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बिहार के बाद क्या?

भाजपा बिहार में भी जिस तरह से खुद को स्थापित करने में लगी थी, ऐसे में नीतीश कुमार ने उसे बहुत बड़ा झटका दिया है। बिहार मेंराजनीति का यूँ पलट जाना केंद्र के लिए भी बहुत बड़े राजनीतिक संकेत हो सकते हैं।
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बिहार में बढ़ती राजनीतिक उथल-पुथल के मद्देनज़र, अब सवाल उठने लगे हैं की इसका राष्ट्रीय राजनीति पर क्या असर पड़ेगा।इसकी पड़ताल करने के लिए नीचे कुछ तर्क पेश किए जा रहे हैं।

याद रखें जब मीडिया ने नीतीश कुमार से पूछा कि आप एनडीए यानी भाजपा से नाता क्यों तोड़ रहे हैं? तो कुमार ने कहा कि, “हमारीपार्टी के सहयोगी और दोस्त नहीं चाहते थे कि हम भाजपा के साथ रहें। मैं उनकी भावनाओं की क़द्र करता हूं। फिर मीडिया ने सवालदागा कि, 2017 में एनडीए में वापस जाने के अपने फैसले के बारे में क्या कहेंगे तो उन्होंने धीमे से कहा, "यह एक गलती थी, इसकेबारे में भूल जाना बेहतर।"

नीतीश के उपरोक्त ब्यान से साफ है अब की बार वे पूरी तरह से तैयार होकर आएँ हैं ताकि बिहार और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपाकी बढ़ती ताक़त को रोका जा सके। यह बात उनके इस बयान से भी स्पष्ट हो जाती अहि कि “जो लोग 2014 में साटता में आएजरूरी नहीं वे 2024 में वापस सत्ता में आएंगे।” आइए उक्त पृष्ठभूमि कुछ पहलुओं की जांच करते हैं।

कुल 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में नए 'महागठबंधन' के अब 164 विधायक हो गए हैं। यानि लगभग दो-तिहाई बहुमतहै, जो एक टिकाऊ सरकार की जरूरी शर्त को पूरा करता है। सदन में राजद 79 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है, उसके बादभाजपा दूसरी बड़ी पार्टी है जिसके 77 विधायक हैं। 2020 के चुनावों के बाद, जद (यू), भाजपा और जीतन राम मांझी कीहिंदुस्तानी अवामी मोर्चा (सेक्युलर) के पास 243 सदस्यीय बिहार सदन में सरकार बनाने के लिए जरूरी 122 के मुकाबले 124 विधायक थे, यानि साधारण बहुमत था।  

बिहार में आए इस बदलाव के भारतीय राजनीति में क्या मायने हैं

इसमें कोई शक़ नहीं कि नीतीश के इस कदम से भाजपा को करारा झटका दिया है और यदि यह गठबंधन बरकरार रहता है तो इसबात की संभावना बढ़ जाती है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में इसका राष्ट्रीय पैमाने की राजनीति पर बड़ा भारी असर पड़ेगा। कुछमुख्य बिन्दु जिन्हे इस घटनाक्रम के बाद नोट किया जाना चाहिए।

यह बिहार ही था जिसने 1970 के दशक की शुरुआत में भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ दिया था। इंदिरा गांधी के निरंकुशशासन के खिलाफ बिहार से ही जयप्रकाश नारायण ने शक्तिशाली जन-आंदोलन शुरू किया था। इसे जीपी आंदोलन के नाम से भीजाना जाता है। सेंकड़ों। हजारों, लाखों छात्र-युवा इस आंदोलन में कूद पड़े थे। लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम स्निह यादव, शरद यादव, चंद्रशेखर जैसे युवा और छात्र नेता जेपी आंदोलन में शामिल हो गए थे। करीब-करीब सभी नेता आपातकाल (1975-77) के दौरान जेल में रहे। ये सभी नेता  लोहिया, जेपी, करपुरी ठाकुर, और जेपी की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे। आजजब लोकतंत्र और संविधान दोनों गंभीर खतरे में हैं और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का माहौल है, ऐसे में बिहार की राजनीति से भाजपाको सत्ता से बाहर कर देने से, विपक्ष के मनोबल को बढ़ावा  मिला है। बिहार फिर देश के सामने एक एजेंडा तय कर रहा है औरविपक्ष को मौका दे रहा है कि वह तरकस में वे तीर सँजो ले जिनसे 2024 का आम चुनाव जीता जा सकता है और  सत्तावादीसांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाली भाजपा को सत्ता से बाहर किया जा सकता है।

बिहार में नया महागठबंधन 2024 में होने वाले महत्वपूर्ण संसदीय चुनावों से पहले राष्ट्रीय राजनीति को नया रूप क्यों और कैसे देसकता है इस पर नज़र डालने की जरूरत है।

भाजपा के बे-रोकटोक चुनाव जीतने के दो मुख्य कारण हैं। पहला, बंटा हुआ विपक्ष और कमजोर होती कॉंग्रेस। इसका अंदाज़ा इसबात से लगाया जा सकता है कि कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भाजपा चुनाव हार गई थी। लेकिन भजापा ने ईडी, सीबीआई और अन्य केंद्रीय एजेंसियों का डर दिखा कर तथा धनबल से कर्नाटक और मध्यप्रदेश फिर से सरकार बना ली थी। यानिभजापा यदि चुनाव हार भी जाती है तो वह किसी न किसी तिकड़म से सरकार बना लेती है। क्या वह ऐसा फिर से बिहार में करपाएगी? यह तो वक़्त ही बताएगा।    

बिहार में राजद-जद (यू)-कांग्रेस औरर वामदलों का एक मजबूत गठबंधन बन गय है। यह भी याद रखना चाहिए कि बिहार लोकसभीमें 40 सांसद भेजता है। 2019 के चुनाव में, भाजपा-जद (यू) गठबंधन ने 39 सीटों पर जीत हासिल कीथी, जिसमें भाजपा को 17 सीटें, जद (यू) की 16 और रामविलास पासवान की लोजपा को 6 सीटें मिलीं थी। शेष एक सीट कांग्रेस के खाते में गई।

2019 का चुनाव

2019 में 'मोदी लहर', जिसने रिकॉर्ड 303 सीटों के साथ केंद्र में वापसे की थी, वह मुख्य रूप से पुलवामा में आतंकी हमले औरपाकिस्तान के बालाकोट में भारत की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का नतीजा थी। लेकिन इस बा रहालात कुछ अलग हैं। कोविड महामारी केबाद, भारत में गंभीर और बढ़ते आर्थिक संकट ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। महंगाई उफान पर है, बेरोज़गारी की दर बहुतऊंची है और राहत की उम्मीद दूर-दूर तक नहीं है।

मोदी के नेतृत्व मीन भाजपा अपने 2019 के करिश्मे को तभी दोहरा सकती है, जब पुलवामा जैसी एक और घटना हो, या कोई बड़ासांप्रदायिक विभाजन हो जिसका इस्तेमाल कर भाजपा ‘राष्ट्रवादी भावना’ को अपने पक्ष में करने के लिए कर सकती है। विपक्ष केसामने यही सबसे बड़ी चुनौती है कि वह हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण, पाकिस्तान, जैसे गैर-मुद्दों को चुनावी मुद्दे न बनने दे और सुनिश्चितकरे कि चुनाव भाजपा के काम के आधार पर हो। अगर ऐसा होता है तो को हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण, पाकिस्तान जैसे मुद्दे भाजपा कोज्यादा मदद नहीं कर पाएंगे। वैसे भी, ऐतिहासिक कारणों से और पिच्छड़े वर्ग के आंदोलन की वजह से मुस्लिम विरोधी राजनीतिबिहार में हिंदू वोट बैंक को मजबूत नहीं कर सकती है, जैसा कि मामला यूपी की राजनीति के साथ है।

बिहार में अकेली पड़ी भाजपा  

एक और बात भाजपा इस बार बिहार में किसी भी बड़े क्षेत्रीय दल के साथ गठबंधन में नहीं होगी। रामविलास पासवान अब नहीं रहेऔर बीजेपी ने लोजपा को तोड़दिया है जिसकी राजनीतिक शाख अब दांव पर है। यानि इससे भी भाजपा को कोई खास फायदा नहींहोने वाला है। इसके विपरीत, नए राजद-जद (यू)-कांग्रेस को वामदलों का मबुत समर्थन भी हासिल है, जो हालांकि छोटा धड़ा है, लेकिन कई ऐसे निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां उए दल भाजपा को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं।

ऐसा भी लगता है कि भारत में पिछड़ी जाति की राजनीति फिर सर उठा रही है और कमंडल की राजनीति के खिलाफ मंडल कीताकतों में फिर से एक होने की सुगबुगाहट शूरुवात हो गई है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बिहार पहला बड़ा राज्य है जहां बीजेपीने सत्ता गंवाई है। इससे राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों में नई उम्मीद जगी है। मोदी के विकल्प की तलाश में भारतीय मतदाताओं केमन में लगातार एक ही सवाल रहा है: कि बिखरे "विपक्ष को एकजुट करने और उनका नेतृत्व करने के लिए कौन मौजूद है?" इसकाजवाब न तो कांग्रेस के पास रहा है और न ही किसी अन्य पार्टी ने इसका जवाब दिया है। अब बिहार में सियासी उठापटक से एकसंभावित जवाब सामने आया है। शायद, नीतीश कुमार 2024 तक राष्ट्रीय महागठबंधन के नेता के रूप में उभरने वाले नेता हो सकतेहैं।

बिहार के घटनाक्रम से जो संभावित है उससे बिखरे विपक्ष को फिर एक साथ आने में मदद मिलेगी। 2024 के लोकसभा चुनाव सेपहले राज्यों के होने वाले चुनावों में विपक्ष द्वारा भाजपा को राजनीतिक चुनौती देने में सक्षम होने में मदद मिलेगी। जनता के मुद्दों, खासकर महंगाई, बेरोज़गारी और बिजली के निजीकण के विधेयक के खिलाफ जन-आंदोलनों को मजबूत करने में मदद मिलेगी।सफल किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन आंदोलन के बाद, महंगाई के खिलाफ विपक्ष के आंदोलन से व्यापक मजबूती मिलेगी औरभाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को शिकस्त दे में मदद मिलेगी। इसमें कोई शक़ नहीं कि काँग्रेस ने महंगाई के खिलाफ काले कपड़ेपहनकर जो जेल भरो आंदोलन किया उससे पार्टी की कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा। विपक्ष के लिए 2024 तभी सफलता कीसीढ़ी बन सकता है जब जनता के मुद्दों पर बिना आराम किए जन-आंदोलन चलाए जाएँ और आंदोलनों के जरिए विपक्षी पार्टियोंऔर जनत के बीच सीधा रिश्ता कायम किया जाए।  

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