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बजट 20-21: भारतीय कृषि में काॅरपोरेट वर्चस्व के लिए रास्ता खुला

यह 16-पाॅइंट एक्शन प्लान किसानों की आय को दूना करने के मामले में लेशमात्र भी सफल नहीं है, पर मुद्दा यह नहीं है। बल्कि, यह गंभीर मामला है कि इस प्लान के तहत कुछ ऐसे संरचनात्मक परिवर्तन किये जा रहे हैं जिससे भारतीय कृषि में काॅरपोरेट वर्चस्व के लिए रास्ता खुलता है।
Agriculture
Image Courtesy: Hindustan Times

यद्यपि एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2018 में किसान आत्महत्या 12 वर्षों में सबसे कम रही, कृषि संकट में कमी नहीं नज़र आती। मौसम ज़रा बिगड़े या बाज़ार थोड़ा भी नकारात्मक हो जाए, तो पुनः आत्महत्याओं का दौर शुरू हो जाएगा। जो असली समस्या है वह है कृषि से लाभ न होना।

इस संकट से उबरने के लिए केंद्रीय बजट 2016-17 में सरकार ने नारा दिया था ‘‘2022 तक किसानों की आय को दूना कर देंगे’’। पर यह ध्यान देने की बात है कि सरकार कुल आय को, यानी लागत को घटाने के बाद, दूना करने की बात नहीं कर रही; वह केवल मामूली बिक्री आय (नाॅमिनल सेल्स इनकम) की बात कर रही है। यदि लागत भी दूनी हो जाए, तो पूरी कसरत बेकार है!

 इसी तरह सरकार अवास्तविक आय (नाॅमिनल इनकम) की नहीं, बल्कि वास्तविक आय (रियल इनकम), यानी मूल्य वृद्धि के लिए गुंजाइश रखकर आय को दूना करने की बात नहीं करती है। इस घोषणा को 4 वित्तीय वर्ष बीत गए, और अब पांचवा वर्ष है। यानी केवल एक साल और बाकी है। पर किसानों के अनुसार मोदी सरकार इस टार्गेट को पूरा करने के करीब भी नहीं है। इससे भी बुरा तो यह है कि मोदी सरकार ने सर्वे के माध्यम से इस टार्गेट का आंकलन किये बिना खोखली घोषणा कर डाली।

इस वर्ष के केंद्रीय बजट में भी निर्मला सीतारमन ने कृषि के लिए 16-पाॅइंट एक्शन प्रोग्राम दिया है। क्या इससे किसानों की आय दोगुना हो जाएगी?

किसानों की आय सही मायने में बढ़ सकती है, जब उनको अपने उत्पाद का दाम भी बढ़ा हुआ मिले। मोदी सरकार ने एम एस स्वामिनाथन के फाॅर्मूले को कैसे बिगाड़कर, दाम और प्राॅफिट मार्जिन का 50 प्रतिशत जोड़कर एक कटा-छंटा फाॅर्मूला निकाला है, इसके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। इस कटे-छंटे फाॅर्मूले के तहत भी न्यूनतम समर्थन मूल्य में कितनी वृद्धि है? 2014-15 में, जब मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सत्ता में आई, किसानों को धान के लिए 1360 रुपये और गेहूं के लिए 1450 रु प्रति क्विंटल मिलता था। और 2019-20 में ये बढ़कर क्रमशः 1815 रुपये प्रति क्विंटल धान और 1925 रुपये प्रति क्विंटल गेहूं के हो गया। मोदी के शासन काल में प्रमुख अन्न में केवल 33 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। दलहन के लिए तो न्यूनतम समर्थन मूल्य इससे भी कम रहा। खेतिहर उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य जब 33 प्रतिशत या कम बढ़े हों, तो कृषि आय में 100 प्रतिशत वृद्धि कैसे हो सकती है?

दूसरी बात कि यह 33 प्रतिशत वृद्धि भी समानुपाती आय वृद्धि में नहीं तब्दील होता क्योंकि सरकारी खरीद बहुत कम है। पिछले साल, गेहूं उगाने वाले किसानों में, जिन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के तहत सरकारी प्रोक्योरमेंट एजेंसियों को उत्पाद बेचा, वे कुल किसानों में मात्र 3 प्रतिशत थे। धान उगाने वाले किसानों में यह संख्या 7.64 प्रतिशत और दलहन उगाने वालों में केवल 6 प्रतिशत रही। दूना होना तो दूर रहा, इस फार्मूले से किसान की आय दो अंकों से भी नहीं बढ़ सकती। किसान ऐक्टिविस्ट योगेन्द्र यादव ने बताया है कि एफसीआई को कृषि उपज की खरीद और पीडीएस संचालन के लिए आवंटित धनराशि 1,51,000 लाख करोड़ से घटकर 75,000 करोड़ कर दी गई है।

जब सरकार की ओर से खरीद नहीं होती, तो किसान मजबूर होकर खुले बाज़ार में बेचता है और बाज़ार के मूल्य कई बार सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी से भी कम होता है। तो एमएसपी निर्धारण ही बेमानी हो जाता है। इस समस्या के निजात के लिए और किसानों को निश्चत आय गारण्टी करने के लिए सरकार ने सितम्बर 2018 में पीएम-आशा स्कीम आरंभ की। इसके तहत यह प्रावधान था कि यदि बाज़ार के मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम होंगे, तो सरकार किसानों के घाटे का 30 प्रतिशत हिस्सा देगी। 

काग़ज़ पर यह स्कीम आकर्षक लग सकती है। पर यह केवल उन किसानों पर लागू होता था जो तिलहन और दलहन पैदा करते हैं। इससे बुरा क्या हो सकता था कि दिसम्बर 2019 तक पीएम-आशा स्कीम के टार्गेट का केवल 3 प्रतिशत पूरा हुआ था? इस वर्ष उपरोक्त स्कीम के लिए आवंटन 1500 करोड़ से घटाकर 500 करोड़ कर दिया गया। तो समर्थन मूल्य का यह फार्मूला भी नाकाम साबित हुआ।

यदि कृषि बाज़ार इलेक्ट्राॅनिक रूप से समेकित किये जाते, और किसानों को इसके अंतरगत लाया जाता तो बिचैलियों की जरूरत न होती और किसानों को बेहतर कीमत मिलती; सो उनकी आय भी बढ़ती, मोदी सरकार ने यह दावा किया। सरकार ने 2016 में ई-नैम (इलेक्ट्रानिक नैश्नल ऐग्रिकल्चरल मार्केट) भी लाॅन्च किया था और घोषणा की थी कि 6500 कृषि उत्पाद मार्केटिंग कमेटियों (एपीएमसी) और 22,000 ग्रामीण कृषि बाज़ारों को ई-नैम के अंतरगत लाया जाएगा। पर निर्मला जी का बजट कहता है कि अब तक केवल 585 बाज़ारों को ई-नैम के तहत लाया गया है।

सरकार ने इस संदर्भ में माॅडल ऐग्रिकल्चरल प्राॅड्यूस ऐण्ड लाइवस्टाॅक मार्केटिंग (प्रोमोशन ऐण्ड फैसिलिटेशन) ऐक्ट, 2017 घोषित की, जो 16-पाॅइंट एक्शन प्लान के 3 माॅडल ऐक्ट्स में से एक है, जो निर्मला जी ने हाईलाइट किया। यह माॅडल कानून इस बात की देर से ही सही, स्वीकृति करता है कि एपीएमसी ऐक्ट के अंतर्गत चलने वाले मार्केटिंग व्यवस्था में व्यापारिक एकाधिकारियों का बोलबाला है, जो अपने हित में और छोटे किसानों के विरुद्ध, बाज़ार में हेराफेरी करते हैं।

इस माॅडल ऐक्ट के तहत जो विकल्प प्रस्तुत किया गया है, वह छोटे किसानों को मानो कड़ाहे से निकालकर आग में झोंक रहा है, क्योंकि वह काॅरपोरेट घरानों को ई-नैम के अंतर्गत समेकित कर प्राइवेट मार्केट यार्ड संचालित करने हेतु लाइसेंस लेने की छूट देता है। इतना ही नहीं, वह इन ई-प्लेटफार्मों के मार्केट सब-यार्ड कहे जाने वाले वेयरहाउसिंग और कोल्डस्टोरेज में निवेश करने की अनुमति देता है।

कहने का मतलब है कि लोकल व्यावसायिक माफिया की जगह अब राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय काॅरपोरेट माफिया ले लेंगे। सरकार ने प्राइवेट प्रोक्योरमेंट स्टाॅकिसट्स स्कीम (पीपीएसएस) को भी शुरू किया है, जिसके अंतरगत निजी कम्पनियां पहले ही किसानों से गेहूं, दलहन, तिलहन आदि खरीद लेते हैं और उत्पाद मूल्य का 15 प्रतिशत तक सर्विस चार्ज के रूप में ले लेते हैं। उनका लाभ किसानों के लिए घाटा बनता है।

बजाय इसके कि कृषि बाज़ार को काॅरपोरेटों के लिए खोल दिया जाए, यह बेहतर होता कि सरकार ऐसा कानून लाती जो छोटे किसानों के मार्केटिंग कोऑपरेटिव्ज़ को अधिक वरीयता देती ताकि वे कृषि बाज़ार में अपना दबदबा बना सकते; इसके लिए सब्ज़ियों की बिक्री हेतु वर्गीज़ कुरियन के अमूल माॅडल या कर्नाटक के हाॅपकाॅम्ज़ माॅडल से सीख ली जा सकती थी। दरअसल सरकार ने किसान-उत्पादक संगठनों के लिए एक माॅडल पेश किया था, पर इनपर भी उन्हीं धनी किसानों का दबदबा है, जो श्रम-घनिष्ट कृषि (Labor intensive agriculture) में लगे हैं।

यह भी सच है कि सरकार ने स्माॅल फार्मर्स ऐग्रिबिज़नेस काॅन्सार्टियम की स्थापना भी 1994 में की थी और उसके तहत अप्रैल 2016 में ई-नैम को लाॅन्च किया था। बिचैलियों को हटाकर खरीददारों को सीधे बेचने का रास्ता भी खोलने के लिए 21 राज्यों ने ई-नैम के तहत एसएफएसीएस को प्रमोट करने हेतु कदम बढ़ाया, पर केंद्र ने काॅर्पस फंड के रूप में हर राज्य को केवल 50 लाख रुपये दिये। तो एसएफएसीज़ भला कैसे चलते? यहां तक कि कर्नाटक में, जहां ई-नैम सबसे अधिक उन्नत है, केवल बड़े जोत वाले किसान प्रमुख तौर पर उसका प्रयोग कर रहे है और छोटे किसान अब भी उन्हीं बिचैलियों को बेच रहे हैं जो इसी ई-नैम में पंजीकृत हैं।

यह 16-पाॅइंट एक्शन प्लान किसानों की आय को दूना करने के मामले में लेशमात्र भी सफल नहीं है, पर मुद्दा यह नहीं है। बल्कि, यह गंभीर मामला है कि इस प्लान के तहत कुछ ऐसे संरचनात्मक परिवर्तन किये जा रहे हैं जिससे भारतीय कृषि में काॅरपोरेट वर्चस्व के लिए रास्ता खुलता है। यह बात अन्य दो माॅडल ऐक्ट्स से स्पष्ट हो जाती है। ये हैं माॅडल ऐग्रिकल्चरल लैंड लीज़िंग ऐक्ट 2016 और माॅडल ऐग्रिकल्चरल प्राॅड्यूस ऐण्ड लाइवस्टाॅक काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग ऐण्ड सर्विसेज़ (प्रोमोशन ऐण्ड फैसिलिटेशन) ऐक्ट, 2018. जबकि पहला कानून काॅरपोरेट्स के लिए, उन राज्यों में भी, जहां काश्तकारी प्रथा प्रतिबंधित है, छोटे किसानों की जमीन को लीज़ करने में मदद करेगा।

यानी, काॅरपोरेट मालिक परंपरागत भूपतियों की जगह ले लेंगे। छोटे किसानों को मजबूर होकर इन काॅरपोरेट मालिकों के लिए उत्पादन करना पड़ेगा और काॅरपोरेट फार्मिंग का बोलबाला बढ़ेगा। न ही राज्य की ओर से किसी तरह के नियम होंगे और न ही किसानों के लिए कोई सुरक्षा के उपाय हैं। केवल कुछ सिरफिरे राष्ट्रवादी इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि कृषि संकट का समाधान युनीलीवर और पेप्सीको के हाथों में है!

किसानों की आय बढ़ती, यदि उत्पादन बढ़ता। उत्पादन बढ़ सकता है यदि उत्पादक सामग्री का अधिक इस्तेमाल होता। पर 2020-21 के बजट में वित्त मंत्री ने फर्टिलाइज़र सब्सिडी को 79,996 करोड़ से घटाकर 70,139 करोड़ कर दिया।

कृषि के क्षेत्र, संबंद्ध गतिविधियां और ग्रामीण विकास के लिए सकल आवंटन भी देखें तो यह 2020-2021 के लिए 2,83,202 करोड़ है जो पिछले वर्ष से मात्र 6,822 करोड़ अधिक है। विकास की नाममात्र दर (नाॅमिनल रेट ऑफ ग्रोथ) केवल 2.5 प्रतिशत निकलती है। यदि हम 5 प्रतिशत मुद्रास्फीति मानें, तो ये असल में 2.5 प्रतिशत घटत का संकेत देता है। कुल मिलाकर, जहां तक किसानों का प्रश्न है, यह एक ‘जुमला बजट’ कहलाएगा।

(लेखक श्रम मामलों के जानकार हैं। )

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