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आख़िर क्यों विरोध हो रहा है सेरोगेसी बिल का?

इस कानून के तहत विवाहित भारतीय जोड़ों के लिए सिर्फ 'नैतिक परोपकारी सेरोगेसी' की अनुमति होगी। इसका मतलब यह कि सेरोगेट मदर के मेडिकल खर्च और इंश्योरेंस कवर के अलावा यह बिना किसी खर्च के, बिना पैसे या फीस के होना चाहिए।
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Image courtesy:The Print

संसद में चल रहे शीतकालीन सत्र में 19 नवंबर को राज्यसभा के पटल पर केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने सेरोगेसी (रेगुलेशन) बिल 2019 पेश किया। यह बिल लोकसभा से पहले ही मानसून सत्र में पास हो चुका है। लेकिन राज्यसभा में बिल पेश होते ही इसका विरोध शुरू हो गया। खुद सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के सांसद सुरेश प्रभू इसकी मुख़ालफ़त में खड़े हो गए। हालांकि हंगामे के बाद बिल को 23 सदस्यों की सेलेक्ट कमिटी को भेज दिया गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर बिल में ऐसा क्या है जिसका विरोध हो रहा है।

क्या है सेरोगेसी रेगुलेशन बिल-2019?

इस बिल को समझने से पहले सेरोगेसी को समझना जरूरी है। सेरोगेसी को किराये की कोख भी कहा जाता है। इसका सीधा मतलब है कि कोई भी दंपति जो किन्हीं वजहों से बच्चा पैदा करने में असमर्थ है तो वह किसी और की कोख को किराये पर लेकर संतान का सुख पा सकता है। ऐसे में जो औरत अपनी कोख में दूसरों का बच्चा पालती, वो सेरोगेट मदर कहलाती है और वही इस बच्चे को जनती है।

सेरोगेसी की कहानी बहुत पहले से चली आ रही है। लेकिन इस पर पहली बार विवाद तब हुआ जब साल 2008 में सुप्रीम कोर्ट के पास बेबी मांजी यामादा वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया का केस सामने आया। इस केस ने पूरे देश में सेरोगेसी पर एक नई बहस छेड़ दी। जिसके बाद 2009 में लॉ कमीशन ऑफ इंडिया सामने आया और कमर्शियल सेरोगेसी को बंद करने की सलाह दी।

बेबी मांजी यामादा वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया का केस के बारे में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में वकील चरनजीत कौर ने न्यूज़क्लिक को बताया, 'इस केस में जापान से आए एक दंपति ने भारत में सेरोगेसी के तहत बच्चा पैदा करने के लिए एक भारतीय महिला की कोख किराये पर ली। लेकिन बच्चे के जन्म लेने से पहले ही दोनों जापानी दंपति में मतभेद हो गया। जिसके बाद बच्चे का पिता इकुफुमी यामादा बच्चे को अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन उस समय कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। जापान के कानून में भी इसे लेकर कुछ स्पष्ट नहीं था। इस तरह पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट तक चला गया और आखिर में कोर्ट ने बच्चे को दादी के साथ जापान जाने की मंजूरी दे दी।

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चरनजीत कौर आगे कहती हैं कि इस पूरे मामले ने लॉ कमीशन ऑफ इंडिया का ध्यान सेरोगेसी की ओर खींचा। कई रिपोर्ट्स आईं और कई बदलाव भी हुए सरोगेसी से जुड़े कानून में। फिर ये बात सामने आई कि भारत में कॉमर्शियल सेरोगेसीे का बाज़ार धड़ल्ले से चल रहा है। भारत में सस्ती कोख मिलने के कारण विदेशी लोगों की यह पहली पसंद बन गया है और गरीब औरतें को इसके जरिये पैसे मिलने लगे हैं। हालांकि इसका सेरोगेट मदर के स्वास्थ्य पर भी नाकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है। जिसके बाद 2015 में सरकार ने विदेशियों की सेरोगेसी पर रोक लगा दी और 2016 में सेरोगेसी बिल लाया गया। लेकिन कई खामियों के चलते ये सफल नहीं हुआ। अब इसमें कुछ संशोधनों के बाद सरकार इसे फिर लेकर आई है।

गौरतलब है कि पिछले लंबे समय से ऐसे आरोप सामने आ रहे थे कि लोग पैसे के दम पर आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं की कोख का दुरुपयोग कर रहे हैं। तो वहीं दूसरी ओर ये पैसा कमाने का जरिया बन गया है। राज्यसभा में बिल पेश करते हुए स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि हाल के अध्ययन में यह बात सामने आई है कि देशभर में 3000 अवैध क्लीनिक हैं और हर साल 2000 से ज्यादा विदेशी बच्चे पैदा हो रहे हैं। कॉमर्शियल सेरोगेसी पर प्रतिबंध लगाने के उद्देश्य से इस बिल में सेरोगेसी को लेकर नए नियम-कानून बनाए गए हैं। इन नियमों को लेकर ही विवाद पैदा हो गया है। हालांकि विरोध करने वालों का कहना है कि कॉमर्शियल सेरोगेसी रोकना अलग बात है लेकिन उसके चक्कर में कई ऐसी परेशानियां खड़ी हो रही हैं जिनकी वजह से आम दंपतियों को भी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है।

बिल के नियम और विरोध

इस बिल के मुताबिक अब सिर्फ मदद करने के लिए ही सेरोगेसी का तरीका अपनाया जा सकता है। यानी अब केवल वही दंपति सेरोगेट मदर की सहायता ले सकते हैं जिनको शादी के बंधन में बंधे कम से कम पांच साल हो चुके हों और उनके पास इस बात का सुबूत हो कि वो मेडिकली बच्चा पैदा करने यानी बच्चा कंसीव करने में अक्षम हैं। इसका विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि उन जोड़ों का क्या होगा जो बच्चा कंसीव कर तो सकते हैं लेकिन बच्चे को कोख में पाल नहीं सकते। अगर किसी औरत का किसी मेडिकल कंडीशन के कारण बार-बार मिसकैरेज हो जाता है या मेडिकली उसका शरीर कमजोर है तो वह इस नए कानून के बाद सेरोगेसी का सहारा नहीं ले सकती। शादीशुदा होने की शर्त को लेकर इसे संस्कारी बिल भी कहा जा रहा है।

इस बिल में सेरोगेसी की सहायता लेने वाले दंपति की उम्र भी निर्धारित की गई है। इसके मुताबिक बच्चा पैदा करने की कोशिश कर रहे जोड़े की उम्र 23 से 50 साल (स्त्री) और 26 से 55 साल (पुरुष) होनी चाहिए। साथ ही जोड़े का भारतीय नागरिक होना अनिवार्य है। इसका विरोध करते हुए राज्यसभा में सांसद सुरेश प्रभु ने कहा कि भारतीय नागरिकता न होने के कारण लोगों को सेरोगेसी का फायदा उठाने से रोकना सही नहीं है क्योंकि ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिनमें एक भारतीय महिला या पुरुष किसी विदेशी व्यक्ति से शादी कर विदेश में रह रहे हों। ऐसे में उनके साथ अन्याय होगा।

बिल के मुताबिक सेरोगेट मां, बच्चा चाहने वाले दंपति की नजदीकी रिश्तेदार ही होनी चाहिए। साथ ही उसकी उम्र 25 से 35 साल के बीच होनी चाहिए और उसका पहले से कम से कम अपना एक बच्चा हो। हालांकि कानून में इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया है कि नजदीकी रिश्तेदारों में कौन-कौन शामिल होंगे। ऐसे में इस बिल के विपक्ष में बोलने वालों का कहना है कि अगर डोनर का पति से खून का रिश्ता है तो उसके एग का इस्तेमाल करना सुरक्षित नहीं होगा। ऐसे में बच्चे के जेनेटिक डिफेक्ट के साथ पैदा होने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे हालात में अगर पत्नी की कोई नजदीकी रिश्तेदार एग डोनेट करने के काबिल नहीं हुई तो दंपति बच्चे पैदा नहीं कर पाएगा।

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इस कानून के तहत विवाहित भारतीय जोड़ों के लिए सिर्फ 'नैतिक परोपकारी सेरोगेसी' की अनुमति होगी। इसका मतलब यह कि सेरोगेट मदर के मेडिकल खर्च और इंश्योरेंस कवर के अलावा यह बिना किसी खर्च के, बिना पैसे या फीस के होना चाहिए।

इस प्रेग्नेंसी से जो बच्चा होगा, कानूनन उसके माता-पिता वो दंपति होंगे जिन्होंने सेरोगेसी कराई है। लेकिन अगर एबॉर्शन कराना हो, तो उसके लिए सिर्फ सेरोगेट मां की रजामंदी काफी है। ये बात ध्यान में रखने लायक है कि एबॉर्शन कानून के हिसाब से तय समय सीमा में (प्रेग्नेंसी के 20वें हफ्ते तक) सुरक्षित रूप से ही करवाया जाना चाहिए। सेरोगेट बनने के लिए सेरोगेट मां के पार्टनर की सहमति ज़रूरी नहीं है। जबकि ग्रीस, रशिया और साउथ अफ्रीका में ये ज़रूरी है।

इस मामले में गाइनेकोलॉजिस्ट प्रीति कुकरेती ने न्यूज़क्लिक से कहा, 'कई बार शादी के तुरंत बाद ही दंपति को पता लग जाता है कि वो कंसीव नहीं कर सकते। ऐसे में अब जोड़े को पांच साल का इंतजार करना पड़ेगा। इस बिल में एक समस्या ये भी है कि ये अंडाणु और स्पर्म को स्टोर करने पर भी रोक लगा रहा है। जबकि इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) के निर्देशानुसार अभी तक पांच साल तक एग्स और स्पर्म्स को स्टोर करने की इजाज़त थी। इस प्रोसेस में सेरोगेट मां के यूट्रस में मां बनने की कोशिश कर रही महिला के अंडाणु डाले जाते हैं। कई बार इसमें एक बार में ही सफलता नहीं मिलती इसलिए कुछ और कोशिशें भी की जाती है। अब अगर एग्स और स्पर्म स्टोर करने की इजाज़त हटा ली जाती है, तो एग्स देने वाली महिला के लिए बहुत मुश्किल होगा बार-बार अपने एग्स देना। साथ ही इसमें उसकी सेहत पर भी बुरा असर पड़ सकता है।'

इस कानून के मुताबिक लिव इन में रहने वाले जोड़े, सिंगल लोग या समलैंगिक रिश्ते में रह रहे लोग सेरोगेसी का सहारा नहीं ले सकते। ऐसे में सामाजिक कार्यकर्ता गीता आजाद कहती हैं कि लोकसभा में ये बिल काफी हड़बड़ी में पास हुआ है। इसकी कमियां काफी परेशान करने वाली हैं, जैसे ये उन लोगों के साथ गलत होगा जो अकेले हैं, होमोसेक्सुअल पुरुष हैं, लिव-इन में रह रहे हैं, किन्हीं वजहों से शादी नहीं कर सकते या अगर उनका तलाक हो जाता है। विधवा है या फिर वो समलैंगिक हैं और शादी के मानकों को पूरा नहीं करते।

गौरतलब है कि नए नियम का उल्लंघन करने पर कम से कम 10 साल जेल की सजा और 10 लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान रखा गया है। अगर कोई कॉमर्शियल सेरोगेसी में लिप्त पाया जाता है तो सजा उस जोड़े को होगी जो सेरोगेट को पैसे देगा। इस बिल में केन्द्रीय स्तर पर नेशनल सेरोगेसी बोर्ड बनाया जाएगा। केंद्र सरकार नोटिफिकेशन भेजेगी, और उसके तीन महीने के भीतर सभी राज्यों में भी सेरोगेसी बोर्ड बनाए जाएंगे। जो सेरोगेसी के लिए अस्पतालों के पंजीकरण और दंपति की योग्यता पर मोहर लागाएंगे।

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