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क्या सरकार वाकई बेटियों को बचाना और पढ़ाना चाहती है!

एक रिपोर्ट के मुताबिक बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का लगभग 80 फीसदी फंड सरकार ने इसके प्रचार-प्रसार पर खर्च किए हैं। यानी बेटियों के शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के पैसे प्रचार और विज्ञापनों में बहा दिए गए।
Beti Bachao, Beti Padhao

“ओ माताओं, बहनों, बेटियों- दुनिया की जन्नत तुमसे है, क़ौमों की इज़्ज़त तुमसे है।”

हरियाणा के पानीपत से 2015 में 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' कैंपेन की शुरुआत करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुविख्यात उर्दू शायर अल्ताफ़ हुसैन हाली को उद्धत करते हुए ये पंक्तियां कहीं थी। उन्होंने देश की बेटियों को अपना सम्मान और गुरूर बताते हुए उनके विकास के कई वादे और दावे किए थे। हालांकि अब लगभग 6 साल का समय बीतने के बाद भी देश में बेटियों की कोई खास तस्वीर नहीं बदली, कम से कम इस योजना के तहत तो बिल्कुल भी नहीं।

देशभर में शुरू हुए 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' अभियान की जमीनी हकीकत तो महिलाओं के खिलाफ अपराध की खबरें और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आकड़ें आए दिन दिखाते ही रहते हैं। लेकिन अब इस योजना के पीछे सरकारी नीयत की सच्चाई भी सामने आ गई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का लगभग 80 फीसदी फंड सरकार ने इसके प्रचार-प्रसार पर खर्च किए हैं। यानी आसान भाषा में समझें तो बेटियों के शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के पैसे प्रचार में बहा दिए गए। इस खबर के बाहर आने के बाद लोग सोशल मीडिया पर सरकार से सवाल से सवाल कर रहे हैं कि आख़िर बेटियों के हक़ के पैसे विज्ञापनों पर क्यों लुटा दिए गए?

बता दें कि बीजेपी सांसद हीना विजयकुमार गावित की अध्यक्षता में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के विशेष संदर्भ के साथ शिक्षा के जरिये महिला सशक्तिकरण के शीर्षक के तहत इस रिपोर्ट को गुरुवार, 9 दिसंबर को लोकसभा में पेश किया गया। इसमें कहा गया है कि, ‘समिति के लिए निधि की केवल 25.15 प्रतिशत राशि अर्थात 156.46 करोड़ रुपये खर्च किया जाना अत्यधिक आश्चर्य एवं दुख का कारण है।’

क्या है इस रिपोर्ट में?

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक महिला सशक्तिकरण पर संसदीय समिति की लोकसभा में पेश रिपोर्ट के अनुसार, 2016-2019 के दौरान योजना के तहत जारी कुल 446.72 करोड़ रुपये में से 78.91 फीसदी धनराशि सिर्फ मीडिया के ज़रिये प्रचार में ख़र्च की गई। समिति ने कहा कि सरकार को लड़कियों के स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र में भी निवेश करना चाहिए।

रिपोर्ट के अनुसार, ‘समिति को यह देखकर अत्यधिक निराशा हुई है कि किसी भी राज्य ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ निधियों को प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सराहनीय प्रदर्शन नहीं किया है जबकि चंडीगढ़ एवं त्रिपुरा का खर्च शून्य प्रदर्शित किया जा रहा है। बिहार ने आवंटित राशि का महज 5.58 प्रतिशत ही उपयोग किया।’

संसदीय समिति ने योजना के 2014-15 में शुरुआत के बाद से कोविड प्रभावित वर्ष को छोड़कर अब तक आवंटित राशि का राज्यों द्वारा केवल 25.15 प्रतिशत खर्च करने को ‘दुखद’ बताया है और कहा है कि यह उनके खराब ‘कार्य निष्पादन’ को प्रदर्शित करता है।

शिक्षा, स्वास्थ्य पर खर्च राशि की कोई सूचना नहीं

समिति ने इस बात पर हैरत जताई है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य कार्यो के संबंध में राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा किए गए खर्च के बारे में अलग-अलग सूचना नहीं है। इसमें कहा गया है कि समिति का कहना है कि ऐसे आंकड़ों के अभाव में राज्यों द्वारा राशि के उपयोगिता की सार्थक रूप से निगरानी कैसे की जा सकेगी। ऐसे में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय केंद्रीय निधि की कम उपयोगिता संबंधी ममला राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के समक्ष उठाए और इस योजना की निधि की उचित उपयोगिता सुनिश्चित करे।

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना की शुरुआत गर्भपात और गिरते बाल लिंग अनुपात से निपटने के उद्देश्य से की थी। इस योजना को देशभर के 405 जिलों में लागू किया जा रहा है। समिति ने बताया, 2014-2015 में योजना के शुरू होने के बाद से 2019-2020 तक इस योजना के तहत कुल बजटीय आवंटन 848 करोड़ रुपये था। इस दौरान राज्यों को 622.48 करोड़ रुपये की धनराशि जारी की गई लेकिन इनमें से सिर्फ 25.13 फीसदी धनराशि (156.46 करोड़ रुपये) ही राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा खर्च की गई।

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर योजना के क्रियान्वयन के दिशानिर्देशों के मुताबिक, इस योजना के दो प्रमुख घटक हैं, जिसमें मीडिया प्रचार है, जिसके तहत हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में रेडियो स्पॉट या जिंगल, टेलीविजन प्रचार, आउटडोर और प्रिंट मीडिया, मोबाइल एग्जिबिशन वैन के जरिये सामुदायिक जुड़ाव, एसएमएस कैंपेन, ब्रोशर आदि और बाल लैंगिक अनुपात में खराब प्रदर्शन कर रहे जिलों में बहुक्षेत्रीय हस्तक्षेप करना शामिल है।

लिंग जांच के मामलों में सुनवाई और फिर सज़ा में देरी

समिति ने गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक लिंग चयन निषेध अधिनियम (पीसी एंड पीएनडीटी) के तहत पिछले 25 वर्ष के दौरान दर्ज मामलों में दोषसिद्धि में देरी पर चिंता व्यक्त करते हुए सिफारिश की कि मामलों की सुनवाई में तेजी लाई जाए और निर्णय लेने में छह महीने से अधिक समय नहीं लगना चाहिए।

समिति ने कहा, ‘‘ अब उचित समय आ गया है जब हमें योजना के तहत निर्धारित शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े नतीजों को हासिल करने के लिए प्रचुर वित्तीय उपबंध करने पर ध्यान देना होगा। योजना के खराब प्रदर्शन के कारण कम बजट का उपयोग हुआ है।”

रिपोर्ट के आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि पोषण अभियान के लिए केंद्रीय निधि के रूप में जारी किए गए 5,31,279.08 लाख रुपये में से केवल 2,98,555.92 लाख रुपये का उपयोग किया गया था। यह योजना केंद्र सरकार द्वारा वहन किए जाने वाले बड़े हिस्से के साथ 60:40 के लागत-साझाकरण अनुपात पर चलती है। विज्ञापनों के बजाय बीबीबीपी के तहत शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता पर बल देते हुए, पैनल ने राज्य और केंद्र स्तर पर धन के उचित उपयोग की नियमित समीक्षा की सिफारिश की है।

दिल्ली महिला आयोग ने जताई नाराज़गी

इस रिपोर्ट के सामने आते ही दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने ट्वीट कर केंद्र सरकार पर निशाना साधा है। मालीवाल ने अपने ट्वीट में लिखा, "न सिर्फ़ केंद्र सरकार ने महिला और बाल विकास मंत्रालय का बजट 2020 में काटा बल्कि ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसी महत्वपूर्ण स्कीम के 79% फंड सिर्फ़ पब्लिसिटी पे खर्च कर दिए। निर्भया फंड भी ठीक से इस्तेमाल नहीं हुआ। साफ़ पता चलता है की केंद्र के लिए महिलाएँ और बच्चियाँ कितनी अहम हैं!”

मालूम हो कि केंद्र सरकार ने महिला शक्ति केंद्रों पर कोविड महामारी के दौरान पिछले तीन सालों में सबसे कम खर्च किया है। साल 2020-21 के लिए 100 करोड़ रुपये खर्च किये गए, जबकि इसे पहले के सालों में 150 और 267 करोड़ रुपये खर्च किये गए थे।

विपक्ष ने भी सरकार को घेरा

कांग्रेस नेता और वायनाड से सांसद साहुल गांंधी ने भी इस मामले में सरकार को घेरा है। राहुल ने अपने ट्वीट में लिखा, “भाजपा का असली नारा- छवि बचाओ, फ़ोटो छपाओ!”

महिला कांग्रेस के ट्विटर हैंडल से लिखा गया, "बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान का 79 प्रतिशत फंड विज्ञापनों पर इस्तेमाल कर दिया गया। मोदी सरकार महिलाओं के सुरक्षा की कोई परवाह नहीं करती। ये सिर्फ सेल्फ प्रमोशन की परवाह करती है!"

वहीं ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस ने ट्वीट किया कि 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' फंड का लगभग 79 प्रतिशत मीडिया की हिमायत पर खर्च कर देना और लाभार्थियों के कल्याण की उपेक्षा करना इस योजना के लिए आवंटित राशी का घोर दुरूपयोग है। बीजेपी की अनदेखी और संवेदनहीनता भयावह है!

महिला सशक्तिकरण के वादे और इरादे

वैसे महिलाओं की सुरक्षा के बड़े-बड़े वादे और दावे करनी वाली सरकारें वास्तव में महिलाओं के लिए कुछ खास नहीं करती नज़र नहीं आती। 2012 के दिल्ली बस गैंगरेप की घटना के बाद कानून तो सख्त हो गए लेकिन आए दिन महिलाओं के साथ हो रही हिंसा की क्रूर घटनाओं को कम नहीं कर पाए। यौन हिंसा की पीड़ित महिलाओं को समाज में अब भी भेदभाव और लांछन का सामना करना पड़ता है।

ह्यूमन राइट्स वाच की रिपोर्ट के मुताबिक लड़कियों और महिलाओं को अब भी पुलिस स्टेशन और अस्पतालों में अपमान सहना पड़ता है। इसके अलावा उन्हें न तो अच्छी मेडिकल सुविधा मिलती है और न ही उम्दा कानूनी सहायता।

2018 में प्रकाशित एक शोध पत्र के मुताबिक ऐसे मामलों में सजा की दर बेहद कम है। इस रिसर्च पेपर में कहा गया है कि भारत में बीते एक दशक में बलात्कार के जितने भी मामले दर्ज हुए हैं उनमें केवल 12 से 20 फ़ीसदी मामलों में सुनवाई पूरी हो पायी। इस दर में मौजूदा बीजेपी नेतृत्व वाली सरकार और पूर्ववर्ती यूपीए सरकार में कोई ख़ास अंतर नहीं दिखा है। जाहिर है महिला सशक्तिकरण पर लंबे-चौड़े भाषण पढ़ने वाले नेता वाकई आधी आबादी की सुरक्षा की कोई खास परवाह नहीं करते, करते है को सिर्फ उनके वोटों की परवाह, इसलिए ठीक चुनावों से पहले कोई घरेलू स्कीम का लॉली-पॉप पकड़ा दिया जाता है, जो महिलाओं को आकर्षित कर वोट केंद्र तक पहुंचा दे। शायद यही हाल बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान का है। इसे एक अच्छी योजना तो कहा जा सकता है, लेकिन इसके पीछे की नीयत पर इस रिपोर्ट के बाद सवाल जरूर उठता है।

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