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बैंक कर्मियों की मोदी सरकार को एक बार फिर चुनौती
2012 के अंतिम वेतन समझौते में जो 15 प्रतिशत वेतन वृद्धि हुई थी, उसके बरखिलाफ इस बार बैंक यूनियनों ने शुरुआती दौर में 20 प्रतिशत के लिए बारगेन किया।
बी सिवरामन
01 Feb 2020
All India bank strike
Image courtesy: Business Today

यूनाइटेड फोरम ऑफ़  बैंक यूनियन्स की 31 जनवरी-1 फरवरी की दो दिवसीय हड़ताल 31 अक्टूबर 2017 से अब तक की आठवीं हड़ताल है (तीन आम हड़तालों को जोड़कर)। साल 2017 में नया वेतन समझौता हुआ था। बैंक वेतन समझौते 5 वर्ष के लिए होते हैं। सफेदपोश कर्मचारियों की संगठित ताकत को देखें, तो बैंक कर्मियों में यह सबसे मजबूत मानी जा सकती है। बावजूद इसके, कि वेतन समझौते का समय समाप्त हुए 2 साल बीत चुके हैं और 8 हड़तालें हो चुकी हैं, यदि वेतन समझौते का नवीकरण नहीं किया जा रहा है, तो मोदी के ‘श्रेष्ठ भारत’ में जरूर सड़ांध व्याप्त है।

2012 के अंतिम वेतन समझौते में जो 15 प्रतिशत वेतन वृद्धि हुई थी, उसके बरखिलाफ इस बार बैंक यूनियनों ने शुरुआती दौर में 20 प्रतिशत के लिए बारगेन किया। इंडियन बैंक्स ऐसोसिएशन द्वारा प्रतिनिधित्व किये जा रहे बैंक प्रबंधनों ने आॅफर को 2017 में 10 प्रतिशत् तक बढ़ाया। रिपोर्टों से पता चलता है कि दोनों तरफ की बातचीत के बाद, अक्टूबर 2019 से पहले ही 12 प्रतिशत् पर समझौता भी हुआ। तबसे यह तीसरी हड़ताल है; आखिर क्यों? यह इसलिए कि आईबीए ने अन्य मांगों को मानने से इंकार कर दिया है, मसलन पेंशन अपडेट करने की बात।

अब विरोधाभास देखिये। एक वरिष्ठ प्रबंधक, जो 25 वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त हुए, आज 6000रु पेंशन पा रहे है, जबकि एक क्लर्क, जो पिछले वर्ष सेवानिवृत्त हुआ, 30,000 पेंशन पाता है। यह इसलिए है कि किसी अविवेकी मानदण्ड के तहत पेंशन की गणना अंतिम प्राप्त वेतन का 50 प्रतिशत होती है, जिसको बाद की वेतन वृद्धि के अनुरूप अपडेट नहीं किया जाता। आॅल इंडिया बैंक एम्प्लाॅईज़ ऐसोसिएशन के नेता वी एस एस शास्त्री ने कहा, ‘‘सर्वोच्च न्यायालय ने 13 फरवरी 2018 को आईबीए को निर्देशित किया कि वह पेंशन को अपडेट करे, पर आईबीए ऐसा करने से इंकार कर रही है। पब्लिक सेक्टर बैंक सरकार के अधीन हैं, और यदि वित्त मंत्रालय इन बैंकों को सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार काम करने से रोक रहा है, तो यह सरकार की जबर्दस्ती है न कि सभ्य समाज/श्रेष्ठ भारत की निशानी।’’

यदि मोदी सरकार ने बैंकिंग क्षेत्र में ‘कलेक्टिव बार्गेनिंग’ का माखौल बना दिया है, तो यह इस क्षेत्र में एक गंभीर संकट का द्योतक है, और शायद मोदी खुद नहीं जानते कि इसका हल क्या होगा, इसलिए उन्हें कर्मचारियों के सिर पर ठीकरा फोड़ना सुविधाजनक लगा।

आईबीए वेतन समझौते की बात पर बौंको की दयनीय वित्तीय हालत और भारी एनपीए बोझ के नाम प हाथ पीछे खींच लेता है। मोदी के पहले सत्र की शुरुआत में ही समस्त एनपीएज़ का योग, स्ट्रेस्ड असेट्स और डाउटफुल असेट्स मिलाकर 14 लाख करोड़ पार कर गया था। सबसे पहला समाधान जो मोदी को सूझा वह था एफआरडीआई बिल, जिससे कि सरकारी बैंक तक दीवालियापन के रास्ते पर ओर बढ़़ गए!

जमाकर्ताओं द्वारा भारी विरोध और कर्मचारियों की हड़तालों के कारण सरकार को इस बिल को लाने का विचार छोड़ना पड़ा, पर पुनः उसे नए रूप में लाने की बात चल रही है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने पिछले बजट में तो घोषणा तक कर दी थी कि यदि बैंक दीवालिया हो जाएं तो डिपाॅज़िट इन्श्योरेंस को वर्तमान के एक लाख से बढ़ाने के बारे में विचार किया जाएगा। यानी यदि किसी व्यक्ति ने अपनी गाढ़ी कमाई का 50 लाख रुपया किसी सरकारी बैंक में निवेशित किया हो तो बैंक दीवालिया होने पर, उसे 1 लाख की जगह 2 लाख मुआवज़ा मिलेगा। यही एक ‘क्रान्तिकारी समाधान’ है जो मुम्बई के पीएमसी बैंक की तबाही के बाद व जमाकर्ताओं के भारी विरोध के बाद सरकार ने प्रस्तुत किया।

एनपीए कर्मचारियों का दोष नहीं है। केंद्र के राजनीतिक बाॅस और नौकरशाह सहित बैंकों के सर्वोच्च स्तर के प्रबंधकों ने बड़े काॅरपोरेट्स के साथ हाथ मिलाकर 14 लाख करोड़ रुपये के पब्लिक फंड को लूटकर उन्हें एनपीए घोषित कर दिया। केवल 100 बड़े काॅरपोरेट, जो अनिल अंबानी जैसों के हाथ में हैं, इन डूबे हुए ऋण के तकरीबन 75 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। मोदी सरकार ने इन्हें नहीं पकड़ा, बल्कि कर्मचारियों से उनका जायज देय छीनना शुरू किया।

बैंक यूनियनों ने धमकी दी कि वे विलफुल डिफाॅल्टरों के नामों का खुलासा करेंगे, और उन्होंने पहली किश्त में 100 नाम घोषित भी किये। और, इसके बावजूद कि सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार से विलफुल डिफाॅल्टरों के नाम बताने को कहा, मोदी सरकार ने, जेल भेजना तो दूर उनमें से एक का भी नाम नहीं बताया। मसलन, यद्यपि अनिल अंबानी 1 लाख करोड़ के कर्ज का डिफाॅल्टर है पर वह आज़ाद घूम रहा है और राफेल सौदे की वजह से मोदी का चहेता बना हुआ है।

यह अकारण नहीं है कि मोदी काॅरपोरेट दुष्टों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करना चाहते। आम हड़ताल के दौर में बातचीत के दौरान ऐटक के अध्यक्ष के. महादेवन ने कहा था कि अधिकतर विलफुल डिफाॅल्टर दरअसल गुजरात के हैं और वे मोदी-शाह जोड़ी के क़रीबी हैं। वे बोलेे कि उनके पास पूरी लिस्ट है और उन्होंने सरकार को चुनौती भी दी कि उन्हें गलत साबित करे।

सरकार इन्साॅल्वेंसी ऐण्ड बैंक्रपसी कोड भी लाई, जिससे कि बैंक प्रबंधन डिफाॅल्ट करने वाली कम्पनियों को नेश्नल कंपनी लाॅ ट्रिब्यूनल (एनसीएलअी) में ले जाए और इंसाॅल्वेंसी प्रोसीडिंग चलाकर पैसा वसूले। यह आश्चर्य की बात है कि कानून बनाने के बाद भी सरकार डिफाॅल्टरों, यहां तक कि विलफुल डिफाॅल्टरों पर कार्यवाही करने से बच रही है। आर.बी.आई. ने 2018 में एक सर्कुलर जारी किया था कि बैंक प्रबंधन 6 माह से अधिक चुकौती डिफाॅल्ट करने वाली कम्पनियों को आईबीसी के तहत दीवालियापन की कार्यवाही की ओर ले जाए। शायद इसे जल्दबाजी में लिया गया निर्णय मानकर सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज किया था। पर उसने वित्त मंत्रालय को कभी नहीं रोका कि वह आइबीसी का प्रयोग कर विलफुल डिफाॅल्टरों पर कार्यवाही चलाए। तो 100 काॅरपोरेट डिफाॅल्टरों में से एस्सार कम्पनी को छोड़कर ‘भ्रष्टाचार का नाश’ करने वाले मोदीजी ने किसी काॅरपरेरेट को हाथ नहीं लगाया।

मोदी ने स्वयं ट्वीट करके बताया था कि आईबीसी का इस्तेमाल कर सरकार ने 4 लाख करोड़ के बुरे ऋण वसूल कर लिए, पर आरबीआई के आंकड़ों को आधार बनाकर 23 अप्रैल 2018 को स्क्रॉल न्यूज़ ने खुलासा किया कि वसूली मात्र 29,343 करोड़ रुपये की हुई। इस बीच औसत एनपीए बढ़कर 2 लाख करोड़ तक पहुंच गए। वित्तीय कानून न ही ‘56 इंच छाती’ वाले सूपरमैन मोदी और न ही बाहुबली अमित शाह का सम्मान करेंगे और कई सरकारी बैंक तो दीवालियेपन के कगार पर खड़े हैं। आर्थिक मंदी के दौर में वित्तीय संकट में फंसी निर्मला सीतारमन के पास उन्हें बचाने का पैसा नहीं है।

पिछले बजट में उन्होंने 2020-21 में बैंक पुनर्पूंजीकरण या रीकैपिटलाइज़ेशन हेतु 70,000 करोड़ रुपये और 2021-22 में 40,000 करोड़ और देने का वादा किया था, पर इसपर कायम न रह सकीं। पिछले वर्ष के बजट में वह स्पष्ट कर दीं कि अब सरकारी बैंकों में पुनर्पूंजीकरण हेतु इंफ्यूज़न आॅफ फंड्स नहीं किया जाएगा। परंतु इसी सरकार ने बैंकों को मजबूर किया कि वे पहले तीन सालों में काॅरपोरेटों के 2.4 लाख करोड़ के बुरे ऋणों को माफ कर दें! विमुद्रीकरण ने तात्कालिक रूप से भले ही बैंकों को कैश से भर दिया, दीर्घकालीन परिणाम देखें तो उसने अर्थव्यवस्था को पंगु बनाकर एनपीए में बढ़ोत्तरी कर दी। इसमें संदेह नहीं कि यदि मंदी का दौर लंबा चला तो एनपीए बोझ की वृद्धि 33-50 प्रतिशत हो सकती है। अब तो बैंक ऋण देने को तैयार भी हों, तो कोई लेने वाले नहीं, क्योंकि निजी निवेश पर ब्रेक लग चुका है, जिससे बैंकों का सामान्य कामकाज भी ठप्प पड़ गया है।

निर्मलाजी ने बैंको को विनिवेश के जरिये फंड उगाही करने की सलाह दी है। वे अपनी सबसे ‘कीमती सम्पत्ति’ बेचने को तैयार हैं, पर उसके भी खरीददार नहीं हैं। आज पब्लिक सेक्टर बैंकों की परफाॅरमैंस काफी दयनीय है। पर सरकार बैंकों और एलआइसी पर भयानक दबाव डाल रही है कि एचपीसीएल जैसी बीमार पीएसयू को बचाए या काॅनकाॅर जैसे पीएसयू के शेयर खरीद लें ताकि सरकार के विनिवेश टारगेट को बनाए रखा जा सके।

जबकि इस साल ही कुछ बैंक दीवालिया हो रहे हैं, मोदी ने शार्टकट निकाल लिया है। बैंक मर्जर के नाम पर वह संकटग्रस्त बैंकों को स्वस्थ बैंकों के सिर मढ़ रहे हैं। इससे न केवल वे भी बीमार हो जाएंगे, बल्कि बैंक बंदी के जरिये कर्मचारियों का संकट बढ़ेगा। न केवल सरकारी बैंक, निजी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का संकट भी लाखों करोड़ के एनपीए की वजह से, विस्फोटक स्थिति में पहुंच रहा है। आइएल एण्ड एफएस घोटाले के बाद सुब्रमणियम स्वामी ने इंडिया बुल्स कंपनी पर 1 लाख करोड़ के घोटाले का आरोप लगाया है। और भी ऐसी निजी वित्तीय कंपनियां हैं। इस तरह पब्लिक की पूंजी लेकर और सरकारी बैंकों को लोन गारंटी का झांसा देकर, उन्हें खंगालकर बेनामी कम्पनियों को देना और फिर उन्हें डिफाॅल्ट की छूट देना जनता और सरकारी बैंकों की लूट है।

नीरव मोदी और मेहुल चोकसी तो ‘मशहूर’ हैं, पर वित मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के पहले पांच साल में 23,000 बैंक घोटाले हुए और किसी को भी जेल नहीं हुआ। एक अफवाह यह भी है कि निर्माला वर्तमान बजट के बाद हटाई जाएंगी और आरएसएस के नज़दीकी कोण्कणी ब्राहमण के.वी. कामत वित्त मंत्री बनेंगे। इनका नाम चंदा कोचर के विडियोकाॅन घोटाले में आया था। मोदी सरकार भले ही बैंक हड़तालों को रूटीन समझें, पर वे लोगों की चेतना को अनिश्चितकालीन हड़ताल के लिए तैयार कर रहे हैं। यह मोदी के लिए वाॅटरलू साबित होगा! 

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