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सीएए लागू हो चुका है, लेकिन असम अभी भी ग़ुस्से में है

हालांकि सीएबी के पारित होने के बाद से देश के हर राज्य में इसे लेकर विरोध प्रदर्शन जारी हैं, लेकिन यह असम है जो 2016 से ही इस विरोध की अगुवाई कर रहा है, जबसे सीएबी को प्रस्तावित किया गया था।
CAA
छवि सौजन्य :बिज़नेस स्टैंडर्ड

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को असम की सत्ता की बागडोर संभाले अभी तीन साल ही हुए हैं। और इस छोटी सी अवधि के दौरान में ही इसे व्यापक विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा है, जिसमें विशेष तौर पर सर्वाधिक विवादित मामला नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के चलते हुआ है। राज्य की सत्ता हासिल करने के लिए तब के बीजेपी के पोस्टर बॉय रहे और आज के असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने तब “जाति, माटी, भेटी” (समुदाय, ज़मीन और आधार) को बचाने के मंत्र का ज़ोर-शोर से जाप किया था। लेकिन जैसे ही नागरिकता (संशोधन) विधेयक (सीएबी) के पारित होने की बात उठी, राज्य में आम जन में इनके प्रति भीषण रोष उत्पन्न होना शुरू चुका था।

कर्फ़्यू के बावजूद सारे राज्य में तीव्र विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस फ़ायरिंग में हुई मौतें, और उसके बाद इंटरनेट पर तालाबंदी घोषित करने को क्या यह मान लिया जाए कि अब असम शांत हो गया है? मीडिया का एक हिस्सा ऐसा दिखाने की भले ही कोशिश में जुटा हो, लेकिन असम अभी भी ग़ुस्से में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खेलो इंडिया के उद्घाटन सत्र में शामिल होने के लिए गुवाहाटी दौरा करना था, लेकिन उन्हें अपनी इस यात्रा को रद्द करने पर मजबूर होना पड़ा। सर्बानंद सोनोवाल को अपने निर्वाचन क्षेत्र माजुली की यात्रा तक रद्द करनी पड़ी। लोगों के विरोध को झेलने का डर ही इन यात्राओं को रद्द करने के पीछे की बड़ी वजह की ओर इशारा करती है।

असम में क्या चल रहा है?

असम गण परिषद (एजीपी) और बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ़) के साथ मिलकर बीजेपी की गठबंधन सरकार पूरे राज्य में ‘शांति रैलियों’ के आयोजन में व्यस्त है। इन रैलियों का नेतृत्व ख़ुद सीएम सोनोवाल और मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा (एचबीएस) अपने अन्य मंत्रियों और विधायकों के साथ मिलकर कर रहे हैं। एचबीएस और सोनोवाल लोगों को यह समझाने में जुटे हैं कि सीएए से यहाँ के स्थानीय निवासियों को किसी प्रकार का नुकसान नहीं होने जा रहा है, उल्टा सीएए से उनके हितों की रक्षा ही होगी।

सोनोवाल ने बार-बार दोहराया है कि वे माटी पुत्र हैं, और मातृभूमि और उसके लोगों के प्रति उनके कर्तव्य बोध पर संदेह का तो सवाल ही नहीं उठना चाहिए। उन्होंने दावा किया कि वे अपनी आख़िरी सांस तक असमिया लोगों के हितों की रक्षा करते रहेंगे। हिमंत बिस्वा सरमा भी इन्हीं सुरों को दुहराते हैं, लेकिन कभी-कभी उनके सुर अधिक आक्रामक प्रतीत होते हैं। 10 जनवरी की एक प्रेस वार्ता में सरमा बोल उठे कि (असोमिया प्रतिदिन) आंदोलन सीएए के ख़िलाफ़ चलाया जा रहा आंदोलन न रहकर, बीजेपी को सत्ता से बेदख़ल करने वाले प्रदर्शन में तब्दील हो चुका है।

भगवा दल की ओर से अब आम लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए ढेर सारी सुविधाओं और भत्तों की घोषणायें की जा रही हैं। एचबीएस ने इस बात की भी घोषणा की है कि नौगाँव और कछार पेपर मिलों के मज़दूरों के बच्चों को उनकी शिक्षा जारी रखने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करने के साथ-साथ अन्य सुविधाएं भी दी जायेंगी। यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि सरकार की पहल के चलते ही सार्वजनिक क्षेत्र की ये पेपर मिलें बंद हुई हैं। सीएबी और सीएए के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शनों से भी पहले से इन मिलों की मज़दूर यूनियनें लम्बे समय से विरोध प्रदर्शन कर रही हैं।

एचबीएस की इस घोषणा पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए मज़दूर यूनियन ने कहा है कि यह घोषणा सिर्फ़ आँखों में धूल झोंकने वाली है, और इसका मकसद महज़ वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने वाला है। नौगाँव और कछार पेपर मिल मज़दूर यूनियनों के अध्यक्ष आनंद बोरदोलोई और मानबेन्द्र चक्रवर्ती के अनुसार सरकार सबसे पहले तो जो 36 महीनों से कर्मचारियों की तनख़्वाह नहीं दे सकी है, उसे जारी करने का काम करे। उन्होंने माँग की है कि, इस बंदी के चलते जिन 60 कर्मचारियों के घरों में यथोचित चिकित्सा सुविधाएँ मुहैया नहीं हो पाने के कारण जान गँवानी पड़ी हैं, के साथ-साथ जिन्होंने आत्महत्या की हैं, उन परिवारों को अविलम्ब मुआवज़ा दिया जाए।

यह शांति जैसी पहल, लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर पाने में सफल सिद्ध नहीं हो पाई है। असम की ब्रह्मपुत्र घाटी के क़रीब हर हिस्से में आए दिन सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। धेमाजी में, जहां पर पिछली शांति रैली का आयोजन किया गया था, वहाँ पर सीएए के विरोध में लोगों के अपार जनसमूह को देखा गया था [असमिया मीडिया रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या 80,000  के आसपास रही होगी]। धेमाजी में इस आंदोलन का नेतृत्व ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू), असोम जातीयबादी युवा छात्र परिषद (एजेवाईसीपी), कलाकारों के समूह और आदिवासी संगठनों ने किया।

'तेंगानी गोर्जोन' (तेंगानी गरज रहा है) सीएए के ख़िलाफ़ एक विशाल प्रदर्शन था, जो गोलाघाट ज़िले के तेंगानी इलाक़े में आयोजित किया गया था। इसके आयोजकों में से एक  सोनेश्वर नराह ने न्यूज़क्लिक को बताया: “तेंगानी गोर्जोन की शुरुआत असमिया ढोल बजाने से होती है, जिसे डोबा कहते हैं। इसे बजाने का अर्थ है कि तत्काल तीव्र संघर्ष की उद्घोषणा। असम के लोग आरएसएस के हिंदुत्व की विचारधारा को गले से नीचे नहीं उतार सकते।

भले ही जनजातियों और अन्य समुदायों ने पिछली बार बीजेपी को वोट दिया हो, लेकिन इसकी विचारधारा उनके दिलों की गहराइयों में नहीं समा सकती, और आज जो आंदोलन हम देख रहे हैं, यह उसी की अभिव्यक्ति है। इन लोगों में वे लोग शामिल हैं जो बाढ़ से विस्थापित हैं, जंगलों और पहाड़ी इलाक़ों में निवास करते हैं, और जो काम बीजेपी सरकार असम और केंद्र दोनों ही जगह पर स्थापित होकर करने में लगी है, उससे बेहद असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि सरकार अखिल गोगोई जैसे नेताओं से डरती है, और इसी वजह से उन्हें जेल में ठूंस दिया गया है। अखिल गोगोई सही मायने में आम लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह तेंगानी वही स्थान है, जहाँ से गोगोई ने अपने संघर्षों की शुरुआत की थी। हमारी माँग है कि उन्हें तत्काल रिहा किया जाए।”

दूसरी तरफ़ आसू छात्र संगठन की ओर से 2021 के अगले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को पटखनी देने के लिए एक नए राजनीतिक गठन के निर्माण की बात बार-बार उठाई जा रही है। आसू के सचिव लुरिन ज्योति गोगोई अपनी प्रत्येक जन सभाओं में मोदी-शाह और सर्बानंद-हिमंत की जोड़ी पर हमला करते दिखते हैं। लुरिन का स्पष्ट कहना है कि एक नए राजनैतिक दल की आवश्यकता है। लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस प्रगति होती नज़र नहीं आती।

आम तौर पर छात्र समुदाय के भीतर और विशेषकर कॉटन यूनिवर्सिटी, गौहाटी विश्वविद्यालय और डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन जारी है। 11 जनवरी के दिन कॉटन यूनिवर्सिटी के छात्रों ने अपने सीएए विरोधी आंदोलन, रोनोहुँकार के एक माह संपन्न हो जाने के उपलक्ष्य में दिन भर का विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया।

अखिल गोगोई की एनआईए के तहत हिरासत और अन्य तरीक़ों से धमकियाँ 

लोगों को डराने धमकाने के लिए कर्फ़्यू लगाने के अतिरिक्त इंटरनेट बंदी और पुलिस फ़ायरिंग में पाँच लोगों की हत्या के साथ अनेकों गिरफ़्तारियाँ हुई हैं, बंदी बनाना और लोगों के ग़ायब होने की भी ख़बरें हैं।

असम के बेहद तेज़ तर्रार नेता अखिल गोगोई पर माओवादियों से संबंध रखने का आरोप लगाया गया है। उन्हें एक हफ़्ते के लिए एनआईए की हिरासत में रखा गया था और अभी भी गुवाहाटी की जेल में बंद हैं। सलाखों के पीछे रखने के लिए उनके ऊपर एक दशक पुराने मामले का इस्तेमाल किया गया है। इस केस के सम्बन्ध में हिरेन गोहैन ने अपने ताज़ातरीन बयान में प्रेस को बताया है कि वे काफ़ी लम्बे अरसे से गोगोई से परिचित हैं, और वे माओवादी नहीं हो सकते। गोहैन के अलावा असम में आसू, एजेवाईसीपी और अन्य सभी विरोधी ताकतों ने एक स्वर में गोगोई की तत्काल रिहाई की मांग की है।

अखिल के साथ, एसएमएसएस-एसएमएसएस (सात्र मुक्ति संग्राम समिति) के दो छात्र नेताओं, बिट्टू सोनोवाल और धैज्या कोन्वेर को भी इसी मामले के तहत गिरफ्तार किया गया है। एसएमएसएस छात्र संगठन केएमएसएस (KMSS) का छात्र मोर्चा है, और इस संगठन के मुख्य सलाहकार गोगोई हैं। बिट्टू और धैज्या दोनों को ही दो दिन पहले ही गुवाहाटी में एनआईए की अदालत द्वारा 10 दिन की एनआईए हिरासत में ले लिया गया था।

बीर लछित सेना के संगठन सचिव श्रीन्खल चलिहा को भी जेल में ठूंस दिया गया है। श्रीन्खल पर आईपीसी की कई धाराएं थोपी गई हैं। असम में जबसे सीएए विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ आई है तबसे उन्हें दो बार गिरफ़्तार किया जा चुका है। सीएए के मुद्दे पर उन्होंने भी बीजेपी के ख़िलाफ़ तीव्र विरोध व्यक्त किया है। डिब्रूगढ से गिरफ़्तार और बारपेटा जेल में बंद श्रीन्खल को 10 जनवरी को गुवाहाटी उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, और आईपीसी की धारा 121 और 124 के तहत उन्हें दोबारा गिरफ़्तार कर लिया गया।

असम में चिंता की वजह  

हालांकि देश के क़रीब क़रीब सभी राज्यों में सीएबी के पारित हो जाने के बाद से विरोध देखने को मिले हैं, लेकिन असम राज्य 2016 से ही इसके विरोध के मामले में सबसे आगे रहा है, जबसे सीएबी को प्रस्तावित किया गया था। असम के लोगों की चिंता की मुख्य वजह राज्य के नाज़ुक जनसांख्यिकी पर होने वाले आसन्न ख़तरे की रही है। इसके बावजूद आसू नेताओं लुरिन ज्योति गोगोई और समुज्जल भट्टाचार्य ने दोहराया है कि सीएए मूल निवासियों के बारे में चिंता के साथ साथ ग़ैर-संवैधानिक और सांप्रदायिक स्वरूप लिए हुए है।

इसके अलावा हिरेन गोहेन, अखिल गोगोई, वाम दलों और कई अन्य संगठन भी सीएए के ख़िलाफ़ इसी प्रकार के विचारों का इज़हार करते रहे हैं।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए गुवाहाटी उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और स्तंभकार किशोर कलिता ने कहा है, “असम के लोगों ने विद्रोह का बिगुल इसलिये फूंक रखा है क्योंकि सीएए की वजह से जो ख़तरे उत्पन्न होते हैं, वे वास्तविक हैं और उनका डर पूरी तरह से जायज़ है। अगर तत्काल का उदाहरण देखना हो तो हमारे पास त्रिपुरा का उदाहरण मौजूद है, जहाँ स्थानीय लोगों का अल्प्संख्य्कीकरण हो चुका है। लोगों के पास इस बात का पूरा हक है कि वे अपनी ज़मीन, पहचान, भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए आवाज़ उठाएं।”

गौहाटी विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफ़ेसर दिलीप बोराह के अनुसार, “असम के लोगों ने लोकतांत्रिक तौर-तरीक़ों से से अपनी आवाज़ उठाई है, और हम उन लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का समर्थन करते हैं। यदि सरकार चाहे तो वह लोगों को इस बात के लिए आश्वस्त कर सकती है कि सीएए क्यों असम और पूर्वोत्तर के लिए नुक़सानदेह नहीं है? लेकिन सरकार ऐसा कुछ कर पाने में पूरी तरह से विफल रही है, और सिर्फ़ आग बुझाने का दिखावा करने में लगी है। सीएए अगर लागू होता है तो यह राज्य के नाज़ुक जनसांख्यिकीय संतुलन को पूरी तरह से नष्ट कर देने वाला क़दम होगा।”

लोअर असम के गोलपारा ज़िले में कार्यरत एक कार्यकर्ता राकेश चक्रवर्ती भी इसी तरह की चिंताएं साझा करते हैं। सुप्रीम कोर्ट में सीएए के ख़िलाफ़ याचिका दाख़िल करने वालों में से वे भी एक हैं। उनका कहना है कि “क़ानूनी लड़ाई और ज़मीन पर चल रहे आंदोलन, दोनों ही को एक साथ चलना होगा। असम ने सीएए को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है। हर किसी ने इसे नकार दिया है, वो चाहे किसी भी धर्म से हो या किसी भी समुदाय से संबद्ध हो।”

जहाँ सरकार इस क़ानून को रद्द करने से इनकार कर रही है, वहीं सभी लोगों की निगाहें अब सर्वोच्च न्यायालय पर टिकी हुई हैं। जबकि समूचे देश को 22 जनवरी का इंतज़ार है, जब अगली सुनवाई की तारीख़ निर्धारित है, वहीँ एक बात निश्चित तौर पर स्पष्ट हो चुकी है। असम किसी भी क़ीमत पर सीएए को स्वीकार करने नहीं जा रहा है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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