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भारत के नागरिकों के नाम खुला ख़त : भारत को सीएए-एनपीआर-एनआरसी नहीं चाहिए

पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान, आप में से कई लोग नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 ("सीएए") को लागू किये जाने को लेकर ज़ाहिर तौर पर परेशान हुए होंगे।
भारतीय संविधान

भारत के सम्मानीय नागरिक जन, 

पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान आप में से कई लोग नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 ("सीएए") के लागू किये जाने को लेकर काफ़ी बैचेन रहे होंगे। आपके मन में भय और आशंका तब कहीं और अधिक बढ़ गई होगी, जब भारत सरकार के प्रवक्ताओं की ओर से भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरआईसी) के कार्यान्वयन को लेकर विरोधाभासी और भ्रामक सुनने को मिले। हालांकि अब सरकार राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को एनआरआईसी से असंबद्ध दिखाने की कोशिश में जुटी है, हम, संवैधानिक आचरण समूह के रूप में, जिसमें भारतीय संविधान के प्रति प्रतिबद्ध अखिल भारतीय और केंद्रीय सेवाओं से संबद्ध पूर्व शासकीय सेवा से जुड़े लोग शामिल हैं, इस तथ्य से आप सबको अवगत कराना अपना दायित्व समझते हैं कि तीनों मुद्दे- एनपीआर, एनआरआईसी और सीएए आपस में जुड़े हुए हैं, और इस बात पर ज़ोर देना चाहते हैं कि इन सबका पूरी ताक़त से विरोध करने की आवश्यकता क्यों है। आसान भाषा में समझने के लिए हम बिन्दुवार मुद्दों को सूचीबद्ध तरीक़े से आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं :

  • एनपीआर और एनआरआईसी की कोई आवश्यकता नहीं है

एनपीआर और एनआरआईसी दोनों की प्रक्रिया 2003 में नागरिकता अधिनियम, 1955 (1955 अधिनियम) और नागरिकता (नागरिकों के पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने) नियम, 2003 (2003 नियम) के तहत 2003 में तत्कालीन एनडीए सरकार द्वारा संशोधित किए गए हैं। एनपीआर का भारत की जनगणना से कोई लेना-देना नहीं है, जिसे हर दस साल में किये जाने का प्रावधान है, और जिसकी अगली जनगणना वर्ष 2021 में किये जाने लिए लंबित है। जहाँ जनगणना में भारत के सभी निवासियों के बारे में सूचनाएं एकत्र करने का काम किया जाता है, वहीं एनपीआर के तहत बिना इस बात की परवाह किये कि किसी की क्या राष्ट्रीयता है, उन सभी के नामों को सूचीबद्ध किया जा रहा है जो भारत में पिछले छह महीनों से रह रहे हैं। जनसंख्या रजिस्टर में आमतौर पर एक निर्दिष्ट स्थानीय क्षेत्र (गांव / क़स्बा / वार्ड / सीमांकित क्षेत्र) के भीतर रहने वाले व्यक्तियों की सूची तैयार की जाती है।

एनआरआईसी प्रभावी रूप से पूरे देश के लिए जनसंख्या रजिस्टरों का एक उपसूची (सबसेट) का काम करेगा। 2003 के क़ानून के तहत स्थानीय रजिस्ट्रार (आमतौर किसी तालुका या नगर कार्यवाहक) द्वारा जनसंख्या रजिस्टर में विवरणों के सत्यापन की जाँच की व्यवस्था की गई है, जिसका काम होगा उन संदिग्ध नागरिकता वाले मामलों को छांट कर अलग कर देना और आगे की पूछताछ करना। उन नागरिकों, जिनकी नागरिकता संदेह के घेरे में है से जरुरी पूछताछ के बाद, स्थानीय रजिस्ट्रार भारतीय नागरिकों के स्थानीय रजिस्टर का एक ड्राफ़्ट तैयार करेगा, जिसमें उन लोगों को शामिल नहीं किया जायेगा, जो दस्तावेज़ी प्रमाण पत्रों के माध्यम से अपने भारतीय नागरिक होने के दावे को स्थापित कर पाने में अक्षम साबित होते हैं।

ऐसी स्थिति में उन सभी लोगों के मन में असम के नागरिकों के अनुभवों को देखते हुए गहरी आशंकाएं उत्पन्न होने लगती हैं, चाहे वे किसी भी धर्म को मानने वाले लोग हों, को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। एनपीआर 2010 के विपरीत, एनपीआर 2020 न सिर्फ़ निवासी के माता-पिता के नाम के बारे में जानकारी देने की माँग करता है बल्कि उसे उनकी जन्म तिथि और वे किस स्थान पर पैदा हुए थे, इसे भी सूचीबद्ध कराने की माँग करता है। ऐसी स्थिति में कोई भी पुरुष/महिला यदि अपने माता-पिता के इन विवरणों को अपनी नागरिकता के मामले में प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं हो पाता/पाती तो उस पुरुष/महिला को एक "संदिग्ध नागरिक" के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

1955 अधिनियम की (धारा 3 (बी), 3 (सी) और 14 ए) में 2003  संशोधन के जरिये और उसके बाद 2003 के क़ानूनों को प्रस्तुत  करने के पीछे ऐसा प्रतीत होता है कि बिना किसी तथ्यात्मक आधार के अवैध प्रवासियों के बारे में अनुचित सनक छिपी है। एनआरआईसी के रूप में "अवैध घुसपैठियों" की राष्ट्रव्यापी पहचान की जरूरत क्या आन पड़ी, हम इस बात को समझ पाने में असफल हैं, जबकि पिछले सात दशकों में हुई जनगणना के आंकड़े, उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों और पूर्वोत्तर भारत के वे इलाके जिनकी सीमा हमारे पडोसी देशों से सटी हुई है को छोड़कर, किसी भी प्रकार के प्रभावी जनसांख्यिकीय बदलाव को नहीं दर्शाते। 

हम इस बात से आशंकित हैं कि भारतीय नागरिकों के स्थानीय रजिस्टर में किसी व्यक्ति को शामिल करने या बाहर रखने जैसे असीमित अधिकार नौकरशाही में उन लोगों के हाथ लगने जा रही है, जो काफ़ी निचले स्तर पर कार्यरत हैं। और ऐसे में इस बात की पूरी सम्भावना है कि इस पूरे आयोजन के एक अनियंत्रित और भेदभावपूर्ण तरीक़े से नियोजित करने की गुंजाइश बनी रहेगी, जिसमें स्थानीय दबाव तो काम करेंगे ही, साथ में विशिष्ट राजनीतिक उद्देश्यों के हित साधन भी पूरे होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार किस मात्रा में बेगलाम होने जा रहा है, इसकी तो कल्पना करने की भी आवश्यकता नहीं है। इस सबके ऊपर एक प्रावधान और जोड़ा गया है जिसमें कोई भी व्यक्ति इस स्थानीय रजिस्टर पर अपनी आपत्ति रख सकता है।

इस प्रकार के विशाल पैमाने पर किये जाने वाले प्रयोगों के क्या भयावह खतरे हो सकते हैं, इसे असम में लागू की गई एनआरसी की प्रक्रिया के ज़रिये समझा जा सकता है: जहाँ पर लाखों नागरिकों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए अपने जीवन भर की जमापूँजी को खर्च कर एक जगह से दूसरी जगह पर चक्कर काटने पर मजबूर होना पड़ा था। इस सन्दर्भ में अभी से बेहद चिंताजनक खबरें सुनने को मिल रही हैं कि किस प्रकार भारत के विभिन्न हिस्सों में लोग ज़रूरी जन्म प्रमाणपत्रों को हासिल करने को लेकर दहशत में हैं। समस्या तब कई गुना बढ़ जाती है जब एक ऐसे देश में जहाँ पर जन्म सम्बन्धी रिकॉर्ड को लेकर कभी गंभीरता नहीं रही, और उसके ऊपर जन्म के पंजीकरण की सरकारी व्यवस्था बेहद खराब स्थिति में है। किसे शामिल किया गया और कौन बाहर रखा गया, इसे लेकर होने वाली त्रुटियों को भारत में हुए सभी व्यापक सर्वेक्षणों, जिनमें गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन के सर्वेक्षण और सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना जैसे प्रमुख उदाहरणों के ज़रिये स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हाल ही में समाप्त हुए असम की एनआरसी प्रक्रिया भी ग़लतियों से भरी पड़ी है और इसे लेकर वहाँ पर भारी असंतोष है। हकीकत तो यह है कि बीजेपी जो वहाँ पर सत्ता में है, राज्य सरकार खुद स्वयं के एनआरसी डेटा को ख़ारिज कर चुकी है, जो कि अपने आप में एक बेहद हास्यास्पद परिदृश्य है।

सीएए के प्रावधानों के साथ-साथ जिस प्रकार के आक्रामक बयानों की बाढ़ पिछले कुछ वर्षों से सरकार में सर्वोच्च पदों पर बैठे  लोगों की ओर से सुनने को मिली हैं, उससे निःसंदेह भारतीय मुस्लिम समुदाय के मन में गहरी आशंका को पैदा करने का काम किया है, जो कि पहले से ही लव जिहाद से लेकर मवेशियों की तस्करी और गोमांस खाने के आरोपों के चलते प्रताड़ित किये जा रहे हैं और अनेकों हमलों के शिकार हैं। ये शंकाएं अब और गहरा गई हैं जब हाल के दिनों में मुस्लिम समुदाय के लोगों को उन्हीं राज्यों में पुलिसिया कार्यवाही को भुगतने के लिए मजबूर होना पड़ा, जहाँ-जहाँ केंद्र सरकार की राज्य सरकारों के नियन्त्रण में स्थानीय पुलिस है। इस कार्यवाही से सिर्फ यह हुआ कि व्यापक भावना में यह विश्वास कहीं अधिक गहराई से जुड़ गया है कि एनपीआर-एनआरआईसी प्रयोग का इस्तेमाल विशिष्ट समुदायों और व्यक्तियों को चुन-चुनकर लक्षित करने के लिए किया जा सकता है।

इसके ऊपर एनपीआर की प्रक्रिया से होने वाली आम आदमी की असुविधा को जोड़ने का तुक नहीं समझ में आता, जिसपर एनपीआर के रूप में एक और अनावश्यक खर्च का बोझ लादा जा रहा है, जबकि आधार सिस्टम के माध्यम से वे सभी सूचनाएं पहले से मौजूद हैं: जिनमें नाम, पता, जन्म तिथि, पिता/पति का नाम और लिंग शामिल हैं। अधिकांश भारतीय नागरिक पहले से ही आधार कार्ड के जरिये इस दायरे में ले लाये जा चुके हैं। ढेर सारे अतिरिक्त डेटा (आधार कार्ड में दिए गए विवरणों के अतिरिक्त) बटोरने का मकसद स्पष्ट नहीं हो रहा है, और इस आशंका को ही बल मिल रहा है कि इसका उद्येश्य उन प्रमाणिक नागरिकों को एक खर्चीले नौकरशाही प्रक्रिया में उलझा कर फँसाने का है, जिसमें उनके/उनकी नागरिकता की स्थिति संदेह के घेरे में आती हो।

हमारे पूर्व के शासकीय सेवाओं से जुड़े समूह के लोगों में, जिनके पास सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में अपनी सेवाएं प्रदान करने का कई वर्षों का अनुभव रहा है, के आधार पर हम पूरी दृढ़ता से इस विचार को मानते हैं कि एनपीआर और एनआरआईसी दोनों ही बेमतलब की और पैसों की बर्बादी वाले प्रयोग हैं। इन्हें यदि लागू किया जाता है तो यह बड़े पैमाने पर आम जीवन में मुश्किलें ही खड़ी करने वाली सिद्ध होंगी और सार्वजनिक धन का दुरूपयोग ही होने जा रहा है, जिसका कहीं बेहतर उपयोग समाज के गरीब और वंचित तबके को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं पर खर्च के जरिये किया जा सकता है। यह नागरिकों की निजता के अधिकार पर भी हमला करने वाला साबित होता है, क्योंकि एक ही दस्तावेज में ऐसी बहुत सी जानकारियों को सूचीबद्ध किया जायेगा, जिसमें आधार, मोबाइल नंबर और वोटर आईडी शामिल हैं, और जिसके दुरुपयोग की गुंजाइश से इंकार नहीं किया जा सकता।

  • व्यापक पैमाने पर विदेशी न्यायाधिकरणों और बंदी शिविरों की स्थापना को अधिकृत क्यों किया गया है?

विदेशी (ट्रिब्यूनल) संशोधन आदेश, 2019 (30 मई 2019 को जारी किया गया) ने अनावश्यक रूप से इस आशंका को हवा देने का काम किया है कि अब किसी भी जिलाधिकारी के आदेश पर भारत में फ़ोरेनर्स ट्रिब्यूनल स्थापित किए जा सकते हैं, जो कि "अवैध घुसपैठियों" की पहचान किये जाने वाले व्यापक अभियान की पूर्वपीठिका हैं। हालांकि केंद्र सरकार यह दावा कर सकती है कि उसका ऐसा कोई इरादा नहीं है, लेकिन असम की घटनाओं के मद्देनजर और अन्य जगहों को देखते हुए इस प्रकार के स्पष्ट आदेश जारी करने के लिए विदेशी न्यायाधिकरणों के गठन के लिए शक्ति संपन्न करना निश्चित तौर पर असंगत आदेश है। असम में विदेशी न्यायाधिकरणों को लेकर जो अनुभव रहे हैं, उन्हें अगर बिना किसी लाग-लपेट के कहें तो जिनके ऊपर यह बीती है उन्हें बेहद दर्दनाक अनुभवों से दो-चार होना पड़ा है। दस्तावेजों को इकट्ठा करने से लेकर अपने नागरिकता के दावों पर उठाई गई आपत्तियों का जवाब देने की दौड़ में, इन "संदिग्ध नागरिकों" को इन न्यायाधिकरणों के साथ भी जूझना पड़ा है, जिनकी रचना और कार्यप्रणाली बेहद स्वेच्छाचारी और मनमानीपूर्ण रही है। जिसके नतीजे में, अपनी नागरिकता के पुष्टिकरण की चाह लिए ही कई नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी है या उन्हें बंदी शिविरों में अमानवीय बंदियों के रूप में इसे भुगतने के लिए विवश होना पड़ा है।

मीडिया के ज़रिये कुछ ऐसी भी ख़बरें आईं हैं, जिसके अनुसार डिटेंशन शिविरों के निर्माण के आदेश सभी राज्य सरकारों को दिए गए हैं, और जिसका भारत सरकार ने खंडन भी नहीं किया है। हम प्रधानमंत्री के हालिया बयान पर पूरी तरह से आश्चर्यचकित हैं, जिसमें उन्होंने इस बात का दावा किया था कि इस प्रकार के कोई भी शिविर अस्तित्व में नहीं हैं। जबकि विभिन्न रिपोर्टों में राज्यों में इस तरह के शिविरों के निर्माण को सबूतों के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें असम में गोलपारा और कर्नाटक में नेलमंगला शामिल हैं, और महाराष्ट्र के नवी मुंबई में एक डिटेंशन सेंटर के निर्माण का इरादा जताया गया है। भारत सरकार ने अभी तक ऐसे किसी भी आँकड़े को सार्वजनिक करने का कष्ट नहीं किया है जिससे यह दिखाया जा सके कि भारत में "अवैध प्रवासियों" की समस्या इतनी गंभीर हो चुकी है कि सारे देश में बड़े पैमाने पर डिटेंशन शिविरों के निर्माण की आवश्यकता है।

  • सीएए की संवैधानिक और नैतिक आधार पर टिके रहने में अक्षमता :

सीएए प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को लेकर हमारी ओर से गंभीर आपत्तियाँ हैं, और हम यह भी मानते हैं कि वे नैतिक रूप अकाट्य हैं। हम इस बात पर ज़ोर देकर कहना चाहते हैं कि एक ऐसा क़ानून जो जानबूझकर मुस्लिम धर्म को इसके दायरे से बाहर रखता है, जिसके चलते यह क़ानून भारत की आबादी के एक काफ़ी विशाल हिस्से के भीतर आशंकाओं को जन्म देने के लिए बाध्य करता है। एक ऐसा सूत्रीकरण, जो दुनिया के किसी भी देश में उन पीड़ित उत्पीड़न झेल रहे लोगों को ध्यान में रखकर बनाया गया हो (धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक) उससे न केवल स्थानीय आशंकाओं को शांत किया जा सकता है,  बल्कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से भी इसको लेकर देश की सराहना की जाएगी। अपने मौजूदा सूत्रीकरण में सीएए ने "उत्पीड़ित" शब्द तक का उल्लेख नहीं किया है। शायद इस बात का डर रहा हो, कि कहीं इस शब्द के इस्तेमाल के चलते अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के संदर्भ में इन देशों के साथ भारत के सम्बन्ध ख़राब हो सकते हैं। यह देखते हुए कि भारत सरकार के पास किसी प्रवासी के भारत में ग्यारह साल पूरे होने के बाद उसे नागरिकता प्रदान करने की शक्तियां निहित हैं, यह जानना काफी रोचक होगा कि क्या भारत सरकार ने "अवैध प्रवासियों" के सभी लंबित मामलों को 2008 के अंत तक मंज़ूरी दे दी है। चूंकि किसी को नागरिकता देने और व्यक्तियों/समूहों को पासपोर्ट अधिनियम, 1920 और विदेश अधिनियम, 1946 के दायरे से मुक्त करने का विवेकाधीन अधिकार पूरी तरह से भारत सरकार के अधीन है। इसलिए सरकार द्वारा केस दर केस विवेक का इस्तेमाल कर मामले को निपटाने की स्वतंत्रता है, जिसमें बिना सीएए की प्रक्रिया से गुजरे, और खास देशों और खास समुदायों का उल्लेख किये बिना भी किया जा सकता है।

जिस बात ने भारत सरकार के इरादों के बारे में गंभीर आशंकाओं को जन्म दिया है वह रही है हाल के दिनों में, एनआरआईसी और सीएए को आपस में जोड़ने वाले भारत सरकार के मंत्रियों के बयानों की बौछार ने। 22 दिसंबर को दिल्ली में एक सार्वजनिक सभा में प्रधान मंत्री के इस बयान कि सीएए और एनआरआईसी का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है, उनके अपने ही गृह मंत्री द्वारा पूरी मज़बूती से विभिन्न मंचों पर बार-बार दोहराए जाने वाले बयानों का विरोधाभासी बयान है। इस प्रकार के परस्पर विरोधी और भ्रमित करने वाले हड़बड़ी वाले बयानों से इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आम नागरिक की दशा क्या होगी, वह किस प्रकार से इस अज्ञात भय से दूर रहे, वो भी तब और भी अधिक जब इस मुद्दे पर सरकार ने किसी भी प्रकार की बातचीत की पहल अपनी ओर से नहीं की है। यह सब एक ऐसे समय में हो रहा है जब देश में आर्थिक स्थिति को दुरुस्त करने पर सरकार को अपना सारा धयान केन्द्रित करना चाहिए, आज भारत इस हालत में कत्तई नहीं कि जहाँ नागरिक और सरकार के बीच सड़कों पर संघर्ष छिड़ जाये। और न ही ऐसी कोई स्थिति वांछनीय है जिसमें अधिकांश राज्य सरकारें एनपीआर/एनआरआईसी को लागू करने के लिए अनिक्छुक हों, जिससे कि केंद्र-राज्य संबंधों में एक गतिरोध उत्पन्न हो, जो भारत जैसे संघीय ढ़ांचे के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। और इन सबसे ऊपर, हम एक ऐसी स्थिति पैदा करते जा रहे हैं जिसमें भारत के अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव को खो देने और अपने निकटवर्ती पड़ोसियों से अलग-थलग पड़ जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है, जिसके चलते उप-महाद्वीप में सुरक्षा व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। आज भारत को अपने उदारवादी लोकतांत्रिक स्वरूप के पथप्रदर्शक कराने वाले एक प्रकाश स्तंभ की अपनी स्थिति से हाथ धोने का खतरा उत्पन्न हो चुका है।

इसलिए, हम देश के सम्मानीय नागरिकों से आग्रह करते हैं, जैसा कि हम करते रहे हैं, कि भारत सरकार, इस बात पर ग़ौर करे कि भारतीय नागरिकों के मन की बात क्या है और तदनुसार अविलम्ब निम्नलिखित क़दम उठाने पर ध्यान दे:

  • नागरिकता क़ानून, 1955 के खंड 14A और 18 (2) (ia) के साथ नियम, 2003 को इसकी संपूर्णता में निरस्त करे, जो राष्ट्रीय पहचान पत्र और इसकी प्रक्रियाओं और नागरिकता (नागरिकों का पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करना) से संबंधित है।
  • विदेशियों के (न्यायाधिकरण) संशोधन आदेश, 2019 को वापस लेना और डिटेंशन शिविरों के निर्माण के लिए जारी सभी निर्देशों को वापस लेना।
  • नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 को निरस्त करे।

सत्यमेव जयते

कोन्सटीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप 

हस्ताक्षरकर्ताओं की सूची को यहाँ से पढ़ा जा सकता है।

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