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उपचुनाव परिणाम: विपक्ष के लिए एकता और “किलिंग इंस्टिंक्ट” की जरूरत बता गया

क्या नीतीश कुमार की विपक्षी एकता में ओवैसी भी शामिल किए जाएंगे यानि ओवैसी अपने ऊपर लगने वाले आरोप को ही सही साबित करने की दौड़ में जुटे रहेंगे (आरोप कि वे बीजेपी को जीताने के लिए चुनाव लड़ते है.)
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फ़ोटो साभार: जागरण

नीतीश कुमार की विपक्षी एकता की कवायद तेजस्वी यादव की ए टू जेड वाली राजनीति के होते हुए भी गोपालगंज सीट पर मिली हार असल में भाजपा की जीत से अधिक विपक्ष के बिखराव का परिणाम रही। 1700 वोट से यह सीट हारना, तब और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, जब बसपा और एआईएमआईएम जैसी पार्टियां 20 हजार वोट ले कर निकल जाए और सहानुभूति वोट होने के बाद भी इस सीट से भाजपा प्रत्याशी करीब 2 हजार वोट से जीत जाए तो फिर तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार को सतर्क हो जाने की जरूरत है।  

6 राज्य 7 सीट मिलाजुला परिणाम

महाराष्ट्र की अंधेरी इस्ट से उद्धव ठाकरे गुट की जीत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि शिवसेना में बिखराव के बाद उद्धव ठाकरे को साबित करना था कि असली शिव सेना कौन है? ओडिशा में भाजपा ने अपनी ही सीट पर दुबारा कब्जा किया, गोपालगंज सीट भी भाजपा की ही थी, जहां भाजपा विधायक की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी कुसुम देवी चुनाव लड़ रही थी।  मोकामा की कथा तो पिछले 6 चुनाव से “अनंत” ही रही है। अनंत सिंह की पत्नी ने 2020 के चुनाव के मुकाबले अपने पति से 1 हजार वोट ज्यादा लिया, लेकिन जीत का मार्जिन कम हो गया. नीलम देवी करीब 17 हजार वोटों से चुनाव जीती, जबकि अनंत सिंह खुद 2020 में ३६ हजार वोटों से चुनाव जीते थे. तेलंगाना में केसीआर का जलवा कायम है, क्योंकि मुनुगोड़े सीट कांग्रेस के खाते में थी, जिसके विधायक ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा लेकिन चुनाव में जीत तेलंगाना राष्ट्र समिति ने दर्ज की, जबकि भाजपा ने उन्हीं पूर्व कांग्रेस विधायक के राजगोपाल रेड्डी को अपना उम्मीदवार बनाया था. टीआरएस उम्मीदवार ने राजगोपाल को करीब 11 हजार वोटों से हराया. सबसे महत्वपूर्ण यह रहा कि मुनुगोड़े सीट पर करीब 93 फीसदी मतदान की खबर आई थी. इस लिहाज से अभी वहाँ एंटी-इनकंबेंसी जैसा कोई फैक्टर नहीं दिख रहा है. लेकिन यह भी सच है कि भाजपा की मौजूदगी वहाँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. हरियाणा और यूपी में भी एक-एक सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा ने चुनाव परिणाम पर कब्जा किया. आदमपुर सीट से भजनलाल परिवार की तीसरी पीढी के भव्य विश्नोई ने भाजपा के टिकट पर चुनाव जीता. लेकिन, इस सीट पर कांग्रेस को छोड़ कर सबकी जमानत जब्त हुई, जिसमें आम आदमी पार्टी भी शामिल है. यूपी के गोलागोकर्णनाथ सीट कर्न्नाथ

कांग्रेस: 1 से 0, क्यों?  

ओडिशा में मात्र 2.18 फीसदी वोट, तेलंगाना में जिस सीट पर कांग्रेस के विधायक रहे हो, वहाँ 10.58 फीसदी वोट और हरियाणा के आदमपुर सीट पर दूसरे नंबर पर आने वाली कांग्रेस इस वक्त गुजरात और हिमाचल के चुनाव की तैयारी में जुटी है. और दूसरी तरफ, राहुल गांधी भारत जोड़ों यात्रा में व्यस्त है. 7 सीटों वाले इस उपचुनाव में कांग्रेस की दावेदारी इस बीच कम से कम दो सीटों पर बनती थी. एक मुनुगोड़े तो उसी की सीट थी, आदमपुर में उसने भव्य बिश्नोई को टक्कर दिया. जाहिर है, बिहार, यूपी, महाराष्ट्र में उसे गठबंधन धर्म निभाना था. लेकिन, तेलंगाना और हरियाणा में कांग्रेस के समक्ष ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी. तो क्या कांग्रेस के लिए इन उपचुनावों का कोई नहीं था? आमतौर पर उपचुनावों को हलके में लेने की राजनैतिक परंपरा रही है. शायद यही वजह रही हो कि नीतीश कुमार स्वयं चुनाव प्रचार में नहीं उतरे थे. दोनों सीटों पर राजद के उम्मीदवार थे, हालांकि महागठबंधन धर्म की मांग थी कि नीतीश कुमार भी चुनावी मैदान में उतरते. लेकिन, शायद वहीं बात कि चलो उपचुनाव है, क्या फर्क पडेगा? लेकिन, भारतीय जनता पार्टी ने इस सोच के उलट हर एक सीट पर किलिंग इंस्टिंक्ट के साथ चुनाव लड़ा. और यह काम भाजपा पिछले 8 सालों से करती आ रही है. उसके लिए एक-एक सीट का चुनाव उतना ही महत्वपूर्ण होता है, जितना कोई अन्य चुनाव. वह अपनी पूरी ताकत झोंक देती है. स्थानीय से ले कर केन्द्रीय मंत्रियों तक की फ़ौज उतार दी जाती है. नैतिकता-अनैतिकता के सवालों से इतर, राजनैतिक रूप से इसे एक क्वालिटी मानने से गुरेज नहीं करना चाहिए. इसके ठीक उलट कांग्रेस समेत तमाम प्रमुख विपक्ष में इस तरह की पोलिटिकल किलिंग इंस्टिंक्ट का अभाव दिखता है. कांग्रेस में भी यह समस्या है. राजनीति में आदर्शवाद अच्छी चीज है, लेकिन चुनाव जीतना उस आदर्श को बनाए रखने के लिए उतना ही जरूरी है. आप चुनाव जीतेंगे तभी शायद भारत को और बेहतर जोड़ पाएंगे.

क्या एटूजेड ने माई को कमजोर किया?

बिहार में जब से तेजस्वी ने अपनी पार्टी की कमान संभाली है, तब से वे ए टू जेड की बात करते आ रहे है और बाकायदा वे इसका खुला प्रदर्शन भी करते है, जब नारा लगता है “भूमिहार का चूरा, यादव का दही”. जबकि पार्टी की स्थापना से ही 31 फीसदी का एक कोर वोट बैंक (माई) राजद के साथ रहा है. लेकिन, गोपालगंज में जहां एक तरफ साधू यादव (तेजस्वी यादव के मामा) की पत्नी इंदिरा देवी को 8 हजार वोट और दूसरी तरफ अब्दुल सलाम (ओवैसी की पार्टी) को 12 हजार वोट मिले. जाहिर है, इस 20 हजार वोट में मेजोरिटी वोट इसी माई समीकरण का था. तो क्या माई ने ए टू जेड रणनीति को जवाब दिया है? या फिर ओवैसी सीमांचल से निकल कर अब उत्तर बिहार में आने की तैयारी कर रहे है? सीमांचल में 2020 में 6 विधायक हासिल करने वाले अगर पूरे बिहार में चुनाव लड़ जाए और गोपालगंज की तरह या उससे थोड़ा कम स्तर का भी प्रदर्शन कर देते हैं तब बिहार में तेजस्वी यादव के ए टू जेड समेत नीतीश कुमार के महागठबंधन फार्मूला का क्या होगा? तो क्या नीतीश कुमार की विपक्षी एकता में ओवैसी भी शामिल किए जाएंगे याकि ओवैसी अपने ऊपर लगाने वाले आरोप को ही सही साबित करने की दौड़ में जुटे रहेंगे (आरोप कि वे बीजेपी को जीताने के लिए चुनाव लड़ते है.)

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