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2024 में बढ़त हासिल करने के लिए अखिलेश यादव को खड़ा करना होगा ओबीसी आंदोलन

बीजेपी की जीत प्रभावित करने वाली है, लेकिन उत्तर प्रदेश में सामाजिक धुरी बदल रही है, जिससे चुनावी लाभ पहुंचाने में सक्षम राजनीतिक ऊर्जा का निर्माण हो रहा है।
akhilesh yadav

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से 6 अहम सबक मिले हैं, जिन्हें नजरंदाज़ करने का ख़ामियाजा विपक्ष नहीं उठा सकता। भारतीय जनता पार्टी तब तक बेहद मजबूत बनी रहेगी, जब तक उसे ऊंची जातियों का जबरदस्त समर्थन मिलता रहेगा। यह जातियां राज्य में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के लिए बमुश्किल ही वोट करेंगी। इसलिए समाजवादी पार्टी को जीतने के लिए पिछड़ा वर्ग में अपना आधार बढ़ाना होगा। 

दलितों को भी जब तक बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का विकल्प नहीं मिल जाता, तब तक उनके मत पर भी पकड़ बनाने की गुंजाइश खुली हुई है। बशर्ते मायावती अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए फिर से सड़कों पर ना उतर आएं। सामाजिक आंदोलन, कड़ी मेहनत और संघर्ष मायने रखते हैं। और अंत में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी का चुनावी अभियान मुस्लिमों के प्रति घृणा बढ़ाने और हिंदुत्व को नकारने वाले दलितों को निशाना बनाने के आसपास घूमेगा।

इन संदेशों में बहुत सारे संदेशों को पकड़ा नहीं गया है, क्योंकि लोगों में आमतौर पर बीजेपी की मत हिस्सेदारी (41.3 फ़ीसदी) को समाजवादी पार्टी की मत हिस्सेदारी (32.1 फ़ीसदी) से तुलना करने की प्रवृत्ति है। अगले दो सालों में 9.2 फ़ीसदी के भारी मत अंतर को पाटना लगभग असंभव दिखाई देता है। लेकिन अगर समाजवादी पार्टी के गठबंधन और बीजेपी के गठबंधन की तुलना करें, तो यह अंतर घटकर 7.1 फ़ीसदी ही रह जाता है (जैसा सूची-1 में बताया गया है)।

सूची-1

* BJP- भारतीय जनता पार्टी, AD (S)- अपना दल (सोनेलाल) और NISHAD- निर्बल इंडियन शोषित हमारा अपना दल है।

** SP- समाजवादी पार्टी, RLD- राष्ट्रीय लोकदल, SBSP- सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और AD (K)- अपना दल (कमेरावादी) है।

*** BSP- बहुजन समाज पार्टी और CONG- कांग्रेस है।

**** स्त्रोत्: टाइम्स ऑफ इंडिया

2022 के चुनावी नतीज़ों की 2017 के नतीज़ों से तुलना की जाए, तो भी यह स्पष्ट दिखाई दे जाता है कि क्यों दोनों गठबंधनों के बीच 7.1 फ़ीसदी मतों का यह अंतर पाटना संभव लगता है। 2017 में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, जिसमें सपा ने 311 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 21.8 फ़ीसदी मत हासिल किए थे। इस साल समाजवादी पार्टी ने 347 सीटों पर चुनाव लड़ा (बीजेपी से 29 सीटें कम) और अपनी मत हिस्सेदारी को 10.3 फ़ीसदी बढ़ाने में कामयाब रही।   

यह जरूर है कि समाजवादी पार्टी को राष्ट्रीय लोक दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल (कमेरावादी) के साथ गठबंधन कर फायदा हुआ होगा। इन तीनों पार्टियों में एक हिंदू जाति केंद्र में है- आरएलडी में जाट, एसबीएसपी में राजभर और अपना दल (कमेरावादी) में कुर्मी केंद्र में हैं। यह तीनों जातियां पिछड़ा वर्ग में आती हैं (जाट पिछड़ा वर्ग की केंद्रीय सूची में नहीं आते, लेकिन वे राज्य सूची में पिछड़ा वर्ग में आते हैं)।

इससे पता चलता है कि बीजेपी की शानदारी जीत से अलग, उत्तर प्रदेश की सामाजिक धुरी बदल रही है और ऐसी राजनीतिक ऊर्जा का निर्माण हो रहा है, जिसका चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। फिर बसपा के कमज़ोर पड़ने से भी इस तर्क को मजबूती मिलती है, जिसकी मत हिस्सेदारी 2017 में 22.23 फ़ीसदी से गिरकर 2022 में 12.9 फ़ीसदी पर पहुंच गई। 

यहां तक कि दलित भी बसपा से अलग विकल्प की तलाश कर रहे हैं। लोकनीति-सीएसडीएस के पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक़, 21 फ़ीसदी जाटवों ने बीजेपी को वोट दिया। यहं संख्या 2017 की तुलना में 8 फ़ीसदी ज़्यादा है। जबकि इस बार 9 फ़ीसदी जाटव मतदाताओं ने सपा को वोट दिया (यह पिछली बार से 3 फ़ीसदी ज़्यादा है)। अगर गैर-जाटव दलित जातियों की बात करें, तो सपा को इनके 23 फ़ीसदी मत मिले, जो 2017 में मिले मतों से 11 फ़ीसदी ज़्यादा हैं, जबकि बीजेपी को इस बार 41 फ़ीसदी गैर-जाटव जाति के मतदाताओं ने वोट दिया, जो पिछली बार से 9 फ़ीसदी ज़्यादा है। आज की स्थिति में बीजेपी को सपा से ज़्यादा दलित मत मिलते हैं।

बल्कि समाजवादी पार्टी ने अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड में अच्छा प्रदर्शन किया होता, तो बीजेपी की 7.1 फ़ीसदी की बढ़त और भी कम हो सकती थी। यह माना जा रहा था कि सपा और आरएलडी का गठबंधन जाट कृषक समुदाय से एकतरफा समर्थन हासिल करेगा, जो कई वजहों के साथ-साथ प्रधानमंत्री द्वारा तीन कृषि कानूनों पर दिखाए जाने वाले अड़ियल रवैये से नाराज़ थे। बाद में मोदी द्वारा इन कानूनों की वापसी से जाट मतदाताओं को एक हद तक शांत किए जाने में मदद मिलने की संभावना है।

लेकिन ज़्यादा अहम कारण यह रहा कि किसान आंदोलन में जाटों की सहभागिता पूरे उत्तर प्रदेश में एक जैसी नहीं थी। नतीज़तन इस क्षेत्र में बीजेपी को सपा-आरएलडी की तुलना में 13.6 फ़ीसदी मत ज़्यादा हासिल हुए। बीजेपी ने सपा-आरएलडी के गठबंधन से 42 सीटें भी इस क्षेत्र में ज़्यादा हासिल कीं (जैसा सूची-2 में पता चल रहा है)।

* पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सहारनपुर, मुजफ्फ़रनगर, शामली, मेरठ, बागपत, बुलंदशहर, नोएडा, गाजियाबाद, हापुड़, अलीगढ़, कासगंज, हाथरस, एटा, मैनपुरी, फिरोज़ाबाद, आगरा और मथुरा (आगरा, मेरठ, अलीगढ़ और सहारनपुर संभाग) शामिल हैं।

** स्त्रोत्: टाइम्स ऑफ़ इंडिया

लेकिन मुजफ़्फ़रनगर, शामली, बागपत और मेरठ में सपा-आरएलडी को 18 में से 12 सीटें हासिल हुईं, यही वो जगहें थी जहां से किसानों ने ज़्यादा बड़ी संख्या में किसान आंदोलन में हिस्सा लिया था। दूसरे शब्दों में कहें तो सपा-आरएलडी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जितनी सीटें जीतीं, उसमें से आधे से ज़्यादा सिर्फ़ इन चार जिलों से आईं। 

पहला सबक: आंदोलनों से बड़ा चुनावी फायदा मिलता है

बुंदेलखंड ऐसा क्षेत्र रहा, जहां सपा गठबंधन पूरी तरह ढह गया और उसे बीजेपी से 15.5 फ़ीसदी कम वोट हासिल हुए (जैसा सूची-3 में देखा जा सकता है)।

सूची-3: बुंदेलखंड

*बुंदेलखंड में बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर और महोबा (झांसी और चित्रकूट संभाग) जिले आते हैं।

**स्त्रोत्: टाइम्स ऑफ़ इंडिया

बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश का सबसे पिछड़ा इलाका है। एक किसान नेता ने मुझे बताया कि इस क्षेत्र में एक सामाजिक आंदोलन की बेहद जरूरत है। हालांकि यह सामाजिक आंदोलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा चलाए गए आंदोलन से अलग होना चाहिए। यही समाजवादी पार्टी के लिए बुंदेलखंड में जड़ें मजबूत करने का ज़रिया हो सकता है, जहां मुस्लिमों की उपस्थिति कम है, इसलिए यहां पार्टी के मुख्य वोटबैंक- यादवों के साथ मुस्लिमों का गठबंधन जीत सुनिश्चित नहीं कर सकता।  

जबकि इसके उलट यहां ऊंची जातियों की संख्या 27 फ़ीसदी है, जबकि पूरे उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 18 फ़ीसदी है। इसलिए हिंदुत्व के इस दौरा में बीजेपी को इस इलाके में हमेशा एक फायदा रहेगा। समाजवादी गठबंधन को इस इलाके में इसलिए भी नुकसान उठान पड़ा क्योंकि यहां बसपा ने 17.5 फ़ीसदी वोट हासिल किए। जबकि राज्य में बसपा ने 12।9 फ़ीसदी वोट ही हासिल किए। इसलिए बुंदेलखंड में एक त्रिकोणीय मुकाबले में बसपा को तो एक भी सीट हासिल नहीं हुई, लेकिन सपा की उम्मीदें भी खत्म हो गईं। 

फिर उत्तर प्रदेश के बाकी के चार क्षेत्रों में से रूहेलखंड में सपा गठबंधन, बीजेपी गठबंधन से 0.6 फ़ीसदी के बेहद कम अंतर से आगे रहा। मध्य उत्तर प्रदेश में सपा गठबंधन 5।8 फ़ीसदी, दक्षिण-पूर्व उत्तर प्रदेश में 3.1 फ़ीसदी और उत्तर-पूर्व उत्तर प्रदेश में 7.6 फ़ीसदी मतों के अंतर से पीछे रहा। सूची-4, सूची-5, सूची-6 और सूची-7 इसकी जानकारी देती हैं। 

सूची-4: रूहेलखंड

*रूहेलखंड में बिजनौर, ज्योतिबा फुले नगर (अमरोहा), बदायूं, बरेली, रामपुर, मुरादाबाद, संभल, पीलीभीत और शाहजहांपुर (बरेली और मुरादाबाद संभाग) के जिले आते हैं।

** स्त्रोत्: टाइम्स ऑफ इंडिया

सूची-5: मध्य उत्तर प्रदेश

* मध्य उत्तर प्रदेश में प्रयागराज, आंबेडकर नगर, अमेठी, ओरैया, बाराबंकी, इटावा, फैजाबाद, फर्रूखाबाद, फतेहपुर, हरदोई, कन्नौज, कानपुर देहात, कानपुर नगर, कौशांबी, खीरी, लखनऊ, रायबरेली, सुल्तानपुर और उन्नाव (इलाहाबाद, फैजाबाद, कानपुर और लखनऊ संभाग) आते हैं। 

** स्त्रोत: टाइम्स ऑफ़ इंडिया

सूची-6: उत्तर-पूर्व उत्तर प्रदेश

- इसमें आजमगढ़, बहराइच, बलिया, बलरामपुर, बस्ती, देवरिया, गोंडा, गोरखपुर, कुशीनगर, महाराजगंज, मऊ, संत कबीर नगर, श्रावस्ती और सिद्धार्थनगर (देविपाटन, बस्ती, गोरखपुर और आजमगढ़ संभाग) जिले आते हैं।

** स्त्रोत्: टाइम्स ऑफ इंडिया 

सूची-7: दक्षिण-पूर्व उत्तर प्रदेश

*इस इलाके में चंदौली, गाजीपुर, जौनपुर, मिर्जापुर, संत रविदास नगर, सोनभद्र और वाराणसी (मिर्जापुर और वाराणसी संभाग) जिले आते हैं।

** स्त्रोत्: टाइम्स ऑफ़ इंडिया

इतिहास बताता है कि जब वीपी सिंह ने मंडल आयोग की अनुशंसाएं लागू की थीं, उसके बाद 1991 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में मात खानी पड़ी थी। इस साल भी समाजवादी पार्टी और एसबीएसपी व अपना दल (कमेरावादी) के गठबंधन ने खासतौर पर दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुकसान पहुंचाया है। 

लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे बताते हैं कि 2022 में 89 फ़ीसदी ब्राह्मणों, 87 फ़ीसदी राजपूतों, 83 फ़ीसदी वैश्य और 78 फ़ीसदी अन्य सवर्ण जातियों ने बीजेपी को वोट दिया है। 2017 में भी इन जातियों में से 70 फ़ीसदी ने बीजेपी को वोट दिया था। यहां तक कि 2007 में भी जब बीजेपी दूर-दूर तक सत्ता में आने की स्थिति में नहीं थी, तब भी इन सामाजिक समूहों में 40 फ़ीसदी ने बीजेपी पर भरोसा जताया था, हालांकि 2012 में यह एकजुटता थोड़ी कमजोर हुई थी, जब समाजवादी पार्टी सत्ता में आई थी। 

दूसरा सबक: सवर्ण जातियां बीजेपी का साथ नहीं छोड़ेंगी, कम से कम 2024 के लोकसभा चुनाव में तो ऐसा नहीं होगा। 

इसी तरह यादव जाति के मतदाता समाजवादी पार्टी के पीछे खड़े रहे हैं। 2017 में 68 फ़ीसदी यादव मतदाताओं ने सपा को वोट दिया था, जो इस बार बढ़कर 83 फ़ीसदी हो गया। यहां तक कि मुस्लिमों के मामले में यह बात सही साबित होती है। 2017 में जहां 46 फ़ीसदी मुस्लिमों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था, वहीं इस बार 79 फ़ीसदी मुस्लिम मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया है। सबसे अहम बात यह रही है कि पूरे पिछड़ा वर्ग समूह (पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, अधिकतम पिछड़ा वर्ग) के साथ-साथ जाटव और गैर-जाटव दलितों में समाजवादी पार्टी का आधार बढ़ा है। जबकि राजपूत और ब्राह्मणों में यह पहले से और भी कम हो गया है। 

तीसरा सबक: समाजवादी पार्टी अपना आधार सिर्फ़ निचली जातियों को साथ लाकर बढ़ा सकती है।

2007 में सत्ता में आने के बाद से ही बसपा का अवसान जारी है। 2007 में पार्टी को 30.43 फ़ीसदी मत हासिल हुए थे, जो 2012 में कम होकर 25.91 फ़ीसदी, 2017 में 22.23 फ़ीसदी हो गए। इस साल बसपा की मत हिस्सेदारी गिरकर 12.9 फ़ीसदी ही रह गई। 2017 के बाद से 2022 में आई इस तेज गिरावट की वज़ह जाटव मतदाताओं, गैर-जाटव दलित मतदाताओं और मुस्लिम मतदाताओं की पार्टी के पक्ष में गिरती भागीदारी रही। सिर्फ़ 65 फ़ीसदी जाटव मतदाताओं द्वारा पार्टी को वोट करना रहा। जबकि 2017 में यह आंकड़ा 83 फ़ीसदी था। दूसरी तरफ सिर्फ़ 27 फ़ीसदी गैर-जाटव दलित ही बसपा के साथ आए। जबकि 2017 में यह आंकड़ा 44 फ़ीसदी था। इस बार बीएसपी के लिए सिर्फ़ 6 फ़ीसदी मुस्लिम मतदाताओं ने वोट किया, जबकि 2017 में यह आंकड़ा 19 फ़ीसदी था। 

मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि दलितों को आभास हो गया था कि बीएसपी चुनाव में तीसरे पायदान पर बहुत पीछे रहेगी। इसके बावजूद दलितों में से एक बड़ी संख्या ने बीजेपी के लिए मतदान किया और आशा लगाई कि राज्य में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा और मायावती राजा चुनने की स्थिति में होंगी, यहां तक कि वे कुछ जुगाड़ कर खुद भी सत्ता में आ सकेंगी। 2024 के चुनाव में नहीं लगता कि दलित खुद को किसी तरह के भ्रम में रखेंगे, जबकि तब मायावती का राजनीतिक प्रभाव और भी कम हो चुका होगा। पिछले एक दशक में उनका राजनीतिक व्यवहार देखते हुए यह मुश्किल ही लगता है कि वे दलित मुद्दों पर सड़कों पर आकर संघर्ष करेंगी और अपने दूर जा चुके समर्थकों को वापस लाने में कामयाब रहेंगी।

सबक चार: जो भी पार्टी दलित मतदाताओं का सबसे बड़ा हिस्सा हासिल करेगी, वो 2024 में उत्तर प्रदेश में सबसे बेहतर स्थिति में होगी, ध्यान रहे यहां से 80 सांसद चुने जाते हैं। 

हिजाब के ऊपर विवाद और विवादास्पद फिल्म द कश्मीर फाइल्स के लिए मोदी का समर्थन यह साफ़ कर चुका है कि बीजेपी मुस्लिमों को घृणा का पात्र बनाने के अपने एजेंडे से पीछे नहीं हटेगी। लड़कियों की शादी की उम्र 21 साल करने वाला विधेयक, जिसे फिलहाल विमर्श और सुधार के लिए संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया है, उससे भी बीजेपी के नफ़रत भरे असलहे में इज़ाफा होगा। फिर लंबे वक़्त से समान नागरिक संहिता लागू करने का बीजेपी का एजेंडा भी लंबित है, हो सकता है बीजेपी इसे उठा ले। 

पांचवां सबक: हिंदुत्व बीजेपी का मुख्य हथियार बना रहेगा

समाजवादी पार्टी को उम्मीद रहेगी कि 2022 में जो गठबंधन बनाया गया है, उसे अगले चुनावों में भी बरकरार रखा जा सके और पिछड़ा वर्ग की अन्य जातियों को मत जोड़ा जा सके। इसका एक तरीका जातिगत जनगणना करवाने के लिए आंदोलन छेड़ना और ओबीसी आरक्षण को 27 फ़ीसदी से बढ़ाकर उनकी संख्या के अनुपात में करने की मांग करना हो सकता है। अब जब मोदी सरकार उन्नत जातिगत वर्ग समूहों के कमज़ोर आर्थिक तबके से आने वाले लोगों (मुख्यत: उच्च जातियां) को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई 50 फ़ीसदी की सीमा तोड़ ही चुकी है, तो कोई वज़ह नहीं बचती कि पिछड़ा वर्ग समूह के आरक्षण को 27 फ़ीसदी तक सीमित क्यों रखा जाए। 

2022 में कम होती नौकरियां एक अहम मुद्दा थीं। क्या समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव सरकारी कंपनियों के निजीकरण के खिलाफ़ और कृषि क्षेत्र में बजट बढ़ाने के लिए आंदोलन नहीं कर सकते, ताकि उनकी पार्टी का आधार आगे और ज़्यादा बढ़ाया जा सके? उन्हें पिछड़ा वर्गे के लोगों और दलितों को भरोसा दिलवाना होगा कि उन्हें यादवों से डरने की कोई जरूरत नहीं है, यह एक तथ्य रहा है जिसने समाजवादी पार्टी की गति को हमेशा कमज़ोर किया है। यह तभी संभव है जब आंदोलन के ज़रिए अलग-अलग सामाजिक समूहों को एकजुट किया जाए और पार्टी का ऐसा ढांचा बनाया जाए, जिसमें अति पिछड़ा जातियों और दलितों को ज़्यादा जगह दी जाए। 

इससे समाजवादी पार्टी की छोटे ओबीसी नेताओं पर निर्भरता कम होगी। आखिर सपा गठबंधन के लिए इनकी वफ़ादारी की कोई गारंटी नहीं ले सकता। इतिहास इनके सतत खेम बदलने का गवाह है। आखिर, एसबीएसपी 2017 में बीजेपी की सहयोगी पार्टी थी। पिछड़ा वर्ग का एक मजबूत आंदोलन इन जातियों को समाजवादी पार्टी की छत के नीचे इकट्ठा रखने में मदद देगा। 

लेकिन पार्टी का आधार बढ़ाने वाले इन कदमों को उठाने के यह जरूरी होगा कि अखिलेश यादव तुरंत सड़कों पर उतरें। उन्होंने अब तक संघर्ष का सही माद्दा नहीं दिखाया है। 8 जनवरी को जब चुनाव की घोषणा हुई थी, तबसे प्रियंका गांधी ने 209 रैलियां कीं, आदित्यनाथ ने 203 और अखिलेश ने केवल 131 रैलियां ही कीं। उनका परदे के पीछे से राजनीतिक करने का तरीका बीजेपी को नहीं हरा सकता, जो पूरे साल काम करती है और जिसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मजबूत आधार है।

छठवां सबक: बीजेपी को हराने के लिए अखिलेश यादव को गर्म कोयले पर चलने की आदत डालनी होगी। नहीं तो उनका हश्र भी मायावती की तरह होगा।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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