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विश्लेषण: लूला की जीत के हमारे लिए मायने

वामपंथी नेता लूला डी सिल्वा की ऐतिहासिक जीत में भारत जैसे देशों की लोकतांत्रिक ताकतों के लिए भी कई सबक़ हैं।
 Lula da Silva
Image courtesy : WSJ

दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी आबादी वाले, लैटिन अमेरिका के सबसे बड़े देश ब्राज़ील में बेहद नजदीकी मुकाबले में वामपंथी नेता लूला डी सिल्वा की ऐतिहासिक जीत में भारत जैसे देशों की लोकतांत्रिक ताकतों के लिए भी कई सबक हैं। दरअसल, भारत और ब्राज़ील के राजनीतिक घटनाक्रम में कई तरह की समानताएं हैं।

कोविड से निपटने के दौर में जिन देशों में शासकों के आपराधिक कारनामों के कारण सर्वाधिक मौतें हुईं, उनमें भारत के साथ ब्राज़ील अग्रणी था। जैसे हमारे यहां कोरोना को भगाने के लिए ताली-थाली पिटवाई जा रही थी, वैसे ही बोलसोनारो भी इसे एक सामान्य फ्लू बता रहे थे और मजाक उड़ा रहे थे। दरअसल यह सब स्वास्थ्य सेवाओं के मोर्चे पर अपनी विफलता को ढकने के लिए diversionary tactics थी। ठीक इसी तरह कार्पोरेटपरस्त नीतियों ने भारत में मोदी राज की तरह ही बोलसोनारो के कार्यकाल में ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह तबाह कर दिया। दुनिया की 8वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से वह 12वें पायदान पर लुढ़क गया। महंगाई जिसे लूला 4% पर ले आये थे, वह बोलसोनारो के राज में दो अंकों में पहुंच गई, कर्ज और जीडीपी का अनुपात दोगुना हो गया, बेरोजगारी दर लगातार बढ़ती गयी। करोड़ों लोग जो लूला राज में गरीबी रेखा से ऊपर आये थे, वे फिर गरीबी रेखा के नीचे खिसक गए।

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ब्राज़ील के इतिहास के इस फैसलाकुन चुनाव में वहाँ लोकतन्त्र बाल-बाल बच गया।
580 दिन लूला को जेल में रखने के बाद भी बोलसोनारो उनकी तीसरी बार राष्ट्रपति पद पर जीत और अपनी पराजय को रोक नहीं पाए। दरअसल, लूला ने लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के बाद के ब्राज़ील के लोकतांत्रिक इतिहास में एक कीर्तिमान रच दिया जब उन्होंने निवर्तमान राष्ट्रपति को हरा कर जीत दर्ज की।

बहरहाल, जीत-हार का बेहद कम फर्क ( लूला को 50.9% तथा बोलसोनारो 49.1% ) और विधायिका तथा राज्यों के चुनाव में कई जगह बोलसोनारो की लिबरल पार्टी की जीत यह दिखाती है कि यह दो उम्मीदवारों से अधिक, दो social forces के बीच की जबरदस्त टक्कर थी, जो आने वाले दिनों में भी जारी रहेगी।

कोविड की विनाश लीला और जनता की भयावह आर्थिक तबाही के बावजूद लूला को जो उम्मीद से कम वोट मिला है, सम्भव है उसमें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद कर उनकी छवि जिस तरह खराब की गई थी उसकी भी कुछ भूमिका हो, पर जबर्दस्त अलोकप्रियता के बावजूद बोलसोनारो को जो समर्थन मिला है उसके पीछे मुख्य कारण है बड़े business houses, कारपोरेट और चर्च का समर्थन जिसकी वजह से समाज के अभिजात वर्ग और conservative हिस्से के बीच उनका भारी समर्थन बरकरार रहा। सार्वजनिक संसाधनों के अंधाधुंध निजीकरण समेत बड़े पैमाने पर नवउदारवादी नीतियों द्वारा बोलसोनारो ने कारपोरेट को फायदा पहुंचाया। पूरी दुनिया में आलोचना के बावजूद बोलसनरो के राज में आमेजन के जंगलों में बड़े पैमाने पर कटान ( deforestation ) हुआ और वहां के मूल निवासियों के अधिकारों को रौंदा गया, क्योंकि यह Agribusiness लॉबी के हित में था। दुनिया भर में इसकी आलोचना हुई, लेकिन बोलसोनारो ने इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं की।

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यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे हमारे देश में सारी राष्ट्रीय सम्पदा, जल-जंगल-जमीन खान- खदान सब विकास के नाम पर कारपोरेट के हवाले किया जा रहा है, प्रतिरोध में उतरे आदिवासियों को कुचला जा रहा है, या कारपोरेट के हित में तीन कृषि कानून ले आये गए थे।

धुर कारपोरेटपरस्त कदमों के खिलाफ उभरते जनविक्षोभ से निपटने के लिए भारत की तरह ही वहाँ संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया गया, विपक्ष को निशाना बनाया गया और जैसे भारत में बहुलतावादी सहिष्णु धार्मिकता की जगह कट्टर विभाजनकारी हिंदुत्व की घुट्टी पिलाई गयी, वैसे ही ब्राज़ील में जो परम्परागत कैथोलिकवाद था, जिसने लैटिन अमेरिका में जनपक्षीय Liberation theology को भी जन्म दिया था, उसकी जगह अमेरिकी प्रभाव वाले Evangelical church का बोलबाला हो गया। दकियानूसी प्रतिक्रियावादी सामाजिक विचारों को स्थापित किया गया। इस सब को कम्युनिस्ट विरोधी, लोकतंत्र-विरोधी, अतार्किकता और विज्ञान-विरोधी प्रचार के साथ परवान चढ़ाया गया। देश में न सिर्फ गरीबी और विषमता बढ़ती गयी, बल्कि वह सामाजिक-राजनीतिक दृष्टिकोण और आर्थिक आधार पर विभाजित होता गया। देखते- देखते ब्राज़ील पहचान के आधार पर बुरी तरह ध्रुवीकृत समाज में तब्दील होता गया।

वामपंथी लूला ने मध्यमार्गी ताकतों और नरम दक्षिणपंथ के साथ गठजोड़ बनाकर चरम दक्षिणपंथी बोलसोनारो को शिकस्त दी है। सबसे गौरतलब यह है कि आम जनता, निम्न मध्यवर्ग और गरीबों के कल्याण की सुस्पष्ट अर्थनीति, लिंग और पहचान के आधार पर खड़ी सामाजिक गैर-बराबरी को खत्म करने, लोकतांत्रिक संस्थाओं की sanctity की पुनर्बहाली तथा विभाजित देश को पुनः एकता के सूत्र में बांधने के सुसंगत लोकतांत्रिक प्लेटफार्म पर लूला ने चुनाव लड़ा था।

इनके मुकाबले था कारपोरेट, चर्च तथा समाज के आभिजात्य तबकों के प्रबल समर्थन के साथ जनविरोधी और लोकतंत्रविरोधी ताकतों का चरम प्रतिक्रियावादी गठजोड़, जिसका नेतृत्व कट्टर वामपंथ- विरोधी, सैनिक तानाशाही के समर्थक पूर्व सैन्य अधिकारी बोलसोनारो कर रहे थे। और जैसा The Hindu ने अपनी सम्पादकीय टिप्पणी में लिखा, " मतदाताओं के सामने दो विकल्प थे। एक अतिराष्ट्रवाद, रूढ़िवाद और मुक्त बाजार की नीतियों का प्रतिनिधित्व करने वाले बोलसोनारो, दूसरे सामाजिक उदारवाद में निहित समावेशी और सतत विकास का वादा करने वाले नेता लूला। मतदाताओं ने दूसरे विकल्प पर मुहर लगाई।"

दरअसल आज पूरी दुनिया में एक जबरदस्त कश्मकश चल रही है, फासीवादी शक्तियों और उनकी विरोधी ताकतों के बीच में जिसमें अनेक shades की लोकतांत्रिक, वाम, पर्यावरणवादी ताकतें शामिल हैं। यह भी साफ है कि इस घमासान के मूल में वैश्विक वित्तीय पूँजी के असाध्य संकट से उपजे हालात हैं जहां कारपोरेट घरानों का भारी समर्थन फासीवादी ताकतों को मिल रहा है क्योंकि संकट ढांचागत है, वह हल होने का नाम नहीं ले रहा और उदार लोकतंत्र के तौर तरीकों से संकट का प्रबंधन करना सम्भव नहीं हो पा रहा है। शासक वर्ग की इसी जरूरत की उपज है पूरी दुनिया में फासीवादी ताकतों का उभार। इसीलिए चुनाव हारने के बाद भी ट्रम्प और बोलसोनारो शासक वर्गों के लिये प्रासंगिक बने रहते हैं और उन्मादी अंधभक्तों समेत उनका प्रतिक्रियावादी सामाजिक आधार कायम रहता है।

यह देखना बेहद रोचक है कि इन फ़ासिस्ट नेताओं के बीच निजी घनिष्ठता की एक धुरी बनी हुई है जो उन राष्ट्रों के बीच सम्बन्धों से इतर इनके वैचारिक-राजनीतिक साम्य की उपज है। याद करिए, मोदी ने अमेरिका में जाकर Howdy Modi कार्यक्रम में मूलतः भारतीय मूल की audience के बीच नारा दिया था, " अब की बार ट्रम्प सरकार "। यह अलग बात है कि अमेरिकी मतदाताओं ने उसे स्वीकार नहीं किया। ठीक इसी तरह अभी ब्राज़ील के चुनाव में ट्रम्प ने लूला के ख़िलाफ़ जहर उगला था और उन्हें हराने की अपील किया था, "लूला को रोको, वह एक रेडिकल लेफ्ट पागल ( lunatic ) है जो तुम्हारे देश को बर्बाद कर देगा।"

बहरहाल, ट्रम्प जैसे 'शुभचिंतकों ' की सलाह को नकारते हुए ब्राज़ील की जनता ने लूला को ऐतिहासिक जीत दिला दी।

राजनीतिक विश्लेषकों को लूला से न सिर्फ ब्राज़ील के अंदर बल्कि वैश्विक स्तर पर बड़ी भूमिका की उम्मीद है। लैटिन अमेरिकी देशों का साझा मंच बनाने की उनकी योजना है, जिसकी डॉलर से इतर अलग मुद्रा का प्रस्ताव है। उस पूरे क्षेत्र में वाम लहर के दौर में जहां इस समय मैक्सिको सहित 6 देशों में वामपंथी सरकारें हैं, लूला की यह योजना सफल होती है तो अमेरिकी दबदबे और नियंत्रण से लैटिन अमेरिका को निकालने में कारगर होगी। माना जा रहा है कि लैटिन अमेरिका के सबसे बड़े देश के नेता तथा BRICS के अहम सदस्य के बतौर लूला दुनिया को नए शीत युद्ध में धकेलने की कोशिश के ख़िलाफ़ तथा इसे बहुध्रुवीय और लोकतांत्रिक बनाने में प्रभावी भूमिका निभाएंगे। अमेरिकी प्रभुत्व के लिए यह बड़ी चुनौती बनेगी।

ब्राज़ील के अनुभव का सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है कि कारपोरेट और वैश्विक पूँजी के भारी समर्थन और उन्मादी सामाजिक आधार के बावजूद धुर-दक्षिणपंथी पॉपुलिस्ट बोलसोनारो के खिलाफ यह जंग जीती जा सकी क्योंकि लूला ने यह चुनाव एक जनपक्षीय वाम प्लेटफ़ॉर्म पर लड़ा और कुशल रणनीति के साथ वे मध्यमार्गी तथा नरम दक्षिणपंथी ताकतों का संयुक्त मोर्चा बनाने में सफल रहे।

राष्ट्रपति लूला के Bolsa Familia जैसे कार्यक्रम जिसमें गरीब परिवार के बच्चों की शिक्षा तथा स्वास्थ्य के लिए सरकार द्वारा नकद भुगतान किया जाता था तथा सरकारी खजाने से समाज कल्याण के अनेक कार्यक्रम चलाए जाते थे, उनके फलस्वरूप दो कार्यकाल के बाद भी लूला की approval rating 90% थी। यह अनायास नहीं था कि ओबामा ने कभी उन्हें दुनिया का सबसे लोकप्रिय नेता कहा था।

वामपंथी नेता लूला के हाथों धुर-दक्षिणपंथी बोलसोनारो की पराजय ने एक बार फिर फासीवादी ताकतों/प्रवृत्तियों को पीछे धकेलने में वामपंथ की ऐतिहासिक भूमिका को पुरजोर ढंग से रेखांकित किया है।

भारत में भी फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में वामपंथ की निर्णायक भूमिका पर जोर देते हुए प्रो. प्रभात पटनायक कहते हैं, " केवल वामपंथ ही सच्चे अर्थों में लोकतंत्र के पुनर्जीवन तथा मेहनतकश जनता की आर्थिक बेहतरी के उपाय सुनिश्चित कर सकता है, जोकि फासीवाद तथा नवउदारवाद को शिकस्त देने का एकमात्र रास्ता है। इसके लिए वामपंथ को व्यापक आधार वाले popular front-फासीवाद विरोधी सभी ताकतों के संयुक्त मंच का निर्माण करना होगा। वामपंथ ने ही पिछली सदी में फासीवाद को पराजित किया था, इस बार भी उसे ही इस ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा करना होगा।"

स्तम्भकार प्रताप भानु मेहता के शब्दों में, "लूला की जीत से ब्राज़ील के लोकतन्त्र को जीवनदान मिल गया। इसने संस्थाओं के अधिनायकवादी ध्वंस की उस धारा को पलट दिया जो बोलसोनारो के जीतने पर और तेज हो जाती। ब्राज़ील में लोकतन्त्र जिंदा बच गया क्योंकि लोकतांत्रिक संस्थाएं अभी भी वहाँ मजबूत है।"

ऐसे ही चुनौती से जूझती भारत की लोकतांत्रिक ताकतें 2024 में क्या भारत के लोकतंत्र को नया जीवनदान दे पाएंगी ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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