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“इस समय एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को धार्मिक बहुसंख्यकवाद से ख़तरा है”

इस उपमहाद्वीप में उन अलग-अलग रूपों में असहमति का एक लंबा इतिहास रहा है, जो कि सदियों से विकसित या परिवर्तित होती रही हैं, इसी विषय पर एक निबंध।
रोमिला थापर

हम ऐसे समय में रह रहे हैं, जब भारत में किसी भी प्रकार की असहमति को भारत विरोधी रवैया क़रार दिया जाता है, इसके पीछे का तर्क यह होता है कि असहमति की यह अवधारणा दरअस्ल पश्चिम से भारत लायी गयी है। यह तर्क उन लोगों की तरफ़ से दिया जाता है, जो असहमति को एक बेकार की बात मनते हुए भारत के अतीत को दोषरहित होने की परिकल्पना करते हैं। लेकिन, रोमिला थापर ने वॉयस ऑफ़ डिसेंट: एन एसे में इस बात को सामने रखा है कि इस उपमहाद्वीप में उन अलग-अलग रूपों में असहमति का एक लंबा इतिहास रहा है,जो कि सदियों से विकसित या परिवर्तित होती रही हैं।

रोमिला थापर के साथ हमारी इस बातचीत के भाग दो में वह किसी लोकतंत्र में अदालतों और विश्वविद्यालयों जैसे संस्थानों की भूमिका, शाहीन बाग़ आंदोलन, और बहुत सारे मामलों के बारे में बातें करती हैं।

सलीम यूसुफ़जी: आप अपनी किताब को शाहीन बाग़ जाने और वहां महिला प्रदर्शनकारियों के साथ बैठने के साथ ख़त्म करती हैं। आप कहती हैं कि यह स्वतंत्रता आंदोलन के भाव को पुनर्जीवित करता है। लेकिन,यह तो उस दौर से बहुत फ़ासले पर था। क्या आप उन तरीक़ों के बारे में बात करेंगी, जिनमें आपको शाहीन बाग़ से ज़ाहिर हुआ हो कि स्वतंत्रता के बाद आख़िर क्या-क्या हुआ है ?

रोमिला थापर: हां, इसने 1940 के दशक के औपनिवेशिक विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े जनसमूह की यादें ताज़ा कर दीं। मैं यह नहीं कह रही कि यह कोई दोहराव था, क्योंकि दोनों के दौर और संदर्भ के बीच एक बड़ा फ़ासला है। लेकिन, एक ऐसा माहौल तो था ही,जो इसे लेकर एक जाना-पहचाना सा एहसास था और जिसने पहले के दौर की याद दिला दी। उपनिवेशवाद विरोधी जनांदोलनों की पहुंच महिलाओं तक भी हो गयी थी, और 1940 में तो उनकी भागीदारी ज़्यादा देखी जा रही थी। वे गांधी द्वारा बुलायी गयी प्रार्थना सभाओं और अन्य राजनीतिक सभाओं में आती थीं। महिलाओं ने पहले भी इस तरह की सभाओं में भाग लिया था,लेकिन चालीस के दशक के शुरुआती सालों में तो इस भागीदारी के हाव-भाव ही कुछ अलग थे। शायद यह सहज अनुभूति थी कि यह आंदोलन अपने निर्णायक क्षण,यानी आज़ादी पाने और भारत के स्वतंत्र राष्ट्र बनने की बात तक पहुंच रहा था। महिलाओं की भागीदारी प्रभावशाली थी, हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि ये महिलायें बड़ी संख्या में बहला-फुसलाकर लायी जाती थीं। यह बात मानी जाती रही कि महिलाओं को शराब की दुकानों के घेराव करने और खादी पहनने से ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत थी। उस भागीदारी का मतलब था बैठकों में भाग लेना और विरोध में अपनी आवाज़ मिलाना।

इसका मतलब उन दूसरी बातों का धरातल पर होना भी था,जो उस वक़्त की फिज़ाओं में बहुत ज़्यादा तैर रही थीं। ये ख़ासियत शाहीन बाग़ आंदोलन में भी परिलक्षित हुईं। इसकी शुरुआत तो पूरी तरह से एक ऐसे अहिंसक विरोध के तौर पर थी, जिसमें भाग लेने वाली महिलायें इस आंदोलन की मंशा को पूरी तरह समझने के साथ शामिल हुई थीं। चूंकि वे बतौर भारतीय नागरिक अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर जागरूक थीं, इसलिए उन्हें अपनी नागरिकता के खो जाने का डर था। सभाओं में संविधान की प्रस्तावना को बार-बार पढ़ना एक धर्मनिरपेक्ष प्रकार की नागरिकता पर ज़ोर देने का ही तो प्रतीक था। यह उसी तरह की नागरिकता की याद दिला रहा था,जिसे लेकर उस समय के कुछ राष्ट्रीय नेता अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे। महिलाओं को राजनीतिक कार्रवाई को लेकर पर्दे से बाहर आने और भागीदारी करने का आह्वान सही मायने में पितृसत्ता के साथ सीधा टकराव का मामला था। पितृसत्ता के लिए यह ज़रूरी होता है कि महिलायें घर में क़ैद रहें और सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं ले।

महिलाओं को राजनीतिक कार्रवाई को लेकर पर्दे से बाहर आने और भागीदारी करने का आह्वान सही मायने में पितृसत्ता के साथ सीधा टकराव का मामला था।

इसी तरह, महिलाओं द्वारा जो रुख़ अपनाया गया था,वह सांप्रदायिक राजनीति से एकदम अलग था। फ़ौरी चिंता यही हो सकती है कि जिन लोगों की नागरिकता पर सवाल उठाये जा रहे थे, उनमें ज़्यादातर मुसलमान थे।

प्रदर्शनकारी अपनी नागरिकता के सिलसिले में नये क़ानूनों के निहितार्थ पर चर्चा करने को लेकर बातचीत की मांग कर रहे थे। पहली नज़र में तो यह मांग उन अल्पसंख्यकों के ही होने की संभावना थी, जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे, लेकिन जैसा कि पता चलता है कि बहुसंख्यक समुदाय के कई लोगों के पास भी ज़रूरी दस्तावेज़ नहीं हैं। यह न सिर्फ़ सामुदायिक पहचान, बल्कि भारतीय नागरिकता को साबित करने की ज़रूरी भारतीय पहचान की समस्या का मामला भी है।

मुझे शायद इस बात का भी ज़िक़्र करना चाहिए कि हममें से जिन लोगों के पास ब्रिटिश राज की यादें और औपनिवेशिक-विरोधी आंदोलन की स्मृति हैं, उन्हें उस दौर के तत्वों में से कुछ तत्व मौजूदा दौर की कुछ घटनाओं में भी मिल जायेंगे। समाज के कामकाज में एक ग़ैर-ज़रूरी हस्तक्षेप और धर्मनिरपेक्षता को कमज़ोर करने वाले तौर तरीक़ों पर आपत्ति जताते हुए विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने वाले धार्मिक कोड को लेकर चलने वाली बहस एक ऐसी हालत को सामने रखती है, जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन वाला मंज़र दिखायी देता है, हालांकि उस हद तक तो नहीं, लेकिन कुछ-कुछ तो वैसा ही दिखता है।

जब उपनिवेशवाद और लोगों का विरोध, दोनों सतह पर हों, तो ज़ाहिर सी बात है कि 1947 के पहले वाला मंज़र की यादें वापस आ ही जाती हैं।

दिलचस्प बात है कि समाज पर धार्मिक नियंत्रणों को आगे बढ़ाने के इन प्रयासों को स्वदेशी तरीक़े की सोच और कार्रवाई की वापसी तौर पर दिखाया-बताया जाता है,वास्तव में इसकी जड़ें उन्हीं औपनिवेशिक सिद्धांतों और उनकी व्याख्याओं में निहित हैं,जिन्हें औपनिवेशिक शासन ने स्थापित किये थे। मसलन, अंग्रेज़ों पर दबाव बनाकर भारतीय मध्यम वर्ग के कुछ लोगों की ज़िद ने दो-राष्ट्र के सिद्धांत का निर्माण किया था। इस औपनिवेशिक सिद्धांत की जिन ग़लतियों को मेरी पीढ़ी ने उजागर करने की कोशिश की थी,वे सिद्धांत उन्हीं रूपों में लौट रही हैं,जिन्हें उन लोगों का संरक्षण मिल रहा है,जो सत्ता में बैठे हुए हैं। ये सिद्धांत उन पेशेवर इतिहासकारों को नामंज़ूर हैं,जिनकी अतीत की व्याख्यायें तर्कपूर्ण सोच और तार्किक जुड़ाव पर आधारित हैं। औपनिवेशिक कार्रवाइयों की यादें तब ताज़ा हो जाती है,जब सत्ता से अलग दिखने वाले विचारों को जारी औपनिवेशिक क़ानूनों का उपयोग करते हुए दंडनीय बना दिया जाता है। मसलन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिलसिले में राजद्रोह का क़ानून। जब उपनिवेशवाद और लोगों का विरोध, दोनों सतह पर हों, तो ज़ाहिर सी बात है कि 1947 के पहले वाला मंज़र की यादें वापस आ ही जाती हैं।

सलीम यूसुफ़जी: अदालत और विश्वविद्यालय लोकतंत्र पर हो रहे हमलों को रोक पाने वाली कोई दीवार साबित नहीं हो पाये हैं। जिस तरह बहुत सोच विचारकर संस्थानों का निर्माण एक आदर्श स्वरूप में किया गया और जिनमें देश भर के कुछ बेहद उच्च प्रशिक्षित लोगों को इसमें लगाया गया, उनकी नाकामी स्वतंत्रता के बाद के मूल्यों और प्राथमिकताओं को लेकर बुरी तरह प्रतिबिंबित होती है। क्या आप इस बात से सहमत हैं ?

रोमिला थापर: ये ठीक है कि अदालत और विश्वविद्यालय लोकतंत्र पर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़ एक दीवार नहीं बन पाये हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह बात स्वतंत्रता के बाद के मूल्यों और प्राथमिकताओं को लेकर बुरी तरह से प्रतिबिंबित होती है। दरअस्ल, यह उन लोगों को प्रतिबिंबित करता है, जिनसे अदालतें, विश्वविद्यालय और इसी तरह के संस्थान बने होते हैं। यह जनता को समझाने में हमारी इस असमर्थता को दर्शाता है कि ये संस्थायें समाज के कामकाज के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। हमने इन संस्थाओं का निर्माण बिना मज़बूत बुनियाद के किया था। इसकी जड़ें समुचित रूप से गहरी हैं कि नहीं, हम शायद इस बात को सुनिश्चित करने के बजाय इसी बात से संतुष्ट थे कि हमारे पास ये संस्थान हैं। एक ऐसे बेशुमार कारक गिनाये जा सकते हैं, जिन्होंने समाज को आगे ले जाने वाले नज़रिये को चेतनाशून्य कर दिया है। मैं उनमें से महज़ एक पहलू का यहां ज़िक़्र करूंगी,जिनको लेकर मुझे लगता है कि ये अहम थे और आज भी अहम हैं।

एक उपनिवेश से स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य तक के सफ़र में जो बदलाव आया है, वह एक मूलभूत ऐतिहासिक बदलाव है। इस बदलाव में न सिर्फ़ एक राष्ट्र का निर्माण,और इन बदलावों को मूर्त रूप देने को लेकर उस संविधान का लेखन शामिल है, जिन दोनों को हमने कर दिखाया है, बल्कि पुराने ढांचों की जगह नये ढांचे की योजना भी बनाते रहे हैं, कम से कम उस नये उत्तर औपनिवेशिक समाज के लिए तो वे ढांचे बेमानी ही थे, जिसकी परिकल्पना की गयी थी। मगर आख़िरकार हम ऐसा नहीं कर पाये। जहां हमें नये विचारों और संस्थानों के साथ काम करना चाहिए था, वहां हम अपनी ज़रूरतों के लिए औपनिवेशिक चरित्र वाले संस्थानों के साथ ही सामंजस्य बिठाते रहे। इनमें से कुछ को लेकर शुरुआती दो दशकों में तो कोशिशें की गयीं,लेकिन इस तरह की कोशिशें कमज़ोर होती गयीं। यह कारक उन दूसरे पूर्व उपनिवेशों में भी एक महत्वपूर्ण कारक रहे हैं,जो बाद में स्वतंत्र राष्ट्र बन गये।

इस समय एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की स्थापना करने वाले राज्य-नागरिक रिश्तों की संभावना को धार्मिक बहुसंख्यकवाद से ख़तरा है।

बुनियादी बदलाव तो यही है कि इसमें न सिर्फ़ उस राष्ट्र-राज्य के वजूद को सामने होना चाहिए था,जो राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि उसी तरह यह भी अहम है,या फिर संभवतः कहीं ज़्यादा अहम है कि वह दूसरा घटक भी महत्वपूर्ण होना चाहिए,जो किसी भी नागरिक की आज़ादी से जुड़े हैं। जो लोग पहले सत्ता के अधीन थे, वे अब उन अधिकारों से संपन्न स्वतंत्र नागरिक बनने वाले थे, जो उनके हितों को सुनिश्चित करते हैं। इन अधिकारों की गारंटी राज्य द्वारा दी जाती है, जिसके बदले में नागरिकों के कुछ दायित्व होते हैं। जब मैं अधिकारों की बात करती हूं, तो मेरा मतलब भोजन, पानी, स्वास्थ्य और शैक्षिक सुविधाओं जैसी मानवीय ज़रूरत से लेकर समाज के कामकाज में सभी नागरिकों की समानता और इसलिए सामाजिक न्याय की पुष्टि करने तक का संपूर्ण विस्तार है। हमने इस देश की स्थापना की परिकल्पना धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में की थी, लेकिन हमने इन दोनों ही विशिष्टताओं को धीरे-धीरे कमज़ोर होने दिया है। वैश्वीकरण को लेकर बहुत ही सरल रास्ता अपनाया गया। समझ-बूझ रखने वालों में से कुछ लोगों ने इन आर्थिक वादों के ख़िलाफ़ चेतावनी दी थी, लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया गया। इस समय एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की स्थापना करने वाले राज्य-नागरिक रिश्तों की संभावना को धार्मिक बहुसंख्यकवाद से ख़तरा है।

सलीम यूसुफ़जी: अगर आपने हमारे पाठकों के सामने इस मज़मून के प्राथमिक स्रोतों की एक ऐसी छोटी सूची पेश कर दें, जो कि इतिहास के लोकप्रिय सरलीकरण को रोकती है, तो क्या इसका कुछ असर होगा ?

रोमिला थापर: मुझे लगता है कि प्राथमिक स्रोतों से आपका मतलब वह नहीं है,जो कि हम इतिहासकार समझते हैं। यह जानने की ज़रूरत होगी कि आपके पाठक किस तरह की ज़बान के साथ सहज हैं। उसे बताना कहीं ज़्यादा आसान होगा, जिसे हम द्वितीयक स्रोत कहते हैं, दरअस्ल यह वह लेखन है, जो सबूतों, उनकी व्याख्या और उनके विश्लेषण के आधार पर चलता है और निष्कर्ष निकालता है। लेकिन, इसकी एक लंबी सूची होगी। मेरी किताब में निबंध के प्रत्येक खंड को लेकर इस तरह के वाचन का संयोजन किया गया है। इसलिए, मैं आपके पाठक को इसके साथ शुरुआत करने का सुझाव दे सकती हूं।

साभार: इंडियन कल्चरल फ़ोरम

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

“A Secular Democracy is now Threatened by Religious Majoritarianism”

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