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बिहार चुनाव : मोदी की फ्लॉप रैलियों की भरपाई सर्वे के खेल से नहीं हो पाएगी

मज़ेदार यह है कि उन्हीं चैनल्स के रिपोर्टर जब जनता से बात करते दिखाये जा रहे हैं तो बिल्कुल उल्टा रुझान सामने आ रहा है! बिहार चुनाव पर लाल बहादुर सिंह का विश्लेषण
बिहार चुनाव
बिहार में चुनावी रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। फोटो साभार : इंडिया टुडे

बिहार चुनाव अब अपने निर्णायक दौर से गुजर रहा है। एक ओर जनता का, विशेषकर युवाओं का रोजगार, पलायन, जनपक्षीय विकास के प्रश्न पर  बिल्कुल स्पष्ट राजनैतिक रुझान उभर रहा है, दूसरी ओर उसे पलट देने के लिए सत्ता और पूंजी का खतरनाक खेल शुरू हो चुका है। 

दरअसल मोदी जी की रैलियों की भयानक विफलता ने न सिर्फ NDA की आखिरी संभावनाओं पर विराम लगा दिया है, बल्कि उनके समर्थकों की आखिरी उम्मीदें भी तोड़ दी हैं, उन्हें बुरी तरह demoralise कर दिया है, अब उसकी भरपाई के लिये प्रायोजित सर्वे के साथ न्यूज channels को उतार दिया गया है।

और वे सब बिना किसी अपवाद के NDA को स्पष्ट बहुमत के साथ जिता रहे हैं। मज़ेदार यह है कि उन्हीं चैनल्स के रिपोर्टर जब जनता से बात करते दिखाये जा रहे हैं तो बिल्कुल उल्टा रुझान सामने आ रहा है! यह अब मतदान की आखिरी निर्णायक घड़ी में कार्यकर्ताओं और समर्थकों के morale को बनाये रखने की कवायद है।

मोदी जी से जुमला उधार लिया जाय तो यह भी 70 साल में शायद पहली बार ही हुआ होगा कि किसी प्रधानमंत्री ने चुनाव रैली में अपने खेमे की जीत की संभावना के प्रति भरोसा पैदा करने के लिए चुनाव सर्वे का हवाला दिया हो।

यह सर्वे जनता की ओपिनियन जानने के उपक्रम नहीं वरन ओपिनियन manufacture करने  और जनता के choice को manipulate करने का खतरनाक खेल हैं जो कारपोरेट मालिकों के इशारे पर खेला जा रहा है।

दरअसल, अपने लंबे राजनैतिक जीवन में शायद पहली बार मोदी जी ने जब किसी चुनाव में टेली प्रॉम्प्टर से पढ़ते हुए अपना बेहद lacklustre भाषण दिया, तो उस पर जनता के cold response ने नीतीश-भाजपा खेमे में मारे डर के सिहरन पैदा कर दी। 

रोजगार और नौकरियों के मुद्दे पर, जो आज इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है, जिस पर घर-घर चर्चा हो रही है, उस पर मोदी जी कुछ बोल ही नहीं पाए, उसकी काट करने की बात तो दूर! 

उल्टे मौके की नजाकत को भांपते हुए मोदी ने नीतीश कुमार को dump कर दिया और अपने को नीतीश कुमार से demarcate कर लिया। उन्होंने बिना लाग-लपेट कह दिया कि नीतीश के 15 साल का वे जानें, मेरे साथ तो उन्होंने बस 3 साल काम किया है!

अपने मित्र रामविलास पासवान को तो उन्होंने याद किया ही, चिराग पासवान के बारे में कोई नकारात्मक टिप्पणी न कर उन्होंने उस theory की पुष्टि कर दिया कि LJP का पूरा खेल मोदी-शाह प्रायोजित है, anti-incumbency को साधने और नीतीश का कद छोटा करने के लिये।

चुनाव-विश्लेषकों का मानना है कि मोदी जी की रैली से समर्थकों और कतारों में हताशा और बढ़ गयी और फायदे से ज्यादा नुकसान हुआ।

क्या इसकी भरपाई प्रायोजित सर्वे कर पाएंगे?

सर्वे का यह खेल जनता के लिए भी अब काफी कुछ जाना- पहचाना हुआ सा है और इनकी शायद ही कोई विश्वसनीयता बची है। यह अनायास नहीं है कि खुद बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव समेत तमाम अन्य चुनावों में ये सर्वे बुरी तरह पिट चुके हैं।

अब तो तमाम लोगों को यह genuine आशंका सताने लगी है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जनादेश को EVM और अन्य manipulations से पलट देने का कोई खतरनाक खेल चल रहा है और उसे जनता के बीच स्वीकार्य बनाने के लिए यह पहले से पेशबंदी की जा रही है!

सर्वे का sample size क्या है, सैंपल का composition क्या है, यह कितना random है, यह एक अत्यंत विविधतापूर्ण (अंचल, वर्ग/वर्ण/समुदाय/पेशा/धर्म/दल, आयु, लिंग, शहर/गांव, पढ़/अनपढ़, शिक्षित/अल्प शिक्षित, आदि की दृष्टि से) मतदाता समूह के विविधतापूर्ण पोलिटिकल choice को समग्रता में capture करता है अथवा नहीं?

और सबसे महत्वपूर्ण यह कि यह सर्वे किस समय का है? अलग अलग चुनावों का अलग अलग गतिविज्ञान होता है। कई चुनावों में सब कुछ एक settled pattern पर बिना खास उतार-चढ़ाव के चलता है, लेकिन बिहार चुनाव का पैटर्न बिल्कुल जुदा है।

दरअसल, बिहार में 1 महीने के अंदर ही चुनाव कई चरणों से गुजर चुका। चुनावी फ़िज़ा में बदलाव की दृष्टि से यह चौथा चरण चल रहा है।

पहले चरण में यह माना जा रहा था कि कोई लड़ाई ही नहीं है, नीतीश का मुख्यमंत्री बनना तय है। 

लेकिन जब राजद-वाम-कांग्रेस का महागठबंधन smooth ढंग से बन गया और उधर चिराग पासवान ने अपने को मोदी जी का हनुमान बताते हुए नीतीश को मुख्यमंत्री न बनने देने का एलान कर दिया तब यह कहा जाने लगा कि अब चुनाव खुला हुआ है और यद्यपि यह NDA की ओर झुक हुआ है लेकिन अब यह तय है कि नीतीश मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे, हो सकता है भाजपा जोड़तोड़ कर अपना मुख्यमंत्री बना ले, फैसला महागठबंधन के पक्ष में पलट भी सकता है।

लेकिन जब से 10 लाख नौकरियों का, रोजगार का सवाल केंद्रीय मुद्दा बना है, इसने विशेषकर युवा मतदाताओं में जबरदस्त आकर्षण पैदा किया है और मोदी-नीतीश इस पर बैकफुट पर गए हैं, उनकी रैलियां फ्लॉप हुई हैं, तब से चुनाव बिल्कुल एक नए चरण में प्रवेश कर गया है और महागठबंधन ने स्पष्ट बढ़त ले लिया है।

मोदी जी की फ्लॉप रैलियों के बाद अब यह चौथा अंतिम चरण है चुनाव का, जिसमें  ट्रेंड पूरी तरह महागठबंधन के पक्ष में सेट हो चुका है और अब इसमें शायद ही कोई गुणात्मक बदलाव हो, अगर अगले 10 दिन में कोई अनहोनी या चमत्कार नहीं होता।

सन्देह का लाभ दिया जाय तो यह कहा जा सकता है कि सितम्बर के अंत अथवा 1 अक्टूबर से 20 अक्टूबर के बीच की लंबी अवधि के सर्वे बिहार चुनाव के उक्त तेजी से बदलते राजनीतिक यथार्थ को सटीक ढंग से व्यक्त कर ही नहीं सकते! इसलिए वे बिल्कुल उल्टी तस्वीर दिखा रहे हैं।

चुनाव के अंतिम चरण में तो मतदाताओं को झूठ-फरेब से प्रभावित करने की कुत्सित चालें चली ही जा रही हैं,  ऐसा लगता है कि बहुत पहले से ही नीतीश-भाजपा के 15 साला शासन के खिलाफ जनता के उमड़ते-घुमड़ते गुस्से का, विशेषकर युवाओं के जबरदस्त आक्रोश का सटीक पूर्वानुमान कर लिया गया था और उसकी काट के बतौर युवा मतदाताओं को मतदाता सूची से ही गायब कर देने की योजना को अंजाम दे दिया गया !

The Indian Express में 25 अक्टूबर को प्रकाशित एक चौंकाने वाली खबर के मुताबिक first-time voters अर्थात 18 से 19 आयुवर्ष के मतदाताओं की संख्या जो 2015 के चुनाव में 24.11 लाख थी, अबकी बार वह मात्र 11.11 लाख रह गयी है! ठीक इसी तरह 29 साल से कम उम्र के युवा मतदाताओं की संख्या 2015 के 2 करोड़ 4 लाख से घटकर अब महज 1 करोड़ 78 लाख ही है अर्थात युवा मतदाताओं की संख्या में 12.4 प्रतिशत की भारी गिरावट हुई है, जबकि बिहार में 5 वर्ष में कुल मतदाता 9.3% बढ़ गए हैं। यह मजेदार है कि 30 साल से ऊपर के प्रत्येक आयुवर्ग में संख्या पर्याप्त बढ़ी है लेकिन 30 साल से नीचे के voters की संख्या 12.4% कम हो गयी है। चुनाव आयोग ने इसके लिए कोरोना की आड़ लिया है, लेकिन सवाल यह उठता है कि इसका 30 साल से कम उम्र के मतदाताओं पर ही क्यों असर पड़ा?

चुनाव अगर सोशल डिस्टेंसिंग आदि की धज्जियाँ उड़ाते हुए अभी कराना ही था तो चुनाव के ठीक पहले अभियान चलाकर 18 से ऊपर के नागरिकों को वोटर के बतौर enrol क्यों नहीं किया गया, यह तो लोकतंत्र में लोगों का न्यूनतम अधिकार हैं और चुनाव आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी है।

CSDS के संजय कुमार का कहना है कि "ऐसे संकेत हैं कि युवा NDA के खिलाफ वोट कर सकते हैं क्योंकि वे रोजगार को लेकर सरकार से नाराज हैं। युवा मतदाताओं की संख्या कम होने से नीतीश कुमार व NDA का नुकसान कम हो सकता है।"

तो क्या लोगों की यह आशंका सच है कि इसी लिए young voters को enrol करने में रुचि नहीं ली गयी?

बहरहाल, ये शातिर चालें भी शायद काम न आएं। बिहार के सभी 243 विधानसभा क्षेत्रों में औसतन 74000 युवा वोटर हैं और यह चुनाव की औसत winning margin 18000 से काफी अधिक है।

रोजगार चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बन गया और युवाओं ने मन बना लिया तो सत्ताधारियों की सारी तिकड़में, साज़िशें, शातिर चालें धरी रह जाएंगी और नौजवान अपनी जिंदगी से खिलवाड़ करने वाली विश्वासघाती नीतीश-भाजपा जोड़ी को धूल चटा कर रहेंगे।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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