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जम्मू-कश्मीर के परिसीमन की प्रक्रिया में कोई भी पक्षपात अलगाव की खाई को और बढ़ा सकता है!

साफ़ राजनीतिक शब्दों में कहा जाए तो जम्मू की मदद से भाजपा सरकार में तभी पहुंचेगी, जब परिसीमन कर हालिया स्थिति बदल दी जाए।
जम्मू-कश्मीर के परिसीमन की प्रक्रिया में कोई भी पक्षपात अलगाव की खाई को और बढ़ा सकता है!
फोटो साभार : सत्याग्रह

अनुच्छेद 370 को अर्थहीन बनाने के बाद जम्मू कश्मीर अलगाव और अविश्वास की जमीन पर चल रहा है। अखबार उठाकर देख लीजिए हर हफ्ते कोई न कोई ऐसी हिंसक घटना जरूर दिखेगी जो किसी क्षेत्र के शांत होने का परिचायक नहीं होती है। फिर भी राजनीति अपनी प्रकृति के मुताबिक अपनी जमीन तलाशने में लगी रहती है।

अनुच्छेद 370 हटाने के बाद जब जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था तो उस समय बहुत सारे जानकारों की यह राय थी कि आगे की राजनीति की शुरुआत इस बिंदु से होगी कि जम्मू कश्मीर को उसका स्टेटहुड वापस कर दिया जाए। प्रधानमंत्री गृहमंत्री और जम्मू कश्मीर के प्रमुख दल के नेताओं के साथ हुई दिल्ली में सर्वदलीय बैठक में यही विषय प्रमुखता से केंद्र में रहा।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अमिताभ मट्टू ने इस पूरे मसले पर द हिंदू अखबार में अंतर्दृष्टि भरा एक लेख लिखा है। प्रोफेसर मट्टू लिखते हैं कि केंद्र सरकार की हमेशा से यह नीति रही है कि वह जम्मू कश्मीर को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है। लेकिन यह नीति कारगर नहीं हो सकती। जो इलाके बॉर्डर पर मौजूद होते हैं, वह बहुत अधिक संवेदनशील होते हैं। उन्हें बिना बहुत अधिक स्वायत्तता दिए संभाला नहीं जा सकता है। जम्मू कश्मीर को अधिक से अधिक स्वायत्तता देनी चाहिए, जिसमें वह खुद का विकास कर पाए। ऐसा नहीं हो सकता कि अचानक कुछ लोग चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाएं और चुनाव जीत जाएं। जनता उन्हें नकार देगी। कश्मीर में पंचायत में चुनाव हुए तो प्रमुख पार्टियों ने बहिष्कार किया और जनता भी शामिल नहीं हुई।

डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट काउंसिल के चुनाव में यही हुआ। जो नेता दिल्ली से तैयार किए गए थे कश्मीर ने उनको बिल्कुल तवज्जो नहीं दिया। जमीनी तौर पर जुड़े हुए लोग ही आगे बढ़कर राज्य संभाल सकते हैं। इसलिए यहां पर परंपरागत पार्टियों की अधिक भूमिका है। आर्टिकल 370 हटाने के बाद विकास के लिए सरकारी डिलीवरी के जो भी दावे किए गए थे उनमें से अब तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिसे ठोस कहा जा सके। इन सारे क्षेत्रों गंभीर प्रयास करने की जरूरत है। कश्मीर के योग्य नौजवानों को मुख्यधारा में लाना ज्यादा जरूरी है। यही सब मिलकर स्वास्थ्य संघीय रिश्ते के आधार के तौर पर काम कर सकते हैं।

इस मुलाकात में जम्मू कश्मीर में फिर से स्टेटहुड बहाली करने के अलावा केंद्र की तरफ से परिसीमन की बात प्रमुखता से उभर कराई गई। मीडिया के मुताबिक माने तो प्रधानमंत्री का कहना है कि परिसीमन होने के बाद ही जम्मू-कश्मीर में फिर से चुनाव होंगे। यह बात प्रधानमंत्री पहले भी कह चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के भाषण में साफ कर दिया था कि जम्मू-कश्मीर में पहले परिसीमन होगा, फिर चुनाव। तो चलिए जम्मू कश्मीर के संदर्भ में परिसीमन के मुद्दे पर अपनी समझ बनाते हैं।

परिसीमन का शाब्दिक अर्थ होता है किसी भी तरह के सीमाओं को फिर से निर्धारित करना। संविधान के अनुच्छेद 82 के अनुसार प्रत्येक जनगणना के बाद संसद यानी केंद्रीय विधायिका को यह अधिकार दिया गया कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए परिसीमन करे।

परिसीमन करने की यह प्रक्रिया साल 1971 तक चली। उसके बाद यह तर्क सामने आया कि जो राज्य जनसंख्या नियंत्रण पर अधिक ध्यान केंद्रित करेंगे, लोकसभा में उनकी सीटों की संख्या कम हो जाएगी तथा जिन राज्यों की जनसंख्या अधिक होगी, लोकसभा में उन्हें अधिक सीटें प्राप्त होंगी। इस आशंका को दूर करने के लिये, संविधान अधिनियम, 1976 की धारा 15 के तहत 1971 (इस वर्ष जनसंख्या 54.81 करोड़ तथा पंजीकृत मतदाताओं की संख्या 27.4 करोड़ थी) की जनसंख्या को ही आधार मानकर तब तक लोकसभा में इसी आधार वर्ष को प्रमुखता देकर सीटों का आवंटन करने का प्रावधान रखा गया जब तक कि वर्ष 2000 के पश्चात् हुई प्रथम जनगणना के आँकड़े जारी नहीं कर दिये जाते हैं। परन्तु साल 2001 में 84वें संविधान संशोधन द्वारा इस समय सीमा को वर्ष 2000 से बढ़ाकर 2026 कर दिया गया।

जहाँ तक जम्मू-कश्मीर की परिसीमन की बात है तो जम्मू कश्मीर में आख़िरी बार 1995 में परिसीमन किया गया था, जब राज्यपाल जगमोहन के आदेश पर 87 सीटों का गठन किया गया। विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं, लेकिन 24 सीटों को पाक अधिकृत कश्मीर के लिए छोड़ दिया गया है। शेष 87 सीटों पर चुनाव होता है। साल 2002 में फ़ारुख़ अब्दुल्ला की सरकार ने जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में जम्मू-कश्मीर के संविधान में भी संशोधन कर दिया। इसके तहत भी शेष भारत की तरह यह प्रावधान किया गया कि साल 2026 तक जम्मू-कश्मीर में किसी भी तरह का परिसीमन नहीं किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है कि इसे बदला नहीं जा सकता है। अगर संसद चाहे तो गवर्नर की सलाह पर जम्मू-कश्मीर में साल 2026 से पहले ही परिसीमन कर सकती है।

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़ जम्मू क्षेत्र की आबादी 53,78,538 है, जो राज्य की 42.89 फ़ीसदी आबादी है। जम्मू का इलाक़ा 26,293 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है यानी राज्य का 25.93 फ़ीसदी क्षेत्रफल जम्मू क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहाँ विधानसभा की कुल 37 सीटें हैं।

कश्मीर की आबादी 68,88,475 है, जो राज्य की आबादी का 54.93 फ़ीसदी हिस्सा है। कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल राज्य का क्षेत्रफल 15,948 वर्ग किलोमीटर है, जो 15.73 प्रतिशत है। यहाँ से कुल 46 विधायक चुने जाते हैं। राज्य के 58.33 फ़ीसदी (59146 वर्ग किमी) क्षेत्रफल वाले लद्दाख क्षेत्र में कुल चार विधानसभा सीटें हैं। अब क्योंकि लद्दाख बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश बन गया है इसलिए इन चार सीटों का कोई महत्व नहीं।

कश्मीर और जम्मू के मामले में इसे साधारण शब्दों में समझा जाए तो ऐसी स्थिति है कि कश्मीर का क्षेत्रफल जम्मू से कम है और आबादी जम्मू से अधिक। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में सरकार बनाने के लिए किसी भी दल को 44 सीटों की ज़रूरत होती है। यह तर्क दिया जाता है कि 46 सीटों के साथ कश्मीर घाटी का विधानसभा में दबदबा रहता है।

कश्मीर घाटी में तकरीबन 96 फ़ीसदी आबादी मुस्लिम है। इसलिए जम्मू-कश्मीर की अगुवाई भी किसी मुस्लिम नेता को ही मिल जाती है। फिलहाल यह यहां की वस्तुस्थिति है।

राजनीतिक जानकारों की मानें तो इस स्थिति को बदलने के लिए परिसीमन हो रहा है। साफ़ राजनीतिक शब्दों में कहा जाए तो जम्मू की मदद से भाजपा सरकार में तभी पहुँचेगी, जब परिसीमन कर हालिया स्थिति बदल दी जाए।

इस पूरी स्थिति के बाद परिसीमन के गहरे अर्थों को समझना ज़रूरी है। अभी तक की ऊपर की सारी बहस से यह निष्कर्ष निकल सकता है कि जम्मू इलाक़े की सीटें बढ़ाकर और कश्मीर की सीटें कम कर चुनावी समीकरण को इस तरह से बदला जा सकता है जिसमें कश्मीर से निकलने वाली किसी भी तरह की ताक़तों को कम किया जा सके और जम्मू-कश्मीर को जम्मू से निकलने वाली ताक़तों से संचालित किया जाए। जिसकी वजह से जम्मू-कश्मीर पर कश्मीर के मुक़ाबले केंद्र की सत्ता की तरफ़ संचालित होने वाली ताक़तों का अधिक दबदबा रहे।

लेकिन यह परिसीमन की पक्षपाती व्याख्या है। एक निष्पक्ष परिसीमन से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।

जानकारों की मानें तो "केवल आबादी और क्षेत्रफल की लिहाज से ही अगर परिसीमन की बात करें तो यह बात स्पष्ट है कि आबादी परिसीमन में बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। इसलिए उत्तर प्रदेश क्षेत्रफल में छोटा होते हुए भी आबादी की वजह से संसद में 80 सीटों का भागीदार बनता है और इससे क्षेत्रफल में बड़े राज्य जैसे कि मध्यप्रदेश और राजस्थान संसद में केवल 29 और 25 सीटों के भागीदार बनते हैं क्योंकि इनकी आबादी कम है। कश्मीर का इलाक़ा घाटी का इलाक़ा है यानी पहाड़ों के बीच का मैदानी इलाक़ा जहाँ जम्मू के पहाड़ी इलाक़े से स्वाभाविक तौर पर अधिक आबादी रहती है, इसलिए इस क्षेत्र से अधिक लोगों को प्रतिनिधित्व मिले, इसमें कोई ग़लत बात नहीं। अगर इस क्षेत्र को अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व न भी मिले फिर भी ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए जहां पर यह न लगे कि जहां आबादी अधिक है उनके साथ नाइंसाफी हो गई।

अंग्रेजी की अकादमिक पत्रिका सेमिनार में राजनीति शास्त्री प्रोफ़ेसर योगेंद्र यादव का परिसीमन पर एक लेख छपा है। जिसमें वो लिखते हैं कि किसी भी तरह के परिसीमन को समकालीन भारत में प्रतिनिधित्व के विरोधाभासों के संदर्भ में भी देखने की ज़रूरत है। यह देखने कि ज़रूरत है कि क्या परिसीमन से उन जगहों की भागीदारी हो पा रही है, जिनकी भागीदारी नदारद रह जाती है? क्या परिसीमन से समाज के सबसे निचले स्तर पर छूट जा रहे लोगों को भागीदारी मिल रही है या नहीं? क्या भागीदार बन चुके, भागीदार हो रहे और भागीदारी के बिना रह गए लोगों के बीच बेहतर तालमेल हो रहा है अथवा नहीं?

इस आधार पर देखा जाए तो आज़ादी से लेकर अब तक जम्मू-कश्मीर की तस्वीर बहुत अधिक बदल चुकी है। साल1991 में गुज्जर, बकरवाल और गद्दी को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला। राज्य में इनकी आबादी तकरीबन 11 फ़ीसदी है, इनके लिए शेष भारत की तरह राज्य में कोई भी सीट हासिल नहीं है। इसके बाद जम्मू-कश्मीर में बहुत सारे रोहिंग्या भी शरणार्थी की तरह रह रहे हैं।

पाकिस्तान से आये बहुत सारे लोग शरणार्थी के तौर पर रहे हैं लेकिन अभी तक इन्हें नागरिकता नहीं मिली है। पंचायत की व्यवस्था कैसी है? इस जगह से कैसी भागीदारी होती है? इसके बाद शहरी और ग्रामीण आबादी की स्थिति कैसी है? यह सारे ऐसे सवाल हैं,जिन्हें एक परिसीमन आयोग से ध्यान में रखने की उम्मीद जाती है।

अभी हाल-फ़िलहाल का सबसे बड़ा सच है कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें कश्मीर से कटी हुई स्थिति में है और कश्मीर ख़ुद को अलग थलग महसूस कर रहा है। इसलिए इसे साथ में जोड़े रखने के लिए ज़रूरी है कि इसे पर्याप्त भागीदारी दी जाए।

किसी भी तरह के ऐसा परिवर्तन जिस पर कश्मीरियों की सहमति न हो, इस का मतलब होगा कि कश्मीर में जल रही अंतहीन आग को और अधिक धधका देना। इससे बचने का उपाय यही है कि परीसीमन के सम्बन्ध में यह समझा जाए कि परिसीमन का असल मक़सद है कि वह ऐसी व्यवस्था करे जिससे लोकतंत्र की जड़ें गहरी होती हैं।

इस मक़सद से सोचने पर यह कहीं से जायज़ नहीं लगता कि केवल केंद्र अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए परिसीमन की प्रक्रिया का राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करें। बल्कि उचित यह लगता है कि वह सभी हिस्सेदार जो राजनीतिक प्रक्रिया से वंचित है उनकी भागीदारी राजनीतिक प्रक्रिया में सुनिश्चित हो और ऐसा भी ना हो कि किसी एक का हक मारकर दूसरे की हकदारी बढ़ा दी जाए। 

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