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बिहार की लड़ाकू महिलाओं को बनाओ जम्हूरियत की ताकत

यह सामान्य सी बात है कि सामंती जकड़नों से बाहर आने और यथास्थिति बदलने के लिए बिहार में दो तबके अधिक व्याकुल हैं- एक तो महिलाएं, जिनका जीवन अपराध, हिंसा और जातीय दमन के चलते तबाह हो रहा था, और दूसरे नौजवान, जो रोजगार के लिए परेशान होकर दूसरे प्रान्तों की ओर पलायन कर रहे हैं।
बिहार की लड़ाकू महिलाओं को बनाओ जम्हूरियत की ताकत
फाइल फोटो। केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार: live mint

महामारी, बाढ़ और बेरोजगारी के इस दौर में बिहार का चुनावी माहौल गरमाया हुआ है। महिला वोटरों को लुभाने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हर संभव प्रयास में जुटे हुए हैं; शायद यह उनकी मजबूरी भी है, क्योंकि बिहार की 47 प्रतिशत वोटर महिलाएं हैं और वे मुखर और सक्रिय भी हो गई हैं। इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि जिला पंचायतों और नगर निकायों तथा उनके शीर्ष पदों में महिला आरक्षण 13-15 वर्षों से लागू है, इसलिए राजनीतिक रूप से सचेत और नई आकांक्षाओं से परिपूर्ण महिलाओं की एक फौज तैयार हो गई है।

जिस भी गणित के आधार पर नीतीश कुमार ने 2005 से देश में सबसे पहले पंचायती राज व्यवस्था में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण लागू किया हो, उनको इसका पूरा लाभ 2010 और 2015 में मिला। पहले कुछ लोगों को लगा था कि यह ‘बीवी ब्रिगेड’ के अलावा कुछ नहीं होगा। पर समय के साथ इन महिला जन प्रतिनिधियों का एक बड़ा हिस्सा निर्णायक बन रहा है। घूंघट में रहने वाली, डेहरी न डांकने वाली महिला भी घर के बाहर निकल पड़ी और सामंती-पितृसत्तात्मक बंधनों को तोड़ने लगी। यही कारण है कि 2010 में और पिछले विधान सभा चुनाव में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अधिक संख्या में अपने मताधिकार का प्रयोग करने निकली थीं। जबकि 54.07 प्रतिशत पुरुषों ने वोट डाले थे, 59.92 प्रतिशत महिलाओं ने मताधिकार का प्रयोग किया था।

बाद में सरकार को प्राथमिक स्तर के कॉन्ट्रैक्ट टीचरों की नियुक्ति में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देना पड़ा और राज्य की सरकारी नौकरियों में भी 35 प्रतिशत आरक्षण लागू किया गया। नीतीश बाबू ने इन कदमों के लिए और स्कूली लड़कियों के लिए मुफ्त साइकिल व स्कूल-यूनिफार्म योजनाओं के लिए काफी वाहवाही लूटी और एक नया वोटबैंक तैयार कर लिया।

इसके बाद 2016 में एक समारोह में जब महिलाओं ने शराब-बिक्री पर रोक लगाने के लिए मुख्यमंत्री से मांग की, तो उन्होंने तुरंत वायदा किया कि शराब पर प्रतिबंध लगेगा, पर महिलाओं को उल्लंघन करने वालों पर कड़ी निगरानी रखनी होगी। पर हेल्पलाइन नंबर देकर इन औरतों को अपने घर में चैकीदार बना दिया गया और हज़ारों की संख्या में गरीब या साधारण परिवार के अकेले कमाने वाले जेल पहुंच गए और अब तक उन्हें रिहाई नहीं मिली।

क्या नीतीश बाबू बन रहे थे महिलाओं के मसीहा? क्या पदलोलुप नेता, गांधी और जेपी, क्या सामाजिक न्याय का उसूल और दक्षिणपंथी राजनीतिक अवसरवाद एकसाथ चल सकते हैं? इस बार के चुनाव में यह परखने की बात होगी।

बिहार में क्या पूर्ण मद-निषेध की रणनीति सफल रही? जहां तक इंडियन-मेड फॉरेन लिकर की बात है, तो उसे बाद में प्रतिबंधित किया गया और वह आज भी अधिकारियों, राजनेताओं और पुलिस अफसरों के घरों तक चोरी से पहंच जाता है। हाल तक बिहार के डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पाण्डेय ने सही कहा कि बिना पुलिस की जानकारी के राज्य में शराब बिक ही नहीं सकती। तो बिहार में अवैध शराब का धंधा धड़ल्ले से चल रहा है और वह भी पुलिस-प्रशासन की मदद से! यह एक वैकल्पिक व्यवस्था है जो समाज में अलग किस्म की हिंसा को जन्म दे रहा है। अब बिहार राजनीतिक हत्याओं में भी नम्बर दो पर है और पुलिस रिकार्ड के अनुसार 2016 की अपेक्षा पिछले साल बलात्कार में 44 प्रतिशत वद्धि हुई है।

यह भी सर्वविदित है कि शराब पर प्रतिबंध ने नई समस्याओं को जन्म दिया है। शराब की समानांतर अर्थव्यवस्था राज्य में धड़ल्ले से चालू है। सरकारी आंकड़े बोल रहे हैं कि प्रतिबन्ध के चलते बिहार सरकार को प्रतिवर्ष 4000 करोड़ का घाटा लग रहा है, पर दूसरी ओर शराब माफिया की अवैध शराब-बिक्री से जबरदस्त कमाई हो रही है और बिहार के पड़ोसी राज्यों को शराब से अधिक राजस्व प्राप्त हो रहा है। अध्ययन से पता चला है कि उसी दौर में जब बिहार में सबसे अधिक सख्ती रही, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में शराब से राजस्व तेजी से बढ़ा। 2016 में गोपालगंज जिले में 16 लोग नकली शराब पीकर जब मरे तब पता चला कि शराबबंदी के और भी क्या-क्या खतरे हैं।

यह सामान्य सी बात है कि सामंती जकड़नों से बाहर आने और यथास्थिति बदलने के लिए बिहार में दो तबके अधिक व्याकुल हैं- एक तो महिलाएं, जिनका जीवन अपराध, हिंसा और जातीय दमन के चलते तबाह हो रहा था, और दूसरे नौजवान, जो रोजगार के लिए परेशान होकर दूसरे प्रान्तों की ओर पलायन कर रहे हैं। आज इन्हें महामारी के चलते लाखों की संख्या में लौटना पड़ा है। पर रोजगार के सवाल और कृषि विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय कुछ कर पाना नीतीश जी के बस के बाहर रहा, क्योंकि भले ही नीतीश अपने को लोहिया और जेपी के शिष्य कहें, उन्होंने अंत में दक्षिणपंथी ताकतों के साथ हाथ मिलाकर बिहार के लोकतंत्र-पसंद जनता को धोखा दिया है। सीएमआईई के सर्वे के अनुसार आज बिहार में बेरोजगारी 46.6 प्रतिशत है।

अब सवाल है कि जिन महिलाओं के लिए कुछ सुधार कार्य के बल पर नीतीश कुमार ने अपने वोट बैंक को सुदृढ़ किया था, क्या वर्तमान समय में वे उनका विश्वास जीत सकेंगे?

हमें याद है कि 2015 में जब नीतीश महागठबंधन में थे, जद-यू की दस महिला प्रत्याशियों में से 9 को सफलता मिली थी, जबकि राजद की दसों महिला प्रत्याशी जीती थीं। कांग्रेस ने 5 महिलाओं को टिकट दिया था, जिनमें 4 जीतकर आईं। यह एक उपलब्धि थी। दूसरी ओर भाजपा की 14 महिलाओं में केवल 4 विजयी हुई थीं। आज सवाल उठता है कि सबकुछ करने के बावजूद टाइम्स नाउ सर्वे बता रहा है कि 87 प्रतिशत बिहारी नीतीश कुमार के ‘सुशासन’ से खुश नहीं हैं, ऐसे में 2020 के असेम्ब्ली चुनाव में नीतीश महिलाओं का कितना समर्थन हासिल कर पाएंगे इसपर सबकी नज़र है। बहरहाल, चुनाव की पूर्वबेला में, नीतीश ने घोषणा कर दी है कि उनकी सरकार महिलाओं के उत्थान व सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध है, तो 12वीं कक्षा पास करने वाली हर लड़की को सरकार द्वारा 25,000 रुपये और ग्रेजुएट होने वाली हर लड़की को 50,000 रुपये अनुदान दिया जाएगा। इसे सस्ते ‘पॉपुलिज़्म’ के अलावा क्या कहा जाए?

सोचने की बात है कि आज बिहार असेम्ब्ली में महिलाएं केवल 12 प्रतिशत क्यों रह गई हैं? जबकि राज्य के कई जिलों में महिला वोटरों की संख्या बढ़ी है। मुज़फ्फरपुर, पूर्वी और पश्चिमी चम्पारण, सीतामढ़ी, दरबंघा, वैशाली और समस्तीपुर जैसे जिलों में 30-40 हज़ार की संख्या में महिला वोटर बढ़े हैं। इसमें ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत काम कर रहे स्वयं सहायता समूहों का बड़ा योगदान रहा है। ये जाहिर है महिला वोटर उन प्रत्याशियों को पसंद करेंगी जो उनके मुद्दों को प्राथमिकता देंगे।

इस बार नीतीश कुमार ने मुज़फ्फरपुर बालिका गृह कांड की वजह से भारी बदनामी झेली है। केवल बिहार नहीं, पूरे देश में इस घटना की गूंज सुनाई दी और महिला संगठनों ने देश भर में प्रतिवाद किया था। इसके बावजूद अपने पति के मुख्य अभियुक्त ब्रजेश ठाकुर से नज़दीकी संबंध और घर में अवैध असलहे रखने के कारण निष्कासित व जेल काटी हुईं समाज पूर्व कल्याण मंत्री मंजू वर्मा को नीतीश ने पार्टी टिकट दिया। आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस के अलावा इसे किसी दल या उसके महिला संगठन ने प्रमुख मुद्दा नहीं बनाया, जबकि यह आधी आबादी की सुरक्षा से जुड़ा सवाल है। जद-यू ने 115 सीटों में से 22 महिलाओं को टिकट दिये हैं। पर चर्चा है कि कई अपराधी चेहरों को हटाकर ‘क्लीन’ छवि पेश करने के लिये उनके घरों की महिलाओं को मैदान में उतारा गया है। यह इसलिए कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशनुसार चुनाव आयोग का फरमान है कि प्रत्याशियों पर अपराधिक मुकदमों को टिकट देने के बाद टीवी और अखबारों में 3 बार प्रचारित करते हुए दल को उन्हें लड़ाने का कारण भी स्पष्ट करना होगा।

जद-यू के बाहुबलियों और गैंगस्टरों में मनोरंजन सिंह की पत्नी सीता देवी संदेश से लड़ रही हैं। रुपौली से गैंगस्टर अवधेश मण्डल की पत्नी बीमा भारती लड़ रही हैं। धमदहा से दिवंगत बूटन सिंह की पत्नी लेसी सिंह मैदान में हैं और और खगड़िया से बाहुबली रणवीर यादव की पत्नी पूनम यादव और अत्री में बिंदी यादव की पत्नी मनोरमा देवी भी प्रत्याशी हैं।

भाजपा ने वारसलिगंज में कुख्यात अखिलेश सिंह की पत्नी को टिकट दिया है। राजद इसे मुद्दा नहीं बना सकता क्योंकि राजद ने भी बलात्कार-आरोपी अरुण कुमार यादव की पत्नी किरन देवी, नाबालिग बलात्कार केस में सज़ायाफ्ता राजबल्लभ यादव की पत्नी विभा देवी, रमा सिंह की पत्नी मीरा देवी, आनन्द मोहन सिंह की पत्नी लव्ली आनन्द जैसों को चुनाव मैदान में उतारने का मन बनाया है। ये ‘प्रॉक्सी विधायक’ होंगी, पर इन्हें जनता की सच्ची महिला विधायकों को अपने काम के आधार पर परास्त करना होगा।

लोजपा ने 42 में 8 महिलाओं को टिकट दिये हैं और भाजपा ने 110 में केवल 13 महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है। कांग्रेस ने 70 में से 7 महिलाओं को टिकट दिये हैं, और राजद सहित वाम दलों ने 12 महिलाओं को। तो महागठबंधन के 243 प्रत्याशियों में  मात्र 19 महिलाएं हैं। आखिर, सशक्तिकरण की लंबी-चैड़ी बातों के बावजूद क्यों बिहार की महिलाओं को नीति-निर्धारण और निर्णयकारी भूमिका में लाना संभव नहीं हो पा रहा?

इस बार चुनावी जंग में शक्ति नामक एक एनजीओ ने दलों से मांग की है कि वे 50 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दें। इसके लिए वह तमाम स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों सहित विधायकों से अपील कर रहा है कि वे अपने इलाकों से लेकर दलों तक में आवाज उठाएं कि महिलाओं के अधिक संख्या में जीतने से राजनीति साफ-सुथरी होगी और काम बेहतर तरीके से होगा। इस अभियान में महिलाएं व पुरुष दोनों ही मुस्तैदी से लगे हैं। उधर दरभंगा से जद-यू के पूर्व एमएलसी विनोद चैधरी की बेटी पुष्पम प्रिया चौधरी, जो लंदन में वास करती हैं, ने प्लूरल्स पार्टी लांच की तो उनका नारा है ‘बिहार बेहतर का हकदार है, और बेहतर संभव है’। वह 243 सीटों पर प्रत्याशी खड़ा कर रही हैं, जिसमें 50 प्रतिशत महिलाएं होंगी। खुद को वह मुख्यमंत्री पद की दावेदार बताती हैं और पटना के बांकीपुर क्षेत्र से प्रत्याशी हैं। पर उन्हें भाजपा के तीन बार से विधायक नितिन नवीन और कांग्रेस प्रत्याशी लव सिन्हा का मुकाबला करना पड़ रहा है। पुष्पम के पिता नीतीश के नज़दीकी रहे हैं तो यह समझना होगा कि डाक्टर, अध्यापक, सामाजिक कार्यकताओं और पढ़े-लिखे लोगों को खड़ा करके वह महागठबंधन के वोट बैंक में सेंध जरूर लगाएंगी, खासकर युवा वर्ग और महिलाओं में।

जहां तक वाम दलों की बात है तो वे अन्वरत जन संघर्षों में लगे रहे हैं। मुज़फ्फरपुर बालिका आश्रम उत्पीड़न का सवाल रहा हो या आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, आशा बहनों और मिड डे मील बनाने वाली रसोइया बहनों के लिए भी वाम पार्टियों ने अन्वरत संघर्ष किया है। माले प्रत्याशी शशि यादव लगातार स्कीम वर्करों के आन्दोलनों में सक्रिय रही हैं। आगे आने वाले दिनों में इनकी राजनीतिक चेतना विकसित कर इनमें से नेतृत्वकारी तत्वों को भी विकसित करना होगा, जो केवल अपने भविष्य के लिए ही नहीं, बिहार के भविष्य के लिए लड़ेंगी।

दलित व मुस्लिम महिलाओं को चुनावी जंग में लाना भी खासा मुश्किल होता है, क्योंकि सामाजिक संरचना ऐसी ही है। यह वाम दलों के लिए चुनौती है कि आन्दोलनों में वे सबसे जुझारू रूप से हिस्सा लेने वाली इन महिलाओं को नेता के रूप में विकसित करें। बिहार की सवर्ण सामंती ताकतें, जो फासीवाद के सबसे मुखर और हिंसक हिस्सा हैं, और जो लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं, उनसे टक्कर लेना है तो सीएए-एनआरसी के विरुद्ध लड़ने वाली जुझारू मुस्लिम महिलाओं और क्रूर सामंती ताकतों से लोहा लेने वाली गरीब-दलित महिलाओं के संघर्ष को लगातार राजनीतिक रंगमंच पर लाना होगा। नए बिहार के लिए संघर्ष में ये महिलाएं ही धुरी बनेंगी, क्योंकि ये बेहतर जीवन के लिए पलायन नहीं कर रही हैं, कृषि मजदूरी से लेकर ग्राम विकास के कार्य, स्वास्थ्य सेवा और अध्यापन सभी कार्यों में मुस्तैदी से लगी हैं।

बिहार में पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से जो 2 लाख महिलाएं राजनीतिक रूप से सक्रिय हुईं, उनमें बहुसंख्या लोकतंत्र की पक्षधर है क्योंकि इसी में उसके सुरक्षा व स्वाभिमान की गारंटी हो सकती है। इस बड़ी फौज को महागठबंधन किस हद तक जम्हूरित की ताकत बना सकता है, इसपर काफी हद तक निर्भर करेगा बिहार में राजनीति कैसी होगी। महज महिला आरक्षण, नौकरियों व पुलिस सेवा में आरक्षण और अन्य लोकलुभावन योजनाओं के बल पर बिहार की महिलाएं राजनीतिक ताकत नहीं बन सकतीं। इसके लिए काफी मेहनत करनी होगी। जरूरत है कि महागठबंधन के दल उनकी प्रगति की आकांक्षा को समझें और खुशहाल व भयमुक्त बिहार के सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष तेज करें, चाहे वह असेम्ब्ली में हो या सड़क पर।

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