Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

20 वजह जो बताती हैं कि एनआरसी की प्रक्रिया बहुत भरोसेमंद नहीं है!

नागरिकता अधिनयम से जुड़े सवालों से लेकर कई तरह की प्रक्रियाओं पर कोई जवाब नहीं मिला है। इसलिए एनआरसी के बाद इतनी सारी वजह भी सामने हैं, जिनकी वजह से एनआरसी पर भरोसा करना बहुत मुश्किल लगता है।
nrc

साल 1951 से शुरू हुई एनआरसी की प्रक्रिया साल 2019 में जाकर अंतिम लिस्ट जारी कर देने के बाद पूरी हुई। बहुत सारे राजनीतिक दबावों को झेलने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में अपनी निगरानी में इसे पूरा कराने का बीड़ा उठाया। उसके बाद जिस तरह से एनआरसी को पूरा करने का दबाव सुप्रीम कोर्ट की तरफ से बनाया गया, वे सारे न्याय के मानक पर खरे उतरे ऐसा कहना मुश्किल होगा। उनकी खामियां सबके सामने थीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तेजी से फैसला लेने को तवज्जो दी। नागरिकता अधिनयम से जुड़े सवालों से लेकर कई तरह की प्रक्रियाओं पर कोई जवाब नहीं मिला। इसलिए एनआरसी के बाद इतनी सारी वजह भी सामने हैं, जिनकी वजह से एनआरसी पर भरोसा करना बहुत मुश्किल लगता है।

1. एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन। एक ऐसा रजिस्टर जिसमें असम के संदर्भ में भारत के नागरिकों को शामिल किया जा रहा है। जो भारत के नागरिक नहीं हैं, उन्हें इससे बाहर रखा जा रहा है। किसी की नागरिकता सरकार द्वारा तय कुछ दस्तावेज़ के आधार पर निर्धारित की जा रही है। जिसके पास ये दस्तावेज़ है वह भारत का नागरिक है, जिसके पास दस्तावेज़ नहीं हैं वह भारत का नागरिक नहीं है। इन दस्तावेज़ के लिए जरूरी शर्त असम समझौते के तहत रखी गयी है। यानी इन दस्तावेज़ के जरिए यह सत्यापित हो जाना चाहिए कि अमुक व्यक्ति या उसके पूर्वज 24 मार्च 1971 की मध्य रात्रि से पहले भारत के नागरिक थे। उसे ही भारत की नागरिकता मिलेगी।

दरअसल साल 26 मार्च 1971 को पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना। इस समय भी बांग्लादेश से बहुत सारे शरणार्थी और प्रवासी भारत आए। और इसके बाद लगातार इनकी आवाजाही बनी रही। इसलिए 24 मार्च 1971 की तिथि को असम समझौते के तहत कट ऑफ डेट निर्धारित किया गया।

असम के लिए बनाया गया यह नियम पूरे भारत में चल रहे नियम से अलग था। पूरे भारत में अभी भी जस सोली ( jus soli ) के सिद्धांत के आधार पर नागरिकता मिलती है। यानी जन्म लेते ही भारतीय नागरिकता मिल जाना। कहने का मतलब यह है कि किसी ने अगर भारत में जन्म लिया है तो उसे भारत की नागरिकता मिल जाती है। यह नियम साल 1987 तक चलता रहा। नागरिकता अधिनियम में हुए बाद के संशोधनों से नियम यह है कि किसी भी व्यक्ति को जन्म लेते ही भारत की नागरिकता मिल जाती है शर्त यह है कि उसके माता-पिता भारत के नागरिक होने चाहिए या दोनों में से कोई एक भारत का नागरिक होना चाहिए और दूसरा अवैध प्रवासी नहीं होना चाहिए।

अब असम की बात करते हैं। असम समझौते के तहत असम से जुड़े नागरिकता के मसले को सुलझाने के लिए कट ऑफ डेट 24 मार्च 1971 रखी गयी। यानी जो यह साबित कर देगा उसकी या उसकी पूर्वजों की भारतीय नागरिकता 24 मार्च 1971 से पहले की है, उसे ही भारत की नागरिकता मिलेगी। यानी असम के लिए शेष भारत से अलग नियम बना। शेष भारत में जहां माता-पिता भारतीय हो या माता-पिता में से कोई एक भारत का नागरिक हो और दूसरा भारत का अवैध प्रवासी न हो तो केवल जन्म लेते ही नागरिकता मिल जाने का प्रवाधान हैं।

वही असम के लिए 24 मार्च 1971 के बाद से यह नियम है कि असम में जन्म लेने व अमुक बच्चा यह साबित करे कि उसके माता-पिता 24 मार्च 1971 से पहले के भारत के नागरिक हैं। तभी उसे भारत की नागरिकता मिलेगी। यानी असम के अलावा शेष भारत में तो माता-पिता में से एक के भारतीय नागरिक होने पर नागरिकता मिल जाती है, लेकिन असम में माता-पिता दोनों का भारतीय नागरिक होना ज़रूरी है।

मानव अधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर इस संदर्भ में कहते हैं कि यह दुखद है कि कभी भी सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती नहीं दी गयी। इसका मतलब यह भी है कि अगर माता - पिता में से कोई भी एक अवैध प्रवासी घोषित हो गया तो बच्चे को कभी भारतीय नागरिकता नहीं मिलेगी।


2. एनआरसी के कोआर्डिनेटर प्रतीक हजेला ने यह बात कही थी कि नागरिकता का निर्धारण केवल इस बात से नहीं होगा कि अमुक व्यक्ति का जन्म भारत में हुआ है या नहीं। बल्कि इस बात से भी होगा कि अमुक व्यक्ति के माता-पिता कहां से थे। प्रतीक हजेला की यह बात जन्म से जुड़ी नागरिकता से मिले सिद्धांत का उल्लंघन  करती है। नागरिकता अधिनियम के सेक्शन 3 ( A) का उल्लंघन करती है। जो कुछ अपवादों के साथ जन्म लेने के साथ मिल जाने वाली नागरिकता की बात करती है। इसके साथ भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं के साथ किए गए बहुत सारे समझौते का भी उल्लंघन करती है। जिनके तहत यह कहा जाता है कि हर जन्म लेना वाला बच्चा राष्ट्रीयता का भी अधिकारी होगा। उसे राष्ट्रीयता से वंचित नहीं रखा जा सकता है।

3. सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया कि असम से जुड़े नागरिकता के मुद्दे पर एनआरसी के लिए कट ऑफ़ डेट 24 मार्च 1971 के दिन को निर्धारित की गयी है। नागरिकता अधिनियम के सेक्शन 3 (A) के उल्लंघन के आधार पर इसे बदला नहीं जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश भी निराश करने वाला है। कानून विशेषज्ञ फैज़ान मुस्तफा 'द वायर' के साथ इंटरव्यू में कहते हैं कि हमारे संविधान में सुप्रीम कोर्ट लोगों के अधिकार की संरक्षण करने वाली अंतिम संस्था है। यानी अगर संसद ने भी ऐसा कानून बना दिया जो मूल अधिकार का उल्लंघन करता हो तो सुप्रीम कोर्ट उसे भी खरिज कर सकता है। इसलिए मूल अधिकारों के सिवाय किसी भी दूसरे तरह की जरूरतों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट किसी को नागरिकता से वंचित नहीं कर सकता है। जैसे कि असम से जुड़े नागरिकता के मामले में प्रशासनिक जरूरतों के तहत कट ऑफ़ अलग रखी गयी है और लोगों को नागरिकता से वंचित किया जा रहा है।

4. साल 2015 के बाद एनआरसी की यह पूरी प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हो रही है। अगर संसद और सरकार से कोई गलती होती है तो लोग कोर्ट के पास जाते हैं। लेकिन यहां पर कोर्ट ही यह मांग कर रहा है कि किन-किन दस्तावेज़ की जरूरत होगी, जिससे 1971 के पहले नागरिकता का निर्धारण हो पाए। अगर कोर्ट ही अंतिम  फैसला ले रही है तो लोग अपनी शिकायतों से जुड़े मामले लेकर कहाँ जायेंगे। यानी इस पूरी प्रक्रिया में कोई ऐसी संस्था नहीं है, जिसके पास इंसाफ की गुहार लेकर जाया जाए।

5. अगर एनआरसी की पूरी प्रक्रिया ही अभी संविधान पीठ के पास लंबित है, तो बिना इस पर फैसला आए कैसे इस प्रक्रिया के तहत नागरिकता तय की गयी। यह भी सवालों के घेरे में हैं। अगर संविधान पीठ ने इस पूरी प्रक्रिया को ही खारिज कर दिया तो इस कार्रवाई का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

6. एनआरसी की इस पूरी प्रक्रिया को कोर्ट द्वारा डेडलाइन निर्धारित करके किया गया। इसकी वजह से निष्पक्षता की बजाय स्पीड को तवज्जो दी गई। साक्ष्य बता रहे हैं कि वैध नागरिकों को अवैध बताया गया। जैसे एनआरसी प्रोसेस को अंजाम दे रहे कर्मचारियों में से कई लोगों को एनआरसी में शामिल नहीं किया गया। किसी की माँ को शामिल किया गया लेकिन बेटे को शामिल नहीं किया गया। सेना में शामिल व्यक्ति तक को एनआरसी में जगह नहीं मिली। यह बताता है कि इस पूरी प्रक्रिया में निष्पक्षता को ध्यान नहीं रखा गया। किसी को नागरिकता से वंचित किया जा रहा है लेकिन इसमें निष्पक्षता और पारदर्शिता की बजाय स्पीड पर ध्यान दिया जा रहा है। यहाँ पर होना चाहिए था कि चाहे जितनी देर लग जाए सुप्रीम कोर्ट को फेयरनेस यानी निष्पक्षता को तवज्जो देनी चाहिए थी।

7. कानून विशेषज्ञ फैज़ान मुस्तफा कहते हैं कि नागरिकता का विचार 'अलग करने यानी एक्सक्लूजन' की विचार पर आधारित है। यह राज्य और नागरिक के बीच रिश्ता तय करता है। भारत में यह सिविक आधार पर है, एथनिक आधार पर नहीं। यानी भारत की नागरिकता का विचार यह नहीं है कि कौन किस धर्म से है या किस की क्या जाति है? इसलिए भारत में कोई भी जन्म ले लेता है वह भारत का नागरिक हो जाता है। नागरिकता यह विचार सार्वभौमिक और प्रगतिशील है। हम इससे उल्टा जा रहे हैं।

8.एनआरसी की इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बड़ी हानि यह हुई है कि नागरिकता के जन्म के सिद्धान्त पर जबरन हमला किया गया है। एक संदेह पैदा हुआ है कि जिनका जन्म भारत में हुआ है, क्या वह भी भारत के नागरिक रह पाएंगे या नहीं। यह भी प्रगतिगामी है।

9. असम समझौता के पीछे यही तर्क दिया गया था कि बाहरी लोगों से असम के लोगों के अधिकारों पर प्रभाव पड़ रहा है। असम की मूल संस्कृति पर खतरा बढ़ रहा है। लकिन साल 1971 के बाद से चल रही राजनीति के बाद और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद एनआरसी से यह निकला है कि 19 लाख लोगों को बाहर रखा गया है। यह असम की कुल आबादी का लगभग 6 फीसदी  है। आगे जाकर यह संख्या कम ही होगी। इतनी कम आबादी किसी राज्य की स्थानीय संस्कृति के लिए खतरा हो सकती है, यह सोचने वाली बात है। यानी एनआरसी की अंतिम लिस्ट के बाद जो संख्या आयी है, वह मकसद के लिहाज से इतनी कम है जो असम समझौते के तहत निर्धारित की गयी थी।

10. एनआरसी के तहत अपनी नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी लोगों को दी गयी है। वह भी यह साबित करने कि 1971 से पहले अमुक व्यक्ति भारत का नागरिक था या नहीं। इसके लिए 15 दस्तावेज़ में से ऐसे किन्हीं भी 2 -3 ऐसे दस्तवेज को दिखाना जरूरी है, जो 24 मार्च 1971 से पहले बनाए गए हो। जिससे नागरिकता साबित जाए। बैंक या पोस्ट ऑफिस के खातों का ब्योरा,समुचित अधिकारियों की ओर से जारी जन्म प्रमाणपत्र,न्यायिक या राजस्व अदालतों में किसी मामले की कार्यवाही का ब्योरा,बोर्ड या विश्वविद्यालय की ओर से जारी शैक्षणिक प्रमाणपत्र, भारत सरकार द्वारा जारी किया गया पासपोर्ट,भारतीय जीवन बीमा निगम की पॉलिसी,किसी भी प्रकार का सरकारी लाइसेंस,केंद्र या राज्य सरकार के उपक्रमों में नौकरी का प्रमाणपत्र,जमीन या संपत्ति से संबंधित दस्तावेज़,राज्य द्वारा जारी स्थानीय आवास प्रमाणपत्र। अब यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि इन दस्तावेज़ से यह साबित होना चाहिए कि अमुक व्यक्ति 24 मार्च 1971 से पहले का भारत का नागरिक है।

न्याय का सबसे जरूरी सिद्धांत है कि कोई भी कदम निष्पक्ष होकर उठाया जाए। इसलिए ऐसी शर्ते तय करें जो व्यवहारिक लगें। जिनसे पक्षपाती होने का रवैया न दिखे। अभी लोगों को कह दिया जाए कि वह इन दस्तावेज़ को सरकार के सामने प्रस्तुत करें। समय जैसी कोई शर्त नहीं रखी जाए,फिर भी लोगों को ऐसे दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने में बहुत परेशानी आएगी। यहां पर तो यह है कि 24 मार्च 1971 से पहले के दस्तवेजों को प्रस्तुत करना है। ताकि इस तिथि से पहले की नागरिकता साबित हो जाए। ये दस्तावेज़ समाज के सबसे वंचित और गरीब लोगों को भी पेश करना है। और ये लोग ऐसे इलाके में रहते हैं, जहां हर साल बाढ़ आती रहती है। ब्रह्मपुत्र हर साल अपना रास्ता बदलती रहती है। हर साल बहुत सारे गाँव जलमग्न हो जाते हैं। अपने इलाके को छोड़कर दूसरे जगह जाना पड़ता है। ऐसे में यह शर्त लगाना कि वह 1971 के पहले के दस्तावेज़ प्रस्तुस्त कर, अपनी नागरिकता साबित करें। कहीं से भी जायज शर्त नहीं लगता।

11. सबूत के तौर पर दस्तावेज़ की ऐसी मांग की वजह से यह हुआ है कि भाई एनआरसी में शामिल है लेकिन बहन शामिल नहीं है। बेटा एनआरसी में शामिल है लेकिन माँ शामिल नहीं है। सरकारी कर्मचारी शामिल नहीं है। मौजूदा समय के विधायक शामिल नहीं है। सेना में काम कर चुके लोग तक शामिल नहीं है। यहाँ तक कि वे लोग तक शामिल नहीं है, जो एनआरसी में लगे हुए हैं। यह सारे उदहारण बतातें हैं कि एनआरसी की प्रक्रिया में बहुत सारी खामियां है।

12. एनआरसी के तहत बाहर किये गए लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए फॉरेन ट्रिब्यूनल में अपील करने का अधिकार मिला है। फॉरेन ट्रिब्यूनल की स्थापना साल 1964 में गृह मंत्रालय द्वारा फॉरेन ट्रिब्यूनल आदेश के जरिये की गयी थी। इसे अधिकारिता मिली है कि यह फॉरेनर एक्ट 1946 के आधार पर तय करे कि कोई व्यक्ति विदेशी है या नहीं। फॉरेन ट्रिब्यूनल की प्रक्रियाओं पर बहुत सारे बयान छप चुके हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल की एनआरसी से जुडी पत्रिका में फॉरेन ट्रिब्यूनल में काम करने वाले वकीलों का बयान छपा है। इनका कहना है कि फॉरेन ट्रिब्यूनल में कई मामलों में सरकारी वकील पेश नहीं होते हैं, जहां उनकी जरूरत होती है। फिर भी मामले का निपटान उनकी मौजूदगी के अभाव में भी कर दिया जाता है।

13. फॉरेन ट्रिब्यूनल के सदस्य ही तय करते हैं कि किसी का क्रॉस एक्ज़ामिनेशन कैसे किये जाए। इस तरह से उनके द्वारा जो प्रक्रिया अपनायी जाती है वह  न्यायिक नहीं है। ट्रिब्यूनल की कई प्रक्रियाओं को लेकर सवाल हैं। अंग्रेजी न जानने वालों से पूछा जाता है कि क्या आप जानते हैं कि डॉक्यूमेंट पर क्या लिखा है, तो जवाब होता है कि अंग्रेजी में लिखा है और हम नहीं जानते हैं कि क्या लिखा हुआ है। इस पर ट्रिब्यूनल अंग्रेजी में फैसला देता है कि दोषी कह रहा है कि उसे कुछ भी नहीं मालूम है। बहुत सारे गरीब लोगों कि इससे जुडी प्रक्रियाओं की जानकारी नहीं होती है, इसलिए वो अपना सत्यापन तो नहीं करवा पाते हैं, ऐसे में मदद के नाम पर मध्यस्थ उनका शोषण भी करते हैं।

14. बहुत सारी मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक फॉरेन ट्रिब्यूनल पर यह आरोप लगाया गया है कि सरकार इन पर दबाव डालती है कि वह अधिक से अधिक लोगों को बाहरी या विदेशी घोषित करें। ठीक से काम न करने की वजह से 20 जून 2017 को फॉरेन ट्रिब्यूनल के 19 सदस्यों को निष्काषित कर दिया गया। 1985 से 2016 तक फॉरेन ट्रिब्यूनल में साढ़े चार लाख मामले आये। इसमें से तकरीबन 80 हजार लोगों को बाहरी घोषित कर दिया। यानी हर साल तकरीबन 2500 लोग विदेशी घोषित हुए। साल 2017 में इसमें अचानक से इजाफा हुआ। 11 महीने में तकरीबन साढ़े 13 हजार लोगों को विदेशी घोषित कर दिया गया। यानी महीने में 1200 लोग बाहरी करार दे दिए गए।

15. हर्ष मंदर ने हिंदू अखबार में लिखा है कि जो लोग एनआरसी से बाहर निकाल दिए गए हैं उनके लिए सबसे चिंताजनक बात यह है कि उनकी अगली सुनवाई फॉरेन ट्रिब्यूनल में होगी। जिस मनमौजी अंदाज में फॉरेन ट्रिब्यूनल काम करते आयी हैं, वह डरा देने वाला है। फॉरेन ट्रिब्यूनल में ऐसे वकील काम करते हैं, जिनके पास कोई ज्यादा ज्यूडिशियल अनुभव नहीं होता है। उन्हें राज्य सरकार नियुक्त करती है। उनका कार्यकाल भी निश्चित नहीं होता है। राज्य सरकार जब चाहें तब उन्हें बाहर कर सकती है।

16. यह आरोप लगते आए हैं कि उनपर यह दबाव भी बनाया जाता है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की पहचान विदेशी के तौर पर करें। इनके पास काम भी बहुत अधिक होता है। अभी तकरीबन 100 फॉरेन ट्रिब्यूनल असम में काम कर रहे हैं। एक मामले का निपटारा करने में औसतन एक साल से अधिक का समय लग जाता है। मान लीजिए कि जैसा कि सरकार कर रही है कि वहां मामलों का जल्दी से निपटारा करने के लिए 1000 ट्रिब्यूनल काम करेंगे, तो भी अगर हर वर्किंग डे पर यह ट्रिब्यूनल काम करें तो 19 लाख मामलों का निपटारा करने में तकरीबन 6 साल से अधिक का समय लग जाएगा।

17. ट्रिब्यूनल की स्थापना किसी अधिनियम से नहीं बल्कि कार्यपालिका के आदेश से हुई है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 343B में ट्रिब्यूनल का जिक्र है कि अधिनियम या कानून बनाकर मामलों की सुनवाई के लिए ट्रिब्यूनल बनाई जा सकता है। यहां पर यह भी जिक्र है किन विषयों पर ट्रिब्यूनल बनाया जा सकता है। इसमें नागरिकता का विषय शामिल नहीं है। लेकिन हम अगर यह भी मान ले कि यह कोई बड़ी बात नहीं है कि नागरिकता इसमें शामिल नहीं है तो इस पर ट्रिब्यूनल नहीं बनाया जा सकता है। लेकिन भारत जैसे देश के लिए यह बहुत बड़ी बात है। एक ऐसे देश के लिए जहां पर सबसे बड़ी याचिकाकर्ता सरकार खुद है, वहां पर अगर कोई न्यायिक संस्था सरकारी आदेश से बनी है तो वह सरकार के प्रति कमिटेड होगी या न्याय के प्रति?  फॉरेन ट्रिब्यूनल पर ऐसे आरोप लगते भी रहे हैं । इसलिए ट्रिब्यूनल से जुड़े एक मामले में साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि अगर ट्रिब्यूनल सरकारी आदेश पर बनने लगे तो नागरिकों के अधिकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

18.बताया जा रहा है कि फॉरेन ट्रिब्यूनल ने 78 फीसदी मामलों में उनकी बात सुने बगैर फैसला दिया जो आरोपी थे। अलग- अलग फॉरेन ट्रिब्यूनल में अलग- अलग प्रक्रियाएं अपनायी जाती है। यह साफ़ करता है कि फॉरेन ट्रिब्यूनल की न तो प्रक्रिया स्पष्ट है और न ही इनसे होने वाले फैसले पूरी तरह न्यायसम्मत हैं।

19. फिर भी कहने वाले यह कह सकते हैं कि फॉरेन ट्रिब्यूनल के बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपील की जा सकती है। उनसे यह पूछना चाहिए कि कितने लोग ऐसे हैं जो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की फीस का भुगतान करने के काबिल हैं। यानी अभी हाल-फिलहाल यह कहा जा सकता है कि फॉरेन ट्रिब्यूनल के बाद बहुत कम लोग होंगे, जो आगे अपील करने जायेंगे। और फॉरेन ट्रिब्यूनल की बदहाल स्थिति सबके सामने है।

20.सबसे अंतिम बात ये कि पहले कहा जाता था कि कि एक करोड़ से अधिक बांग्लादेशी असम में रह रहे हैं। एनआरसी की अंतिम लिस्ट के बाद ये सामने आया कि तकरीबन 19 लाख लोगों को भारतीय नहीं माना गया है। अभी इसमें से और अधिक लोग कम होंगे। यानी जिस भावना की वजह से असम समझौता हुआ था, वह भी पूरी तरह से फेल नजर आ रहा है। इसलिए एनआरसी से वह पक्ष यानी ऑल असम स्टूडेंट यूनियन यानी आसू भी नाराज है, जिसकी वजह से असम समझौता हुआ था।
कुल मिलाकर कई सवाल हैं, जिनके जवाब ढूंढने ज़रूरी हैं, क्योंकि नागरिकता का सवाल कोई हंसी-मज़ाक नहीं बल्कि ज़िंदगी का सवाल है। ज़िंदगी के अधिकार का सवाल है। इसके अलावा कोई कहे कि बाहरी लोगों की वजह से असमिया लोग ख़तरे में हैं तो ये बात भी कुछ ठीक नहीं लगती क्योंकि एक सच तो यही है कि  लम्बे समय से रहते आ रहे लोग आज असम की संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं। 

 

 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest