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कोविड-19 लॉकडाउन: भारत में मज़दूरों को अब तक मुआवज़ा क्यों नहीं? 

मज़दूरों के लिए ट्रेड यूनियनों की नकदी-हस्तांतरण की मांग न केवल कामकाजी तबके की बड़ी आबादी को राहत देगी, बल्कि इससे विकास को पुनर्जीवित करने, रोज़गार को बढ़ावा देने और सरकारी ख़ज़ाने के प्रबंधन में मदद भी मिलेगी।' 
भारत में मजदूरों को अब तक मुआवज़ा क्यों नहीं? 

भारत में ट्रेड यूनियनें प्रत्यक्ष आयकर अदा करने वालों के अलावा सभी मजदूरों के परिवारों को 7,500 रुपये प्रति माह अनुग्रहपूर्वक नकद हस्तांतरण की मांग कर रही हैं, क्योंकि देश में महीनों से उनकी आय बंद पड़ी है और इसके लिए इतना मुआवजा तो बनता है। सरकार को इस अत्यंत महत्वपूर्ण मांग पर अपना जवाब देना बाकी है क्योंकि कोविड-19 के चलते जो लॉकडाउन हुआ उससे सरकारी खजाने में भारी राजस्व की कमी हुई है।

लोकतंत्र में अनुग्रहपूर्वक नकद-हस्तांतरण की मांग पूरी तरह से जायज है क्योंकि सरकार ने ही लॉकडाउन लगाया था जिसकी वजह से गरीब श्रमिकों की आय का भारी नुकसान हुआ था। इसलिए कम से कम तीन महीनों के लिए इस मुवावजे यानि नकद-हस्तांतरण के भुगतान की वित्तीय लागत लगभग 10 लाख करोड़ रुपये होगी या कहिए कि भारत के 2019-10 के सकल घरेलू उत्पाद का पांच प्रतिशत के करीब होगी। यह एक जरूरी दुविधा है।

वर्ष 2018-19 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के डेटा से पता चलता है कि हमारे कार्यबल का आधे से अधिक हिस्सा (यानि करीब 52 प्रतिशत) स्व-नियोजित है। शेष, जो कार्यरत हैं उनमें नियमित वेतनभोगी/वेतन कर्मचारी (24 प्रतिशत) हैं और आकस्मिक मजदूर (24 प्रतिशत) हैं। इन तीन श्रेणियों के ग्रामीण, शहरी, पुरुष, महिला श्रमिकों की अंदाजन औसत मासिक आय 2019 के अप्रैल, मई और जून के महीनों के दौरान क्रमशः 10,648 रुपये, 16,196 रुपये और 7,566 रुपये थी।

इसलिए, अगर मजदूरों को इस साल के अप्रैल से जून माह के बीच के महीनों की हानि का मुआवजा दिया जाना है, तो भी आकस्मिक मजदूरों की औसत मजदूरी दरों के अनुसार, यह मुवावजा कम से कम 7,500 रुपये प्रति माह होना चाहिए। वास्तव में, अधिकांश श्रमिक, विशेषकर असंगठित क्षेत्रों के मजदूर, लॉकडाउन के कारण छह महीने से अधिक समय से अपनी नौकरी खोए बैठे हैं।

स्रोत: पीएलएफएस रिपोर्ट 2018-19.

नोट: अप्रैल-जून 2019 के दौरान मासिक आय

जहां तक न्यूनतम वेतन मानदंड का संबंध है, मुख्य श्रमआयुक्त (केंद्र), श्रम और रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार ने 12 अक्टूबर, 2020 को एक कार्यकारी आदेश जारी किया था। इस आदेश के अनुसार, अकुशल श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति दिन कम से कम 368 रुपये (कृषि क्षेत्र के लिए) होगी और शहरी भारत में औद्योगिक श्रमिकों के लिए यह प्रति दिन 427 रुपये तय होगी। 

यदि एक महीने में मजदूर 25 कार्य दिवस में काम करता हैं, तो ये क्रमशः 9,200 रुपये और 10,675 रुपये प्रति माह के बराबर बैठेगी। अगर सरकार अपने न्यूनतम वेतन मानदण्डों के अनुसार भी मुआवजा देना चाहती है, तो भी उसे प्रतिमाह लगभग दस हजार रुपये प्रति श्रमिक भुगतान करना पड़ेगा। यदि हम मुफ्त दिए जा रहे भोजन-अनाज की कीमत की कटौती करते हैं, जिसे प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (चार सदस्यों के एक परिवार के लिए) के नाम वितरित किया गया है, तो भी ग्रामीण इलाकों में मुआवजा कम से कम 8,500 रुपये और शहरी भारत में 9,800 रुपये प्रति माह बैठेगा। वास्तव में ट्रेड यूनियन की 7,500 रुपये प्रति माह की माँग इससे कम है।

जहां तक ​​केंद्र सरकार के खजाने की स्थिति का सवाल है, वह वास्तव में खराब स्थिति में है। भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के लेखा महानियंत्रक के अनुसार, पिछले वित्तीय वर्ष 2019-20 की पहली छमाही के भीतर 42 प्रतिशत वार्षिक राजस्व प्राप्तियां हुईं हैं। इसकी तुलना में, अप्रैल से सितंबर, 2020 तक पहले छह महीनों के भीतर चालू वित्त वर्ष में केवल 27 प्रतिशत राजस्व ही उठाया जा सका। जबकि पिछले वर्ष की पहली छमाही के दौरान कुल व्यय 53 प्रतिशत किया गया था, और इस साल लगभग 49 प्रतिशत खर्च किया गया है। हालांकि, राजस्व की भारी कमी के कारण, चालू वित्त वर्ष 2020-21 के पहले 6 महीनों के भीतर राजकोषीय घाटा पहले से ही 115 प्रतिशत (पूरे वर्ष के बजट में) हो गया था। हालांकि, यह न केवल भारत के मामले में  बल्कि पूरे विश्व के लिए एक असाधारण महामारी वर्ष है। अधिक या बढ़ते राजकोषीय घाटे के डर से, सरकार नकद हस्तांतरण की जरूरत को महसूस करने के बावजूद कि यह जमीनी स्तर पर इसके कार्यान्वयन से र्थ्व्यवस्था को उठाने में मदद मिलेगी योजना की घोषणा करने में आत्मविश्वास महसूस नहीं कर पार रही है।

हमने जमीनी हकीकत को समझने के लिए लॉकडाउन के बाद भारत के 13 राज्यों (और गोवा में एक प्राथमिक सर्वेक्षण) में श्रमिकों के बीच एक टेलीफोनिक सर्वेक्षण किया है। जिससे यह स्पष्ट हुआ कि लॉकडाउन की वजह से आधे से अधिक परिवार बहुत अधिक कर्जदार हो गए थे क्योंकि लॉकडाउन से उनकी आय बुरी तरह से प्रभावित हुई है, लेकिन सामान्य रूप से खर्च में कम नहीं हुआ। 

बाकी घरवाले किसी तरह अपनी बचत से हालत का सामना कर सके, हालाँकि, उनमें से कई की बचत लगभग पूरी तरह से समाप्त हो गई थी। उनमें से अधिकांश लोग कुछ नकद हस्तांतरण की मांग कर रहे हैं और उनमें से अधिकांश की राय है कि लॉकडाउन भारत में अधिक हानिकारक और कम फायदेमंद रहा है। सरकार को कम से कम देश में गरीब श्रमिकों की पीड़ा को स्वीकार करना चाहिए क्योंकि लॉकडाउन के कारण छह महीने से अधिक समय तक गंभीर रूप से आय में हानि के परिणामस्वरूप उनका कर्ज़ तो बढ़ा है साथ ही बचत में भी पर्याप्त सेंघ लगी है।

सरकार के पास दो विकल्प हैं- या तो वह इस मंदी के हालात में कम से कम तीन महीने तक हर परिवार (जो आयकर नहीं भरते) को 7,500 रुपये प्रति माह का नकद हस्तांतरण करके श्रमिकों और खेतिहर मजदूरों को कुछ राहत प्रदान करे या फिर राजकोषीय जिम्मेदारी के तहत देश के बजट प्रबंधन (FRBM) मानदंड से अपने वित्तीय घाटे को सीमित करे। यदि सरकार आवश्यक नकद-हस्तांतरण करती है और राजकोषीय घाटे को बढ़ाती है और केंद्रीय बैंक (आरबीआई) से उधार लेकर इसे वित्तपोषित करती है, तो अर्थव्यवस्था को तेजी से रिकवरी करने में मदद मिलेगी। जैसे-जैसे नकद-हस्तांतरण होगा वैसे-वैसे कुल मांग में वृद्धि होगी और सरकारी राजस्व की भी प्राप्ति होगी। रोजगार में वृद्धि होगी और जीडीपी बढ़ेगी, और इसके परिणामस्वरूप जीडीपी अनुपात में राजकोषीय घाटा निकट भविष्य में अपने आप कम हो जाएगा।

इसलिए, नकद-हस्तांतरण के लिए ट्रेड यूनियन की मांग न केवल कामगार वर्ग की बड़ी आबादी को राहत प्रदान करेगी, बल्कि इससे विकास को पुनर्जीवित करने, रोजगार के स्तर को बढ़ाने और सरकारी खजाने के प्रबंधन में भी मदद मिलेगी। यह अर्थव्यवस्था में जरूरी मांग को बढ़ाएगा और राजकोषीय प्रोत्साहन का काम करेगा। सरकार लगभग 45 करोड़ भारतीय कामगारों की क्रय शक्ति को बढ़ाने के लिए आम लोगों को कर्ज़ (कम से कम आंशिक रूप से) देने और अपने स्वयं के केंद्रीय बैंक से कर्ज़ लेने की अर्ज़ी दे सकती है। अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तो अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने और बेरोजगारी की दर को नियंत्रण करने में काफी लंबा समय लगेगा और आम जनता को इसका भारी नुकसान होगा। लोगों की कम आय, कम क्रय शक्ति और कम लाभ के परिणामस्वरूप राजस्व में कमी आएगी स्थिति ओर खराब होगी। इसके चलते  जीडीपी की वृद्धि दर कम या नकारात्मक रहेगी और भविष्य में जीडीपी के अनुपात में राजकोषीय घाटा और बढ़ेगा। इसलिए, व्यापक आर्थिक नीति के दृष्टिकोण से देखें तो इस संकट से जूझने के लिए एक विस्तारवादी राजकोषीय रुख की रणनीति हमेशा बेहतर होती है।

भारतीय रिज़र्व बैंक का विदेशी मुद्रा भंडार 6 नवंबर, 2020 तक 42 लाख करोड़ रुपये या जीडीपी (2019-20 का) का लगभग 21 प्रतिशत से अधिक है। इसलिए, आरबीआई जीडीपी का पांच प्रतिशत उधार देने की आरामदायक स्थिति में है जो अर्थव्यवस्था के जरूरी मांग-पक्ष को बढ़ाएगा और मजदूर वर्ग की आबादी के विशाल बहुमत को कुछ राहत प्रदान करेगा (अपेक्षाकृत रूप से प्रत्यक्ष कर वाले समूह को छोड़कर)। 

केंद्रीय बैंक से उधार लेने से मांग में आई भारी कमी के कारण मांग की मुद्रास्फीति नहीं बढ़ेगी।  लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को अपने ही देश की मजदूर यूनियनों की मांगों का जल्द से जल्द जवाब देना चाहिए। सरकार को कम से कम इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि देश में मजदूर वर्ग की आबादी की आय में लॉकडाउन से आई कमी को पूरा करने के लिए उनका मुआवजा देना बनता है।

लेखक, सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने  के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

COVID-19 Lockdown: Why Compensation to Workers is Overdue in India

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