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चुनावों के ‘ऑनलाइन प्रचार अभियान’ में कहीं पीछे न छूट जाएं छोटे दल! 

डिजिटल की तरफ शिफ्ट की बातें करना इसे लागू करने की तुलना में काफी आसान है क्योंकि चुनावी राज्यों के कई हिस्सों में अभी भी इंटरनेट की पैठ कम है और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का रवैया भी काफी हद तक पक्षपातपूर्ण वाला रहा है।
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चुनाव आयोग ने कोविड-19 के मामलों में उछाल को देखते हुए 22 जनवरी तक रोड-शो करने और भौतिक रूप से रैलीयों पर रोक लगा दी है। राजनीतिक दलों के पास आगामी विधानसभा चुनावों के लिए ऑनलाइन प्रचार-प्रसार की ओर मुड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मतदाताओं को अब सिर्फ फेसबुक, गूगल, व्हाट्सएप, यूट्यूब एवं अन्य सोशल मीडिया प्लेट्फ़ॉर्म पर ही उम्मीदवारों से ‘मुलाकात करने’ की तैयारी करनी चाहिए, जो कि अब उम्मीदवारों और विभिन्न दलों से तक पहुँचने का प्राथमिक माध्यम रह गए हैं।

जैसा कि हम पहले भी देख चुके हैं कि डिजिटल शिफ्ट की बात करना जितना आसान है उसे अमल में लाना उतना ही कठिन काम है, क्योंकि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और मणिपुर जैसे चुनावी राज्यों के कई हिस्सों में इंटरनेट की पैठ अपेक्षाकृत कम है। यह कमी उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य के ऊँचे इलाकों में सबसे ज्यादा स्पष्ट तौर पर नजर आती है, जहाँ कई गाँवों तक इंटरनेट की सुविधा नहीं पहुँच पाई है। इन क्षेत्रों में राजनीतिक दलों के पास घर-घर जाकर प्रचार अभियान चलाने के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं है। या फिर इन चुनावों के दौरान लाखों लोगों को उनके हाल पर छोड़ देने का जोखिम बना हुआ है।

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (टीआरएआई) के एक नए अध्ययन से पता चलता है कि पंजाब तक में, जो कि सर्वाधिक टेलीडेंसिटी वाले राज्यों में से एक है, वहां पर भी सिर्फ 70% लोगों के द्वारा मोबाइल फोन पर इंटरनेट का उपयोग किया जाता है। और केवल 60% आबादी ही सोशल मीडिया का उपयोग करती है। ऐसे में सवाल यह है कि उन 30% लोगों तक कैसे पहुंचा जाये जो मुख्यतया गांवों में रहते हैं, यदि व्यक्तिगत तौर पर मुलाकात करना प्रतिबंधित है।

कांग्रेस के डिजिटल आउटरीच के राष्ट्रीय समन्वयक और पंजाब सोशल मीडिया ईकाई के प्रभारी, गौरव पांधी का इस बारे में कहना है कि उनकी पार्टी ने इसके लिए 400 सोशल मीडिया “योद्धाओं” को नियुक्त किया है और अन्य 500 लोगों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। उनका मानना है कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं को उन लोगों तक अपनी बात ले जाने के लिए पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर जाकर अभियान चलाना होगा, जिनके पास इंटरनेट उपलब्ध नहीं है। उनका कहना है कि चूँकि इस दफा वास्तविक रैलियां कर पाना संभव नहीं है तो ऐसे में बड़ी-बड़ी स्क्रीन के जरिये पंजाब के ग्रामीण इलाकों में पार्टी के संदेश को पहुंचाना होगा।

समस्या सिर्फ डिजिटल पर जोर या पैसे की तैयारियों को लेकर नहीं है। असल दुनिया की तरह ही, सोशल मीडिया पर भी किसके पास पहले से ही खुद के अनुयायियों की कमान है के चलते एक असुंतलन बना हुआ है। कुछ राजनीतिक नेताओं के द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह ही सोशल मीडिया का इस्तेमाल व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, और उनकी पार्टी का फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यहाँ तक कि अपेक्षाकृत कम-ज्ञात प्लेटफार्मों पर भी बड़े पैमाने पर मौजूदगी दिखती है। इसलिए, छोटे राजनीतिक दल इस युद्ध में कहीं न कहीं पहले ही एक अक्षमता के साथ प्रवेश कर रहे हैं। इस चीज ने पंजाब में अकाली दल (बादल) और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को चुनाव आयोग से आभासी रैलियों में “एक समान अवसर” को सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि छोटे दलों के पास आभासी रैलियों को आयोजित करने के लिए न तो पैसा है और न ही लोग हैं। एक ऑनलाइन कार्यक्रम की लागत कोई मामूली नहीं है, इसका खर्च करोड़ों में जा सकता है।

राजनीतिक दलों को इस बात का पूर्वानुमान रहा होगा कि ओमिक्रोन वैरिएंट के प्रसार को देखते हुए शहरी और ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों में भौतिक स्तर पर चुनाव अभियान को प्रतिबंधित किया जा सकता है। इसके बावजूद, इससे इंटरनेट तक पहुँच का अभाव, गैर-भरोसेमंद नेटवर्क सेवाओं, या हर एक से व्यक्तिगत तौर पर संपर्क के बिना ही रैलियों के निर्धारित कार्यक्रम को प्रसारित करने में होने वाली कठिनाई जैसी समस्याओं का समाधान नहीं निकलता है। उदाहरण के लिए, एक ऑनलाइन प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस पार्टी की नेता प्रियंका गाँधी ने उन्नाव में एक रेप पीड़िता की माँ, आशा सिंह और शाहजहांपुर की एक आशा कार्यकर्त्ता पूनम पांडेय को चुनावी मैदान में उतारा, जिन्होंने आशा कार्यकर्ताओं के लिए बेहतर वेतन के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया था। लखनऊ में सीएए-विरोधी विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए गिरफ्तार और प्रताड़ित की गई एक सामाजिक कार्यकर्त्ता, सदफ़ जफ़र ने हाल ही में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए लोगों से धन की अपील की है। सवाल यह है कि क्या ऐसे उम्मीदवार सिर्फ इसलिए पहले से स्थापित जातीय नेटवर्क और पॉवर-पॉलिटिक्स के सामने मुकाबले में टिक सकते हैं, क्योंकि ये अभियान ऑनलाइन होने जा रहे हैं?

सोशल मीडिया न तो उम्मीदवार और मतदाता के बीच और न ही राजनीतिक संगठनों और निर्वाचन क्षेत्रों के बीच तत्काल संपर्क को संभव बना पाता है। इसके अलावा, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पास जिस प्रकार के संसाधन हैं उस भारी बेमेल डिजिटल अभियानों के दौरान और ज्यादा बढ़ने की संभावना है। एक आरटीआई आवेदन से खुलासा हुआ है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने अप्रैल 2020 से लेकर मार्च 2021 के बीच में टीवी चैनलों में विज्ञापन पर 160 करोड़ रूपये से उपर खर्च किये थे। एक हालिया टीवी साक्षात्कार के दौरान समाजवादी नेता अखिलेश यादव ने खुलासा किया कि एक अनुपूरक बजट ने आदित्यनाथ सरकार को विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान विज्ञापन करने के लिए इससे भी काफी अधिक की अनुमति दी है।

एक अन्य आरटीआई से पता चला है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अप्रैल 2014 से अक्टूबर 2017 के बीच में विभिन्न दूरदर्शन चैनलों, आल इंडिया रेडियो, इंटरनेट आधारित डिजिटल सिनेमा और सामुदायिक रेडियो स्टेशनों पर प्रचार-प्रसार के उपर 3,600 करोड़ रूपये से अधिक खर्च कर दिए थे। भाजपा सांसद अशोक महादेवराव नेते के द्वारा संसद में उठाये गये एक प्रश्न के जवाब में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मुताबिक, 2017-19 के बीच में विज्ञापन पर 3,804 करोड़ रूपये खर्च किये गए थे।

दूसरे शब्दों में कहें तो करीब-करीब सभी राजनीतिक दलों के सोशल मीडिया विभाग के द्वारा इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया जा रहा होगा, लेकिन असल बात यह है कि जिस पार्टी के पास सबसे अधिक नकदी होगी वहीँ सबसे अधिक डिजिटल कंटेंट को तैयार करने और इसे सर्वाधिक दर्शकों तक पहुँचाने में सक्षम साबित हो सकती है। पंजाब में कांग्रेस के पास अक्टूबर से सोशल मीडिया “वॉर रूम” बना हुआ है। इसके द्वारा 10,000 व्हाट्सएप ग्रुप बनाए जा चुके हैं और अन्य 15,000 ग्रुप बनाये जाने हैं।

यहाँ तक कि आप पार्टी का भी पंजाब में सोशल मीडिया पर मजबूत उपस्थिति बनी हुई है और इसके कई वेबिनारों को दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप संयोजक अरविन्द केजरीवाल और दिल्ली से आप विधायक, राघव चड्ढा के द्वारा संबोधित किया जा चुका है। उत्तरप्रदेश में भाजपा ने 8,000 कार्यकर्ताओं को सोशल मीडिया “योद्धाओं” के बतौर प्रशिक्षित किया है।पार्टी प्रवक्ता चारू प्रज्ञा के अनुसार, इसके पास ऐसे कार्यकर्त्ता हैं जो प्रत्येक जिले में इसके संदेश को प्रसारित कर रहे हैं। प्रतिद्वंदी खेमे के नेताओं का कहना है कि वे भी अपनी डिजिटल पहुँच को बढाने में लगे हुए हैं, लेकिन उनके सामने समस्याएं हैं। उत्तराखंड की एक कांग्रेस नेता सुजाता पॉल के मुताबिक उनकी पार्टी ने “सोशल मीडिया के मोर्चे पर काफी अच्छा काम किया है”, और ज्यादातर नेताओं के पास अपनी खुद की वेबसाइट है। लेकिन इसने अभी तक आभासी रैलियां शुरू नहीं की है, “क्योंकि वे काफी महंगे प्रस्ताव हैं।”

कांग्रेस के सोशल मीडिया प्रमुख रोहन गुप्ता ने हाल ही में मीडिया को बताया है कि उनकी पार्टी फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टाग्राम और यूट्यूब सहित विभिन्न मंचों पर आभासी रैलियों का प्रसारण करने के लिए पूरी तरह से तैयार है। इस परिदृश्य में संतुलन को अपने पक्ष झुका लेने की लाभप्रद स्थिति पहले से ही सत्तारूढ़ या स्थापित दलों के पास बनी हुई है, भले ही इसमें नए शामिल होने वालों, विपक्षी दलों या स्वतंत्र उम्मीदवारों के कार्यक्रम उनकी तुलना में बेहतर ही क्यों न हों।

देहरादून स्थित एक टेक्नोक्रेट सूर्य कांत के पास आजकल राजनीतिक वर्ग के लिए चुनाव अभियान की पूरी डिजाइनिंग और योजना बनाने के लिए ढेर सारा काम है। उनका कहना है, “मेरी टीम को वेबसाइट तैयार करने और इन उम्मीदवारों को उनके लक्षित समूहों में डिजिटल माध्यम से उनकी मार्केटिंग करने के लिए कहा जाता है।” उन्होंने दावा किया, “एक उम्मीदवार चाहे तो प्रति माह 5,000 रूपये खर्च से भी अपना अभियान शुरू कर सकता है। अन्य एक महीने में 1 लाख रूपये तक खर्च कर सकते हैं।”

लेकिन जिस समस्या के बारे में कोई बात नहीं कर रहा है, वह यह है कि किस प्रकार से सोशल मीडिया प्लेटफार्मों द्वारा हेरफेर करना और किसी के पक्ष में खेलना संभव है। यह एक ऐसा आरोप है जिसे कांग्रेस पार्टी ने फेसबुक पर कई बार लगाया है। इसके बावजूद, यहाँ तक कि व्हिसलब्लोअर तक ने खुलासा किया है कि इस सोशल मीडिया दिग्गज ने मुनाफे में जमकर बढोत्तरी के लालच में हेट स्पीच और जहरीली सामग्री को नजरअंदाज करने को वरीयता दी।

इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों के लिए एक समान अवसर को सुनिश्चित करना चाहिए, और इसे स्वतंत्र उम्मीदवारों को भी नहीं भूलना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को टीवी समाचार चैनलों के विपरीत, जिनमें से अधिकांश लंबे समय से सत्तारूढ़ दल के पक्ष में झुके हुए हैं, डिजिटल रैलियों के माध्यम से अपने-अपने विचारों को प्रस्तुत करने का समान अवसर मिलना चाहिए।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

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