बिहार : विपक्ष के लिए भाजपा की पीआर मशीन का मुकाबला करने का यही सही वक़्त है
पटना: "अगर केंद्र में कांग्रेस की सरकार होती तो उत्तराखंड में इतना बड़ा बचाव अभियान (सुरंग ढहने से 17 दिनों से फंसे 41 मजदूरों को बचाने के लिए जो चला) चलाना संभव नहीं होता।" बिहार में कुछ समुदायों को छोड़कर हर तीसरा या चौथा व्यक्ति राजनीति पर अनौपचारिक बातचीत के दौरान यही राय रखता है। वे उस काम के लिए भी उन्हें श्रेय देते हैं जो उनकी सरकार ने नहीं किया है। दिलचस्प बात यह है कि जिन मतदाताओं को सरकार के कार्यों की समीक्षा करनी चाहिए और सत्ताधारियों की गलतियों को उजागर करना चाहिए, वे सरकार की कथित विफलताओं का बचाव करते नज़र आते हैं।
इससे पता चलता है कि कैसे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जनसंपर्क (पीआर) मशीनरी लगातार मोदी की कथित अजेयता को बढ़ावा देने की दिशा में काम कर रही है - एक ऐसा इलाका जहां विपक्षी दल लगातार संघर्ष करते नज़र आते हैं या बुरी तरह पिछड़ रहे हैं। रणनीतिक संदेश, सरकार समर्थक समाचार प्रसारण और अपने कार्यकर्ताओं को संगठित करने के माध्यम से, भगवा पार्टी को कई लोग किसी भी तरह के संकट को अवसर में बदलने के लिए जाने जाते हैं।
जब लोगों की राय का तथ्यों के साथ विरोधाभास होता है, तो वे अपनी जानकारी की प्रामाणिकता पर जोर देने लगते हैं क्योंकि उनके स्रोत टीवी समाचार चैनल, व्हाट्सएप पर संदेशों की झड़ी और पार्टी का स्थानीय नेतृत्व होता है।
दूसरी ओर, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में लगातार हार के बावजूद, विपक्ष की जमीन पर कोई उपस्थिति नज़र आ नहीं है। यहां तक कि मौजूदा क्षेत्रीय दल भी एक मजबूत और प्रभावी विचार पेश करने में असमर्थ हैं।
बिहार के दरभंगा जिले के सोनकी गांव के रहने वाले मदन मंडल कहते हैं कि महंगाई आसमान छू रही है और महंगाई नियंत्रण से बाहर है, लेकिन लोगों की आमदनी भी बढ़ गई है।
स्थानीय बाजार में सब्जियां बेचने वाले 55 वर्षीय व्यक्ति का कहना है कि, इस सब के "परिणामस्वरूप, कोई भी भूखा नहीं सोता। लेकिन 10 साल पहले ऐसा नहीं था।"
वे खुद रोजाना 200 रुपये से अधिक भी कमाने के लिए संघर्ष करते हैं और, इनका खुद का मानना है कि यह आय गुजारा करने के लिए काफी नहीं है। फिर भी, उनका मानना है कि मूल्य वृद्धि अपरिहार्य है क्योंकि सरकार देश को "समृद्ध" और "मजबूत" बनाने के लिए "कठोर" निर्णय ले रही है।
कमरतोड़ महंगाई के बावजूद, वे बड़े आत्मविश्वास के साथ कहते हैं – जो आंकड़ों से अनभिज्ञ और बिना किसी दिलचस्पी के कहते हैं कि हर जगह "समृद्धि" है। "गांवों में जाओ और लोगों से बात करो। वे अब अच्छा भोजन खरीदने में सक्षम हैं। मांसाहारी भोजन अब विलासिता नहीं है, देश के भीतरी इलाकों में भी यह सच है, जहां ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर रहते हैं। आप लगभग हर घर के बाहर मोटरसाइकिलें खड़ी देखेंगे।
जब उनसे पूछा गया कि इस "तरक्की" के बावजूद लोग अमानवीय हालात में आजीविका कमाने के लिए बड़े शहरों में पलायन करने पर क्यों मजबूर हैं, तो उन्होंने कहा कि, "सरकार हमें मुफ्त राशन देती है। हमें घरों का निर्माण (प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत) मौद्रिक सहायता मिलती है।" हर जगह शौचालयों का निर्माण किया गया है। परिवहन आसान हो गया क्योंकि राज्य के दूरदराज के गांवों में भी अच्छी सड़कें हैं।"
जब यह बताया गया कि ये योजनाएं पिछली सरकारों से चली आ रही हैं और एक कल्याणकारी राज्य में यह उनका अधिकार है, तो उन्होने कहा कि पहले यह अप्रभावी ढंग से लागू था। वर्तमान सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि ऐसी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचे। हालाँकि, बहुत कुछ करने की ज़रूरत है क्योंकि हर जगह भ्रष्टाचार है।”
दिलचस्प बात यह है कि मतदाता राज्य में भौतिक बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए नीतीश कुमार सरकार द्वारा किए गए कार्यों को नजरअंदाज करते हुए केंद्र को श्रेय दे रहे हैं।
सहरसा के रहने वाले दिलीप मंडल, जो राजस्थान के जयपुर में एक कढ़ाई कार्यशाला के मालिक हैं, राजनीतिक "रेवड़ियाँ" (सरकार द्वारा गरीबों को वित्तीय या सामग्री हस्तांतरण) बांटने का जोरदार विरोध करते हैं। लेकिन साथ ही, वह महंगी बिजली और उज्ज्वला योजना में सब्सिडी बंद होने की भी शिकायत करते हैं।
"रेवड़ियों" के खिलाफ प्रचार युद्ध सबसे पहले भाजपा और उसके सहयोगियों ने शुरू किया था, जिसमें यह दावा किया गया था कि योजनाओं के जरिए धन या सामग्री का वितरण वित्तीय रूप से अस्थिर हैं और अनिवार्य रूप से आर्थिक संकट का कारण बनता है।
हालांकि भगवा पार्टी ने हाल के चुनावों में लोगों को लुभाने और जीतने के लिए बड़े पैमाने पर इस तरह की "रेवड़ियों" की घोषणा की है, लेकिन उसने सफलतापूर्वक इसके खिलाफ एक कहानी भी तैयार कर ली है। विपक्षी दल के कार्यकर्ता इस सार्वजनिक चर्चा का मुकाबला करने में विफल रहे हैं।
बिहार पुलिस के पूर्व सब-इंस्पेक्टर ललन सिंह कहते हैं कि विपक्षी गठबंधन बिहार में जाति जनगणना का लाभ उठाने की पूरी कोशिश कर रहा है, लेकिन जनगणना के आधार उसके पास जनता को देने के लिए कुछ भी नहीं है।
उनका मानना है कि, ''लोगों को राज्य या देश की आबादी में उनके हिस्से के बारे में बताने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है, जब तक कि यह व्यक्तियों के जीवन पर (सकारात्मक तरीकों से) प्रभाव नहीं डालता है,'' उन्होंने तर्क दिया कि इंडिया गठबंधन को संख्यात्मक रूप से महत्वपूर्ण ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) और ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) मतदाता जो "किसी भी अन्य क्षेत्रीय दलों की तुलना में मोदी पर भरोसा करते हैं, पर जीत हासिल करने के लिए बहुत कुछ करना होगा।"
क्या नितीश कुमार को बदनाम करना अब पाखंड नहीं माना जाता है, जिन्हें कभी "विकास पुरुष" के रूप में जाना जाता था, केवल इसलिए कि उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया? वह इससे असहमत हैं और कहते हैं, "उन्होंने लोगों के जनादेश का अनादर किया।" जब उनसे मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में जनादेश के प्रति भाजपा द्वारा प्रदर्शित इसी तरह के अनादर पर उनकी राय के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने अस्पष्ट रूप से जवाब दिया, "अब यह सब इतिहास है।"
समस्तीपुर जिले के मगरदही गांव के निवासी सहदेव पासवान कहते हैं कि लोग "मोदी, मोदी" का जाप सिर्फ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि विपक्षी नेता या उनके कार्यकर्ता अपने निर्वाचन क्षेत्रों में कहीं नहीं दिख रहे हैं।
उनका कहना है कि, ''भाजपा का मुकाबला करने के मामले में विपक्ष की जनता में पहुंच और पीआर मशीनरी बेहद कमजोर है।''
हालांकि वे खुद भाजपा के समर्थन वाले एनडीए को अपना समर्थन देंगे क्योंकि "उनके नेता" (दिवंगत राम विलास पासवान) गठबंधन के साथ थे, उन्होंने खुलासा किया, वे ईबीसी श्रेणी बनाने और उनके "उत्थान" के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम शुरू करने के लिए सीएम नीतीश की प्रशंसा करने में संकोच नहीं करते हैं।
वे कहते हैं कि, "अगर विपक्षी दल और उसके कार्यकर्ता तुरंत मैदान में उतरें और हर गांव और ब्लॉक स्तर पर सावधानीपूर्वक योजना के साथ घर-घर अभियान शुरू करें, तभी वे सोशल इंजीनियरिंग के पक्ष में होने के बावजूद मोदी को हराने की स्थिति में आ सकते हैं।"
दरभंगा के बरुआरा गांव में 10 एकड़ जमीन के मालिक अरुण झा भी कहते हैं कि "बिहार सरकार द्वारा की गई जाति जनगणना का चुनावी नतीजों पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा क्योंकि 2024 का चुनाव पार्टी या व्यक्तियों के दबदबे पर लड़ा जाएगा।"
उनके मुताबिक, ''जद(यू), राजद, कांग्रेस और वाम दलों को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को रोकने और राम मंदिर निर्माण के नाम पर प्रचार को रोकने में मजबूत प्रचार रणनीति अपनानी होगी।'' विपक्ष के मुद्दे में कृषि, बेरोजगारी, महंगाई, भारतीय क्षेत्र में चीनी घुसपैठ, जातिगत अत्याचार आदि के मुद्दे शामिल होने चाहिए।
उनके अनुसार, चुनावी मुद्दों में कृषि के मुद्दे प्रमुख होने चाहिए क्योंकि राज्य में किसान "दयनीय स्थिति" में हैं।
"डीएपी उर्वरक की भारी कमी के कारण, किसानों को इसे काले बाजार से अत्यधिक कीमतों पर खरीद रहे हैं। चूंकि राज्य में कोई एपीएमसी (कृषि उपज बाजार समिति) नहीं है, इसलिए किसानों को ऐसा करना पड़ता है। गेहूं और धान को स्थानीय खरीदारों को औने-पौने दामों पर बेचते हैं और वे उसे पंजाब और हरियाणा में एपीएमसी में ऊंचे दामों पर बेच देते हैं,' लोग अपनी कृषि उपज, पैक्स (प्राथमिक कृषि ऋण सोसायटी) को नहीं बेचते हैं। क्योंकि उन्हें तत्काल भुगतान की जरूरत होती है - जो उन्हें केवल स्थानीय खरीदारों से मिलता है।
65 वर्षीय झा ने कहा कि, लेकिन विपक्ष ऐसे मुद्दों को भुना सकता है, जो सीधे तौर पर लोगों को प्रभावित कर रहे हैं, "यह तभी हो सकता है जब वे स्थिति को मोड़ने के लिए पूरी ताकत से मैदान में उतरें"।
"ड्राइंग रूम की राजनीति अब काम नहीं करने वाली है। ऐसा क्यों है कि मतदाता अतिराष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और देश के विकास की आंशिक रूप से सच्ची कहानियों के बारे में बात कर रहे हैं, जबकि वे ऊंची कीमतों के इस युग में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं? ऐसा क्यों है?" क्या वे कोविड के दौरान कुप्रबंधन के लिए सरकार से सवाल करते हैं? वे मूल्य वृद्धि पर सरकार का बचाव क्यों कर रहे हैं, यह कहते हुए कि यह अपरिहार्य है? ऐसा क्यों है कि बेरोजगारी पर सरकार से सवाल पूछने के बजाय, लोग खुद यह कहकर बचाव कर रहे हैं कि इसे समायोजित करना असंभव है क्योंकि सरकारी क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में लोग काम करते हैं?"
झा के अनुसार, इसका एक उत्तर यह है कि उन्हें (मतदाताओं को) दैनिक आधार पर सरकार समर्थक प्रचार खिलाया जाता है और विपक्ष इसका मुकाबला करने के लिए जमीन पर कहीं नहीं है।
गया जिले के रहने वाले 54 वर्षीय किसान बैद्यनाथ यादव कहते हैं कि बिहार में "एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण" अभी भी बरकरार है, लेकिन विपक्ष को गैर-यादव ओबीसी और दलित मतदाताओं के बीच काम करने की जरूरत है जो इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
उनका दावा है, ''बीजेपी एम-वाई ब्लॉक का मुकाबला करने के लिए मतदाताओं के इन हिस्सों का सफलतापूर्वक ध्रुवीकरण कर रही है।'' बिहार में हुई नवीनतम जाति जनगणना के अनुसार, राज्य की आबादी में मुस्लिम 17.7 प्रतिशत हैं, जबकि यादव 14.27 प्रतिशत हैं। अन्य प्रमुख समुदाय हैं कुशवाह (4.21 प्रतिशत), ब्राह्मण (3.65 प्रतिशत), राजपूत (3.45 प्रतिशत), मुसहर (3.8 प्रतिशत), कुर्मी (2.87 प्रतिशत), भूमिहार (2.86 प्रतिशत), मल्लाह उर्फ साहनी (2.60 प्रतिशत) और बनिया ( 2.31 प्रतिशत) हैं।
'उतने प्रभावशाली नहीं जितना हमें होना चाहिए'
यहां तक कि राज्य में इंडिया गठबंधन के घटक भी स्वीकार करते हैं कि वे अपने मतदाताओं तक पहुंच बनाने में उतने प्रभावी नहीं हैं जितना उन्हें होना चाहिए। “यह सच है कि जमीन पर हमारी उपस्थिति उतनी मजबूत नहीं है, लेकिन जल्द ही हम पूरी ताकत के साथ हर पंचायत और वार्ड में होंगे। हम 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, ”जेडी (यू) प्रवक्ता नीरज कुमार कहते हैं, जो बिहार विधान परिषद के सदस्य भी हैं।
वह स्वीकार करते हैं कि सोशल मीडिया पर चुनावी लड़ाई से चुनाव नहीं जीतने जा रहे हैं, लेकिन साथ ही, वह अपने राज्य में मतदाताओं के बीच अपनी पार्टी की अनुपस्थिति से इनकार करते हैं।
उन्होंने कहा कि, "हम अपने युवाओं को आरक्षण और संविधान विरोधी ताकतों के बारे में जागरूक करने और देश में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और शोषित समुदायों की आवाज को दबाने के खिलाफ चर्चा करने के लिए 'भीम संवाद' आयोजित कर रहे हैं।" यह प्रयास "इतना सफल और प्रभावशाली है कि भाजपा को इसके जवाब में 'अंबेडकर समागम' लॉन्च करना पड़ा लेकिन यह पूरी तरह से फ्लॉप शो है"।
उनका कहना है कि संवाद उन सामाजिक मुद्दों को उठाकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मुकाबला करने का एक प्रयास है जो लोगों के दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं। राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और वामपंथी दलों के साथ गठबंधन में बिहार पर शासन कर रही जद (यू) भी केंद्रीय योजना, बाबू जगजीवन राम छात्रावास योजना का नाम कथित तौर पर बदलने को लेकर भाजपा सरकार पर आक्रामक रूप से निशाना साध रही है। यह योजना अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए छात्रावास के निर्माण के लिए थी।
वे कहते हैं, ''हम लोगों को यह बताने जा रहे हैं कि केंद्र, जो खुद को दलित मुद्दों का चैंपियन होने का दावा करता है, ने 2022-23 के दौरान इस योजना के तहत बिहार को एक पैसा भी नहीं दिया है।''
केंद्र की बीजेपी सरकार ने बिहार के दलित नेता और देश के तत्कालीन उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम के नाम पर बनी योजना को अन्य दो केंद्र प्रायोजित योजनाओं के साथ मिला दिया है. इसे अब 'प्रधानमंत्री अनुसूचित जाति अभ्युदय योजना का नाम दिया गया है।
अपनी प्रचार रणनीति के हिस्से के रूप में, जद (यू) गांवों में पर्चे भी बांट रहा है - जिसमें समाज के हर वर्ग के लिए राज्य सरकार के काम और उसके प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है। कुमार का आरोप है कि भाजपा अपने चुनाव अभियान के लिए सरकार को उपलब्ध सार्वजनिक डेटा का उपयोग कर रही है।
“यह एक अनैतिक प्रथा है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वे आधार को हर योजना से जोड़ने के लिए इतने उत्सुक हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने जो भारी धनराशि अर्जित की है, उससे उनके कार्यकर्ताओं को निर्वाचन क्षेत्रों में मौजूद रहने और काम करने में मदद मिलती है। लेकिन हम इतना नीचे नहीं गिर सकते हैं। हम पूरी ताकत के साथ सत्ताधारियों से मुकाबला करेंगे, आम जनता के लिए अपने काम को उजागर करेंगे और कभी भी किसी अनैतिक आचरण में शामिल नहीं होंगे।''
कहा जाता है कि भगवा पार्टी ने मध्य प्रदेश में हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव में सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों का सीधा प्रचार किया था। कथित तौर पर इसने अपने 40 लाख कार्यकर्ताओं तक पहुंचने के लिए राज्य सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों का डेटाबेस वितरित किया।
कुमार स्वीकार करते हैं कि इंडिया गठबंधन में अंदरूनी कलह है और "अगर विपक्षी एकता 2024 में भाजपा को हराना चाहती है तो इससे चतुराई से निपटना होगा।"
उनके पास अपने ही नेताओं के लिए एक संदेश है: “उन्हे दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं को आत्म-प्रचार बंद करना चाहिए, अपने संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों में जाना चाहिए और राज्य सरकार के कार्यों के बारे में प्रचार करना चाहिए। तभी हम जीत हासिल कर पाएंगे।''
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के विधायक संदीप सौरव भी स्वीकार करते हैं कि विपक्षी गठबंधन के पास अभी तक कोई परिभाषित प्रचार रणनीति नहीं है, भले ही केंद्र में मोदी सरकार के 10 वर्षों के बाद सत्ता विरोधी लहर इतनी मजबूत नहीं है कि इंडिया गुट उस पर काबू पा सके।
सौरव के अनुसार, जबकि भाजपा ने 2024 के लिए अपना चुनावी युद्ध कक्ष तैयार कर लिया है, यहां तक कि अपनी प्रचार रणनीति पर विचार-विमर्श करने और उसे अंतिम रूप देने के लिए इंडिया गठबंधन की पहली बैठक भी नहीं हुई है।
इसके अलावा, वे कहते हैं, उनकी पार्टी एक सरकार की सहयोगी है - (बिहार में जेडी-यू के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार) - जिसके "शराबबंदी, सरकारी शिक्षकों के मुद्दे आदि जैसे दोषपूर्ण फैसले उनके लिए कड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं।" जब पार्टी, नेता और कार्यकर्ता प्रचार के लिए लोगों के पास जाते हैं तो उन्हें बचाव करना होता है और उनसे निपटना होता है।
वे कहते हैं कि, “नीतीश कुमार सरकार ने शराब के व्यापार और इसके सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन यह निर्णय न केवल अपने उद्देश्य में विफल रहा, बल्कि आत्मघाती साबित हुआ। इससे अवैध उत्पादन, तस्करी और व्यापार को बढ़ावा मिला और वह भी घटिया और जानलेवा शराब का जरिया बना। जो लोग पहले इसका सेवन कर रहे थे, वही अभी भी जारी रखे हुए हैं। शराबबंदी से एकमात्र अंतर इसकी कालाबाजारी का आया। इसके अलावा, इसने पुलिस को अत्याचार में शामिल होने और जिसे चाहें उसे फंसाने का लाइसेंस दे दिया।''
निषेधाज्ञा के अलावा, शिक्षकों की नियुक्ति और संविदा शिक्षकों को राज्य कर्मचारियों के अधिकार देने के तरीके को कैसे नियमित किया गया है, इससे राज्य में सत्तारूढ़ दलों के लिए स्थिति और खराब हो सकती है।
उनके अनुसार, “सरकार ने शिक्षकों की नियुक्ति के नाम पर बेरोजगार युवाओं को धोखा दिया है। बीपीएससी (बिहार लोक सेवा आयोग) द्वारा आयोजित लिखित परीक्षा के माध्यम से नियुक्त किए गए अधिकांश शिक्षक मौजूदा शिक्षक हैं। इसका मतलब है, रिक्त पदों पर कम नई नियुक्तियाँ की गई हैं।''
दूसरी चुनौती, जो संभावित रूप से बिहार में इंडिया गठबंधन की संभावनाओं को प्रभावित कर सकती है, वह बताते हैं कि हालांकि सरकार ने कई विरोध प्रदर्शनों के बाद, मौजूदा शिक्षकों को राज्य कर्मचारियों का दर्जा देने की लंबे समय से चली आ रही मांगों को स्वीकार कर लिया है, लेकिन उनके अधिकार छीन लिये हैं।
उन्हें अब अपने संगठन या यूनियन बनाने की अनुमति नहीं है; उनकी मौजूदा यूनियनों की मान्यता रद्द कर दी गई; वे सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ कुछ भी नहीं लिख सकते हैं; उन्हें सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक स्कूलों में रहना होगा। भले ही कक्षाएं शाम 4 बजे खत्म हो जाएं; और गर्मी की छुट्टियों के दौरान भी उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलेगी।
सौरव कहते हैं कि, “कम से कम बिहार में शिक्षक समुदाय को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। राज्य के लगभग हर गांव में अच्छी-खासी संख्या में शिक्षक हैं, जो चुनाव में काफी अहम भूमिका निभाते हैं। उनकी नाराजगी से सरकार को अपूरणीय क्षति हो सकती है। हम बार-बार इन चिंताओं को नीतीश जी की जानकारी में ला रहे हैं, लेकिन वह अपने नौकरशाहों के अलावा कभी किसी की नहीं सुनते हैं।''
ऐसा कहने के बाद, उन्होंने निष्कर्ष निकाला, मोदी सरकार के खिलाफ नाराजगी और सत्ता विरोधी लहर है और इंडिया गठबंधन "लोगों को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए मनाने की पूरी कोशिश करेगा"।
'बीजेपी को हराने की अपनी ताक़त पहचानें'
चुनावी रणनीतिकार से राजनीतिक कार्यकर्ता बने प्रशांत किशोर का कहना है कि आप भाजपा या किसी भी पार्टी को तब तक नहीं हरा सकते, जब तक आप उनकी ताकत को नहीं समझते हैं।
“भाजपा की ताकत क्या है? यह आवश्यक रूप से मोदी या अमित शाह या आरएसएस नहीं है। वे चार चीजों के कारण चुनाव जीत रहे हैं: एक, उनका वैचारिक आधार - जो हिंदुत्व है; दो, उग्र या नव-राष्ट्रवाद - जिसे मोदी ने हर सभा में यह दोहराकर एक अतिरिक्त ज़ोर के साथ जोड़ा कि हमारे आने के बाद से भारत 'विश्वगुरु' बन गया है, जी-20 की मेजबानी के आसपास पीआर अभ्यास और महान शो के माध्यम से उन्होंने तीन, प्रत्यक्ष लाभार्थी - जैसा कि हिंदी में कहा जाता है 'श्रमार्थी'; चौथा, संगठनात्मक और वित्तीय ताकत,'' जन सुराज अभियान के संस्थापक प्रमुख बताते हैं, जिनकी कंपनी ने 2014 में भाजपा को सत्ता में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
उनका कहना है कि अगर कोई भी गठबंधन, चाहे वह इंडिया हो या कोई और, जो भाजपा से मुकाबला कर रहा है, जब तक कि वह भगवा पार्टी को चार में से तीन मोर्चों पर नहीं हरा देता, उसके पास सत्ताधारी को सत्ता से बाहर करने का ज्यादा मौका नहीं है।
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