

बौद्धिक संपदा अधिकारों पर जापान की मांग है कि भारत उसके डबल्यूटीओ की प्रतिबद्धताओं से आगे के प्रावधानों पर सहमति जताए। इनमें ‘डाटा एक्सक्लूसिविटी’ और ‘पेटेंट टर्म एक्सटेंशन’ जैसी बेहद कड़ी चीज़ें शामिल हैं। डाटा विशेषाधिकार में एक जैसे डाटा के ड्रग्स पर प्रतिबंध लगाया जाएगा, इससे जेनेरिक ड्रग के बाज़ार में उतरने में देर होगी. वहीं पेटेंट टर्म एक्सटेंशन से, फ़िलहाल जारी 20 साल वाले पीरियड के आगे, बड़ी फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियों को एकाधिकार मिलेगा। अगर भारत इन दोनों मांगो को मानता है तो उसे अपने क़ानून में संशोधन करना होगा, जिससे सस्ती दवाओं पर प्रभाव पड़ेगा।

कृषि बीजों पर पेटेंट के लिए भारत, इंडोनेशिया, थाईलैंड और फ़िलीपींस जैसे देशों पर विवादित ‘इंटरनेशनल कंवेंशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ न्यू वेरायटीज़ ऑफ़ प्लांट्स (UPOV 1991)’ में शामिल होने का दबाव बनाया जा रहा है। इसमें भी भारत को अपने प्रगतिशील घरेलू क़ानून को बदलने की ज़रूरत पड़ेगी, जिससे किसानों को बीज बचाने का अधिकार मिलता है। दरअसल यह बदलाव कृषि व्यापार वाले उद्यमी घरानों के लिए एकाधिकार प्रदान करेंगे।

द्विपक्षीय निवेश संधि (BITs) के मैकेनिज्म का फ़ायदा उठाकर विदेशी निवेशकों ने भारत सरकार पर 12.3 बिलियन डॉलर का भारी-भरकमा मुक़दमा किया है। यह मुक़दमे ‘इंवेस्टर स्टेट डिस्प्यूट सेटलमेंट (ISDS)’ के तहत किए गए हैं। ऐसे ही कई मुक़दमों के बाद मलेशिया, इंडोनेशिया और यहां तक कि भारत ने भी ISDS के प्रावधानों को संधि से हटाने की कोशिश की है। वहीं जापान, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर RCEP में निवेशकों के बचाव के लिए उच्च प्रावधानों का दबाव बना रहे हैं। देखना होगा कि कैसे भारत इन प्रावधानों को शामिल किए जाने का विरोध करता है।

RCEP के प्रावधानों पर बातचीत 2013 में शुरू हुई थी। 27 राउंड की बातचीत के बाद भी भारतीय मध्यस्थ रक्षात्मक मुद्रा में हैं। धर के पेपर से पता चलता है कि कई देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते के बावजूद भारत उन देशों के बाज़ारों तक पहुंच नहीं बना पा रहा है। वहीं व्यापार घाटा बताता है कि इस दौरान दूसरे देशों का भारत को निर्यात कई गुना बढ़ा है। 

RCEP के प्रावधान हाल के मुक्त व्यापार समझौतों और विश्व व्यापार संगठन के नियमों से कहीं आगे की बात है। इससे भारत के व्यापार अंसतुलन को और ज़्यादा बल मिलेगा। इससे कृषि और उद्योग में लाखों लोगों के रोज़गार पर प्रभाव पड़ेगा। आख़िर इससे निकलने का रास्ता क्या है? 

मुक्त व्यापार फ़्रेमवर्क से इतर एक नया दृष्टिकोण

भारत की व्यापार नीति एक गहरे लोकतांत्रिक संकट का शिकार है। अमेरिका, मलेशिया और थाईलैंड की तरह भारत की व्यापार संधियों को संसद से पास नहीं कराया जाता। नई पीढ़ी के व्यापार समझौते, जैसे WTO और RCEP, के घरेलू नीति निर्माण में दख़ल को देखते हुए यह ज़रूरी है कि इन पर बातचीत और हस्ताक्षर के वक्त संसद से सलाह ली जाए। 

भारत में कृषि, स्वास्थ्य, कर और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर नीति बनाने के लिए राज्य सरकारों के पास पर्याप्त स्वतंत्रता है। इसलिए उनसे भी ज़रूरी सलाह ली जाए। RCEP के मुद्दे पर केरल सरकार लगातार अपने सुझाव देने की मांग कर रही है, पर ऐसा नहीं हो सका। केरल सरकार का कहना है कि बातचीत में भारतीय स्थिति में किसानों के हित शामिल होने चाहिए। कुछ लोगों की चिंता है कि उद्योग मंत्रालय व्यापार संबंधी बातों पर कृषि, पर्यावरण और श्रम मंत्रालय को अंधेरे में रखता है। भारत जैसे देश में जहां इतनी क्षेत्रीय विषमताएं हैं, वहां ज़रूरी है कि उद्योग मंत्रालय के व्यापार नीति बनाए जाने के अलोकतांत्रिक तरीक़े को पूरी तरह से बदला जाए। 

WTO के गतिरोध, ब्रेक्जिट, TPP और ट्रांस अटलांटिक ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट पार्टनरशिप (TTIP) से अमेरिका के बाहर होने के बाद वैश्विक स्तर पर मुक्त व्यापार वैधता के संकट से जूझ रहा है। इसके बावजूद हमारे नीति निर्माता नव उदारवादी नीतियों से बाहर नहीं आ रहे हैं और लगातार कुख्यात मुक्त व्यापार फ़्रेमवर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं। साथ में RCEP जैसे समझौतों पर भी बातचीत जारी है। ऐसा नहीं होना चाहिए।

व्यापार समझौतों पर हुई बातचीत (1986-1994) के उरुग्वे राउंड से WTO का निर्माण हुआ था। इस दौरान ब्राज़ील और भारत जैसे देशों ने ‘सभी के लिए एक जैसी नीतियों’ का विरोध किया था। उन्होंने लचीलेपन के साथ विकासशील देशों के लिए अलग व्यवहार और स्तर रखे जाने की मांग की थी। उनके दिमाग में अपने उद्योगों की ज़रूरतें, आरंभिक सेवा क्षेत्र और कामगारों के अधिकारों की चिंताएं थीं। आज भी इस तरह की सोच ज़रूरी है। ज़रूरत है कि हम उद्योग नीति, जनसेवा और कृषि समुदायों के हितों को ध्यान में रख कृषि नीति पर बहस में दोबारा आएं।

इसके बाद ही व्यापार नीति, घरेलू अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों और कामगारों, मज़दूरों की मांगों पर चलती है। कार्ल पोलन्यी के शब्दों में, व्यापार नीति को नव उदारवाद और बाजारवाद से चलाने के बजाए, ज़रूरी है कि इसे घरेलू अर्थव्यवस्था और समाज के साथ दोबारा स्थापित किया जाए।

बेनी कुरूविल्ला एक एक्टिविस्ट थिंक-टैंक Focus on the Global South के भारतीय दफ़्तर के हेड हैं। यह एक विश्लेषण करने वाला थिंकटैंक है, जो एशिया में न्यायसंगत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के विकल्प तैयार कर रहा है।

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

India’s RCEP Dilemma: Is There a Way Out?

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