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CAB विरोध : हम भारत के छात्र...  

हमें सोचना होगा कि छात्रों के विरोध-प्रदर्शन से सरकार इतना ख़ौफज़दा क्यों है? क्यों विश्वविद्यालयों को छावनियाँ बना दिया गया? क्या सरकार पढ़ने-लिखने वालों से इसलिए डरती है कि वे उनकी नीतियों का विश्लेषण करते हैं और उनपर सवाल खड़ा करते है?
CAB protest

देश के केंद्रीय विश्वविद्यालय इस वक़्त संकट और संघर्ष के दौर से गुज़र रहे हैं। बेतहाशा फीस वृद्धि के ख़िलाफ़ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र महीने भर से प्रदर्शन कर रहे हैं और पुलिसिया दमन झेल रहे थे, दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक सरकार के तानाशाह रवैये के ख़िलाफ़ 4 दिसम्बर से हड़ताल पर हैं। जेएनयू को पिछले पाँच सालों में लगातार टारगेट किया जाता रहा और अब आलम यह है कि देश के सभी बड़े केंद्रीय विश्वविद्यालय अपनी ही सरकार के निशाने पर हैं। आख़िर ऐसा क्या है कि सरकार इन दिनों अपने ही विद्यार्थियों से एक युद्ध छेड़े बैठी है !  

NRC और CAA से इसका कुछ लेना देना तो है लेकिन और भी बहुत सी ज़रूरी बातें हैं। NRC की असफलता असम में हम देख चुके हैं। कैसे करोड़ो रुपए खर्च करके और महीनों तक लोगों को लाइनों में लगवा, जीवन अस्त-व्यस्त करने के बावजूद वह व्यर्थ ही सिद्ध हुआ। उसकी असफलताओं को ढकते हुए CAB लाया गया। CAB पर देश के विद्वान, प्रोफेसर, बुद्धिजीवी, सोशल-एक्टिविस्ट मान चुके कि यह साम्प्रदायिक ही नहीं है बल्कि अपने आप में संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। अभी इसका विरोध हो ही रहा था कि सरकार ने देशव्यापी NRC की घोषणा के साथ नागरिकता संशोधन अधिनियम को पास कर दिया। अब नागरिकों से उनके नागरिक होने का प्रमाण मांगा जाएगा और यह वह सरकार पूछेगी जिसे इन्हीं नागरिकों ने चुना है।

देश में महंगाई, बेरोज़गारी और लगातार गिरती जीडीपी जैसे देश के बेहद ज़रूरी मुद्दों पर ज़रा सी बात अभी शुरु ही हुई थी कि कैब में निहित साम्प्रदायिक भावना के विरुद्ध पूरा देश भड़क उठा। विरोध में यूनिवर्सिटीज़ के शिक्षक और छात्र भी शामिल होने लगे। जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इस विरोध को विशेषरूप से निशाने पर लिया गया। जामिया विश्विद्यालय के छात्रों के साथ पुलिस के बर्बर सुलूक की खबरें पूरे विश्व तक पहुँची। गोलियाँ चलाना, लाठियाँ भांजना, आंसू गैस के गोले दागना, लड़कियों पर हमला, यह सब सरकारी आदेशों पर पुलिस और सेना के जवानों ने किया। जामिया और अलीगढ़ में इस दमन की इंतेहा हो गई जब लाइब्रेरी, बाथरूम, हॉस्टल के कमरों में घुस कर लड़कियों तक के साथ पुलिस ने बदसलूकी की।
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सोमवार, दिल्ली विश्वविद्यालय : पुलिस प्रोटेक्शन में संघी गुंडे!

इसी पुलिसिया कार्रवाई के विरोध में कल देश की लगभग सभी यूनिवर्सिटीज़ के छात्रों ने प्रदर्शन किए। कल, सोमवार, 16 दिसंबर को दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने भी सोशल साइंस बिल्डिंग के बाहर एक शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट किया। वे नारे लगा रहे थे और पुलिस घेर रही थी। उन्हें इतने में ही ख़बर मिलने लगी कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के लड़के लाठियाँ लेकर इन प्रदर्शनकारी छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर मार रहे हैं। वीडियोज़ भी सामने आए। बाकी यूनिवर्सिटीज़ की तरह डीयू के छात्रों के साथ भी बदसलूकी न हो इसके लिए हम कुछ शिक्षक वहाँ पहुँचे। तब तक पुलिस और एबीवीपी के गुण्डानुमा छात्र प्रदर्शनकारी छात्रों को मारते और खदेड़ते हुए आर्ट्स फैकल्टी गेट के बाहर लाकर गेट बंद कर चुके थे। बच्चियों ने रोकर बताया कि उनकी साथी मुस्लिम लड़कियों के हिजाब सर से खींच लिए, बाल नोचे गए और लाठियों से उन्हें पीटा गया। हम पहुँचे तब तक कुछ छात्र गेट के अंदर ही थे। बचने के लिए लाइब्रेरी में घुसे छात्रों को भी एबीवीपी के लड़के-लड़कियों ने मारने की कोशिश की लेकिन तब तक लाइब्रेरी के गेट बंद कर दिए गए।  

हमारे पहुँचने तक भी एबीवीपी के चंद छात्र हाथ में लाठी लिए गद्दारों भारत छोड़ो, वंदे मातरम, भारत हमारा है, वामपंथियों कैम्पस छोड़ो के नारे लगाते रहे और पुलिस और सीआईएसएफ के जवान कोशिश कर रहे थे कि वे मारपीट न करें। मज़ेदार यह है कि जब NSUI के कुछ छात्र प्रदर्शनकारी छात्रों के समर्थन में वहाँ आकर नारे लगाने लगे तो उन्हें पुलिस ने डिटेन कर मौरिस नगर पुलिस थाने भेज दिया। एबीवीपी के छात्रों का हौसला इसी से बढ़ा और उन्होंने फिर से गाते- नारे लगाते-खड़े हुए छात्रों को मारा-पीटा। इतना ही नहीं, उनसे शांत रहने की गुहार लगाते हुए महिला शिक्षकों को एबीवीपी के उन चंद छात्रों ने लगातार भद्दी गालियाँ दीं, पीटने की धमकी दी, बांग्लादेशी घुसपैठिया और पाकिस्तानी बताया। पुलिस चाहती थी कि प्रोटेस्ट करते छात्रों को वहाँ से हटा दिया जाए ताकि यह सब खत्म हो लेकिन इन गुण्डों का आई कार्ड चेक करने को भी तैयार न थी।

मारने को तैयार खड़े एबीवीपी छात्रों से सभ्य भाषा में बातचीत असम्भव देखते हुए प्रोटेस्ट करते छात्र वहाँ से जंतर-मंतर की ओर निकल गए। उन्हें वहाँ से निकलने के लिए बसें पुलिस ने दी। मज़ेदार यह भी है कि एबीवीपी के लोग संख्या में मुश्किल से 15-20 ही थे और प्रोटेस्ट करने वाले लगभग 200, लेकिन पुलिस संरक्षण उन्हें मज़बूत किये हुए था। ‘गद्दारों भारत छोड़ो’ और ‘गोली मारो सालों को’ के नारे लगाते इन कुछ छात्रों का एक ही मुद्दा था कि CAA के खिलाफ़ और जामिया के समर्थन में कोई प्रोटेस्ट या मार्च दिल्ली विश्विद्यालय में नहीं होगा। ऐसा लगा कि पुलिस का काम गुण्डों को रोकना नहीं प्रोटेस्ट होने से रोकना है। जबकि CAA के खिलाफ़ और जामिया के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे छात्र अपने नारों में बार बार पुलिस को याद दिला रहे थे कि जब उनपर वक़ीलो ने हमला किया था तो धरना प्रदर्शन तो उन्होंने भी किया था। क्या नागरिक के तौर पर यहाँ सबके हक़ अलग-अलग हो गए हैं?

जब शांतिपूर्ण विरोध नहीं करने देंगे तो...

इन सब आंदोलनों पर सोचते हुए इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कैसे उग्र प्रदर्शन में तब्दील होते हैं। एक गुट जिसके पास सबको चुप करा देने के अलावा कोई डिमाण्ड ही नहीं है वह किसकी शह पर इतना ओवरपॉवरिंग हो गया कि अपने से दस गुनी ज़्यादा संख्या के प्रदर्शनकारियों को खदेड़ दिया? अगर प्रोटेस्ट करते छात्र ही हिंसक होते तो 15-20 को पीट कर बराबर करना उनके लिए मुश्किल नहीं था। जामिया का शांतिपूर्ण प्रदर्शन कैसे पुलिस के आँसू गैस छोड़ने के बाद अस्त-व्यस्त हुआ और उसमें बाहरी तत्वों के घुसने का स्पेस बना।

इसे कई लोगों ने ट्वीट किया और सोशल मीडिया पर साझा किया है। लगातार वे वीडियो सामने आ रहे हैं जिनमें पुलिस आंसू गैस छोड़ती दिख रही है, तोड़-फोड़ करती दिख रही है, उनके हाथों में प्लास्टिक कैन हैं। क्या इसकी जाँच नहीं होनी चाहिए कि जींस पहने और पुलिस के बीच में लाठी लेकर घुसे हुए गुंडे कौन हैं? सोशल मीडिया पर एक ऐसा ही एक प्रोफाइल वायरल हो रहा है जिसमें कहा जा रहा है कि पुलिस में शामिल जींसधारी एबीवीपी और आर एस एस से जुड़ा हुआ है।

यह कानून-व्यवस्था का कौन सा मॉडल है जहाँ पुलिस यूनिवर्सिटी में घुस-घुस कर छात्रों का उत्पीड़न कर रही है? ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री जी को देखना चाहिए कि इस अपमान और अन्याय से भयभीत होकर कैसे वे लड़कियाँ कैम्पस छोड़ कर अपने उन क़स्बों और गाँवों की ओर घर लौट रही हैं जहाँ से वे सपना लेकर निकली थी कि दिल्ली जाकर पढ़ सकेंगी और उन्मुक्त वातावरण में साँस लेंगी।  

किससे डरती है सरकार?

यह कैसा भय है जनता की आवाज़ से कि कभी इण्डिया गेट पर एक अकेली लड़की तक प्रोटेस्ट का प्लेकार्ड लिए शांति से बैठने नहीं दिया जाता। उसे तब तक तंग किया जाता है जबतक कि दिल्ली महिला कमीशन की अध्यक्ष वहाँ हस्तक्षेप करने नहीं पहुँचती। कभी किसी को संविधान की प्रस्तावना ही पढ़ने के लिए बाहर कर दिया जाता है। फिर प्रधानमंत्री जी के उस कार्यक्रम का क्या मतलब था जिसके तहत साल भर संविधान दिवस को सेलीब्रेट किया जाना था? अगर लोगों को अपने संविधान की रक्षा करने का और उसकी प्रस्तावना का सामूहिक पाठ करने का भी हक़ नहीं तो सरकार किस संविधान को सेलीब्रेट करने की बात कर रही है?

हमें सोचना होगा कि छात्रों के विरोध-प्रदर्शन से सरकार इतना ख़ौफज़दा क्यों है? क्यों विश्वविद्यालयों को छावनियाँ बना दिया गया? क्या सरकार पढ़ने-लिखने वालों से इसलिए डरती है कि वे उनकी नीतियों का विश्लेषण करते हैं और उनपर सवाल खड़ा करते है? सरकार के पास सेना, पुलिस, मीडिया, इंटरनेट चलाने बंद करने सब की ताकत और सुविधा है फिर भी वह निहत्थे छात्रों पर फोर्स इस्तेमाल कर रही है? अपनी ही यूनिवर्सिटीज़ के खिलाफ यह सरकार की कैसी जंग है? क्या यह अघोषित आपातकाल है कि जिसमें किसी को भी पीटा जा सकता है, गिरफ्तार किया जा सकता है, प्रोटेस्ट नहीं हो सकते, विश्विद्यालयों को पुलिस के हवाले करके वीसी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर गायब हो जाते हैं, सूचना और प्रसारण मंत्रालय निजी चैनलों को चिट्ठी भेजता है कि विरोध की खबरें न दिखाई जाएँ ?

कौन फैला रहा है नफ़रत?

ज़ुल्म और सितम हो जाने के बाद आज प्रधानमंत्री जी का ट्वीट आया कि नफ़रत न फैलाएँ लोग। कौन फैला रहा है नफ़रत? सोशल मीडिया पर कुछ लोगों को भरपूर सामग्री मिली है मनोरंजन की। वे जामिया को छोटा पाकिस्तान कहकर पिटते हुए छात्रों को देखकर खुश हो रहे हैं जबकि अधिकांश हिंदू छात्र अपने मुस्लिम, आदिवासी, दलित और उत्तर-पूर्व के दोस्तों के साथ न केवल खड़े हैं बल्कि पिट भी रहे हैं। हाँ, संघी कट्टरपंथियों की तरह कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी भी हैं, कुछ पल के लिए आरएसएस की मंशाओं के अनुरूप इस पूरे आंदोलन को धार्मिक रंग देने की कोशिश भी हुई। लेकिन जल्द ही छात्रों ने इस एजेण्डे को नकार दिया। जामिया में हुई पुलिस बर्बरता पर दुखी छात्रों के साथ देश के बहुत सारे विश्वविद्यालयों के छात्र कंधे से कंधा मिलाकर सरकार के हर ज़ुल्म के खिलाफ खड़े हो गए हैं और विभाजन उन्हें बरदाश्त नहीं।

इसे पढ़ें : जामिया में पुलिस कार्रवाई के खिलाफ लखनऊ, डीयू से लेकर हैदराबाद विवि में छात्रों का प्रदर्शन

कल लगे नारों में एक नारा बार बार गूंज रहा था-कौमी एकता ज़िंदाबाद। एक न्यूज़ चैनल पर जामिया की एक बच्ची को सबने यह कहते सुना- अंकल, मैं तो मुसलमान भी नहीं हूँ लेकिन मैं गुस्सा हूँ क्योंकि मेरे घर, मेरे जामिया में आग लगाई गई है, मेरे दोस्तों को मारा गया है, मेरे साथी रात भर रोए हैं, छिपे रहे हैं। उसका यह कहना कि – शिक्षा हमें मुसीबत में अपने साथियों के साथ खड़ा होना सिखाती है। वही कर रही हूँ।
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लड़कियों का आगे निकल कर आना और नेतृत्व सम्भालना इस आंदोलन की सबसे खूबसूरत चीज़ थी। यूँ भी जब देश की सरकार, फोर्स, मीडिया और संघी तत्व मर्दाना तौर-तरीकों से सब कुछ पर नियंत्रण कर लेना चाहते हों तब निहत्थे छात्रों के बीच से नारे लगाती और मार खाती लेकिन डटी रहने वाली लड़कियाँ, देश भर के वे सारे छात्र जो अपने साथियों के दर्द में शामिल हैं, साथ-साथ अन्याय से लड़ना सीख रहे हैं वे ही हमारे समाज की आस हैं।  
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यह हुक्मरानों को इस पीढी का संदेश है और आश्वस्ति है हमारे लिए कि संविधान की जो प्रस्तावना कल इण्डिया गेट पर हज़ारों की संख्या में लोगों ने पढ़ी है उसकी रक्षा के लिए हम आखिरी दम तक लड़ेंगे। आप इंटरनेट बंद करें या इतना धीमा कि लाइव न किया जा सके तब भी हम एक हैं। हम नफ़रत के एजेण्डे को अब चलने नहीं देंगे।

जब यह देशव्यापी विरोध दिख रहा है तो अपनी ही जनता से युद्ध शुरू करने की जगह सुप्रीम कोर्ट को बिना देर किए CAA पर याचिकाओं की सुनवाई शुरु करनी चाहिए। जामिया और अलीगढ यूनिवर्सिटी में हुई पुलिस की हिंसा के लिए तुरंत जाँच समितियाँ बनाई जानी चाहिए। यूनिवर्सिटीज़ से फोर्स को तत्काल हटाने का आदेश देना चाहिए। तमाम वाइस चांसलर और चांसलर यानी राष्ट्रपति उचित तरीकों से सम्वाद करें। शिक्षकों-छात्रों को दर-बदर कर देंगे, छात्रों का भविष्य बर्बाद करेंगे तो देश का भी भविष्य सुरक्षित नहीं रहेगा। इन गम्भीर हालात पर विपक्षी दलों को तत्काल मीटिंग करते हुए एक लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम किए जाने की मांग करनी चाहिए। ये भारत के छात्र हैं, इन्हें संरक्षण और भरोसा चाहिए। इनपर वार करके इन्हें विद्रोही बनाना मूर्खता होगी।  

(सुजाता एक कवि और दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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