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अवसरवादी राजनीति का नमूना पेश कर रहे हैं महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना

चुनाव पूर्व गठबंधन करने के बावजूद महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना मुख्यमंंत्री पद के लिए लड़ाई कर रही हैं। दोनों ही दल अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री बनाए जाने का दावा कर रहे हैं।
BJP-Shiv sena
Image courtesy: TOI

भारतीय राजनीति को लेकर एक चलताऊ टिप्पणी की जाती है कि लोकतंत्र में दही के लिए जामन की तरह थोड़ी-सी बेईमानी जरूरी है। लेकिन लगता है महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना ने राजनीति की पूरी शुचिता को ही खत्म करने का ठान लिया है। चुनाव पूर्व दोनों दलों में समझौता हुआ कि वो साथ में मिलकर चुनाव लड़ेंगे। जनता ने इस गठबंधन को बहुमत दिया। अब दोनों दल सरकार नहीं बना रहे हैं। इस बात पर लड़ाई कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री किसकी पार्टी का होगा।

शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत कह रहे हैं कि महाराष्ट्र का अगला मुख्यमंत्री शिवसेना से होगा, तो वहीं बीजेपी इस बात पर शुरू से बल देती आ रही है कि अगले पांच वर्ष तक फड़नवीस ही मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे।

शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे यह दावा करते आये हैं कि 2019 के चुनाव से पहले उनके, मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस और बीजेपी प्रमुख अमित शाह के बीच हुई बैठक में एक फार्मूले पर सहमति बनी थी। इसके तहत तय हुआ था कि मुख्यमंत्री पद बारी बारी से दोनों पार्टियों को दिया जाएगा। लेकिन देवेंद्र फड़नवीस इस तरह के किसी भी समझौते से इंकार कर रहे हैं। चुनाव परिणाम आए हुए करीब हफ्ता भर बीत चुका है लेकिन कोई भी दल सरकार बनाने के लिए राज्यपाल से मुलाकात ही नहीं कर रहा है। इस बीच राज्य में सरकार बनाने के एक नये विकल्प को लेकर अटकलों का बाजार गर्म हो गया है।

आपको बता दें कि महाराष्ट्र में बीजेपी 105 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। शिवसेना को 56 सीटें मिली हैं। राज्य में सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत 145 है। हाल में हुए विधानसभा चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिली हैं।

चुनाव खत्म होते ही दोनों दल जनता के फैसले को दरकिनार अपना हित साधने में लग गए हैं। वैसे में भारतीय राजनीति में न कोई स्थायी दुश्मन है और न दोस्त और जो महाराष्ट्र में घटित हो रहा है उसे देखकर लगता है कि भारतीय राजनीति में नैतिकता और शुचिता नाम की भी कोई चीज शेष नहीं रह गई है। अब ऐसे में यह भी हो सकता है कि जनता ने जिस गठबंधन को सरकार बनाने के लिए चुना है उसके बजाय अलग ही गठबंधन सरकार बना ले।

हरियाणा का नतीजा और सरकार भी लगभग इसी की गवाही देते हैं। वहां जनादेश लगभग बीजेपी के विरोध में आया। 75 पार का नारा देने वाली बीजेपी को वहां सामान्य बहुमत यानी 46 सीटें तक नहीं मिल सकीं। उसे केवल 40 सीटों से संतोष करना पड़ा। उसके दिग्गज मंत्री हार गए। प्रदेश अध्यक्ष खुद अपनी सीट नहीं बचा सके। इसके बाद भी बीजेपी के विरोध में चुनाव लड़कर 10 सीटें लाने वाली जेजेपी के सहयोग से बीजेपी ने अपनी सरकार बना ली।

इस तरह कहा जाए तो यही सच है कि हमारी संसदीय प्रणाली में चुनाव के बाद जनता सिर्फ तमाशा देखने भर के लिए ही रह जाती है। चुनाव के पहले जहां राजनीतिक दल उन्हें लुभाने के लिए तमाम वादे करते हैं तो वहीं चुनाव बाद वो सिर्फ अपना हित साधने लगते हैं। उस समय जनता कही होती ही नहीं है। गठबंधन, वादे, नैतिकता सब ताक पर रख दिए जाते हैं।

हालांकि जनता इससे परेशान हो और राजनीतिक दलों को कोसने में अपनी ऊर्जा खर्च करे। इससे बेहतर यह है कि संविधान में एक संशोधन के जरिए सियासी शब्दावली में 'गठबंधन' शब्द पर पाबंदी लगा देनी चाहिए। इसके बजाय सुविधावादी, अवसरवादी या मौकापरस्त जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाय। यानी एक ऐसा संबंध जो मनमर्जी पर आधारित है। दोनों पक्ष जब जिधर जाना चाहें, जाएं। दिल दुखने-दुखाने का सवाल नहीं, कोई आरोप-प्रत्यारोप नहीं, कोई बहस नहीं। लेकिन जो भी हो साफ हो जनता के सामने हो क्योंकि चुनाव बाद इस तरह के उठापठक में सबसे ज्यादा बेवकूफ बनने का भाव जनता के सामने आता है।

शायद इसी तरह के भाव महाराष्ट्र के बीड जिले का एक किसान श्रीकांत विष्णु गडाले के भीतर भी उठ रहे हैं। वो सत्ता को लेकर बीजेपी-शिवसेना के बीच मतभेद सुलझने और अगली सरकार का गठन होने तक राज्य का मुख्यमंत्री बनने का इच्छुक है।

केज तालुका के वडमौली निवासी किसान श्रीकांत विष्णु गडाले ने बीड कलेक्टर कार्यालय को गुरुवार को पत्र लिखकर अपनी यह इच्छा जाहिर की। उन्होंने पत्र में लिखा, 'शिवसेना और भाजपा 2019 विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से मुख्यमंत्री पद को लेकर उठे मुद्दे को अब तक नहीं सुलझा पाई हैं।'

किसान ने लिखा है, ‘प्राकृतिक आपदाएं (बेमौसम बरसात) ने राज्य में पकी फसलों को नुकसान पहुंचाया है। किसान इन आपदाओं को लेकर परेशानी में हैं। इस वक्त जब किसान परेशान हैं, शिवसेना और भाजपा मुख्यमंत्री पद के मुद्दे को सुलझा पाने में अक्षम हैं तो इसलिए मुद्दा सुलझने तक राज्यपाल को मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी मुझे दे देनी चाहिए।'

गडाले ने कहा, 'मैं किसानों की समस्या सुलझाऊंगा और उन्हें न्याय दूंगा।' हालांकि सत्ता के बंदरबाट में लगे राजनीतिक दलों को लेकर ऐसा नजरिया सिर्फ गडाले का ही नहीं है। लाखों की संख्या में जनता इस तरह की धोखाधड़ी और सौदेबाजी से छली महसूस कर रही होगी। गडाले ने बहुत ही क्रिएटिव तरीके से इन दलों को एक संदेश देने की कोशिश की है लेकिन इससे शायद ही हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को फर्क पड़ता है।

वास्तविकता यह है कि सत्तासुख इन दलों का प्रमुख चरित्र बन गया है। महाराष्ट्र का सत्तारूढ़ गठबंधन इसकी तो एक मिसाल है। 2014 के बाद बीजेपी एक राजनीतिक दल नहीं चुनाव लड़ने वाली मशीनरी में बदल गई है। उसने तो राजनीति की शुचिता को नष्ट कर उसकी ब्राँडिंग-मार्केटिंग कर व्यावसायिक बना दिया है। तो वहीं दूसरी ओर शिवसेना भी पिछले पांच साल सत्ता से चिपकी नजर आई। पार्टी के नेता गठबंधन सरकार की नीतियों का तो विरोध करते रहे लेकिन सत्ता नहीं छोड़ी। इस बार भी यह दो अवसरवादी दलों के बीच हो रहा मोलभाव बन गया है।

हालांकि राजनीति में शुचिता की बात करने के दौरान हमें एक और पहलू पर भी ध्यान देना होगा। महाराष्ट्र विधानसभा के लिए नवनिर्वाचित 176 विधायक आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे हैं। चुनाव निगरानी संस्था ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) ने यह दावा किया है।

राज्य विधानसभा के कुल 288 विधायकों में 285 विधायकों के हलफनामों का विश्लेषण करने पर पाया गया कि 62 प्रतिशत (176 विधायक) के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, जबकि 40 प्रतिशत (113 विधायक) के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं।

एडीआर ने कहा है कि बाकी तीन विधायकों के हलफनामे का अध्ययन नहीं किया जा सका क्योंकि चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उनके संपूर्ण कागजात उपलब्ध नहीं थे। निवर्तमान विधायकों और नवनिर्वाचित विधायकों के हलफनामों की तुलना करते हुए एडीआर ने कहा है कि 2014 के चुनाव में राज्य विधानसभा में 165 विधायक आपराधिक मामलों का सामना कर रहे थे और इनमें से 115 गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे थे।

एडीआर के मुताबिक निवर्तमान विधानसभा की तुलना में नई विधानसभा में करोड़पति विधायकों की संख्या ज्यादा है। आंकड़ों के मुताबिक नई विधानसभा में कुल 264 (93 प्रतिशत) करोड़पति विधायक हैं जबकि निवर्तमान विधानसभा में 253 (88 प्रतिशत) विधायक करोड़पति थे।

यानी इससे साफ जाहिर है कि किसी भी कीमत पर जीत हासिल करने वाले राजनीतिक दलों ने अपराधियों को टिकट देने में कोताही नहीं की है तो सत्ता में बने रहने के लिए तो वो किसी भी हद तक जा सकते हैं।

(समाचार एजेंसी भाषा के इनपुट के साथ)

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