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मौजूदा समय में पुलिस-प्रशासन की कार्रवाई को लेकर मुख्य न्यायाधीश की नाराज़गी गंभीर है!

बीते कुछ समय में देश के समक्ष ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जो शासन-प्रशासन की साठ-गांठ के साथ पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाते हैं। साल 2020 का दिल्ली दंगा हो या हैदराबाद की महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और उनकी हत्या के मामले में चार अभियुक्तों का एनकाउंटर।
N. V. Ramana

"नौकरशाही और पुलिस अधिकारी इस देश में जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं, मुझे उस पर बहुत ज्यादा आपत्ति है। मैं एक समय नौकरशाहों, विशेषकर पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अत्याचारों और शिकायतों की जांच के लिए एक स्थायी समिति बनाने के बारे में सोच रहा था। लेकिन मैं अभी इसे रिजर्व रखना चाहता हूं, अभी मुझे ये नहीं करना है।"

नौकरशाहों और खासकर पुलिस अधिकारियों के व्यवहार पर आपत्ति व्यक्त करती ये सख्त टिप्पणी देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना की है। मुख्य न्यायाधीश ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान नौकरशाही और पुलिस अधिकारी के व्यवहार पर आपत्ति जाहिर करते हुए कहा कि ये बेहद दुखद स्थिति है, जब कोई राजनीतिक दल सत्ता में होता है तो पुलिस अधिकारी उसके साथ होते हैं। फिर विपक्षी पार्टी के सत्ता में आने के बाद उन अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू करती है। यह नया चलन है, जिसे रोकने की ज़रूरत है।

बता दें कि चीफ़ जस्टिस का यह बयान ऐसे समय में आया है जब राजधानी दिल्ली समेत देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में पुलिस की कथित मनमानी और बर्बर व्यवहार को लेकर उंगली उठ रही है, फेक एनकाउंटर के मामले सामने आ रहे हैं और पुलिस व्यवस्था पर सत्ता के इशारे पर कार्रवाही के तमाम आरोप लग रहे हैं।

क्या है पूरा मामला?

लाइव लॉ के मुताबिक, शुक्रवार, 1 अक्टूबर को चीफ़ जस्टिस की खंडपीठ जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली भी शामिल थे, छत्तीसगढ़ के निलंबित अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक गुरजिंदर पाल सिंह की एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। गुरजिंदर पाल सिंह पर राजद्रोह, जबरन वसूली और आय से अधिक संपत्ति के गंभीर आरोप लगाए गए हैं। याचिका में उन्होंने अपने ख़िलाफ़ दर्ज आपराधिक मामलों में सुरक्षा की मांग की थी।

मालूम हो कि गुरजिंदर पाल सिंह 1994 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामले में निलंबित किया हुआ है। निलंबित एडीजी के खिलाफ आईपीसी की धारा 124 ए के तहत राजद्रोह और आय से अधिक संपत्ति के मामले दर्ज किए गए हैं। इसी को लेकर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में तीन विशेष अनुमति याचिकाएं दायर की गई हैं। इसमें राजद्रोह के मामले को रद्द करने की मांग सहित मामले की जांच सीबीआई से कराने की मांग शामिल है।

सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के निलंबित एडीजी गुरजिंदर पाल सिंह को दो मामलों में आठ हफ़्तों के लिए अंतरिम राहत देते हुए कठोर कार्रवाई पर रोक लगा दी है। हालांकि तीसरे मामले में राहत देने से इनकार करते हुए चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना की बेंच ने कहा कि ये मामला जब हाई कोर्ट में चल रहा है और वही इसमें फैसला लेगा।

गुरजिंदर पाल अवैध संपत्ति, जबरन वसूली और देशद्रोह के आरोपी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि पुलिस उन्हें चार हफ्ते तक राजद्रोह और आय से अधिक संपत्ति के मामले में गिरफ्तार नहीं करेगी। इस संबंध में राज्य सरकार को नोटिस भी जारी किया गया है। साथ ही अफसर को जांच में सहयोग करने को कहा गया है।

पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सीजेआई की तीखी टिप्पणी

इसी मामले पर बीती 28 सितंबर को भी सुनवाई हुई थी। तब भी सीजेआई रमन्ना ने ‘देश में नए चलन’ का जिक्र करते हुए पुलिस अधिकारियों के खिलाफ तीखी टिप्पणी की थी। कहा था कि पुलिस अधिकारी सरकार के साथ अच्छे संबंध होने पर वसूली करते हैं, लेकिन जब इसे चुकाने का वक्त आता है तो प्रोटेक्शन मांगने लगते हैं।

उन्होंने कहा, "जब आप सरकार के साथ अच्छे हैं, आप वसूली कर सकते हैं। लेकिन आपको ब्याज के साथ भुगतान करना होगा। हम ऐसे अधिकारियों को सुरक्षा क्यों दें? ये देश में एक नया ट्रेंड है। उन्हें जेल जाना होगा।"

चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने इसे परेशान करने वाला ट्रेंड बताते हुए कहा था, "पुलिस अफसर सत्ता में मौजूद राजनीतिक पार्टी का फेवर लेते हैं। उनके विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करते हैं। बाद में विरोधी सत्ता में आते हैं तो वे पुलिस अफसरों पर कार्रवाई करते हैं। इस हालात के लिए पुलिस विभाग को ही जिम्मेदार ठहराना चाहिए। उनको कानून के शासन पर टिके रहना चाहिए। इसे रोकने की जरूरत है।"

निलंबित एडीजी के खिलाफ जबरन वसूली के एक मामले में सीजेआई ने कहा था, "आपने पैसा निकालना शुरू कर दिया, क्योंकि आप सरकार के करीबी हैं। यही होता है, अगर आप सरकार के साथ हैं और इस तरह की चीजें करते हैं, तो आपको एक दिन वापस भुगतान करना होगा, ठीक यही हो रहा है।"

समितियां बनती हैं लेकिन संस्तुति लागू ही नहीं हो पाती

गौरतलब है कि चीफ़ जस्टिस की ये टिप्पणी मौजूदा समय में देश के पुलिस-प्रशासन और शासन पर बिल्कुल सटीक बैठती है। हालांकि सीजेआई की समिति बनाने की बात नई नहीं है। पुलिस विभाग में सुधार के लिए कई समितियां बनी हैं लेकिन समितियां जो संस्तुति सरकारों के पास लागू करने के लिए भेजती हैं, वे लागू ही नहीं हो पाती हैं।

बीते कुछ समय में देश के समक्ष ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जो शासन-प्रशासन की साठ-गांठ के साथ पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाते हैं। साल 2020 में हुए दिल्ली दंगों के संबंध में पुलिस पर आरोप लगे कि उसने दंगों को रोकने के लिए पर्याप्त क़दम नहीं उठाए। अदालतों में दिल्ली पुलिस के अधिकारियों से जवाब तक मांगे गए।

पिछले महीने 20 सितंबर को दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली दंगों से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी। इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर अन्य निचली अदालतें दिल्ली पुलिस की जांच और उसकी चार्जशीट पर सवाल उठा चुकी हैं। इसके अलावा एक मौक़ा ऐसा भी आया जब दिल्ली हाईकोर्ट में जस्टिस एस मुरलीधर को दिल्ली पुलिस के स्पेशल कमिश्नर से यह कहना पड़ा कि 'जब आपके पास भड़काऊ भाषणों के क्लिप मौजूद हैं तो एफ़आईआर दर्ज करने के लिए आप किसका इंतज़ार कर रहे हैं?'

लगातार सवालों के घेरे में यूपी पुलिस

हाल ही में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले में एक होटल में कानपुर के कारोबारी मनीष गुप्ता की संदिग्ध मौत के मामले में छह पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज किया गया है। आरोप है कि गोरखपुर पुलिस की एक टीम रात में क़रीब 12 बजे नियमित जाँच के लिए होटल पहुँची और यहाँ ठहरे मनीष गुप्ता के साथ कथित तौर पर मारपीट की, जिससे उनकी मौत हो गई। हालांकि यह कोई पहला मामला नहीं है, जिसमें पुलिस पर आरोप लगे हैं। हाथरस कांड हो या कोई भी अन्य बलात्कार का मामला अक्सर पुलिस का रवैया सवालों के घेरे में ही रहता है।

हैदराबाद की महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और उनकी हत्या के मामले में चार अभियुक्तों के एनकाउंटर को लेकर भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने पुलिस पर सवाल उठाए। इसके अलावा कानपुर का हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे मामला भी एनकाउंटर और पुलिस के जीप पलटने को लेकर खासा सुर्खियों में रहा था।

'खादी और ख़ाकी' का जोड़

हालांकि इससे पहले भी चीफ जस्टिस पुलिस विभाग को लेकर तल्ख़ टिप्पणी कर चुके हैं। इस साल अगस्त महीने में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमन्ना ने एक बयान में कहा था कि पुलिस स्टेशन मानवाधिकारों और मानवीय सम्मान के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं। मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि संवैधानिक गारंटी के बावजूद पुलिस हिरासत में उत्पीड़न और मौत की घटनाएं जारी हैं। मुख्य न्यायाधीश की यह टिप्पणी बेहद गंभीर है, लेकिन बार-बार उनके सख्त संदेश देने के बावजूद प्रशासन में कुछ बदलेगा ये कहना मुश्किल है, क्योंकि 'खादी और ख़ाकी' का जोड़ सालों से चला आ रहा है और इसे बदलना इतना आसान नज़र नहीं आता।

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