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नागरिकता विधेयक : एक विचारहीन और ख़तरनाक क़दम

असम और उसके बाहर, समावेशी भारतीय नागरिकता सांप्रदायिक विचारों की वजह से ख़तरे में है।
citizenship bill
Image Courtesy: sentinelassam

पिछले पांच वर्षों से, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) भारतीय संविधान को उलटने के लिए क़ानूनी उपायों का इस्तेमाल कर रही है। वर्तमान में नागरिकता संशोधन विधेयक या सिटिज़नशिप अमेंडमेंट बिल(सीएबी) का मुद्दा है, जिसे उसने अपने दोहरे उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उठाया है।

विधेयक में इस विभाजनकारी मुद्दे को बड़ी गर्मज़ोशी के साथ उठाया गया है, जिसके ज़रीये तय किया जाएगा कि क़ानूनी रूप से भारतीय नागरिक कौन है। सत्तारूढ़ भाजपा इस मुद्दे के ज़रीये उसके प्रति अभिभूत भक्तों को जुटाने का अवसर देख रही है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नागरिकता की बहस उसे चुनावी लाभांश देगी, इसलिए वह अपने समर्थकों को आधार प्रदान करने के लिए और मज़बूत करने के लिए इस मुद्दे को हवा दे देगी। इस विधेयक का रोड़ा हमारे संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र है जिसे पिछली सभी सरकारों ने यहां तक कि भगवा सरकारों ने भी गले से लगाया हुआ था।

पिछली बार सीएबी को संसद में 2016 में पेश किया गया था। यह 2018 में कानून बन कर आ गया है। उस समय यानी 2016 में इसने प्रस्तावित किया था (जैसा कि विधेयक की प्रस्तावना कहती है) कि इस्लाम को छोड़कर सभी धर्मों के पड़ोसी देश के धार्मिक शरणार्थी को न केवल राजनीतिक शरण मिलेगी बल्कि उन्हें भारत की नागरिकता भी दी जाएगी। इसने सताए गए मुसलमानों को छोड़ने का कोई कारण पेश नहीं किया- ज़ाहिर है उनके पास इसके लिए कोई भी संवैधानिक मान्य तर्क नहीं है।

इसके अलावा भारत में प्रवेश पाने के लिए आवेदन शुल्क को न्यूनतम स्तर पर लाकर 100 रुपये कर दिया गया और एक नागरिक के रूप में मान्यता हासिल करने के लिए आवश्यक निवास की अवधि को 11 से घटाकर छह वर्ष कर दिया गया।

इस विधेयक के क़ानून के रूप में पारित होने से पहले ही, केंद्र सरकार ने राजस्थान, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के ज़िला कलेक्टरों को पत्र लिखे कि केंद्र सरकार विदेशी अधिनियम 1946 और भारतीय पासपोर्ट अधिनियम 1956 के तहत नियमों को संशोधित करने जा रही है।

इन संशोधनों के माध्यम से, बीजेपी सरकार ग़ैर-मुस्लिम प्रवासियों को उनके पूर्वजों के बारे में या उनके रहने की अवधि के बारे में दस्तावेज़ पेश करने की आवश्यकता से बाहर रखना चाहती है। इस प्रकार, शुरू से ही, सत्ता में बैठी सरकार के हित को ध्यान में रखते हुए पहले से मौजूद क़ानून को दरकिनार करने का प्रयास किया गया था।

धार्मिक रूप से सताए जाने को आधार बनाकर और इस आकस्मिक तरीक़े से नागरिकता देने के तरीक़े से शरणार्थियों की पिछली पीढ़ियों के बीच एक सहानुभूति पैदा हो गई है, जिसने विभाजन के वक़्त फैली हिंसा को भुगता था। लेकिन यह बात निश्चित नहीं है कि ऐसे नए लोग, ख़ासकर उत्तर पूर्व में, धार्मिक रूप से सताए हुए हैं। सीमा पार एक बड़ा हिस्सा बेहतर संभावनाओं की तलाश में बांग्लादेश से यहाँ आया था। नॉर्थ ईस्ट बांग्लादेश के ऐसे प्रवासियों के लिए पसंदीदा स्थान है, क्योंकि असम में काफ़ी संख्या में बंगालियों की उपस्थिती है और वहाँ के वातावरण ने उनके आने को आरामदायक बनाया है।

ऐसा कहा जाता है कि सीएबी एक विचारहीन और ख़तरनाक क़दम है। हाल ही के दशकों के विपरीत, बांग्लादेश की स्थापना के बाद, आज के बांग्लादेश में एक ऐसी सरकार का शासन है जिसने धार्मिक कट्टरता के ख़तरों को झेला है और उससे काफ़ी कुछ सीखा है।

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना काफ़ी सक्रिय रूप से हिंदू मतदाताओं के बीच रहती हैं और वे उनके हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध भी हैं। अगर हिंदुओं ने उन्हें बीच मझदार में छोड़ दिया और पूरी तादाद देश से चली जाती है तो यह न केवल देश की राजनीति के लिए ख़तरनाक होगा बल्कि लोगों पर उनकी पकड़ को कमज़ोर कर देगा, और देश को पीछे की तरफ़ ले जाएगा, जो कट्टर इस्लामी राजनीति को बढ़ावा देगा और सीमा के दोनों ओर सांप्रदायिक उन्माद को भी बढ़ावा देगा।

पहले ही, बांग्लादेश के कई प्रमुख हिंदू नेताओं ने भारत सरकार की पहल की निंदा की है। उन्हें डर है कि भारत सरकार का यह क़दम नरसंहार की हिंसा का कारण बन सकता है।

असम और उत्तर पूर्व की भारतीय सीमा के भीतर,बिना किसी अपवाद के सभी स्वदेशी जातीय समूह, इस विधेयक की वजह से काफ़ी चिंतित हैं। केंद्र द्वारा सुखदायक शब्दों के इस्तेमाल के बावजूद, वे इसका विरोध करने के लिए दृढ़ हैं। क्षेत्र के देशज लोग पहले से ही अपने राजनीतिक और सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए इसे ख़तरा मान रहे हैं। उनके भीतर जो भेद्यता की भावना है उनके नागरिकता के विचार के मामले में वह पहले ही नाज़ुक है। यहां तक कि सबसे पहले की अवधि के दौरान बसने वाले बंगाली समुदाय को गहरी ग़लतफ़हमी है कि सीएबी उनकी नागरिकता को जोखिम में डाल देगी।

यह कहने की ज़रूरत नहीं कि स्थिति ने सभी प्रकार के जघन्य रूढ़िवाद विचार के लिए एक उपजाऊ ज़मीन तैयार कर दी है, जो आसानी से भगवा हाथों हेरफेर का मामला बन सकता है।

असम में, सीएबी के विशिष्ट और अजीबोग़रीब नतीजे होंगे। राज्य के लोगों को यह बात खुले तौर पर पता है कि इस विधेयक को उन सभी हिंदुओं को समायोजित करने के लिए लाया गया है जो राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर या एनआरसी से बाहर हो गए थे, एक अभ्यास (एनआरसी) जिसे हाल ही में असम में संपन्न किया गया था।

भाजपा नेता हिमंता बिस्वा सरमा ने संसद में गृह मंत्री अमित शाह द्वारा दिए गए बयान की फिर से प्रेस के ज़रीये पुष्टि की है कि असम में एनआरसी की प्रक्रिया को 1971 को आधार वर्ष को हटा दिया जाएगा और फिर दोबारा इस प्रक्रिया को चलाया जाएगा, साथ ही एक नई प्रस्तावित एनआरसी जिसका 1951 संभावित आधार वर्ष होगा।

सरमा ने कहा कि कि अच्छे कारणों के लिए उन्होंने असम सरकार की वर्तमान एनआरसी का हमेशा से पुरज़ोर विरोध किया था, और अब नई एनआरसी ख़ुद के दिल से निकली हुई होगी।

जबकि तथ्य यह है कि लंबे तीन वर्षों तक भाजपा ने एनआरसी का काफी समर्थन किया था। इसने उम्मीद जताई थी कि 2018 के अंत तक, एनआरसी प्रक्रियाओं के समाप्त होने से ठीक पहले, चार मिलियन (40 लाख) लोग अंतिम मसौदे से बाहर हो जाएंगे। अफ़वाहें उड़ रही थीं कि बहिष्कृत लोगों में अधिकांश मुस्लिम होंगे। जबकि इस साल अगस्त में पाया गया कि जो अंतिम संशोधित संस्करण जारी किया गया है उसमें जो 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर हुए हैं उनमें से 10 लाख हिंदू हैं।

लिहाज़ा असम सरकार का एनआरसी पर उत्साह ख़त्म हो गया और वह एनआरसी प्रक्रिया पर संदेह करने लगी। वैसे, ऐसे कई समूह हैं जिन्होंने 1971 को कट-ऑफ़ ईयर के रूप में उपयोग करने के लिए एनआरसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को राजी किया था, अब वे रो रहे हैं कि अभी-अभी संपन्न एनआरसी को स्वांग या झूठा बताया जा रहा है। उनकी तो पहले से मांग रही है कि नईएनआरसी का कट-ऑफ़ ईयर 1951 को रखा जाए।

असम में एनआरसी की मांग विशिष्ट परिस्थितियों से उत्पन्न हुई थी। लेकिन देश में कहीं अन्य जगह इस तरह की मांग कभी नहीं हुई। अब एक राष्ट्रव्यापी एनआरसी के प्रस्ताव के साथ भाजपा सरकार बमुश्किल-छिपी सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के साथ इस तरह की मांग को प्रोत्साहित कर रही है और इसका इस्तेमाल लोगों को विभाजित करने के लिए कर रही है।

बीजेपी अब जो कर रही है उसका सांप्रदायिक संदेश काफ़ी स्पष्ट है। नागरिकता प्रदान करने के लिए अब 11 साल के बजाय वह छह साल की प्रतीक्षा अवधि कर रही है और जो अपने आप में संकुचित है और व्यर्थ भी, क्योंकि ज़िला कलेक्टरों को पहले से ही निर्देश दे दिया गया है कि वे अप्रवासियों के आने वाले दस्तावेज़ों पर ज़्यादा ज़ोर न दें। दिसंबर 2014 को आखिरी तारीख़ तय करने का भी कोई मतलब नहीं है। यह वास्तव में, बांग्लादेश के सभी हिंदुओं को असम में आने के लिए एक खुला निमंत्रण है।

भाजपा की असम सरकार के लिए माने जा रहे कलंक यानी एनआरसी समन्वयक, प्रतीक हजेला को अपना पद छोड़ने के लिए तैयार किया गया और उन्हें दूर नागपुर में भेज दिया गया। ज़ाहिर है, ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने उनकी ख़ुद की अपील पर किया था, जो अब परिचित सील कवर में बंद है।

ग़ौरतलब है कि, हजेला को उनके अधीन काम करने वाले कर्मचारियों ने काफ़ी गर्मजोशी के साथ विदा किया। जाने से पहले उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि उनके तहत की गई गणना ही वास्तविक नागरिकों की संख्या का अंतिम और सही आंकड़ा होगी।

संयोग से, एनआरसी से बाहर किए गए 19 लाख लोगों में से 9 लाख लोग सूची में स्थान इसलिए नहीं पा सके क्योंकि पश्चिम बंगाल और बिहार में सरकारी एजेंसियों को बार-बार याद दिलाने के बावजूद उन्होंने उन दस्तावेज़ों की पुष्टि नहीं की जिन्हें एनआरसी के सामने प्रस्तुत किया गया था। (यह हजेला का फ़र्ज़ी दस्तावेज़ों से वास्तविक दस्तावेज़ को आँकने का सरल तरीक़ा था।)

अब राज्य में एक उल्लेखनीय और उसी वातावरण की अगली कड़ी सामने आ रही है। हजेला की जगह लेने वाले 1989 बैच के आईएएस अधिकारी हितेश देव सरमा ने कथित तौर पर एक फेसबुक पोस्ट में अपने पूर्ववर्ती को "भ्रष्ट और अक्षम" बताया है। सरमा ने एनआरसी में पांच से छह मिलियन या 50-60 लाख [मुस्लिम] नामों के साथ धोखाधड़ी करने का आरोप हजेला पर लगाया है। इस घोटाले ने हीसरकार को उनकी नियुक्ति को स्थगित करने के लिए मजबूर किया। इस बहाने सरमा एक महीने की छुट्टी पर है। लेकिन अब सरकार ने संसद में गृह मंत्री द्वारा दिए बयान के पक्ष में बोलते हुए, फिर से इस पर ज़ोर दिया। यह आसानी से सभी जिम्मेदारी को छोड़ते हुए और असम में अभी सम्पन्न हुई एनआरसी को फिर से हवा दे सकता है।

यह स्पष्ट है कि सीएबी के विरोधी जिस धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का बचाव कर रहे हैं, वह सत्तारूढ़ पार्टी के लिए थोड़ी भी चिंता का विषय नहीं है, जो एनआरसी का उपयोग अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए करना चाहते हैं। जब उन्हें यह दिखाई दे रहा है कि चीज़ें उनके रास्ते पर नहीं जा रही हैं, तो सत्ता पक्ष ने सीएबी को एक पलटवार के रूप में सोचा; और शायद वास्तव में एक निर्णायक कारक के रूप में।

लेखक समाजशास्त्रीय और साहित्यिक आलोचक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Citizenship Bill -- A Thoughtless, Dangerous Business

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