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अमित शाह ने कोविड-19 पर सरकार की असफलता को स्वीकारा, बेतुके सवाल करने पर हैं आमादा

अब हम नए मामलों में बड़ा उछाल देख रहे हैं। भारत दुनिया का नया हॉटस्पॉट बनकर उभरा है। सामुदायिक फैलाव में महामारी को रोकने के लिए क्या मोदी सरकार के पास कोई योजना है?
अमित शाह

जब अमित शाह ने कोरोना महामारी पर "गलतियों" और "कमियों" की बात स्वीकार की और विपक्ष से उलटी तुलना पर उतर आए, तो हम जान चुके हैं कि मोदी सरकार महामारी से निपटने के मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम रही है। अमित शाह ने कहा ने विपक्ष से सरकार की तुलना करते हुए कहा - "विपक्ष ने क्या किया (महामारी के दौर में)? यह साफ़ है कि केंद्र सरकार का बुरे तरीके से बनाया और लागू किया गया लॉकडाउन, जिसके चलते लोगों को बहुत तकलीफें उठानी पड़ी, वह महामारी को नियंत्रित करने में नाकाम रहा है। लॉकडाउन को आंशिक तरीके से वापिस लेने के बाद हम संक्रमण के मामलों में बढ़ोतरी देख रहे हैं।

जब हम किसी महामारी की तरफ़ देखते हैं, तो हमें सिर्फ़ कुल संक्रमित या मृत लोगों की ही तरफ नहीं देखना चाहिए। हमें संक्रमण फैलने की दर पर भी ध्यान रखना होगा। भारत और रूस में इस वक़्त तीसरे नंबर पर सबसे तेजी से रोज मामले बढ़ रहे हैं। दोनों देश केवल ब्राज़ील और अमेरिका से ही पीछे हैं। रोज़ाना होने वाली मौतों के मामले में भी भारत सिर्फ़ इन्हीं दोनों देशों से पीछे है।

 मौतों का आंकड़ा बढ़ते मरीजों को संभालने में हमारे स्वास्थ्य ढांचे की असफलता दिखता है। बीमार लोग अस्पतालों के बाहर मर रहे हैं। उन्हें बेड नहीं मिल पा रहे हैं। अब हमारे सामने यही संकट है।

मोदी सरकार ने कुछ दिखावटी कवायदें भी कीं, ताकि लोगों को सहमत कराया जा सके की इस खोखले सिस्टम सर लाखों ज़िंदगियां बचाई जा सकती हैं। महामारी और लॉकडाउन को समझने में यह बुनियादी गलती है। कोई लॉकडाउन संक्रमण को कुछ वक़्त के लिए टाल सकता है। उसे ख़त्म नहीं कर सकता।

इससे हमें क्वारंटीन सुविधाएं, अस्थाई अस्पताल, ICU   है। जैसी आपात सुविधाएं बढ़ाने, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन सुविधा बेहतर करने जैसे दूसरे उपाय करने का वक़्त मिलता है।

तीन बड़े स्वास्थ्य संस्थानों, इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन (IPHA), द इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेंटिव एंड सोशल मेडिसिन (IAPSM) और इंडियन एसोसिएशन ऑफ एपिडेमियोलॉजिस्ट (IAE) ने  एक स्टेटमेंट में कहा, "देश की उप जनसंख्या के एक बड़े हिस्से में सामुदायिक फैलाव चालू हो चुका है।"

 पब्लिक हेल्थ ऑर्गनाइजेशन ने यह भी कहा कि " भारत में 25 मार्च से लागू किए गए लॉकडाउन के प्रावधान सबसे कड़े थे, इसके बावजूद संक्रमण के मामले कई गुना बढ़ गए।" संगठन ने इसकी वजह अप्रासंगिक और लगातार बदलती नीतियों को बताया।

इतनी बड़ी संख्या में मामले सामने आने से साफ़ हो गया है कि भारत में संक्रमण का समुदायिक फैलाव हो गया है। जबकि मोदी सरकार इससे इनकार कर रही है।

मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, इंदौर, चेन्नई और दूसरे शहरों में सामुदायिक फैलाव के कई हफ़्ते हो चुके हैं। सामुदायिक संक्रमण की बात को नकार कर सरकार लोगों की जांच पर प्रतिबंध लगा रही है। क्या टेस्टिंग किट्स की कमी होने के चलते सरकार सामुदायिक संक्रमण से इंकार कर रही है।

संक्रमण के बढ़ते मामलों के साथ दूसरी चिंता की बात टेस्ट किए गए लोगों में पॉजिटिव निकलते लोगों की बड़ी संख्या है।  एक महीने पहले दिल्ली में कुल टेस्ट में से 8.1 फीसदी लोग पॉजिटिव निकलते थे। आज यह दर तिगुनी हो चुकी है। इसी तरह महाराष्ट्र में यह दर 16.5 फ़ीसदी थी, जो अब बढ़कर 22.8 फ़ीसदी हो गई है।

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(Calculations using data from www.covid19india.org and Ministry of Health and Family Welfare)

मुंबई में तो आंकड़े और भी भयानक हैं। दिल्ली के कुछ जिलों में भी कमोबेश यही हालात हैं। यह दिखाता है कि जिन जगहों पर महामारी शुरू के फैली थी, वहां अब जितने मामले हैं, उन्हें सामने लाने के लिए पर्याप्त मात्रा में टेस्ट नहीं किए जा रहे हैं।  या तो हमारे पास जरूरी मात्रा में टेस्ट किट्स और जांच उपकरण उपलब्ध नहीं हैं या फिर हम असली आंकड़ों को छुपाने में व्यस्त हैं।

कुछ राज्य सरकारें भी टेस्टिंग को नियंत्रित कर इस समस्या में इज़ाफ़ा कर रही हैं। हाल में दिल्ली सरकार ने 8 निजी लैबों को   लक्षण ना दिखाने वाले लोगों की जांच करने पर कारण दिखाओ नोटिस जारी कर दिया। दिल्ली सरकार और ICMR के बीच विवाद का ऐसा ही मसला है. ICMR ने संक्रमित के सीधे संपर्क में आने वाले सभी मरीजों की जांच का निर्देश दिया है। जबकि दिल्ली सरकार ने लक्षण ना दिखाने वाले मरीजों की जांच ना करने की योजना बनाई है।

ज्यादा खतरे वाले मरीजों के लिए दिल्ली सरकार ने उनके संपर्क में सीधे आने वाले लोगों की भी टेस्टिंग नियंत्रित कर ली है। उपराज्यपाल ने दिल्ली सरकार के इस फ़ैसले पर रोक लगा दी, लेकिन केजरीवाल सरकार को अब भी अपने फ़ैसले के पीछे के तर्क को साफ़ करना बाकी है। ICMR  है। सामुदायिक फैलाव की बात को मानने के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में सिर्फ उनकी जांच हो सकती है, जो संक्रमित लोगों के संपर्क में आए हों या फ़िर जो ज्यादा जोखिम वाले मरीज़ हों।

 अब हम जानते हैं कि बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो संक्रमित तो हैं, पर लक्षण नहीं दिखाते और इससे पहले ही दूसरे लोगों को संक्रमित करना शुरू कर देते हैं। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि सामुदायिक फैलाव के काल में ज्यादा से ज्यादा जांच की जाएं। मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक हमारे टेस्ट की संख्या 3.5 है, जो ईरान (13), तुर्की (28) और थाईलैंड (6.7) से भी कम है। चीन, दक्षिण कोरिया, मलेशिया या दूसरे योरोपीय देशों की तो बात ही छोड़ दें।

 शुरू में हमने देखा था कि मृत लोगों का केजरीवाल द्वारा अलग आंकड़ा निकाला जाता है। कब्रगाहों से भी खोजकर जानकारी निकली जाती थी। क्या कम होते टेस्ट सरकार की असली आंकड़ों को छुपाने की नाकामी है?  यह रास्ता पहले गुजरात सरकार ने भी अपनाया था। लेकिन यह ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता। क्योंकि किसी की मौत बहुत लंबे वक्त तक नहीं छुपाई जा सकती। गुजरात में यही हुआ कि वहां संक्रमित लोगों के अनुपात में मृत लोगों की संख्या दूसरे राज्यों से ज्यादा रही।

आखिर देश में टेस्टिंग का पैमाना क्या होना चाहिए? नए मामलों के साथ कदमताल बनाए रखने के लिए हमें अपनी प्रतिदिन जांच की क्षमता को पचास हज़ार से एक लाख के बीच करना होगा। जबकि हम एक हफ़्ते में फिलहाल इतनी जांच कर पा रहे हैं। यह काम केंद्र सरकार को करना चाहिए। उनकी आत्मनिर्भर भारत की प्राथमिकता सूची में यह सबसे ऊपर होना चाहिए।

हर हफ़्ते एक नया जुमला बनाने और पीएम के नाम पर नई योजना लाने के बजाए निर्माणकर्ताओं की पहचान कर उन्हें जरूरी साजो समान उपलब्ध करवाना चाहिए। ताकि वे टेस्ट किट्स उत्पादन दर बढ़ा सकें।  मोदी सरकार ने जिस 20 लाख करोड़ की योजनाओं की घोषणा की, उनमें स्वास्थ्य के लिए महज़ 15000 करोड़ रुपए ही हैं। वहीं प्रधानमंत्री केयर फंड की  अपारदर्शी प्रवृत्ति को देखते हुए, हम नहीं जानते कि इसका पैसा किस चीज के लिए खर्च किया जा रहा है।

 लॉकडाउन ने सरकार को अपने स्वास्थ्य ढांचा को महामारी से निपटने लायक बनाने का वक़्त दिया था। सरकार को देश में जांच क्षमताएं और यहां के स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करना था। साथ में बड़ी संख्या में संक्रमित लोगों को झेल सकने वाला इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना था। दुर्भाग्य से मोदी सरकार इस मामले में बुरी तरह असफल रही है। सरकार ने फ़रवरी का अहम महीना ट्रंप की यात्रा और मोटेरा स्टेडियम में हुए उनके कार्यक्रम में गुज़ार दिया। उस महीने सरकार CAA-NRC-NPR  मुद्दे पर पूरे देश के ध्रुवीकरण करने में लगी रही।

पहला केस आने के चार महीने और लॉकडाउन के दो महीने बाद भी सरकार जांच क्षमताओं में जरूरी वृद्धि करने और आज जिस तरीके से संक्रमण में उछाल आ रहा है, उसके लिए जरूरी  स्वास्थ्य ढांचा बनाने में नाकाम रही है। प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर डिजीज़ डायनामिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी (CCDEP) के अध्ययन के मुताबिक, देश के 19 लाख हॉस्पिटल बेड में से सिर्फ़ 95,000 आईसीयू बेड हैं।

वेंटिलेटर के मामले में भी हालत बहुत खराब है। देश में केवल 48,000 मशीनें ही हैं। भारत के आकार के देश के लिए यह दोनों क्षमताएं नाकाफी है। ऊपर से इन सुविधाओं के दो तिहाई बेड निजी अस्पतालों में हैं, जहां आम आदमी की पहुंच से चीजें बाहर हैं। एकमात्र अपवाद यहां केरल है, जहां बहुत मजबूत सार्वजानिक स्वास्थ्य ढांचा है।

WHO और चीन द्वारा बनाई गई संयुक्त टीम ने इस महामारी के ख़िलाफ़ चीनी लड़ाई का अध्ययन किया है। इसमें सरकार और जनता की तरफ से अपना सर्वस्व न्योछावर कर लड़ाई लड़ी गई। इसी से चीन को सफलता मिली।  भारत में केरल की सरकार ने पंचायत से लेकर हर तरह के संस्थानों को शामिल किया, वोलेंटियर की भर्तियां की। महामारी पर केरल की यह पहुंच न केवल भारत, बल्कि दुनिया के लिए नज़ीर साबित हुई है। इसके ठीक उलट मोदी सरकार ने सिर्फ़ थाली बजवाने, बत्तियां बुझाने में ही जनता को शामिल किया। इसका नतीजा आज सबके सामने है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Amit Shah Accepts Government Failed on COVID-19, Descends to What-Aboutery

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