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असम विधानसभा चुनाव 2021 : बीजेपी के लिए बेहद अहम परीक्षा

2014 से 2020 के बीच लगभग 50 फ़ीसदी राज्य सरकारें वापस सत्ता में आने में कामयाब रही हैं, वहीं जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार थी, उनमें से 70 फ़ीसदी में उसकी हार हुई है।
असम विधानसभा चुनाव 2021

पिछले सात दशकों में भारत के विधानसभा नतीजों का अध्ययन करने के बाद प्रणय रॉय और दोराब सोपारीवाला ने अपनी किताब "द वर्डिक्ट" में भारत के राज्य चुनावों को 1952 के बाद तीन चरणों में विभाजित किया है। यह चरण हैं- "प्रो इंकम्बेंसी फेज़" (1952-77), "द एंटी इंकम्बेंसी फेज़" (1977-2002) और "द फिफ्टी-फिफ्टी ऐरा" (2002 के बाद)।

टेबल 'ए'- भारतीय चुनावों के तीन चरण

रॉय और सोपारीवाला ने अपनी किताब में लिखा है, "शताब्दी का अंत आते तक मतदाताओं में बड़ा बदलाव आने लगा। अब एंटी इंकम्बेंसी फेज धीरे-धीरे बदलना शुरू हो गया। क्योंकि हर राज्य में मतदाता अब सरकारों के बीच इस आधार पर अंतर करने लगे थे कि वे अपने वायदों को पूरा करते हैं या नहीं।"

तीसरा फेज, जो 2002 से अब तक जारी है, उसे किताब में "फिफ्टी-फिफ्टी ऐरा" कहा गया है। 2002 से अब तक के 71 विधानसभा चुनावों में एंटी-इंकम्बेंसी या प्रो-इंकम्बेंसी की तरफ एकतरफा झुकाव नहीं है। लगभग आधी (51 फ़ीसदी) सरकारों को अगले चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है, वहीं आधी ही (49 फ़ीसदी) सरकारें दोबारा सत्ता में आने में कामयाब रही हैं। रॉय और सोपारीवाला ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि "फिफ़्टी-फिफ़्टी ऐरा" में नई मतदान वास्तिवकता "प्रदर्शन करिए या बाहर जाइए" वाली स्थिति है।

2014 के बाद बीजेपी का चुनावी रिकॉर्ड बेहद शानदार रहा है। पार्टी लगातार एक के बाद दूसरा चुनाव जीतते हुए बेहद मजबूत होती गई, यहां तक कि कई नए क्षेत्रों में भी बीजेपी ने अपना झंडा फहराया। झारखंड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, असम, हरियाणा यहां तक कि जम्मू कश्मीर में भी पार्टी सत्ता में सहभागी बनी। मोदी का व्यक्तिगत करिश्मा और संघ के तेजतर्रार संगठन, बीजेपी की सांप्रदायिकता, हर कीमत पर सत्ता हासिल करने की प्रवृत्ति, चालाकी भरी सामाजिक बुनावट करने की कोशिश, कांग्रेस पार्टी का तीखा पतन, एक आलसी और बिखरा हुआ विपक्ष, इन सभी कारकों ने पिछले 6 साल में बीजेपी की चुनावी सफलता में योगदान दिया है।

हाल के सालों में अपने चुनावी नतीजों की वज़ह से बीजेपी को अपराजेय बताया जाता रहा है। लेकिन बीजेपी के कवच में एक छेद है, जिस पर अब तक कम ही नज़र गई है। 2014 से 2020 के बीच, मतलब "फिफ़्टी-फिफ़्टी ऐरा" में जब 50 फ़ीसदी सरकारें सत्ता में वापसी करने में कामयाब रही हैं, तब बीजेपी का रिकॉर्ड अपनी मौजूदा सरकार को बचाने में बेहद खराब, केवल 33 फीसदी ही रहा है। मतलब सिर्फ़ इस अवधि में सिर्फ 33 फ़ीसदी बीजेपी सरकारें ही दोबारा चुनी गईं।

2014 से 2020 के बीच बड़े और मध्यम आकार के राज्यों में हुए 9 विधानसभा चुनावों में केवल तीन में ही बीजेपी सत्ता में वापसी करने में कामयाब रही है। यह तीन राज्य गुजरात (2017), महाराष्ट्र (2019) और बिहार (2020) हैं। गुजरात में जहां पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने 150 सीटों का लक्ष्य रखा था, वहां बीजेपी केवल सत्ता में बने रहने लायक ही सीटें ला पाई। उसकी कुल सीटें 115 से गिरकर 99 रह गईं। महाराष्ट्र में पार्टी के चुनाव पूर्व गठबंधन की जीत के बावजूद पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ा। पार्टी के चुनाव पूर्व गठबंधन ने 288 विधानसभा सीटों में से 161 पर जीत दर्ज की थी। (यहां चूंकि एक पूर्व सरकार दोबारा बहुमत हासिल करने में कामयाब रही, इसलिए यह माना जाएगा कि इस चुनाव में बीजेपी ने वापसी की)

लेकिन असली स्याह पक्ष तो थोड़ा ज़्यादा बारीकी से देखने पर नज़र आता है। बीजेपी शिवसेना गठबंधन, खासकर बीजेपी, एंटी-इंक्मबेंसी को हराकर नहीं जीती। बल्कि पहले से बंटे हुए विपक्ष को बांटने की पुरानी तरकीब से जीती। एनडीए, खासकर बीजेपी को प्रकाश आम्बेडकर के वंचित बहुजन अघाड़ी (VBA) से बहुत लाभ मिला।

द क्विंट द्वारा किए गए महाराष्ट्र चुनाव के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि 25 ऐसी सीटें, जहां कांग्रेस और एनसीपी दूसरे स्थान पर रहीं और वहां बीजेपी-शिवसेना गठबंधन ने जीत दर्ज की, उन सीटों VBA ने जितने वोट हासिल किए, वह हार के अंतर से ज़्यादा थे। सीधे शब्दों में कहें तो अगर VBA ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा होता, तो शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन सत्ता में वापस नहीं आ पाता। उस स्थिति में 105 सीटें जीतने वाली बीजेपी केवल 85 सीटें ही जीत पाती। इस स्थिति में केवल बिहार बचता, जहां बीजेपी अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने में कामयाब रही है और एनडीए को जीत की दहलीज तक पहुंचाने में कामयाब रही है। लेकिन इस पर गौर फरमाना जरूरी है कि बीजेपी सिर्फ 2017 में ही सरकार में शामिल हुई थी, तब जब नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के गठबंधन को धोखा दिया था। मतलब इस बार के चुनावों में बीजेपी नहीं, बल्कि नीतीश कुमार बेहद ताकतवर एंटी इंकम्बेंसी का सामना कर रहे थे। 

टेबल 'B'- 50-50 चरण में बीजेपी का अपनी सरकारों की रक्षा करने में खराब रिकॉर्ड

यहां एक और दिलचस्प सांख्यिकीय आंकड़े हैं, जो इस सिद्धांत को बल देते हैं कि अपराजेय लगने वाली बीजेपी विधानसभा चुनावों में अपनी सरकार बचाने में कमजोर रही है। बीजेपी की विधानसभा चुनावों में हुई 70 फ़ीसदी जीत तब आई हैं, जब वो एक मौजूदा सरकार को चुनौती दे रही होती है।

टेबल 'C'- 2014 के बाद बीजेपी की जीत

अपराजेय लगने वाली बीजेपी की निश्चित तौर पर एक कमजोरी है- वह 50-50 फेज़ में अपनी सरकारों की रक्षा करने में कमजोर रही है। इस कमजोरी के चलते आने वाले असम चुनाव बीजेपी की दमदार चुनावी मशीनरी के लिए एक लिटमस टेस्ट साबित होंगे। सभी की नज़रें बंगाल पर हैं, लेकिन बीजेपी के अपनी सरकारों की रक्षा करने में कमजोर रही हैं, वहीं 2022 में बीजेपी उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गोवा और मणिपुर में अपनी सरकारें बचाने के लिए चुनाव लड़ रही होगी। जब हम इन दोनों चीजों को मिलाकर देखते हैं, तो पाते हैं कि असम चुनाव इस लिहाज़ से बेहद अहम हो जाते हैं। क्योंकि वे 2022 के लिए नया रास्ता तय कर सकते हैं।

2021 में होने वाले असम विधानसभा चुनाव

पूर्वोत्तर में 2016 में असम में बीजेपी की पहली जीत के पहले, बीजेपी और एनडीए, कांग्रेस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के गठबंधन के बाद दूसरा पक्ष रहती थीं। उत्तरपूर्व में एनडीए के पास 25 सीटों में से सिर्फ 10 ही सीट थीं, वहीं कांग्रेस पूर्वोत्तर के 8 राज्यों में से 5 में शासन कर रही थी।

बीजेपी के संकटमोचक हेमंत बिस्वा शरमा द्वारा बनाए गए NEDA (नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस) के पास 25 लोकसभा सीटों में 18 सीटे हैं। पूर्वोत्तर में बीजेपी के तेज उभार के लिए जिम्मेदार NEDA फिलहाल 8 राज्यों में सरकार में है। हेमंत बिस्वा शरमा ने पहले कांग्रेस में रहते हुए तरुण गोगोई के साथ राजनीतिक दांवपेंच सीखे, उनके लिए 2021 के विधानसभा चुनाव में अपने गृह राज्य में एकजुट विपक्ष की मजबूत चुनौती होगी।

2016 में बीजेपी ने कुछ छोटी पार्टियों को इकट्ठा किया और एक बड़ा गठबंधन बनाकर अकेली पड़ चुकी कांग्रेस से लड़ाई लड़ी। अब एक बिलकुल विपरीत स्थितियों में बीजेपी, कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन का सामना करेगी, जिसमें लेफ्ट और इत्र व्यवसायी अजमल की AIUDF के साथ दूसरी पार्टियां शामिल होगी।

CAA विरोधी प्रदर्शनों ने राज्य में बड़े स्तर के प्रदर्शन करवाए, जिससे असम की राजनीतिक तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। पूरे राजनीतिक विपक्ष ने एक आवाज में एक जैसी चिंताएं नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ़ उठाई थीं। नागरिकता संशोधन कानून और 1985 के असम समझौते में विश्वास बीजेपी विरोधी पार्टियों के लिए एकजुटता का केंद्र बन गया है। असम के सबसे लंबे वक़्त तक सीएम रहे तरुण गोगोई की मृत्यु से काग्रेस को बहुत बड़ा झटका लगा है, क्योंकि वे बीजेपी के खिलाफ़ गठबंधन बनाने में सबसे आगे के नेताओं में शामिल थे। लेकिन असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रमुख रिपुन बोरा ने गठबंधन बनाने पर प्रतबिद्धता जताई है। उन्होंने कहा कि इस गठबंधन का बनना ही तरुण गोगोई को श्रद्धांजलि होगी और उनकी आखिरी इच्छा को पूरा करना होगा।

हेमंत विस्वा शरमा और NEDA गठबंधन का भविष्य असम में बीजेपी के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा। शरमा जिस तरीके से अपने गठबंधन की पूर्व साथी बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट के पीछे पूरी ताकत से गए, उससे भी यह पता चलता है। जबकि यही बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट राज्य, केंद्र और हाल में हुए BTC चुनावों में बीजेपी की साथी थी।

BPF सुप्रीमो हाग्रमा मोहिलारी के साथ तीखी टिप्पणियों और BJP द्वारा चालाकी से गैर आदिवासी वोटों को विभाजित कर यूनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल (UPPL) की मदद की गई, उसके बाद बीजेपी ने अपने पुराने सहयोगी BPF को झटका दे दिया और UPPL और गण सुरक्षा पार्टी के साथ गठबंधन करार कर लिया। ताकि BTC पर नियंत्रण किया जा सके। हाग्रमा लगातार बीजेपी अपनी पूर्व निर्धारित शर्तों को पूरा करने की अपील करते रहे। लेकिन बीजेपी ने उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया। दिलचस्प है कि नवंबर में कांग्रेस ने BPF को अपने साथ महागठबंधन में मिलाने की कोशिश की थी।

पिछले कुछ हफ़्तों में सारा ध्यान बंगाल पर केंद्रित है, लेकिन असम चुनाव अगर बंगाल से ज़्यादा अहम नहीं हैं, तो उसके बराबर ही अहम हैं। वहां दांव पर पूर्वोत्तर में बीजेपी का भविष्य होगा, अगर पार्टी फिर हार जाती है और अपनी एक और मौजूदा सरकार को बचाने में नाकामयाब रहती है, तो उसे 2022 के चुनावों में जाने से पहले अपनी रणनीति पर फिर नज़र डालनी होगी। 2022 में पार्टी पांच राज्यों में अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही होगी, जिनमें उत्तरप्रदेश भी शामिल होगा।

यह लेखक के निजी विचार हैं।

Assam Assembly Elections 2021: Key Test for BJP

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