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बीजेपी के समझना चाहिए कि महामारी को हराने के लिए बड़बोलापन नहीं, वैक्सीन काम आती है

कोविड-19 की सुनामी पूरे भारत को तहस-नहस कर रही है। इसकी वजह कमज़ोर मीडिया और बीजेपी समर्थकों द्वारा सरकार के अतार्किक फ़ैसलों पर सवाल न उठाने की प्रवृत्ति है।
बीजेपी
Image Courtesy: Sunday Guardian

भारत में जारी कोरोना का नरसंहार एक अहंकारी, आत्मकेंद्रित और लालची राजनीतिक दल व सत्ता में मौजूद उसके नेता की वजह से ज़्यादा तेज हुआ है। यह भारतीयों के उस गलत फ़ैसले का नतीजा है, जो उन्होंने 7 साल पहले लिया था। जिस तरीके से शमशान घाट की तरफ जाती एंबुलेंसों में ठसाठस शव भरे होते हैं, वह गैस चैंबरों की याद दिलाते हैं। ऑक्सीजन के लिए तड़पते मरीज़, अस्पतालों में बिस्तर ना मिलने के चलते ऑटोरिक्शॉ और निजी वाहनों के भीतर सड़कों पर दम तोड़ रहे हैं। भारतीयों ने जो बोया था, वे उसी का ख़ामियाज़ा उठा रहे हैं। 

नरेंद्र मोदी सरकार के पहले तीन साल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सबूत थे, जिनमें गोरक्षकों ने सरेआम लिंचिंग कीं। इन्होंने दिखा दिया था कि आगे भारत का रास्ता कहां जा रहा है। इंडियास्पेंड के मुताबिक़, 2014 से 2017 के बीच जिन लोगों की लिंचिंग हुई, उनमें से 92 फ़ीसदी मुस्लिम थे।

मोदी समर्थक चुप थे, बल्कि हत्यारों को बचाने के लिए उनकी चुप्पी काम आ रही थी। यह वह हत्यारे थे, जिन्होंने निहत्थे मुस्लिमों और दलितों को गोरक्षा के नाम पर निशाना बनाया। 

मोदी का दूसरा कार्यकाल ताबूत में आखिरी कील थी। 2019 खात्मे की शुरुआत थी; नागरिकता संशोधन अधिनियम और NRC में मोदी सरकार का विभाजनकारी एजेंडा साफ़ तौर पर सामने आ गया। इन दोनों विवादित मुद्दों पर सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता रहा और अगले साल फरवरी में इनका नतीजा दिल्ली दंगों के तौर पर देखा गया। मोदी समर्थक एक बार फिर चुप रहे, जबकि कुछ बीजेपी नेताओं को खुलेआम दंगों के पहले भड़काऊ भाषण देते हुए सबने देखा था। दंगों के ज़्यादातर पीड़ित मुस्लिम ही थे। 

पूर्वी लद्दाख संकट और सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या तक आते-आते मोदी समर्थकों को राष्ट्रवाद, कट्टरता, गलत जानकारियों, फर्जी ख़बरों और कठपुतली न्यूज़ चैनलों द्वारा सरकारी प्रोपेगेंडा का बहुत भारी डोज़ दिया जा चुका था। इन समर्थकों में 'कुपढ़' हिंदी और अंग्रेजी पत्रकार, कुछ मशहूर शख़्सियतें, खिलाड़ी, बड़ी संख्या में बुजुर्ग और मीडिया का बड़ा हिस्सा शामिल था। 

उन्मादी-राष्ट्रवाद, हिंदू बहुसंख्यकवाद, पुलवामा के बाद पाकिस्तान से भयानक स्तर तक नफ़रत और मुस्लिमों से घृणा से भरे हुए मोदी समर्थकों ने विपक्षियों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया द्वारा भारत और मोदी को बदनाम करने के लिए की साजिश (जिसे खोजा ही नहीं जा सका) रचने जैसी बातें कीं। इन समर्थकों इस तरह की बातें कर बहुत तेज-तर्रार ढंग से मोदी का बचाव करने की कोशिश की।

मोदी को दिव्य पुरुष माना जाने लगा, इस छवि को पीआर मशीनरी ने बहुत सावधानी के साथ गढ़ा था। लेकिन इस छवि के आगे भारतीयों का पूरी तरह झुक जाना 2020 में हमारे लिए बहुत खराब साबित हुआ। SARS-CoV-2 वायरस ने भारत पर बुरे तरीके से हमला किया, इसने ताकतवर और कमजोर, अमीर और गरीब सभी को बिना भेदभाव के निशाना बनाया।

जब 2020 में फरवरी के अंत में मोदी, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का स्वागत करने में लगे हुए थे, उससे पहले 30 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन कोविड को अंतरराष्ट्रीय चिंता वाला वैश्विक आपात घोषित कर चुका था। 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड को महामारी घोषित कर दिया, जिससे तबतक पूरी दुनिया में 1,21,000 लोग संक्रमित हो चुके थे, वहीं 4,300 लोग मारे जा चुके थे। 

केंद्र को तभी WHO की 'टेस्ट-ट्रेस-आइसोलेट' का सूत्र अपना लेना था और कोविड के लिए विशेष अस्पताल और वार्ड बनाने शुरू कर देने चाहिए थे, जिनमें समुचित मात्रा में ऑक्सीजन आपूर्ति और पर्याप्त बिस्तर उपलब्ध होते। साथ ही अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर प्रतिबंध लगाकर, टीवी और रेडियो पर वायरस की गंभीरता के साथ-साथ मास्क लगाने और जरूरी सामाजिक दूरी बनाने के बारे में जागरूकता अभियान चलाना था।

किसी ने भी मोदी सरकार से यह सवाल पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई कि 3 फरवरी को न्यूजीलैंड की तरह, चीन से आवागमन पर रोक लगाने जैसी कार्रवाई हमारे यहां क्यों नहीं की गई? जबकि उस वक़्त तक न्यूजीलैंड में एक भी कोरोना का मामला सामने नहीं आया था। आखिर क्यों मोदी सरकार वियतनाम मॉडल को अपनाने में नाकामयाब रही, जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हुई थी? लोवी इंस्टीट्यूट ने जनवरी में कोरोना से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर वियतनाम को दूसरे पायदान पर रखा था, जब वियतनाम WHO की टेस्ट-ट्रेस-आइसोलेट निर्देशों का पालन कर, फरवरी में अपनी सीमाएं बंद कर सकता है, तो मोदी सरकार ने वैसा क्यों नहीं किया? साफ़ है कि यहां सरकार का घमंड बीच में आ गया।

इसके बजाए जब मोदी ने बहुत देर से 22 मार्च को किसी दिव्य पुरुष की तरह आकर, राष्ट्रीय टीवी पर जनता कर्फ्यू की घोषणा की। तब भारत की ज़्यादातर आबादी मंत्रमुग्धता में खोई हुई लग रही थी। मोदी ने जनता से चिकित्सा बिरादरी का उत्साह बढ़ाने के लिए थाली बजाने की मांग की। यह पूरा कार्यक्रम बड़ा भद्दा नज़र आया, जिसमें कई भारतीयों ने पागलपन के स्तर पर जाकर प्रदर्शन किया। बता दें जनता कर्फ्यू के ऐलान तक देश में कोरोना के मामलों की संख्या 350 पार कर चुकी थी।

दो दिन बाद 24 मार्च को मोदी सरकार ने बिना योजना बनाए 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा कर दी। इससे देश पूरी तरह थम गया। लॉकडाउन लगने के कुछ घंटे पहले उच्च और मध्यमवर्गीय लोगों की भारी भीड़ किराना और सब्जियां लेने दुकानों पर उमड़ पड़ी। अगले कुछ हफ़्तों में हमने गरीब प्रवासी मज़दूरों की अंदर तक हिला देने वाली कहानियां सुनीं और तस्वीरें देखीं। यह मज़दूर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर तपती धूप में अपने घर पहुंचे।

लेकिन मोदी समर्थकों पर इससे प्रभाव नहीं पड़ा। अपने एसी कमरों में आराम करते हुए वे खाना-पीना करते चैनलों की कथा सुनते रहे, जो बता रहे थे कि कैसे मोदी सरकार ने दुनिया का सबसे कड़ा लॉकडाउन लगाया है। प्रवासी मज़दूरों की डराने वाली तस्वीरों से भी उनमें सहानुभूति पैदा नहीं हुई। 

5 अप्रैल को मोदी समर्थकों का पागलपन अपने चरम पर पहुंच गया, जब उन्होंने मोदी का कहा मानकर निरर्थक प्रदर्शन किया। मोदी ने उनसे रात 9 बजे अपने लाइट बंद कर मोमबत्तियां और मोबाइल के लाइट जलाने को कहा था, ताकि वायरस को हराने में भारत की "सामूहिक एकजुटता" का प्रदर्शन किया जा सके। जबकि वायरस तब तक 3500 लोगों को अपना निशाना बना चुका था।

लोगों की इन मध्ययुगीन क्रियाओं ने दो चीजों का उदाहरण पेश किया। पहला, मोदी की इच्छा उनके समर्थकों के लिए आदेश है। दूसरा, उनके समर्थक कभी मोदी के फ़ैसले पर सवाल नहीं उठाएंगे। जैसे क्यों मोदी मार्च के आखिर में ही अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर प्रतिबंध लगा पाए? आखिर क्यों उन्होंने स्वास्थ्य मंत्रालय को कोरोना के ख़िलाफ़ युद्ध स्तर की तैयारियां करने को नहीं कहा? क्यों सरकार ने जीन सीक्वेंसिंग नहीं की या वैक्सीन पर गंभीरता से काम नहीं किया? क्यों संक्रमित लोगों के संपर्क में आए लोगों की पहचान कर, उन्हें अलग-थलग नहीं किया गया, जबकि तबतक कुल मरीज़ों की संख्या 5000 से कम थी और उन्हें प्रबंधित किया जा सकता था।

मोदी की हां में हां मिलाने वाले और अंतरात्मा रहित मंत्रियों की मौजूदगी वाली कैबिनेट और बिना रीढ़ की हड्डी वाली अफ़सरशाही की मौजूदगी के चलते, मोदी ने दिखाया कि कैसे भारत पर लंबे वक़्त तक प्रभाव रखने वाले फ़ैसलों को भी खुद अकेले ही ले सकते हैं। बीबीसी ने एक जांच की है, जिसमें सरकार के अलग-अलग विभागों के पास दाखिल की गईं 240 से ज़्यादा RTI को शामिल किया गया है। इससे पता चलता है कि तबाही लाने वाले लॉकडाउन को लगाने के पहले ना तो मोदी ने अहम मंत्रालयों और ना ही राज्यों से सलाह ली थी।

जैसे-जैसे मोदी ने तीन बार लॉकडाउन को बढ़ाया, पहले ही कमज़ोर चल रही अर्थव्यवस्था पूरी तरह थम गई और असंगठित क्षेत्र के लाखों लोगों से काम छिन गया। 2020-21 की पहली तिमाही में विकास दर -23.9% रही, जिसमें सबसे बड़ा धक्का विनिर्माण क्षेत्र को लगा।

बेहद गंभीर और कड़े प्रतिबंधों के बावजूद चार चरणों वाले लॉकडाउन को जब हटाया गया, तब तक भारत में कोरोना के कुल मामले 2,00,000 का आंकड़ा छू चुके थे, वहीं 5000 लोग जान गंवा चुके थे। एक बार फिर मोदी समर्थक चुप थे, क्योंकि उनके लिए उनके मसीहा हमेशा सही होते हैं। कुछ लोगों ने पूरी तरह असफल लॉकडाउन पर सवाल उठाए, जिसकी प्रेरणा इटली और स्पेन जैसे यूरोपीय देशों से ली गई थी, जो खुद कोरोना वायरस से बुरे तरीके से जूझ रहे थे।

भारत की युवा आबादी और उसकी अच्छी रोग प्रतिरोधक क्षमता को देखते हुए सरकार को वियतनाम की तरह कुछ विशेष इलाकों में लॉकडाउन लगाना चाहिए था। यह वह इलाके होते, जहां बड़ी संख्या में संक्रमण सामने आ रहे थे। पूरे देश में लॉकडाउन लगाने का कोई मतलब ही नहीं था। 

फिर जैसे-जैसे संक्रमण के मामले और मौतें बढ़ती गईं, लॉकडाउन की कार्यकुशलता सामने आती गई। फिर बेलगाम और निर्विवाद मोदी ने अचानक लॉकडाउन खोलने का अजीबो-ग़रीब फ़ैसला ले लिया। 

इस बार मोदी के समर्थक चुप नहीं थे। बल्कि वे उत्साहित थे। मध्यम वर्ग शॉपिंग मॉल, थिएटर और हफ़्ते के आखिर में रेस्त्रां जाने के लिए पागल हुए जा रहा था। उच्च वर्ग पार्टी करने और शराब पीने के लिए आतुर था।

वायरस के इतिहास को देखते हुए, पिछले साल मोदी को जीनोम सीक्वेंसिंग से लेकर वैक्सीन निर्माण में भारी निवेश करते हुए भारत की सुरक्षा क्षमताओं में विकास करना था। ताकि अपरिहार्य दूसरी लहर का सामना करने के लिए अच्छी तैयारी हो सकती। स्पेनिश फ्लू हमें बता ही चुका था कि दूसरी लहर ज़्यादा ख़तरनाक होती है। भारत में बॉम्बे इंफ्लूएंज़ा के नाम से ख्यात इस बीमारी ने हमारी 5 फ़ीसदी आबादी (उस दौर में 1 करोड़ 80 लाख लोग) को ख़त्म कर दिया था। इसकी दूसरी लहर बहुत प्रबल थी। इससे सीख लेकर मोदी को कोरोना की दूसरी लहर के लिए तैयारी करनी चाहिए थी। 

ऊपर से कोई भी वायरस हमेशा खुद में बदलाव करता है और एक नया प्रकार तैयार करता है। यह नया प्रकार ज़्यादा या कम जानलेवा हो सकता है, लेकिन यह ज़्यादा तेजी से संक्रमण फैलाता है। आश्चर्यजनक तौर पर SARS-CoV-2 पहले ही दोहरा बदलाव (E484Q and L425R) कर चुका है, जिसे B.1.167 या इंडियन वैरिएंट कहा जाता है। इसे 5 अक्टूबर को खोजा गया था। एक विदेशी वायरस जब नए स्थानीय प्रकार में बदल चुका था, तभी मोदी सरकार को जीन सीक्वेंसिंग में करोड़ों रुपये का निवेश कर वायरस की उत्पत्ति और इसके फैलाव की जगहों की पहचान करनी थी। लेकिन अपने चिर-परिचित लेटलतीफी वाले अंदाल में सरकार इस साल जनवरी में ही SARS-CoV-2 जेनेटिक्स कंसोर्टिअम (इंसाकॉग) की स्थापना कर पाई। 

जैसा किसी भी वायरल हमले के साथ होता है, पीक पर पहुंचने के बाद जब कोविड की प्रबलता कम हो गई, तो कुछ महीने बाद मोदी आत्मसंतुष्ट हो गए। जनवरी के आखिर में रोजाना आने वाले मामले 13-14 हजार के नीचे चले गए। उसके बाद विश्व आर्थिक मंच की दावोस चर्चा में मोदी ने कोरोना वायरस पर भारत की "जीत" की घोषणा कर दी। अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों को नकारते हुए, उन्होंने बड़बोले अंदाज में कहा, "पिछले साल फरवरी-मार्च में कुछ विशेषज्ञों ने कहा था कि भारत कोरोना से सबसे बुरे तरीके से प्रभावित होने वाला देश रहेगा, संक्रमण की सुनामी आ जाएगी। .....भारत ने स्थिति को अपने नियंत्रण में लाते हुए दुनिया को इस आपदा से बचा लिया।" यहां तक कि ब्रिटिश जर्नल नेचर ने भी हाल में लिखा कि "सितंबर, 2020 में रोजाना के 96,000 मामलों से घटकर, मार्च की शुरुआत में 12,000 मामले" आने के बाद भारतीय नेता "आत्मसंतुष्ट" हो गए।"

क्या मोदी समर्थकों या मुख्यधारा की मीडिया ने यह जानने की कोशिश की, कि कैसे "स्थिति को नियंत्रण में लाकर भारत ने दुनिया को आपदा से बचा लिया?" कोई भी वायरस आबादी के टीकाकरण से ख़त्म होता है, ना कि किसी के बड़बोलेपन से।

आखिर क्यों मोदी 16 जनवरी तक ही टीकाकरण की शुरुआत कर पाए? क्यों उन्होंने कोविशील्ड उत्पादक सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और कोवैक्सिन के निर्माता भारत बायोटेक को अग्रिम 4500 करोड़ रुपये देने के लिए 19 अप्रैल तक इंतजार किया? क्यों उन्होंने भारत को सिर्फ़ दो वैक्सीनों तक सीमित रखा, जबकि अमेरिका और ब्रिटेन ने कई वैक्सीनों की खरीद की है? आखिर क्यों भारत ने जनवरी से अप्रैल के बीच एक करोड़ दस लाख वैक्सीन दूसरे देशों को दान कर दीं, जबकि भारत की सिर्फ़ 2% आबादी का पूरे तरीके से और 9.2% आबादी का आंशिक ढंग से ही टीकाकरण हुआ है? इन सवालों के जवाब मिलना अभी बाकी है।

मोदी समर्थकों के मन में दूसरी तरह के विचार रखने वाले या सलाह देने वाले वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के प्रति घृणा भर चुकी थी, उन्होंने मोदी की कोरोना पर कल्पनाशील जीत पर जश्न मनाया। शारीरिक दूरी और मास्क लगाने की जगह शादियां, पार्टियां होने लगीं। मॉलों और थिएटरों में आने वाली भीड़ से मोदी समर्थकों को लगा कि विश्वगुरू ने वायरस को उनके कमांडर के नेतृत्व में कुचल दिया है।

एक व्यक्ति वाले अधिनायकवाद पर सवार और अपने निरंकुश तरीकों पर कायम मोदी ने पिछले 7 सालों में सिर्फ़ खुद से ही सलाह ली है। ISACOG ने मार्च में ही B.1.167 (इंडियन वैरिएंट) की चेतावनी दे दी थी, लेकिन सरकार ने तब भी भारत को आपदा की तरफ बढ़ने से नहीं रोका।

कोरोना की दूसरी लहर ने भारत पर सुनामी की तरह मार की। अप्रैल के तीसरे हफ़्ते तक रोज़ाना आने वाले मामले 2 लाख और आखिरी हफ़्ते तक 3 लाख पार कर चुके थे।

सार्वजनिक जमावड़े को तुरंत प्रतिबंधित करने और कोविशील्ड-कोवैक्सिन को बड़ी मात्रा में मंगवाने के बजाए, मोदी सरकार चुनाव वाले राज्यों में अपना राजनीतिक अभियान तेज करती रही। ऊपर से कुंभ मेले को भी अनुमति दे दी गई। यह दोनों ही कोरोना फैलाने वाले दो बड़े कार्यक्रम (सुपर स्प्रेडर) साबित हुए। 

जब मोदी एक के बाद एक चुनावी रैलियों को संबोधित कर रहे थे, तब मुख्यधारा की मीडिया की चुप्पी आपराधिक थी, जबकि इसी मीडिया ने जनता को भ्रमित किया है। चुनावी रैलियों का आलम यह था कि जिस दिन भारत में 2,40,000 मामले आए थे, उस दिन मोदी आसनसोल की चुनावी रैली में आई भारी भीड़ की तारीफ़ कर रहे थे।

8 मई को 4.01 लाख नए मामले आए और 4,187 लोगों की मौत हुई (अब तक कुल संक्रमितों की संख्या 2.18 करोड़ और कुल मृत लोगों की संख्या 2.38 लाख पहुंच चुकी है)। भारत के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार के विजय राघवन तीसरी लहर की चेतावनी भी दे चुके हैं। क्या भारत तीसरे कहर को हराने के लिए तैयार है? कतई नहीं। क्या मोदी समर्थक, अब उनके आभामंडल से बाहर आकर सवाल कर रहे हैं कि क्यों इस वायरस ने विश्वगुरू को घुटनों के बल ला दिया है? दुख है कि इस बार भी जवाब ना में है। 

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वे विदेशी मामलों और दूसरे विषयों पर लिखते हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में लिखने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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