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ख़बरों के आगे-पीछे :  धर्मस्थल क़ानून, तनाव में बीता क्रिसमस और वाजपेयी बनाम मोदी

आने वाले समय में केंद्र सरकार धर्मस्थल कानून को बदल सकती है। अभी तत्काल इसकी कोई जरूरत नहीं दिख रही है, क्योंकि इस कानून के रहते ही अदालतें धर्मस्थलों को लेकर ऐसे आदेश दे रही हैं, जिनसे उनकी प्रकृति बदल सकती है।
Rahul gandhi

खुले में शौच से मुक्ति के दावे की पोल खुली

देश में पिछले आठ साल के दौरान शौचालय क्रांति को लेकर सरकार के स्तर पर खूब महंगा प्रचार हुआ है और इस दौरान भारत को खुले में शौच से मुक्त देश भी घोषित किया जा चुका है, लेकिन हकीकत यह है कि राजधानी दिल्ली में ही अब भी हजारों लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। यह हकीकत उस समय उजागर हुई जब दिल्ली के उप राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना पिछले सप्ताह शुक्रवार की रात को औचक निरीक्षण पर निकले और उन्होंने कश्मीरी गेट के रैन बसेरे और उसके आसपास के इलाकों का दौरा किया। उन्होंने देखा कि सैकड़ों लोग सड़कों के किनारे या कहीं फ्लाईओवर के नीचे सो रहे हैं। लोगों से बातचीत में उन्हें यह भी पता चला कि रैन बसेरे में तो कोई छह सौ लोग रहते हैं लेकिन हजारों लोग सड़कों पर सोते हैं और शौच के लिए यमुना के किनारे जाते है। उप राज्यपाल गए तो थे दिल्ली सरकार के रैन बसेरे की योजना की पोल खोलने लेकिन उन्होंने अनजाने में खुले में शौच से देश के मुक्त होने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे की पोल भी खोल दी। अगर उप राज्यपाल यमुना किनारे दूसरे इलाकों और शकूर बस्ती, सराय रोहिल्ला जैसे रेलवे स्टेशनों के आसपास के इलाकों का दौर करें तो पता चलेगा कि वहां भी हजारों लोग अब भी खुले में शौच के लिए जाते हैं। यह राजधानी दिल्ली की हकीकत है। देश के दूसरे हिस्सों के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन सरकारी कागजों में देश खुले में शौच से मुक्त हो चुका है। इंतजार कीजिए इसी तरह धीरे-धीरे देश गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी आदि से भी मुक्त घोषित कर दिया जाएगा।

बदला जा सकता है धर्मस्थल क़ानून को 

आने वाले समय में केंद्र सरकार धर्मस्थल कानून को बदल सकती है। अभी तत्काल इसकी कोई जरूरत नहीं दिख रही है, क्योंकि इस कानून के रहते ही अदालतें धर्मस्थलों को लेकर ऐसे आदेश दे रही हैं, जिनसे उनकी प्रकृति बदल सकती है। वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के बाद अब मथुरा की एक अदालत ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह के विवाद में सर्वे करने का आदेश दे दिया है। इससे पहले वाराणसी मे जब सर्वे का आदेश दिया गया तो दूसरे पक्ष की ओर से बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बने धर्मस्थल कानून का हवाला दिया गया था, जिसके मुताबिक किसी भी धर्मस्थल की 1947 वाली स्थिति को बदला नहीं जा सकता है। तब अदालत ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि यह कानून किसी धर्मस्थल का सर्वे करने से नहीं रोकता है। यह भी कहा गया कि सर्वे करने से किसी धर्मस्थल की प्रकृति नहीं बदल जाती है। ऊपरी अदालतों ने भी इस तर्क को स्वीकार किया। इसी तर्क के आधार पर मथुरा में भी सर्वे का आदेश दिया गया है। सवाल है कि अगर सर्वे के जरिए यह साबित हो गया कि ज्ञानवापी मस्जिद की जगह पर पहले मंदिर था और जिसे फव्वारा बताया जा रहा है वह शिवलिंग था तो क्या होगा? या सर्वे में यह पता चले कि श्रीकृष्ण जन्मभूमि की जगह पर शाही ईदगाह है तो क्या होगा? अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब इन दोनों जगहों को हिंदुओं को सौंपने के लिए कैसा आंदोलन होगा। अदालतों की सुनवाई से जब यह मुद्दा पूरी तरह से पक जाएगा तब धर्मस्थल कानून को बदला जा सकता है।

वाजपेयी की समाधि पर राहुल के जाने का मतलब

अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दिल्ली पहुंचे राहुल गांधी ने महात्मा गांधी सहित कई पूर्व प्रधानमंत्रियों की समाधियों पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। इस सिलसिले में वे भाजपा के दिग्गज नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर भी गए। इससे पहले कांग्रेस का कोई नेता किसी भाजपा नेता की समाधि पर नहीं गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनकी पार्टी का कोई नेता भी जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की समाधि पर नहीं जाता है। इसलिए राहुल गांधी का अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर जाना एक बड़ी राजनीतिक पहल है। यह सिर्फ दिखावे की पहल नहीं है, बल्कि बहुत सोच समझ कर उठाया गया कदम है। कांग्रेस से जुड़े सूत्रों का कहना है कि जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी पिछले कुछ समय से सरदार वल्लभ भाई पटेल, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे कांग्रेस के दिग्गजों को अपनाया है, उसी का जवाब है यह पहल। वैसे भी वाजपेयी के बारे में माना जाता है कि वे बहुत हद तक नेहरू से प्रभावित थे। बताया जा रहा है कि महापुरुषों की समाधियों पर जाने का राहुल का कार्यक्रम 24 दिसंबर को देर होने की वजह से स्थगित नही हुआ था, बल्कि खास कारण से उसे टाला गया था। अगले दिन अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिवस था। इसलिए यह तय हुआ कि राहुल उनकी जयंती के दिन ही उनकी समाधि पर जाकर श्रद्धांजलि दें। इससे अलग मैसेज जाएगा। पहला मैसेज तो यह है कि राहुल राजनीतिक छुआछूत में यकीन नहीं रखते हैं। कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है।

वाजपेयी बनाम मोदी की बहस 

सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस और ऐसे विपक्षी नेता, जो किसी समय भाजपा के साथ रहे हैं, वे एक नई बहस खड़ी कर रहे हैं। यह बहस है अटल बिहारी वाजपेयी बनाम नरेंद्र मोदी की। राहुल गांधी 25 दिसंबर को अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर गए, जिसे लेकर भाजपा के नेता हतप्रभ हैं। उन्हें अंदाजा नहीं था कि नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य कभी किसी भाजपा नेता को श्रद्धांजलि देने उसकी समाधि पर जाएगा। भाजपा अभी इसके मायने निकाल ही रही है और इसी बीच वाजपेयी का नाम लेकर नीतीश कुमार और यशवंत सिन्हा ने नरेंद्र मोदी सरकार पर निशाना साधा। सिन्हा ने एक अंग्रेजी के अखबार में लेख कर लिख कर हर बात का ढिंढोरा पीटने की इस सरकार की नीति पर सवाल उठाया और वाजपेयी राज से तुलना की। वाजपेयी सरकार में वित्त और विदेश मंत्री रहे सिन्हा ने जी-20 की अध्यक्षता को लेकर सरकार की ओर से मचाए जा रहे शोर पर कहा कि वे विदेश मंत्री रहते 1999 में जी-20 के अध्यक्ष बने थे और उसी समय विश्व बैंक की विकास समिति की अध्यक्षता भी भारत को मिली थी। लेकिन इसका कोई शोर नहीं मचाया गया था। उन्होंने लिखा कि वाजपेयी सरकार में सब लोग चुपचाप विकास के काम में लगे रहते थे। अब काम कम हो रहा है और हल्ला ज्यादा मचाया जा रहा है। इसी तरह 25 दिसंबर को अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस पर वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे नीतीश कुमार ने कहा कि वाजपेयी सरकार के समय देश का बहुत तीव्र गति से विकास हुआ था। नीतीश ने बिहार के विकास में भी वाजपेयी के योगदान को याद किया। ध्यान रहे प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के तमाम मंत्री दावा करते है कि जो 70 साल में नहीं हुआ वह अब हो रहा है। उन 70 सालों में वाजपेयी सरकार के छह साल भी शामिल होते हैं। विपक्ष अब उन छह सालों से मोदी के आठ साल की तुलना करते हुए दावा कर रहा है कि वाजपेयी राज के छह साल में देश का विकास और दुनिया में भारत का नाम ज्यादा हुआ था। सो, यह नैरेटिव बदलने वाला एक नया विमर्श है। 

तनाव का नया त्योहार बना क्रिसमस

भारत में कई त्योहार ऐसे होते हैं, जिनसे देश भर में तनाव के हालात बनते हैं और किसी न किसी तरह की हिंसा होती है। खासकर ऐसे त्योहार, जिनमें जुलूस निकालने की परंपरा है। ऐसे कई त्योहारों के मौके पर हिंसा और टकराव की खबरें अक्सर आती हैं। लेकिन इनमे में क्रिसमस का त्योहार नहीं रहा। इस साल पहली बार ऐसा हुआ है कि क्रिसमस के मौके पर कई जगहों पर टकराव हुआ और मुकदमे दर्ज हुए। यह संभवत: पहली बार जब किसी ईसाई त्योहार के मौके पर ऐसा हुआ। हालांकि क्रिसमस का विरोध काफी पहले शुरू हो गया था। कई हिंदू प्रवचनकर्ताओं ने वेलेटाइन डे को माता-पिता पूजन दिवस और क्रिसमस को तुलसी पूजन दिवस मनाने का फतवा जारी किया था। इस बार उत्तराखंड जैसे राज्य में क्रिसमस के मौके पर टकराव हुआ। उत्तरकाशी में एक कार्यक्रम में धर्मांतरण कराने का आरोप लगा और लोग लड़ने पहुंच गए। बाद में मुकदमा भी दर्ज हुआ। केरल में भी धर्मांतरण के आरोपों को लेकर टकराव हुआ। दिल्ली के बुराड़ी इलाके मे एक घर में किसी पादरी की मौजदूगी में हो रहे कार्यक्रम को रोकने के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंच गए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी क्रिसमस के मौके पर एक निर्देश जारी करके पुलिस को कहा कि त्योहार शांतिपूर्ण ढंग से मने और धर्मांतरण न हो। इतना ही नहीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी क्रिसमस के मौके पर धर्मांतरण को लेकर चिंता जताई।

केंद्रीय मंत्रिपरिषद में बड़े फेरबदल की तैयारी 

केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जल्दी ही फेरबदल होने वाला है। खबर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बजट सत्र से पहले ऐसा कर सकते हैं। इस संभावित फेरबदल को इस साल विभिन्न राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि 2023 में नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसके अलावा 2024 में लोकसभा चुनाव भी है। अनुमान है कि फेरबदल 14 जनवरी के बाद होगा और इसके लिए हटाए जाने वाले मंत्रियों और उनकी जगह लेने वाले नए चेहरों की लिस्ट तैयार हो चुकी है। गौरतलब है कि 14 जनवरी के बाद खरमास खत्म हो रहा है और धार्मिक मान्यता के मुताबिक खरमास के बाद ही शुभ कार्य किए जाते हैं। बताया जा रहा है कि फेरबदल में कई पहलुओं का ध्यान रखा जाएगा। इसके तहत सामाजिक समीकरणों के हिसाब से उपयोगी सांसदों को मंत्रिपरिषद में जगह दी जाएगी और हटाए जाने वाले मंत्रियों को पार्टी संगठन के काम में लगाया जाएगा। गौरतलब है कि पिछली बार केंद्रीय मंत्रिपरिषद में फेरबदल 8 जून, 2021 को हुआ था। तब 12 मंत्रियों को हटा कर नए चेहरे शामिल किए गए थे। इस बार भी लगभग इतने मंत्री हटाए जाने का अनुमान है। इस बार ज्यादातर नए चेहरे लोकसभा सदस्यों में से लिए जाएंगे। इस बार के फेरबदल में महिलाओं के साथ दलित और आदिवासी वर्ग के सांसदों को ज्यादा तरजीह दिए जाने की संभावना जताई जा रही है। 

शिंदे को भाजपा कब तक अपने कंधे पर ढोती रहेगी? 

भाजपा महाराष्ट्र में अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए कब तक इंतजार करेगी? इस सवाल को ऐसे भी पूछा जा सकता है कि महाराष्ट्र के भाजपा नेता कब तक एकनाथ शिंदे की पालकी के कहार बने रहेंगे? गौरतलब है कि शिंदे के खिलाफ अभियान शुरू हो गया है। उनके खेमे के लोकसभा सांसद राहुल शेवाले के खिलाफ एक महिला ने यौन शोषण का आरोप लगाया है। शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट ने ने विशेष जांच टीम बना कर इस मामले की जांच कराने की मांग की है। इतना ही नहीं ठाणे में एक बिल्डर सूरज परमार की आत्महत्या के मामले की जांच भी एसआईटी से कराने की मांग उद्धव ठाकरे गुट कर रहा है। सांसद संजय राउत ने परोक्ष रूप से इस मामले में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का नाम होने का आरोप लगाया है। यह मामला सात साल पुराना है। दूसरी ओर भाजपा की ओर से उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री बनाने की मांग तेज हो गई है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले ने कहा है कि वे अपने अध्यक्ष रहते फड़नवीस को मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं। इस बीच फड़नवीस की पत्नी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्रपिता बताने के साथ यह भी कहा कि 'देवेंद्र जी को सीएम होना चाहिए।’ दरअसल भाजपा के अंदरुनी समीकरणों की वजह से फड़नवीस का इंतजार लंबा हो रहा है। उनको मुख्यमंत्री बनने से रोक रहे खेमे का कहना है कि अपना मुख्यमंत्री बना कर पार्टी को एंटी इन्कंबैंसी का सामना नहीं करना चाहिए, क्योंकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में ज्यादा समय नहीं बचा है।

खरीद-फरोख्त के सभी मामलों की जांच हो 

तेलंगाना में विधायकों की कथित खरीद फरोख्त के मामले में हाई कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए हैं। राज्य सरकार ने इसकी जांच के लिए एक एसआईटी बनाई थी लेकिन हाई कोर्ट ने उसकी जांच रोक दी है और सीबीआई को जांच करने को कहा है। यह मामला अक्टूबर का है जब तीन लोगों ने उस समय की तेलंगाना राष्ट्र समिति (अब भारत राष्ट्र समिति) के विधायकों को खरीदने की कोशिश की थी और एक सौ करोड़ रुपए का लालच दिया था। हालांकि भाजपा ने इससे इनकार किया था। भाजपा चाहती थी कि सीबीआई जांच हो, ताकि यह आसानी से साबित हो  सके कि यह पूरा मामला राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से प्रायोजित था। तेलंगाना की तरह के आरोप तीन और राज्यों में लगे हैं। दिल्ली और पंजाब में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया है कि उसके विधायकों को खरीद कर सरकार गिराने का प्रयास किया गया। इसकी भी गंभीरता से जांच होनी चाहिए कि कहीं यह भी राज्य सरकार की ओर से प्रायोजित घटनाक्रम तो नहीं था। दिल्ली में तो उप राज्यपाल भी सीबीआई जांच की सिफारिश कर सकते हैं। तीसरा राज्य झारखंड है, जहां सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल कांग्रेस पार्टी के विधायकों को खरीद कर सरकार गिराने के प्रयास का आरोप लगा है। वहां तो विधायक पैसे के साथ पकड़े भी गए। सो, वहां भी जांच होनी चाहिए कि इसमें क्या सचाई है? क्या सचमुच महाराष्ट्र से लेकर असम तक भाजपा नेता राज्य सरकार गिराने में सक्रिय थे?

(व्यक्त विचार निजी हैं।)

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