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हिमाचल प्रदेश को राज्य का दर्ज़ा हासिल हुए 50 वर्ष: उपलब्धियों एवं चुनौतियों पर एक नज़र 

इन पिछले पाँच दशकों ने  हिमाचल को बाकी के पर्वतीय राज्यों के विकास के लिए एक प्रभावशाली मॉडल के तौर पर प्रस्तुत किया है।
हिमाचल प्रदेश को राज्य का दर्ज़ा हासिल हुए 50 वर्ष: उपलब्धियों एवं चुनौतियों पर एक नज़र 

अब जैसा कि हिमाचल प्रदेश 25 जनवरी के दिन को राज्य का दर्जा हासिल करने के 50वीं वर्षगाँठ के रूप में मना रहा है, ऐसे में हमें चाहिए कि हम इसके राज्य के दर्जा पाने के लिए किये गए संघर्ष पर भी एक नजर डालें, जिसे आजादी हासिल करने के तत्काल बाद ही शुरू कर दिया गया था। और जब हम इस पर सिलसिलेवार निगाह डालते हैं तो हम इस बात को महसूस कर सकते हैं कि यह यही कितनी तल्ख़ हकीकत है कि राज्य में भाजपा सरकार ने अमित शाह और जेपी नड्डा को शिमला में इस समारोह के लिए अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया है, जबकि यही वे राजनीतिक शक्तियाँ थीं जिन्होंने इसके एक पूर्ण-राज्य के गठन का पुरजोर विरोध किया था।

राज्य के विकास के प्रक्षेप-पथ को समझने के लिए यह महत्वपूर्ण होगा- जिसे मानव विकास सूचकांक के मामले में शुरू से ही केरल के स्टैण्डर्ड के समकक्ष में देखा जा सकता है। इन पिछले पाँच दशकों ने हिमाचल को बाकी के अन्य पर्वतीय राज्यों के विकास के लिए एक प्रभावशाली मॉडल के तौर पर स्थापित कर दिया है। हम इसके पीछे की वजहों और चुनौतियों पर चर्चा करेंगे, जो इसकी प्रगति और विकास के लिए एक सतत गंभीर चुनौती बनी हुई हैं। लेकिन उससे पहले संघर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और एक आधुनिक राज्य के तौर पर हिमाचल प्रदेश के गठन की दिशा में किये गए दृढ प्रयासों को लेकर चर्चा करना महत्वपूर्ण होगा।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

हम यहाँ पर इस क्षेत्र के पुरातन इतिहास की अतल गहराइयों में नहीं ले जाना चाहते, जिसे विभिन्न जनजातियों अथवा खसियों ने जैसे कि कोल, नागों, राजपूतों और कई अन्य लोगों द्वारा बसाया गया था। लेकिन यहाँ पर जिस चीज का उल्लेख करना आवश्यक है वह है राज्य का दर्जा दिलाने के लिए यहाँ के लोगों का संघर्ष, जिसका नेतृत्व अदम्य साहस के साथ प्रजामंडल आन्दोलन के नेता डॉ. वाई एस परमार द्वारा किया गया था, जो बाद में जाकर राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बने थे। 

हिमाचल प्रदेश 15 अप्रैल, 1948 को 30 पूर्ववर्ती रियासतों के एकीकरण के बाद एक केंद्र शासित क्षेत्र के तौर पर अपने अस्तित्व में आया। समय बीतने के साथ-साथ और कई उतार-चढाव से गुजरने के बाद 1951 में इसे एक ‘सी’ राज्य के तौर पर वर्गीकृत किया गया था। 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा इसे पंजाब के साथ विलय करने की सिफारिश की गई थी, लेकिन हिमाचल ने अपनी पहचान को बनाये रखा और यह एक केंद्र शासित प्रदेश बना रहा। 1963 में विधानसभा को एक बार फिर से पुनर्जीवित किया गया और 1966 में जाकर राज्य में कुछ नए जिलों को समाहित किया गया: कांगड़ा, शिमला, कुल्लू, लाहौल-स्पीति, नालागढ़ तहसील (तब तक यह अम्बाला जिले का हिस्सा हुआ करता था), ऊना तहसील का कुछ हिस्सा (तब तक यह होशियारपुर जिले का हिस्सा हुआ करता था) और डलहौजी (गुरदासपुर जिले का हिस्सा)। 25 जनवरी, 1971 के दिन जाकर अंततः हिमाचल प्रदेश अपने राज्य के दर्जे को हासिल कर पाने में सफल रहा।

राज्य के लिए नीतियों के निर्धारण एवं विकास की दिशा को तय करने में परमार निरंतर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को निभाते रहे। इससे पूर्व दो महत्वपूर्ण आंदोलनों में उनकी भूमिका ने उन्हें राज्य के लिए इस प्रक्षेपवक्र को एक आकार देने में मदद की थी। पहला आन्दोलन प्रजामंडल आंदोलन था जो कि भारतीय संघ के साथ सामंती राज्यों के एकीकरण को लेकर था। जबकि दूसरा आंदोलन भूमि सुधारों को लेकर था, जिसका नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किया जा रहा था। लेकिन जब राज्य के लिए नीतियों को तय किया जा रहा था तो परमार द्वारा इसकी विषयवस्तु को भलीभांति समझ लेने के साथ जज्ब कर लिया गया था। इसलिए इस तथ्य को लेकर कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है कि हिमाचल में अमल में लाये गए भूमि सुधार को देश भर में किये गये भूमि सुधारों में सबसे प्रभावी भूमि सुधारों में से एक का दर्जा दिया जाता है। 

राज्य का दर्जा दिया जाने को लेकर बहसों का जिक्र करें तो विधानसभा के भीतर डॉ परमार के कुछ चुनिन्दा भाषणों को पुनः उद्धृत करना समीचीन होगा। बहस के दौरान एक हस्तक्षेप में उन्होंने कहा था “हिमाचल को कभी भी किसी भी प्रकार के राजनीतिक अभियान की वजह से अस्तित्व में नहीं लाया गया था, बल्कि भारत सरकार हमेशा इस तथ्य से अवगत थी कि देश तब तक प्रगति नहीं कर सकता, जब तक कि पिछड़े पहाड़ी इलाकों को भी प्रगति करने और अपने हालातों में सुधार लाने का अवसर प्रदान नहीं किया जाता है। यह तभी संभव था जब ऐसे इलाकों के लिए एक अलग राज्य का अवसर मुहैय्या कराया जाता। इसके लिए एक अलग से राज्य बनाने की जरूरत है, जहाँ लोग अपनी खुद की परम्पराओं, संस्कृति और रीति-रिवाजों के अनुसार कार्य कर सकें। (राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के मसौदा विधेयक पर चर्चा के दौरान 5 अप्रैल, 1956 के दिन दिए गए भाषण का अंश)।”

इसी प्रकार एक अन्य बहस के दौरान प्रजामंडल आन्दोलन की भूमिका की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था: “हिमालयीय क्षेत्रीय परिषद ने ‘सत्याग्रह’ शुरू करने का फैसला लिया था जो सुकेत राज्य से शुरू हुआ, जिसे लोकप्रिय तौर पर सुकेत सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। 16 फरवरी, 1948 के दिन इस सत्याग्रह को आरंभ करने का नोटिस जारी कर दिया गया था, और इसके बाद एक हफ्ते के दौरान ही सत्याग्रहियों द्वारा सुकेत राज्य के तीन चौथाई हिस्से को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया गया था। इसके बाद में जाकर सुकेत के राजा द्वारा इस सन्दर्भ में भारत सरकार को एक याचिका भेजनी पड़ी थी। उस दौरान सिर्फ एक बात दृष्टि में थी, और वह यह कि मौजूदा निरंकुश (सामंती) शासन का खात्मा हो, और भारत सरकार के हाथ में प्रशासन की बागडोर को सौंपना। इसके साथ ही इस बात को सुनिश्चित करना कि केंद्र लोगों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करे। इस कदम के परिणामस्वरूप सुकेत के राजा को अपने घुटने टेकने पड़े। बाकी के शासकों ने भी इसका अनुसरण किया। 8 मार्च, 1948 तक उनकी याचिकाएं भी प्राप्त हो गईं थीं, जिसके चलते 15 अप्रैल, 1948 के दिन हिमाचल प्रदेश अपने अस्तित्व में आ सका।” डॉ परमार सामंती जागीरदारों और सामंतवादी चेतना से छुटकारा पाने की जरूरत को लेकर पूरी तरह से स्पष्ट थे। यही वजह है कि उन्हें एक ‘मध्यमार्गी वामपंथी” राजनीतिज्ञ के तौर पर जाना जाता है, जिन्होंने राज्य के भविष्य को आकार देने का काम किया था। 

1971 के बाद का घटनाक्रम 

एक नए राज्य के लिए तीव्र गति से विकास के कार्यों को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक संसाधनों को जुटा पाना बेहद मुश्किल कार्य था। औद्योगिक विकास की संभावना भी यहाँ पर दूर की कौड़ी थी क्योंकि राज्य में संपर्क के साधन बेहद खस्ताहाल थे और रेलवे नेटवर्क भी न के बराबर था।

राज्य में विकास के दो चरणों का उल्लेख करना यहाँ पर उचित होगा: 1970 से 1990 के शुरूआती दशक और 90 के दशक के बाद का हिमाचल।

पहले चरण में राज्य के लिए भारी मात्रा में प्रोत्साहन पैकेज देखने में आया था। जिन प्रमुख क्षेत्रों को लक्षित किया गया था उनमें भूमि सुधार, बागवानी, शिक्षा, बिजली, सडकों का जाल, बाजार हस्तक्षेप, स्वास्थ्य, पशुपालन और रोजगार निर्माण के अवसर प्रमुख थे। उस दौरान निजी पूंजी शायद ही अपने अस्तित्व में थी और पूंजी निवेश पर रिटर्न मिलने की कोई गुंजाइश न होने की वजह से निवेश करने का कोई स्कोप नहीं था। ऐसी स्थिति में राज्य ने एक ऐसे मॉडल को अपनाया जहाँ पर राज्य ने सामाजिक क्षेत्र और बुनियादी ढांचे में विकास के प्रमुख निवेशकों के तौर पर खुद को उतारने का फैसला लिया था।  

भूमि सुधार कार्यक्रम 

समूचे राज्य भर में बड़े पैमाने पर भूमि सुधार कार्यक्रम चलाए गये जिसमें भूमि सीलिंग का कड़ाई से क्रियान्वयन किया गया था। ‘नव तोड़ (नई भूमि बनाओ) नीति’ को अमल में लाया गया था, जिसमें भूमि को भूमिहीनों के बीच में, विशेषकर दलित परिवारों के बीच में वितरित कर दिया गया था। ऐसे सभी भूमिहीन परिवारों को पाँच बीघा (एक एकड़) जमीन दी गई थी। ‘जमीन जोतने वाले को’ नारे को यहाँ पर वास्तविक तौर पर अमली जामा पहनाने का काम किया गया था। सरप्लस जमीन को खेत जोतने वालों के बीच में वितरित कर दिया गया था। इस प्रकार अति-आवश्यक संपत्ति को गरीबों और हाशिये पर खड़े लोगों के हाथों में हस्तांतरित कर दिया गया था।

इन सुधारों को भूमि सुधार एवं काश्तकारी अधिनियम के जरिये प्रभावी ढंग से लागू किया गया था, जो यह सुनिश्चित करता था कि लैंड यूज में बदलाव नहीं किया जा सकता है। इसे इसलिए सुनिश्चित किया गया था क्योंकि कृषि और बागवानी लोगों के लिए यहाँ पर रोजगार के प्राथमिक स्रोत बने हुए थे। इन्हीं कारणों को देखते हुए अधिनियम में धारा 118 को जोड़ा गया, जिसमें उल्लेख था कि भले ही कोई कई दशकों से राज्य में रहा हो, इसके बावजूद वह जमीन नहीं खरीद सकता, जब तक कि वह खुद एक कृषक न हो। इसे इस बात को सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि जमीनें ‘हिमाचलियों’ के पास ही बनी रहे और वह भी उन लोगों के हाथ में जिनका कृषि कार्यों से सम्बद्ध हों।

बागवानी 

इस हकीकत को महसूस करते हुए कि राज्य के पास अनाजी फसलों का उत्पादन करने के लिए वृहद मात्रा में भूमि उपलब्ध नहीं है और कृषि कार्यों/बागवानी के लिए मात्र 10% ही भू-संपदा उपलब्ध है, राज्य ने बागवानी पर ध्यान केन्द्रित करने का फैसला किया। इसे ध्यान में रखते हुए दो विश्वविद्यालय खोले गए: एक बागवानी अनुसंधान कार्य के लिए और दूसरा कृषि शोध के लिए। उनकी वृहद पहुँच के लिए उनके विस्तार केन्द्रों को स्थापित किया गया था। कुछ प्रचलित कथाओं के अनुसार परमार, जो उस दौरान मुख्यमंत्री थे, वे बागवानी अधिकारियों के साथ आसपास के गाँवों में लंबी पैदल यात्रा पर निकल जाया करते थे और ग्रामीणों को सेव की फसल के लिए पौध लगाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उन पौधों को वे स्वयं अपनी पीठ पर ढोकर ले जाया करते थे। बाजार के हस्तक्षेप को लागू करने के साथ-साथ मुंबई और चेन्नई जैसे बड़े शहरों में भण्डारण ग्रहों की खरीद का काम भी किया गया ताकि फसलों की वहां पर बिक्री के काम को सुनिश्चित किया जा सके। वर्तमान में सेव अर्थव्यवस्था आज 5,000 करोड़ से भी अधिक मूल्य की हो चुकी है, जिसमें इस क्षेत्र की बड़ी आबादी अपना जीवन-निर्वाह कर रही है।

शिक्षा 

सुदूरवर्ती क्षेत्रों में आवश्यक बुनियादी ढाँचे के तौर पर न सिर्फ स्कूलों को खोलने का काम किया गया था बल्कि पर्याप्त मात्रा में शिक्षक वर्ग की भी नियुक्ति की गई थी। नौकरियां सृजित की गई थीं और शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए शिक्षण संस्थान भी खोले गए।

स्वास्थ्य सेवा 

स्वास्थ्य भी एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र था जहाँ राज्य के प्रदर्शन को पहचान दी गई थी। आवश्यक चिकत्सकीय एवं स्वास्थ्यकर्मियों के साथ दूर-दराज के क्षेत्रों तक में स्वास्थ्य केंद्र खोले गए थे। मानव विकास रिपोर्ट में राज्य को स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने के मामले में बेहतर राज्यों में से एक के तौर पर मान्यता दी गई थी। हिमाचल प्रदेश में संभावित जीवन काल की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, वहीँ शिशु मृत्यु दर अपेक्षाकृत कम है। असमय मृत्यु की दर में भी तेज गिरावट पर भी राज्य को गर्व है, जिसके साथ टीकाकरण एवं अन्य हस्तक्षेपों में उच्च प्रतिशत शामिल है। इसी के साथ-साथ स्वास्थ्य शिक्षण के क्षेत्र में बुनियादी ढाँचे को भी विकसित किया गया था।

विद्युत् उत्पादन एवं वितरण 

राज्य के गठन के करीब 10 वर्षों की छोटी अवधि में ही हिमाचल प्रदेश में करीब-करीब 100% विद्युतीकरण का काम संपन्न हो चुका था। कहने में यह जितना आसान है, क्रियान्वयन में उतना ही दुरूह है। क्योंकि मैदानी इलाकों के विपरीत हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्यों में जनसंख्या घनत्व बेहद कम है और कई बार तो एक घर के लिए जो कि पहाड़ी की चोटी पर स्थित है, के लिए उतने ही बुनियादी ढाँचे की जरूरत पड़ती है जितना करीब सौ घरों के लिए पर्याप्त होगा। बिजली उत्पादन के मामले में भी राज्य जल विद्युत उपयोग में और ट्रांसमिशन लाइन के निर्माण कार्य में सक्षम साबित हुआ है।

रोजगार सृजन के क्षेत्र में 

इस विशाल सामाजिक बुनियादी ढाँचे को विकसित करने के काम को सुनिश्चित करने के लिए मानव संसाधन सबसे अहम तत्वों में एक था। उदहारण के लिए राज्य बिजली विभाग में 80 के दशक के दौरान 50,000 से अधिक की संख्या में श्रमिक एवं कर्मचारियों को रोजगार मुहैय्या कराया गया था। इसी प्रकार से शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य सामाजिक बुनियादी ढाँचे के क्षेत्रों में वृहद पैमाने पर रोजगार सृजित किया गया था।

लेकिन सवाल यह है कि आखिर इसे कैसे हासिल किया जा सका था? सरकार के अपने खुद के पास आवश्यक व्यापक संसाधनों का अभाव बना हुआ था, तो आखिरकार इन सबको कैसे वित्तपोषित किया जा सका था? यह सब केंद्र की मदद से किया जा सका था। केंद्र ने राज्य को एक विशेष श्रेणी के तहत रखा था और पर्याप्त मात्रा में धन आवंटित किया था। ऐसे में राजकोषीय घाटा निश्चित तौर पर होता होगा, लेकिन केंद्र से मिलने वाले उदार मदद के जरिये इसे कम करने में राज्य सक्षम था।

90 के दशक के बाद की अवधि के दौरान 

हालांकि, 1990 के दशक के बाद, या कहें कि 1990 के उत्तरार्ध के दौरान से ही इस प्रकार की व्यवस्था को तिलांजलि देनी पड़ी, और केंद्र की राजकोषीय नीतियों में बदलाव के कारण, अब ऐसा कर पाना संभव नहीं रह गया था। अब विकास की इस नई राह को “मजबूत राजकोषीय अनुशासन” के नाम से जाना जाने लगा था। इसका आशय था कि राज्यों को अपने खुद के संसाधनों को विकसित करना होगा और राज्य का राजकोषीय घाटा उनके एसजीडीपी के 3.5% से अधिक नहीं होना चाहिए। ऐसे में हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य के लिए इसका क्या आशय हो सकता था जो केंद्र पर काफी हद तक निर्भर था? 

राज्य के पास एफआरबीएम (राजकोषीय उत्तरदायित्व बजटीय प्रबंधन अधिनियम) को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था, जिसने राज्य सरकार की प्रदर्शन करने की क्षमता का गला घोंट डाला और इसकी खर्च करने की क्षमता को सीमित कर के रख दिया था। राज्य सरकारों को अब इस ढांचे के भीतर ही खुद को बनाये रखना था और उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि उनके खर्च में निर्धारित प्रतिशत से अधिक की वृद्धि न हो जाये।

इसने सरकार की कार्यकुशलता को अच्छा-ख़ासा प्रभावित कर के रख दिया था, जिसके चलते उन्हें एक नए तरीके को अपनाना पड़ा है। राज्य सरकारों ने अपने वार्षिक बजट में गैर-योजनागत खर्चों पर कटौती करनी शुरू कर दी थी। लेकिन भला वे ऐसा कैसे कर सकते थे? कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्ववाली तत्कालीन सरकारों ने लगभग सभी विभागों में रिक्त पदों की भरे जाने पर रोक लगा दी और भारी संख्या में कार्यशील पदों को ‘अधिशेष’ घोषित कर दिया गया। 90 के दशक के अंत में तो एक ही झटके में शिक्षा विभाग के 30,000 से अधिक पदों को समाप्त कर दिया गया था। इसी प्रकार सभी विभागों को लक्षित किया गया और इन विभागों में सुनियोजित तरीके से कटाई-छंटाई का काम संपन्न किया गया।

राज्य बिजली बोर्ड के उदाहरण को ही ले लें। 80 के दशक के अंत में जब बिजली बोर्ड के पास मात्र छह लाख उपभोक्ता थे, तो उस दौरान विभाग में तक़रीबन 45,000 कर्मचारियों की संख्या मौजूद थी। अब 2019 में जब 22 लाख की संख्या में उपभोक्ता मौजूद हैं तो कर्मचारियों की संख्या घटकर करीब 13,000 ही रह गई है। तकरीबन सभी सरकारी विभागों की यही कहानी है।

भयानक निजीकरण को बढ़ावा 

इस चुनौती से निपटने के लिए एक दूसरा तरीका यह अपनाया गया कि सरकारी कामकाज में उपयोगिताओं का अधिकाधिक निजीकरण किया जाने लगा। स्वास्थ्य क्षेत्र इसका एक प्रमुख उदाहरण है। अस्पतालों को आंशिक तौर पर निजीकृत करते हुए, ग्रुप III एवं IV के कर्मचारियों की विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से आउटसौर्सिंग की जा रही है, जिसमें नौकरी की अब कोई गारंटी नहीं है। सभी अस्पतालों में रोगी कल्याण समिति (आरकेएस) को गठित किया गया है, जो डाक्टरों और अन्य स्टाफ के सदस्यों को नियुक्त करते हैं। तकरीबन सभी विभागों में आउटसोर्सिंग अब एक आम बात हो चुकी है। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए एक अन्य तरीका, ठेके पर रोजगार मुहैय्या कराना बन गया है। परिवहन विभाग ठेके पर ड्राइवरों और परिचालकों को काम पर रखता है, और उन्हें मात्र 8,000 रूपये प्रति माह के हिसाब से भुगतान करता है; जबकि उनके नियमित समकक्षों को इसी काम के लिए 60,000 रूपये मिलते हैं। 

सेवाओं के निजीकरण के ऐसे असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं जो कि पूर्व में सरकार द्वारा सीधे तौर पर संचालित किये जाते थे। मानव संसाधन में कमी, आउटसोर्सिंग और निजीकरण के कारण सेवाओं की गुणवत्ता पर भी काफी बुरा असर देखने को मिला है। उदहारण के लिए जब बर्फ़बारी पड़ती है और तारों के टूटने से बिजली की आपूर्ति बाधित हो जाती है, तो विद्युत आपूर्ति को फिर से बहाल करने में कई हफ़्तों तक का समय लग जाता है। इसी वजह ही यह है कि मानव संसाधन अब बेहद सीमित हैं।  

‘हिमाचली’ होने का विचार ही कहीं न कहीं भूमि अधिकारों के साथ जुड़ा हुआ है। मुझे याद है जब उत्तराखंड राज्य को निर्मित किया जा रहा था तो वहां पर सबसे बड़ी चुनौती भूमि कानूनों में बदलाव को लेकर आ रही थी, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जमीनें उत्तराखंडियों के हाथ में ही बनी रहे और कहीं भू-माफियाओं के हाथ में न चली जाएँ। हालाँकि भाजपा ने इसे हिमाचल में शुरू कर दिया है और यहाँ तक कि कांग्रेस ने भी धारा 118 के भूमि सुधारों और काश्तकार अधिनियम के प्रभाव को कमजोर करने की इजाजत दे दी है, जिससे कि भू-माफिया हिमाचल में भी घुसपैठ कर सकते हैं और छोटे एवं सीमान्त किसानों को लूट सकते हैं।

राजनीतिक प्रभाव 

इसके साथ रोचक पहलू यह है कि इस सबसे राज्य में एक मजबूत राजनीतिक प्रभाव भी देखने को मिला है। राजनीतिक तौर पर कहें तो 1990 के दशक के बाद से ही जबसे प्रतिमान को राज्यों के उपर थोप दिया गया था, तब से ही भाजपा या कांग्रेस में से कोई भी दल लगातार दो बार चुनावों में जीत दर्ज कर पाने में असफल रहे हैं। यहाँ पर या तो कांग्रेस या भाजपा ने बारी-बारी से अपनी सरकारें बनाई हैं। इसका प्राथमिक कारण, हस्तक्षेप की निरंतर अवधि के साथ लोगों के बीच में एक राजनीतिक चेतना का विकास रहा है।  

हिमाचल प्रदेश को रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि के लिए सबसे बड़े और प्रमुख स्रोत के रूप में माना जाता रहा है। इसके साथ ही यह उम्मीद भी की जाती है कि जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनके कन्धों पर ही आबादी की समस्याओं को कर करने की जिम्मेदारी भी है। इस बीच पिछले कई वर्षों से जो सबसे बड़ी समस्या या चुनौती उभर कर सामने आई है, वह है बेरोजगारी से निपटने की। “इसे राज्य के द्वारा निपटाया जाना चाहिए” लोगों के बीच में यह मजबूत चेतना अभी भी बनी हुई है। और चूँकि राज्य सरकार के पास अब वह क्षमता नहीं रही कि वह इस चुनौती से निपट सके, इसलिए लोग अन्य विकल्पों को तलाशते हैं और इस प्रकार भाजपा से कांग्रेस के बीच में झूलते रहते हैं।

हिमाचल विरोधी भाजपा?

जिस बिंदु से मैंने शुरूआत की थी, वह यह है कि भाजपा जो हिमाचल प्रदेश के गठन के विचार मात्र के खिलाफ थी, वह शिमला में 50 सालों के जश्न का नेतृत्त्व करने जा रही है। मैं इसे एक बार फिर से सामने लाता हूँ। क्यों? क्योंकि इसकी वजह 60 के दशक के अंत और 70 के दशक की शुरुआत में भाजपा की पूर्ववर्ती जन संघ के चलते है। उस दौरान जब राज्य का दर्जा मिलने को था, तब जनसंघ ने राज्य के आसन्न होने पर इसके खिलाफ एक समानांतर आंदोलन चलाने का काम किया था। उन्होंने उस दौरान “स्टेटहुड, मारो थूड वेरी गुड” (राज्य के दर्जे को लात मारो) और “जाना भाई जाना आसान पंजाब वापिस जाना” (हमें पंजाब में खुद को समाहित कर लेना चाहिए) जैसे नारों को ईजाद किया था। वहीँ कांग्रेस के लिए जो आज एक ऐसी पार्टी के तौर पर तब्दील हो चुकी है जो कि अपने 70 के दशक से पूरी तरह से कायांतरित हो चुकी है, के बारे में आज कोई भी यह कहने से नहीं चूकेगा कि कम से कम यह पार्टी तो राज्य का दर्जा दिए जाने के खिलाफ नहीं रही होगी। याद करें कि परमार ने जब अपने मुख्यमंत्री के कार्यालय को छोड़ा था, तो उन्होंने राज्य परिवहन की बस पकड़ी थी और एक छोटे से सूटकेस के साथ वे अपने गाँव को लौट गए थे। ऐसे नेताओं के युग का अब अंत हो चुका है। यह एक ऐसी परिकल्पना और भावना थी जिसमें राज्य को आम लोगों की दृढ़ आकांक्षाओं और भावनाओं के बल पर एक आकार दिया गया था, जिसे परमार ने अपने भाषणों में संदर्भित किया था। लेकिन अब तो न तो कोई आकांक्षा और न ही कोई भावना बची रह पाई है, जिसके आधार पर “हिमाचल” को निर्मित किया गया था। 

लेखक शिमला के पूर्व उप महापौर रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

50 Years of Statehood of Himachal Pradesh: A Look at Achievements and Challenges

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