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गहरे संकट में कृषि : MSP पर क़ानूनी गारंटी के लिए किसानों के पास आंदोलन ही विकल्प

उन वायदों की लिस्ट लंबी है, जो मोदी जी ने 2022 के लिए देश की जनता से किए थे। वे न सिर्फ़ उन्हें पूरा करने में वे नाकाम रहे बल्कि उनका अब ज़िक्र भी नहीं करते। इन वायदों में हैं- 2022 तक हर भारतीय को मकान, देश में बुलेट ट्रेन, 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था, हाथ में तिरंगा लिए space में हिंदुस्तानी...।"
kisan
फाइल फ़ोटो। पीटीआई

प्रधानमंत्री मोदी के वायदों में शायद सबसे लोकप्रिय वायदा किसानों की आय दोगुना करने का था, जो अगर पूरा होता तो न सिर्फ़ किसानों की, बल्कि देश की तक़दीर भी बदल जाती। मोदी जी ने 2017 के यूपी चुनाव के पूर्व 28 फरवरी 2016 को बरेली में किसानों की एक रैली को संबोधित करते हुए 2022 तक, भारत की आज़ादी के 75 साल पूरे होने तक, किसानों की आमदनी दो गुना करने का ऐलान किया था।

पर मोदी राज में शायद यह न होना था, न हुआ। इसका भी वही हस्र हुआ जो उनके अन्य सारे वायदों का हुआ और जो पहले कार्यकाल के दौरान हर साल 2 करोड़ रोज़गार और हर खाते में 15 लाख रूपये के वायदों (अमित शाह के शब्दों में 'जुमलों' ) का हो चुका था। ( वैसे प्रधानमंत्री द्वारा जनता से किये गए किसी वायदे को, भले वह चुनाव के समय ही क्यों न किया गया हो, चुनाव जीतने के बाद हंसते हुए जुमला बताकर पल्ला झाड़ लेना भोली भाली जनता से विश्वासघात और धोखा देकर जनादेश लूटना नहीं तो क्या है? लेकिन मोदी युग के राजनीतिक शब्दकोश में नैतिकता, जनादेश के सम्मान, जनता के प्रति जवाबदेही आदि की बातें अब बेमानी हो चुकी हैं! )

किसानों की आय दोगुना करने के वायदे को अमित शाह शुद्ध चुनावी जुमला भी नहीं बता सकते क्योंकि इसे लेकर बाद में, बतौर follow-up उनकी सरकार के स्तर पर बहुत सी काग़ज़ी क़वायद भी हुई है।

प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद अशोक दलवई की अध्यक्षता में बनी कमेटी द्वारा Doubling Farmers Income (DFI ) नाम से 4 volume की रिपोर्ट तैयार की गयी। इसी क्रम में नीति आयोग एक policy paper लेकर आया जिसे आयोग के सदस्य, कृषि मामलों के प्रभारी रमेश चंद ने तैयार किया था। इस लक्ष्य को केंद्र सरकार के विभिन्न स्तरों पर बार बार दोहराया गया।

बहरहाल, अब 2022 बीत चुका है और किसानों की आय के संबंध में जो आंकड़े और अध्ययन आ रहे हैं, वे बेहद चौंकाने वाले और डराने वाले हैं। मोदी सरकार न सिर्फ़ अपने प्रोजेक्ट में बुरी तरह फेल हो गयी है, बल्कि कॄषि अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में फंस गई है।

एक अध्ययन के अनुसार प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद अर्थात 2016-17 से 2020-21के बीच किसानों की आय दोगुना होने की बात तो दूर, उसकी वृद्धि दर ऋणात्मक (-1.5% ) हो गयी है ! अर्थात किसानों की आय दोगुनी होने की बजाय मोदी जी की घोषणा के बाद 2016-17 से भी कम हो गई है!

2004-05 से 2011-12 के बीच जो आय में वृद्धि दर 7.5% वार्षिक थी, वह 2011-12 से 2015-16 के बीच 0.44% रह गयी थी, और अब 2016-17 से 2020-21के बीच वह ऋणात्मक (-1.5% ) हो गयी है!

दलवई पैनल जिसने ग़ैर-कृषि ( व्यवसाय तथा मज़दूरी से होने वाली) आय जोड़़कर किसानों की आय का आंकलन किया है, उसके अनुसार भी 2012-13 से 2018-19 के बीच कृषि से आय में 1.5% वार्षिक की दर से गिरावट हुई है, हालांकि ग़ैर-कृषि आय जोड़कर 2.8% की दर से वृद्धि दिखाई गई है। Situational Assessment Survey for Rural Households in 2021 के अनुसार कृषि कार्य से होने वाली आय मात्र 27/- दैनिक है!

स्वाभाविक है किसानी गहरे संकट में है। देश में खाद्यान्न उत्पादन के केंद्र पंजाब में जहां 11 टन प्रति हेक्टेयर वार्षिक की रिकॉर्ड उत्पादकता दर्ज की गई है, वहां के मेहनती, कुशल किसान भी 1 ट्रिलियन के अकल्पनीय क़र्ज़ में डूबे हुए हैं अर्थात प्रति किसान औसत 2 लाख रुपये। प्रो. देविंदर शर्मा कहते हैं, इसका एक ही अर्थ है कि कृषि से होने वाली आय से लागत भी नहीं निकल पा रही है।

देविंदर शर्मा कहते हैं कि बाज़ारवादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार इसके लिए किसानों का बाज़ार से न जुड़ा होना ज़िम्मेदार है। लेकिन वे पूछते हैं कि बाज़ार अगर इतने ही फ़ायदेमंद हैं तो फिर जहां बाज़ार सबसे ज़्यादा विकसित हैं, उस अमेरिका के किसानों की आय का 40% और यूरोप में 50% सरकारी सब्सिडी से क्यों आता है? वैश्विक स्तर पर किसानों की त्रासदी का मूल्यांकन करते हुए एक ब्रिटिश किसान के शब्दों को उन्होंने उद्धृत किया है, " हर किसान लगातार बढ़ते क़र्ज़ के बीच एक ट्रेडमिल पर अटका हुआ है, जब तक कि वह दिवालिया नहीं हो जाता, ख़ुदकुशी नहीं करता अथवा आय का कोई और स्रोत नहीं ढूंढता।"

औपनिवेशिक शासन के दौरान कृषि की तबाही से पड़े भीषण अकालों को जिनमें 18वीं सदी में बंगाल की एक तिहाई आबादी (3 करोड़ में 1 करोड़ लोग) और 20वीं सदी के चौथे दशक में क़रीब 30 लाख मारे गए लोगों को याद करते हुए प्रो. प्रभात पटनायक कहते हैं कि "औपनिवेशिक लूट की समाप्ति के बाद आज़ादी मिलने पर कृषि को राज्य के प्रोत्साहन के फलस्वरूप यह स्थिति बदली। औपनिवेशिक काल के स्थाई कृषि संकट का अंत हुआ, जो भीषण अकालों, भयानक ऋणग्रस्तता, शहरों की ओर पलायन, सामूहिक आत्महत्या के रूप में सामने आता था।"

" लेकिन नव उदारवादी नीतियों के क्रियान्वयन के साथ, जिसका अर्थ है हमारी अर्थव्यवस्था में वैश्विक पूंजी और साम्राज्यवादी वर्चस्व की वापसी, हालात फिर बदल गए और कृषि संकट वापस आ गया-अबकी बार अकालों के रूप में नहीं, बल्कि किसानों की बढ़ती विपन्नता, क़र्ज़ के भारी बोझ और उसके फलस्वरूप बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं, शहरों की ओर रोज़गार की तलाश में पलायन जिसके अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। इस सबके मूल में है भारतीय कृषि क्षेत्र में लगातार कम होते फ़ायदे। यह कमी इतनी बड़ी हुई है कि इसने कृषि को बेहद कठिन, क़रीब क़रीब अलाभकारी बना दिया है।"

वे कहते हैं, " कृषि के कॉरपोरेटीकरण के एजेंडे को पूरा करने के लिए मोदी सरकार द्वारा लाए गए 3 क़ानूनों को किसानों ने भले ही अपने ऐतिहासिक आंदोलन के बल पर वापस करा दिया, लेकिन सरकार अस्थाई तौर पर ही पीछे हटी है और बस मौक़े के इंतज़ार में है। अनुकूल अवसर मिलते ही वह पुनः किसी और रूप में उन्हें लागू करेगी। इसका नतीजा न सिर्फ़ किसानों की तबाही और देश में खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट होगा बल्कि ग़रीबों को मिलने वाले सस्ते अनाज की पीडीएस व्यवस्था भी ख़त्म हो जाएगी।"

बहरहाल, अब जब 9 राज्यों के विधानसभा चुनावों से होते हुए 2024 आम चुनाव के लिए काउंटडाउन शुरू हो चुका है और मोदी सरकार का अंतिम पूर्ण बजट पेश होने जा रहा है, ऐसे में वित्तमंत्री ने फिर दोहरा दिया है कि सरकार आय दोगुनी करने के सवाल पर दृढ़ संकल्प है। 15 जनवरी को बजट पूर्व बातचीत में उन्होंने मोदी जी की "किसानों के लिए चिंता" की याद दिलाते हुए कहा कि, "वास्तव में, इनकम डबलिंग का काम अच्छी रफ़्तार में चल रहा है!" दिलचस्प बात यह है कि जिस 2022 तक दोगुना का वायदा किया गया था, उस साल के बजट में (जो साल भर पहले 1 फरवरी 2022 को पेश किया गया था) इसका कहीं जिक्र तक नहीं था! अब वह टाइम लाइन बीतने के बाद सरकार के दृढ़ संकल्प होने और तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ने की बात की जा रही है! यह बेहयाई और पाखंड लाजवाब है!

संभव है कि आगामी बजट में सरकार पीएम सम्मान-निधि 500/-मासिक से बढ़ाकर 1000/- कर दे, पर यह साफ़ है कि इससे किसान जिस गंभीर संकट से जूझ रहे हैं, उसका समाधान होने वाला नहीं है। यह ऊंट के मुंह में ज़ीरा जैसा ही होगा।

इसके समाधान के लिए ज़रूरत है चौतरफा कृषि विकास के मुकम्मल कार्यक्रम की जिसकी धुरी होगी किसानों को उनकी मेहनत और फ़सल की वाजिब क़ीमत-एमएसपी की क़ानूनी गारंटी। इस सवाल पर मोदी सरकार से तो किसानों को अब शायद ही कोई उम्मीद बची हो, पर विपक्ष की प्रमुख पार्टी के नेता राहुल गांधी के इस सवाल के रुख से साफ़ है कि 2024 में विपक्ष के एजेंडे में इसे शामिल करवाने के लिए भी किसानों को अपने आंदोलन द्वारा भारी दबाव बनाना पड़ेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

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