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बिहार उपचुनाव: नीतीश कुमार के लिए चेतावनी हैं ये परिणाम

बिहार की जिन पांच सीटों पर उपचुनाव हुए थे, उनमें से चार सीटें जदयू के पास थीं, लेकिन वो इनमें से महज़ एक सीट ही बचा पाई।
Bye elections
Image courtesy: News18 Hindi

बिहार की पांच विधानसभा और एक लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव का परिणाम कई संदेश लिए हुए है।

बिहार की जिन पांच सीटों पर उपचुनाव हुए थे, उनमें से चार सीटें जदयू के पास थीं, लेकिन वो इनमें से महज एक सीट ही बचा पाई।

अलबत्ता, लोकसभा की एक सीट समस्तीपुर पर लोजपा ने कब्जा बरकरार रखा, लेकिन जीत का अंतर ढाई लाख से घट कर एक लाख पर आ गया।

सीवान की दरौंदा विधानसभा सीट पर जदयू को अपनी सहयोगी पार्टी भाजपा से निष्कासित किए गए व्यास सिंह के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा। उन्होंने यहां निर्दलीय चुनाव लड़ा। इस सीट के लिए चुनाव प्रचार करने गए भाजपा नेता व डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी ने कार्यकर्ताओं से कहा था कि वे जदयू उम्मीदवार को जिताने के लिए काम करें। इसके बावजूद जदयू की हार हो गई। दरौंदा सीट पर लगातार दो बार जदयू ने जीत दर्ज की थी। दरौंदा सीट जदयू की कविता सिंह के सांसद बन जाने से खाली हुई थी। जदयू ने यहां से कविता सिंह के पति अजय सिंह को टिकट दिया था। राजद की तरफ से उमेश सिंह किस्मत आजमा रहे थे।

इसी तरह सहरसा की सिमरी बख्तियारपुर सीट पर 2005 से ही जदयू का कब्जा था, लेकिन इस सीट पर भी पार्टी को शिकस्त मिली है। राजद उम्मीदवार जफर आलम ने इस सीट पर जीत दर्ज की है। यहां ये भी बता दें कि इस सीट पर राजद की सहयोगी पार्टी विकासशील इंसान पार्टी ने भी उम्मीदवार उतारा था।

बेलहर सीट पर भी 2005 से ही जदयू जीतता आया है, लेकिन इस चुनाव में ये सीट भी जदयू के हाथ से फिसल गई। राजद उम्मीदवार रामदेव यादव ने इस सीट पर जीत दर्ज की है। जदयू नेता गिरधारी यादव के सांसद बनने के कारण यह सीट खाली हुई थी। जदयू ने इस सीट पर गिरधारी यादव के भाई लालधारी यादव को टिकट दिया था।

भागलपुर की नाथनगर विधानसभा सीट नाथनगर से जदयू के टिकट पर विधायक रहे अजय मंडल के सांसद बन जाने के कारण खाली हुई थी। इस सीट से जदयू ने लक्ष्मीकांत मंडल को टिकट दिया था जबकि राजद ने राबिया खातून को चुनावी मैदान में उतारा था। यहां जदयू बहुत मामूली अंतर से जीत दर्ज कर पाया है।

सबसे ज्यादा चौंकाने वाला परिणाम सीमांचल की मुस्लिम आबादी बहुल सीट किशनगंज से आया है। यहां असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के उम्मीदवार कमरूल हुदा को जीत मिली है। 2015 के विधानसभा चुनाव में इस सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। वर्ष 2019 के आम चुनाव में एआईएमआईएम के उम्मीदवार को शानदार वोट मिला था, जिससे साफ हो गया था कि सीमांचल में यह पार्टी अपनी पकड़ मजबूत कर रही है और इस उपचुनाव में ओवैसी की पार्टी ने बिहार विधानसभा में इंट्री कर ली।

किशनगंज सीट सीट पर एनडीए की तरफ से भाजपा की स्वीटी सिंह चुनाव मैदान में थीं जबकि कांग्रेस ने मो. जावेद की मां साइदा बानो को टिकट दिया था। चुनाव में भाजपा दूसरे स्थान पर रही, जिससे साफ है कि यहां वोटों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ है।

इस चुनाव में जदयू को काफी नुकसान हुआ है क्योंकि उसे अपनी जीती हुई तीन सीटें गंवानी पड़ी है और वह भी तब हुआ है जब भाजपा के अध्यक्ष यह कह चुके थे कि वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ही एनडीए का चेहरा होंगे।

इस परिणाम से वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू की बारगेनिंग पावर कम होगी, क्योंकि भाजपा को यह कहने का मौका मिल गया है कि उपचुनाव में पार्टी का प्रदर्शन काफी बुरा रहा है। दूसरी तरफ, इस चुनाव से नीतीश कुमार की अपनी छवि की चमक भी कुछ कम हुई है। इस परिणाम से साफ है कि लोगों में नीतीश कुमार को लेकर नाराजगी है और इसकी कई वजहें हैं।

पटना के वरिष्ठ पत्रकार दीपक मिश्रा कहते हैं, “जून-जुलाई में चमकी बुखार से 100 से ज्यादा बच्चों की अकाल मौत और फिर बाढ़ से निबटने में सरकार की लाचारी से लोगों में काफी गुस्सा है। ये परिणाम इसी की तरफ इशारा कर रहा है। इस परिणाम के बाद भाजपा, जदयू पर हावी होने लगेगी और जदयू पहले की तरह आक्रामक होकर सीटों का मोलभाव नहीं कर पाएगा। ये परिणाम नीतीश कुमार के लिए चेतावनी है।”

क्या राजद को खुश होना चाहिए?

इस उपचुनाव में राजद ने दो सीटें अपने नाम कर ली है। ऐसा तब हुआ, तेजस्वी यादव व पार्टी के अन्य नेता बिल्कुल निष्क्रिय थे और महागठबंधन की सहयोगी पार्टियां अलग- अलग राग अलाप रही थीं। महागठबंधन की पार्टियों में इतना मतभेद था कि दो सीटों पर राजद के खिलाफ ही उन्होंने उम्मीदवार उतार दिए थे। अतः कहा जा सकता है कि लोगों का वोट राजद के लिए नहीं था, बल्कि जदयू के खिलाफ था, इसलिए राजद व महागठबंधन को खुश होने की जरूरत नहीं है।

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं,  “इस चुनाव परिणाम से राजद कार्यकर्ताओं का मनोबल जरूर बढ़ेगा, लेकिन इसे अगर राजद नेता 2020 के चुनाव परिणाम के संकेत के तौर पर देख रहे हैं, तो उन्हें सतर्क होने की जरूरत है। क्योंकि उपचुनाव के परिणाम विधानसभा चुनाव की छवि पेश नहीं करते हैं।”

वर्ष 2009 में 13 विधानसभा सीटों के लिए हुआ उपचुनाव इसका जीता-जागता उदाहरण है। वर्ष 2009 में बिहार की 13 सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे। इनमें से एनडीए 9 सीटें हार गई थी, लेकिन इसके एक साल बाद ही बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ, तो एनडीए ने 206 सीटों (जदयू को 115 और भाजपा को 91 सीटें) पर जीत दर्ज कर दोबारा सरकार बनाई थी।

ओवैसी की पार्टी की जीत के मायने

असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) ने किशनगंज सीट से जीत दर्ज कर बिहार में अपना खाता खोला है। यहां भाजपा की उम्मीदवार स्वीटी सिंह दूसरे नंबर पर रहीं जबकि वर्ष 2015 के चुनाव में जीत दर्ज करनेवाली तीसरे नंबर पर चली गई।

इस जीत ने राजद व कांग्रेस दोनों को धक्का पहुंचाया है। यहां करीब 60 फीसदी आबादी मुस्लिम है और इस आबादी ने इन पार्टियों की जगह वहां ओवैसी की पार्टी को चुना है।

एआईएमआईएम के टिकट पर किशनगंज से जीत दर्ज करनेवाले कमरूल हुदा ने न्यूज़क्लिक के साथ बातचीत में कहा, “किशनगंज में हमारी लड़ाई दो ताकतों के साथ थी। एक तरफ साम्प्रदायिक ताकत थी, तो दूसरी तरफ परिवारवाद की ताकत। दोनों ही पार्टियों ने डराने की राजनीति की है। इन दोनों को यहां की जनता ने धूल चटा दिया है।”

दूसरी तरफ, सीमांचल में एनआरसी का मुद्दा भी काफी अहम था। भाजपा के नेता सीमांचल में एनआरसी लागू करने की लगातार मांग कर रहे थे। कांग्रेस ने किशनगंज में इस मुद्दे को नहीं छुआ, लेकिन एआईएमआईएम ने इसी मुद्दो को केंद्र में रख कर चुनाव प्रचार किया। इसका भी फायदा मिला।

कमरूल हुदा कहते हैं, “एनआरसी को सबसे पहले कांग्रेस ने ही लागू करने का फैसला किया था। ऐसे में अगर पूरे हिन्दुस्तान में या बिहार में एनआरसी लागू होता है, तो इस पर जबाव केवल असदुद्दीन ओवैसी ही दे सकते हैं।” इस परिणाम से उत्साहित एआईएमआईएम अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारेगा।  

किशनगंज के परिणाम महागठबंधन के लिए एक नई चुनौती बन सकते हैं। बिहार के सीमांचलन में एक दर्जन से ज्यादा सीटें हैं।

एआईएमआईएम का सबसे अधिक फोकस सीमांचल की इन सीटों पर होगा। भाजपा भी यहां एनआरसी व दूसरे मुद्दों को उछाल कर वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश करेगी। ऐसे में सीधा मुकाबला भाजपा और एआईएमआईएम के बीच होगा। इसका नुकसान अंततः महागठबंधन को होगा।    

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