ख़बरों के आगे-पीछे: विज्ञान के बाद मोदी जी का अनूठा साहित्य ज्ञान

प्रधानमंत्री मोदी का अजीबो-ग़रीब साहित्य ज्ञान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर क्षेत्र, हर विषय में दखल रखते हैं। विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र संबंधी मामलों में तो वे अपने अद्भुत ज्ञान और जानकारियों से देश-दुनिया को चमत्कृत करते ही रहते हैं। इस बार उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में चौंकाने वाली अद्भुत जानकारी दी है। उन्होंने फरमाया है, ''अमीर ख़ुसरो ने संस्कृत को दुनिया की 'सर्वश्रेष्ठ भाषा’ बताया था। जैसा कि उनकी कविता में व्यक्त किया गया है।’’
प्रधानमंत्री ने यह बात शुक्रवार को दक्षिण दिल्ली स्थित सुंदर नर्सरी में आयोजित जहान-ए-ख़ुसरो महोत्सव के 25वें संस्करण के मौके पर संबोधित करते हुए कही। अब चूंकि यह बात प्रधानमंत्री मोदी के मुंह से निकली थी तो उनकी भक्ति में डूबे रहने वाले टीवी चैनलों का परम धर्म था कि वे उस बात को जोर-शोर से चलाएं, सो सभी चैनलों ने अभिभूत होकर चलाया, ''अमीर ख़ुसरो ने संस्कृत को दुनिया की 'सर्वश्रेष्ठ भाषा’ बताया था। ख़ुसरो संस्कृत के महान कवि थे।’’ किसी के पास फैक्ट चेक का समय नहीं है। देश के प्रधानमंत्री ने बोल दिया, तो उसे पत्थर की लकीर मान लो। संस्कृत वैसे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा में शामिल है और 'जैसी बही बयार पीठ पुनि तैसी कीजे’ जैसी कहावत को आत्मसात करने वाला मुजफ्फर अली जैसा अवसरवादी-दरबारी मिल जाए, फिर कहना ही क्या?
अमीर ख़ुसरो को खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि माना जाता है। वे बहुभाषाविद् थे। फारसी, तुर्की, अरबी आदि भाषाओं के साथ ही संस्कृत पर भी उनका पूरा अधिकार था। लेकिन यह कहीं नहीं लिखा है कि उन्होंने संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ भाषा बताया था और संस्कृत में उनकी कोई रचना भी नहीं मिलती है।
केजरीवाल कितने दयनीय हो गए
एक चुनावी हार ने अरविंद केजरीवाल की हनक खत्म कर दी। यह तमाम एकाधिकारवादी राजनीति करने वाले नेताओं के लिए सबक है। केजरीवाल ने पार्टी की सारी राजनीति को अपने इर्द-गिर्द सीमित रखा। अपने करिश्मे पर राजनीति की और नतीजा क्या हुआ? जैसे ही करिश्मा कम हुआ और चुनाव हारे वैसे ही अपनी ही पार्टी में उनकी स्थिति इतनी कमजोर हो गई कि कोई उनके लिए राज्यसभा की सीट खाली करने के लिए तैयार नहीं है। इससे पहले दिल्ली का मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने अपनी पार्टी की महिला सांसद से सीट खाली करने को कहा था और उन्होंने मना कर दिया था। तब केजरीवाल किसी और को उनकी कानूनी सेवाओं के बदले राज्यसभा भेजना चाहते थे।
लेकिन इस बार तो उन्हें अपने लिए राज्यसभा चाहिए और किसी ने इस्तीफ़े की पेशकश नहीं की। ऐसे में मोलभाव का रास्ता निकाला गया। बताया जा रहा है कि पंजाब के राज्यसभा सदस्य संजीव अरोड़ा को राज्य सरकार में मंत्री बनाने का वादा किया गया है। उन्हें पार्टी लुधियाना पश्चिम विधानसभा सीट पर उपचुनाव में उतार रही है। अभी उस सीट पर उपचुनाव की घोषणा नही हुई है लेकिन पार्टी ने सांसद संजीव अरोड़ा को उम्मीदवार बनाने का ऐलान कर दिया। उनके इस्तीफ़े से जो सीट खाली होगी उस पर केजरीवाल राज्यसभा जाएंगे। सो, उनकी सीट का कार्यकाल 2028 तक है। सवाल है कि अगर सभी विपक्षी पार्टियों ने अंदरखाने तालमेल कर लिया और संजीव अरोड़ा नहीं जीत सके तो क्या होगा? इसी चिंता में अरोड़ा पहले इस्तीफा नहीं दे रहे हैं।
कांग्रेस आलाकमान की लाचारी
एक समय था जब कांग्रेस आलाकमान के आंख के इशारे से पार्टी के प्रादेशिक क्षत्रप और दूसरे नेता भांप जाते थे कि आलाकमान क्या चाहता है, लेकिन अब ऐसा बिल्कुल नहीं है। छोटे-मोटे या बिना आधार वाले नेताओं पर तो आलाकमान का थोड़ा बहुत जोर चल जाता है लेकिन जिस नेता का भी थोड़ा बहुत आधार है वह बागी तेवर दिखाने लगता है। ऐसे में आलाकमान को मजबूर होकर उसके हिसाब से फैसला लेना पड़ता है। इस समय हरियाणा और कर्नाटक को लेकर ऐसा ही हो रहा है।
कर्नाटक में उप मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार ने एक तरह से ऐलान कर दिया है कि वे अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ने जा रहे हैं। वे खुद तो नहीं कहते हैं लेकिन उनके समर्थक कहते रहते हैं कि सरकार गठन के समय यानी मई 2023 में वादा किया गया था कि ढाई-ढाई साल तक सिद्धारमैया और शिवकुमार मुख्यमंत्री रहेंगे, इसलिए शिवकुमार मुख्यमंत्री बनने तक प्रदेश अध्यक्ष बने रहेंगे। ऐसे ही हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए पांच महीने हो गए हैं और अभी तक विधायक दल का नेता नहीं तय हो पाया है। इसका कारण यह है कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा बांह मरोड़ रहे हैं। वे इस बार भी विधायक दल का नेता बने रहना चाहते हैं। कांग्रेस आलाकमान चाहता है कि कर्नाटक में शिवकुमार की जगह नया अध्यक्ष बनाए लेकिन उन्होंने कह दिया है कि राज्य में स्थानीय निकायों के चुनाव हो रहे हैं और पार्टी को उनके नेतृत्व की जरूरत है। इसी तरह हुड्डा भी अपने को जरूरी बता रहे हैं।
झारखंड सरकार का आर्थिक संकट
झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार के सामने राजस्व का संकट खड़ा हो गया है। पिछले साल झारखंड मुक्ति मोर्चा ने जिस 'मइयां सम्मान योजना’ के दम पर चुनाव लड़ा और जीता उस योजना की राशि भी महिलाओं के खाते में देरी से पहुंच रही है। चुनाव जीतने और सरकार बनाने के बाद दिसंबर का पैसा तो टाइम से चला गया था लेकिन जनवरी और फरवरी में पैसा जारी होने में देरी हुई। यह देरी इसके बावजूद हुई कि राज्य सरकार ने पिछले साल दिसंबर में सभी विभागों के पास इस वित्त वर्ष के जो पैसे बचे हुए थे उसे सरेंडर करा कर महिला व बाल विकास मंत्रालय को भेज दिया था। अब खबर है कि राज्य सरकार अलग-अलग विभागों से फिर पैसे सरेंडर करा रही है। इस बार दो हजार करोड़ रुपए का लक्ष्य है। गौरतलब है कि मइयां सम्मान योजना में हर महीने डेढ़ हजार करोड़ रुपए ट्रांसफर होने हैं। वैसे भी झारखंड सरकार के पास वेतन, भत्ते, पेंशन और कर्ज के ब्याज के बाद बहुत कम पैसा बचता है। उसका बजट एक लाख 20 हजार करोड़ रुपए से कम है, जिसमें 18 हजार करोड़ रुपए मइया सम्मान योजना में खर्च होंगे। इस वजह से राज्य सरकार राजस्व के संकट में फंसी है। इससे निकलने का रास्ता यह है कि केंद्र सरकार खनिज संसाधनों का बकाया एक लाख 36 हजार करोड़ रुपए राज्य सरकार को दे। अगर केंद्र सरकार किस्तों में भी यह पैसा देती है तो राज्य सरकार को इस कार्यकाल में संकट से निजात मिल जाएगा।
तमिल राजनीति में सुपरस्टार विजय की आमद
तमिल फिल्मों के सुपर स्टार विजय क्या तमिल राजनीति पर पिछले तीन दशक से लगा ग्रहण हटा पाएंगे? यह सवाल इसलिए है, क्योंकि पिछले लंबे समय से यह धारणा बन गई है कि कोई फिल्मी सितारा तमिलनाडु की राजनीति में सफल नहीं हो सकता। एमजी रामचंद्रन सबसे सफल अभिनेता और सफल राजनेता रहे और उनके बाद उनकी जगह जयललिता ने ली। एमजीआर और जयललिता के बाद कोई सितारा राजनीति में नहीं चमका। हालांकि करुणानिधि भी फिल्मों से जुड़े रहे थे लेकिन वे सुपर स्टार नहीं थे। विजय सुपर स्टार हैं और तमिल वेत्री कझगम (टीवीके) नाम से पार्टी बना कर राजनीति में उतरे हैं। उन्होंने अपनी पार्टी की पहली सालगिरह धूमधाम से मनाई। वे एमजीआर या जयललिता की तरह बनना चाह रहे हैं। लेकिन उनके सामने उनसे बड़े सितारों की विफलता का इतिहास है। रजनीकांत राजनीति में आए, पार्टी बनाने का ऐलान किया और फिर पीछे हट गए। एक दूसरे बड़े सितारे कमल हासन ने पार्टी बनाई, चुनाव लड़े और बुरी तरह पिट गए। इन दोनों से पहले शिवाजी गणेशन जैसे सुपर स्टार ने भी राजनीति में किस्मत आजमाई और नाकाम रहे। एक और मशहूर सितारे कैप्टन विजयकांत ने पार्टी बना कर चुनाव लड़ा लेकिन वे भी कामयाब नहीं हुए। अब विजय इस सिलसिले को तोड़ने उतरे हैं। वे अपने प्रशंसकों के आधार के साथ-साथ सामाजिक समीकरण और द्रविड राजनीति के बुनियादी मुद्दों को भी पकड़े हुए हैं। वे एक रणनीति के तहत डीएमके और भाजपा पर तो हमला कर रहे हैं लेकिन अन्ना डीएमके पर चुप्पी साधे हुए हैं।
तीन महीने में कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन
कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन आठ और नौ अप्रैल को अहमदाबाद में होगा। साढ़े तीन महीने में कांग्रेस का यह दूसरा अधिवेशन होगा। इससे पहले पिछले साल 26 दिसंबर को कांग्रेस का अधिवेशन कर्नाटक के बेलगावी में हुआ था। वह ऐतिहासिक मौका था। ठीक सौ साल पहले महात्मा गांधी बेलगावी में ही कांग्रेस अध्यक्ष बने थे। उस मौके की याद में कांग्रेस ने अधिवेशन किया। अगले दिन एक बड़ी रैली भी होने वाली थी लेकिन मनमोहन सिंह का निधन हो जाने के कारण रद्द कर दी गई। बहरहाल, बेलगावी के अधिवेशन के साढ़े तीन महीने बाद कांग्रेस का फिर से अधिवेशन हो रहा है।
पिछला अधिवेशन वहां हुआ, जहां पार्टी सत्ता में है। लेकिन इस बार अधिवेशन ऐसी जगह हो रहा है, जहां कांग्रेस विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन पाई। लेकिन इसका अलग महत्व है। कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी के हारने के बाद अपने अधिवेशन के लिए गुजरात का चयन किया है। वहां आम आदमी पार्टी ने ही 13 फीसदी वोट काट कर कांग्रेस का भट्ठा बैठाया है। वहां कांग्रेस यह मैसेज देने जा रही है कि आम आदमी पार्टी अब खत्म हो गई है और कांग्रेस ही भाजपा से लड़ने वाली मुख्य ताकत है। इसके अलावा कांग्रेस अधिवेशन को लेकर यह सवाल भी है कि बेलगावी में उसने जो एजेंडा तय किया था उसका क्या हुआ? बेलगावी में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कहा था कि 2025 का साल संगठन का साल होगा। तो क्या कांग्रेस ने संगठन का काम पूरा कर लिया? अभी तक कांग्रेस ने जो किया है वह कॉस्मेटिक सर्जरी की तरह है।
टकराव की राजनीति जारी रखेगी 'आप’
आम आदमी पार्टी पहले की तरह भाजपा और केंद्र सरकार के खिलाफ टकराव की राजनीति जारी रखेगी। अब तो दिल्ली सरकार के खिलाफ भी उसको लड़ना है, जिसका संकेत उसने विधानसभा में दे दिया है। उसके पास कामकाज के मुद्दे हैं तो कुछ भावनात्मक मुद्दे भी हैं। जैसे पहले ही दिन उसके विधायकों ने इस बात पर हंगामा किया कि मुख्यमंत्री के कार्यालय में से शहीद भगत सिंह और डॉक्टर आंबेडकर की तस्वीर हटा कर वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर लगा दी गई है। इस आधार पर उसने भाजपा को दलित विरोधी बताया।
उसने पहले ही दिन इस मुद्दे को भी जोर-शोर से उठाया कि दिल्ली सरकार ने महिलाओं को हर महीने ढाई हजार रुपए देने की योजना शुरू नहीं की। कहा गया कि भाजपा ने पहली कैबिनेट मीटिंग में इसे मंजूरी देने का वादा किया था लेकिन उसमें इस पर विचार नहीं हुआ। दिलचस्प बात है कि खुद आम आदमी पार्टी ने पिछले साल फरवरी में वादा किया था कि महिलाओं को 1100 रुपए महीना दिया जाएगा। पंजाब में तो उसने यह वादा फऱवरी 2022 में किया था। यानी पंजाब में तीन साल और दिल्ली में एक साल में उसने यह योजना शुरू नहीं की, लेकिन भाजपा की सरकार को इस मुद्दे पर पहले दिन से ही घेरना शुरू कर दिया।
भाजपा ने आठ मार्च से ढाई हजार रुपए देने का ऐलान किया है पर आम आदमी पार्टी को इतना भी इंतजार नहीं करना है। जाहिर है कि अरविंद केजरीवाल अब भी पुरानी राजनीति जारी रखने वाले हैं। कम से कम पंजाब चुनाव तक तो राजनीति ऐसे ही चलेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्त हैं।)
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