आर्थिक मोर्चे पर फ़ेल भाजपा को बार-बार क्यों मिल रहे हैं वोट?

भाजपा काल में लोक-कल्याण का स्तर बद से बदतर होते जा रहा है, लेकिन फिर भी चुनावी मंडी में भाजपा एक के बाद एक धमाकेदार जीत दर्ज कर रही है। केवल पंजाब को छोड़कर यूपी, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड सब जगह सरकार की कुर्सी पर भाजपा बैठने जा रही है। ऐसा क्यों हो रहा है? इसके कई विश्लेषण हो सकते हैं। उन विश्लेषणों में सबसे अहम होता है कि कोई पार्टी अपने लिए लोगों के बीच कैसा नैरेटिव पेश कर रही है तो चलिए इसी पर बारीक ढंग से बात करते हैं।
भारत जैसे गरीब मुल्क में लोगों को राजनीतिक सोच समझ के हिसाब से बाँटें तो भारत में तीन तरह की श्रेणियाँ बनेंगी। पहले वे जो संविधान, राज्य, नागरिक, लोकतांत्रिक मूल्य से बने जटिल गुत्थम गुत्थी को जानते हैं। इस कैटेगरी में रहने वाले लोगों की संख्या सबसे कम है। मुश्किल से एक फीसदी से भी कम। इसके बाद दूसरी कटैगरी आती है जिसमें वे लोग आते हैं जिनका राजनीतिक विषयों पर सोचने-समझने का तरीका किसी पार्टी विशेष को आगे कर बंधा होता है। इन लोगों की संख्या भी कम है। लेकिन इनकी संख्या पहली कैटेगरी से ज्यादा हैं और सोशल मीडिया के उभार के बाद इनकी संख्या पहले के मुकाबले ज्यादा बढ़ी है। इसी कैटेगरी के लोग सबसे अधिक मुखर भी होते हैं। लेकिन इन दोनों के अलावा तीसरी कैटेगरी होती है जिनकी संख्या सबसे अधिक हैं, कुल वोटरों की संख्या में 90 फीसदी से भी ज्यादा इनकी ही संख्या होगी। यह तीसरी कैटेगरी संविधान, तर्क और लोकतांत्रिक मूल्य के आधार पर नहीं सोचती। मोटे तौर पर कह लें तो इसी आधार पर भारत की चुनावी मंडी की जनता बनती हैं।
इस चुनावी मंडी में जानकारी इकट्ठा करने का तरीका एक दूसरे साथ की गयी बातचीत होती है। राजनीतिक पार्टियों को लेकर मीडिया में चल रही रायशुमारी होती है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य में चाय वाले से लेकर पान वाले की दुकान तक और टैक्सी से लेकर ऑटो ड्राइवर तक सब इसी कैटेगरी का हिस्सा हैं। ये लोग हिंदी अखबारों और हिंदी टीवी चैनलों को आधार बनाकर रायशुमारी की दुनिया में चहलकदमी करते हैं। खबरों को लेकर अपनी सहज बुद्धि से सोचते हैं। और राजनीति को लेकर सहज बुद्धि का निर्माण मीडिया के जरिये होता है।
एक उदाहरण से समझिये कि वंशवाद की जड़ें भारत की हर पार्टी में हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ तकरीबन 60 प्रतिशत से अधिक नौजवान सांसद किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़े हुए है। लेकिन बड़े तरीके से वंशवाद का तमगा भजापा पर नहीं लगता, केवल दूसरी पार्टियां जैसे सपा और कांग्रेस पर लगता है। भारत में सभी बड़ी पार्टियों के अगुवा हिन्दू धर्म से जुड़े हैं। कहीं भी हिन्दू धर्म का अनादर करते हुए नहीं पाए जाते हैं लेकिन इन्हें हिन्दू विरोधी बता दिया जाता है। जातियों की राजनीति भाजपा वाले भी करते हैं लेकिन जातियों की राजनीति का तमगा दूसरे दलों पर डाल दिया जाता है। सभी पार्टियां सत्ता के संघर्ष से जुड़ी होती हैं लेकिन भाजपा को देश के लिए लड़ने वाला बता दिया जाता है और बाकी पार्टियों को सत्ता हासिल करने के लिए लड़ने वाला। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जिसके जरिये बड़े-बड़े हिंदी अखबार और हिंदी मीडिया संस्थान आम लोगों के बीच यह माहौल बनाते रहते हैं कि भाजपा के अलावा दूसरी पार्टियां कमतर हैं।
इस तरह के माहौल में लोग दूसरी पार्टियों से ज्यादा भाजपा पर भरोसा करते हैं। इसलिए ढेर सारे जानकार कह रहे हैं। ईवीएम की रिगिंग नहीं हुई है बल्कि लोक मानस पर भाजपा का कब्ज़ा है। भाजपा लोगों के दिलों दिमाग पर हावी है। राजनीतिक चिंतक योगेंद्र यादव इस विषय को बड़े शानदार तरीके से बताते हैं कि यूपी के कई इलाकों के दौरे करने के बाद लगा जैसे वह अपना मन पहले बना चुके हैं और तर्क बहुत बाद में गढ़ रहे हैं। वे किसी जज की तरह नहीं बल्कि वकील की तरह अपनी बात रखते थे, उन्हें पता था कि वे तर्क के किस छोर पर खड़े हैं और उनके साथ कौन खड़ा है। बीजेपी ने मतदाताओं के एक बड़े से हिस्से के साथ भावनात्मक जुड़ाव कायम करने कामयाबी पायी है, ऐसे मतदाता सरकार की किसी बात पर शक नहीं करते, वे शासन-प्रशासन की खामियों को भूल जाने को तैयार बैठे हैं, वे भौतिक-दुख संताप भले ही सह लें लेकिन रहेंगे उसी तरफ जो पक्ष उन्होंने पहले से चुन लिया है। वे अयोध्या-काशी का जिक्र अपने से नहीं करते थे लेकिन हिन्दू-मुस्लिम का सवाल उनके सामान्य बोध में एक अन्तर्धारा की तरह हर समय मौजूद दिखता है।
इसी माहौल पर भाजपा दिन रात हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता का माहौल बनाती है। मुस्लिमों को हिन्दू समाज का ही नहीं बल्कि दुनिया की पूरी मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन पेश कर खेल खेलती है। 24 घंटे किसी न किसी घटना को केंद्र में लाकर हिन्दू धर्मं के औसत समझ वाले व्यक्ति के भीतर साम्प्रदायिकता का जहर भरने की कोशिश की जाती है। हिन्दू धर्मं का औसत समझ वाला व्यक्ति आपसी सम्बन्ध में भले मुस्लिमों के साथ सहज हो लेकिन जैसे ही मुस्लिमों के साथ राजनीतिक भागीदारी की बात आती है तो वह असहज हो जाता है। यह एक बात हमेशा भारतीय जनता पार्टी को वोट की दुनिया में अपने पीछे गोलबंदी करने में मददगार रहती है।
इसके बाद नंबर आता है मजबूत नेता का। मीडिया वाले लगातार लोगों के मन में मजबूत नेता की छवि भरते रहते हैं। यह मजबूत नेता की पूरी छवि संविधान और लोकतंत्र के बुनयादी मूल्यों के आधार पर तानाशाहों की छवि की तरह होती है। लेकिन उत्तर भारत के सामंती समाज में यह छवि हमेशा बिकती है। लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि मोदी हैं तो मुमकिन है। लॉ एंड आर्डर को लेकर कोई न्यायसम्मत बहस नहीं चलती। बल्कि बात यह चलती है कि योगी राज में कोई ज्यादा उद्दंड नहीं हो सकता। होगा तो गोली चल जाएगी। एनकाउंटर हो जायेगा। सरकार के काम पर कोई ज्यादा विरोध करेगा तो जेल में डाल दिया जाएगा। यहाँ भी मुस्लिम एंगल कि भाजपा मुस्लिमों को ज्यादा उछलने नहीं देती है।
इसके बाद नंबर आता है राष्ट्रीय सुरक्षा का। भाजपा के सात साल में लोग भाजपा से सहमत और असहमत नहीं बल्कि या तो लोग भाजपा के समर्थक हैं या देशद्रोही। असहमति रखने वालों की तरफ से देशद्रोही और टुकड़े टुकड़े गैंग के खिलाफ जमकर मुखालफत की जाती है। लेकिन मीडिया की तरफ से जिस तरह से हर असहमति को देशद्रोही बता दिया जाता है। वह अभूतपूर्व माहौल खड़ा कर देता है। गाँव देहात के इलाके में लोग भाजपा के विरोध में उठी किसी भी तरह के बहस में असहमति रखने वालों को देशद्रोही बताकर लांछन लगाने की भरपूर कोशिश करते हैं।
इन सबका असर यह हुआ है कि आम लोग सभी पार्टियों के नेताओं को चोर कहते हुए भी भाजपा को दूसरे से ज्यादा तवज्जो देते हैं। विपक्षी पार्टियों पर बढ़ चढ़कर भरोसा नहीं करते। बल्कि विपक्ष को भाजपा से ज्यादा बड़ा चोर कहते हैं।
इस पूरे मिश्रण का असर यह है कि लोगों की अपनी तकलीफों के लिए सरकार क्यों जिम्मेदार है? इसका ढंग का जवाब मिलने के बाद भी उन्हें इससे कोई ज्यादा फर्क नही पड़ता। जिस तरह पैसे के दम पर झूठा नैरेटिव बनाकर मैनेज किया जा रहा है वह लोकतंत्र के लिए बहुत अधिक चिंताजनक है। लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धांत था कि झूठ को सच के जरिए तोड़ दिया जाएगा। लेकिन सच की आवाज कॉरपोरेट मीडिया की गठजोड़ की वजह से दबी की दबी रह जा रही है। चुनाव के जरिए सरकार बनाने का इतिहास महज पिछले सौ साल का इतिहास है। लोकमानस को किसी न किसी तरह मैनेज करने की वजह से पूरी दुनिया में चुनाव के गंभीर परिणाम दिखने लगे है।
उत्तर प्रदेश को ही देख लीजिए। गरीबी, सेहत, शिक्षा और अन्य बुनियादी मसलों पर सरकार की खुद की रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश एक पिछड़ा राज्य है। भारत में रोजगार दर 38 प्रतिशत के आसपास है तो उत्तर प्रदेश में यह केवल 32 प्रतिशत के आस पास है। कोरोना में उत्तर प्रदेश की सरकार ने बद से बदतर काम किया। औसत आमदनी उत्तर प्रदेश की महज 44 हजार सालाना के आस पास है। इतनी बदतर स्थिति होने के बाद भी उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार दोबारा बनने जा रही है। इसका मतलब है कि वोटरों को भ्रम और झूठ की दुनिया में रखने का बड़ा खेल खेला जा रहा है, जिसका असर यह है कि देश की बर्बाद पर एक पार्टी की जीत बार-बार हो रही है।
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