Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

...और सब्र का पैमाना छलक गया

ये जो आप इस समय मुसलमानों का देशभर में प्रदर्शन देख रहे हैं यह केवल पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी का ही मामला नहीं है। यह सालों से ख़ासकर इन सात-आठ सालों में हिंसा और उत्पीड़न झेल रहे समुदाय की एक प्रतिक्रिया है।
protest
पैगंबर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी को लेकर शुक्रवार को देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए। दिल्ली में विरोध करते जामिया मिलिया के छात्र।

ये जो आप इस समय मुसलमानों का देशभर में प्रदर्शन देख रहे हैं यह केवल पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी का ही मामला नहीं है। यह सालों से भीतर-भीतर सुलग रहा ग़म और गुस्सा है। ख़ासकर इन सात-आठ सालों में हिंसा और उत्पीड़न झेल रहे समुदाय की एक प्रतिक्रिया है।

गौ रक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग से लेकर (अ)धर्म संसद में नरसंहार के आह्वान तक...सीएए, हिजाब, अज़ान, जयंती जुलूस और अब बुलडोज़र... और न जाने क्या क्या। कोरोना तक को लेकर हमला। लव को लव जेहाद बता देना, पढ़ाई को पढ़ाई जेहाद बता देना...एक अंतहीन सिलसिला है और उसमें ट्रिगर का काम किया है इस्लाम को मानने वालों के सबसे अज़ीज़, सबसे प्यारे उनके नबी, मोहम्मद साहब पर विवादित टिप्पणी ने। और इस तरह सब्र का पैमाना छलक गया।

इस्लाम में कहा जाता है कि अल्लाह से दीवानगी मंज़ूर है लेकिन अल्लाह के रसूल से दीवानगी.... ना, बिल्कुल नहीं। यह बात नाकाबिले बर्दाश्त है। और बीजेपी के नफ़रती प्रवक्ताओं ने वही काम कर दिया। इसकी प्रतिक्रिया का शायद उन्हें भी अंदाज़ा नहीं होगा। सोचा होगा जैसे रोज़ सुबह-शाम टीवी पर कुछ भी कहकर निकल जाते हैं, वैसे ही इस मामले में भी होगा। लेकिन नहीं, उनका सोचना ग़लत था। देश से लेकर दुनिया तक के स्तर पर यह मामला उठ गया और भारत को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी।

मोदी सरकार और पार्टी यानी भाजपा शुरू-शुरू में इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ करती रही। सोचा लोकल स्तर पर ही मामले को दबा दिया जाएगा। भारतीय मुसलमानों के ग़म और गुस्से को नज़रअंदाज़ किया गया लेकिन मामला जब इस्लामी देशों तक पहुंच गया और एक-दो नहीं बल्कि 15 देशों ने इसपर सख़्त प्रतिक्रिया कर दी तब मोदी सरकार के कान खड़े हुए। और बात सिर्फ ज़बानी प्रतिक्रिया तक ही सीमित नहीं रही कारोबारी हित तक आ गई जिसमें मोदी जी के प्रिय उद्योगपतियों को सबसे ज़्यादा नुक़सान का अंदेशा हो गया, क्योंकि इन तमाम देशों में भारतीय उत्पादों का बहिष्कार होने लगा। बड़े-बड़े स्टोर ने भारतीय उत्पाद शोकेस से हटाने शुरू दिए तो मोदी सरकार को समझ आया कि बड़ी ग़लती हो गई है।

यही नहीं दुखद यह भी हुआ कि बहुत से देशों में भारतीय कामगारों तक को काम से बेदख़ल करने की धमकियां मिलने लगी। छोटे-छोटे देश भारतीय राजदूतों को तलब कर अपनी नाराज़गी जताने लगे तो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने अपने दो प्रवक्ताओं नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल को हटाने में ही भलाई समझी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। और अब आहत मुस्लिम समुदाय को सिर्फ़ इन दो प्रवक्ताओं पर पार्टी की कार्रवाई जिसमें से एक को पार्टी से निलंबित करना और दूसरे को निष्कासित करने से कोई संतोष नहीं हुआ और वे इन लोगों के ख़िलाफ़ कोई ठोस क़ानूनी कार्रवाई चाहने लगे। जो अभी तक संभव नहीं हुई। क्योंकि केवल इन दो प्रवक्ताओं को निकालने भर से ही भाजपा का कोर वोटर नाराज़ हो गया उसे लगने लगा ये तो मुसलमानों के सामने उनकी हार है। और 56 इंच के छाती वाली मोदी सरकार भला इतने छोटे-छोटे मुस्लिम देशों के सामने झुक कैसे गई।

दिन-रात नफ़रत की घुट्टी पीने वाला वर्ग इस कदर बौरा गया है कि उसे भाजपा की ये कार्रवाई बेहद नागवार गुज़री है और वह अपने प्रात: स्मरणीय हिंदू हृदय सम्राह नरेंद्र मोदी की ही आलोचना करने लगा है। इसलिए इससे आगे बढ़ना मोदी सरकार या भाजपा के लिए संभव भी नहीं है। और इससे आगे बढ़ना उसकी फितरत या राजनीति से मेल भी नहीं खाता है। क्योंकि उसके प्रवक्ताओं ने कोई एकाएक अपना निजी विचार जनता के सामने नहीं रख दिया था, बल्कि यही तो आरएसएस और पार्टी की लाइन रही है। हालांकि अब पार्टी की ओर जारी पत्रों में भाजपा को सभी धर्मों का सम्मान करने वाला बताया जा रहा है। अगर वह सब धर्मों का सम्मान करती और सबको बराबर मानती तो वह शायद केंद्र की सत्ता तक पहुंच भी न पाती। और यही वजह है कि गुजरात दंगों के बाद 2014 में केंद्र में मिली सफलता से उसे यही गुमान हो गया है कि वह कुछ करे न करे, लेकिन नफ़रती राजनीति की बदौलत वह सत्ता पर काबिज़ रहने में कामयाब हो जाएगी। और शायद 2019 में केंद्र में मोदी सरकार की पुन: वापसी और 2022 में यूपी में योगी सरकार की वापसी से उसे और इत्मिनान हो गया है कि सफलता का फार्मूला तो यही है। पूरे चुनाव में जिस तरह हिंदू-मुस्लिम हुआ वह सब जानते हैं। यूपी में ‘80-20’ का नारा जिस तरह उछाला गया...उसका मतलब और मकसद किसी से छिपा नहीं था।

इस प्रकरण में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो सकता है कि अब मामला मैनेज हो भी जाए, क्योंकि मोदी सरकार ने इन देशों से स्पष्ट किया है कि ये दोनों नेता सरकार का हिस्सा नहीं थे और पार्टी ने उनके खिलाफ एक्शन ले लिया है। और ये भी सर्वविदित है कि ये देश भी कोई बहुत भावना या हक़ बात को लेकर विरोध नहीं कर रहे बल्कि इन सबकी अपनी राजनीति है। क्योंकि इन्हें भी अपनी सत्ता बनाए रखनी है और मुसलमानों का रहनुमा भी दिखाना है। वरना इन देशों की राजनीति किससे छिपी है। वो चाहे ईरान-इराक युद्ध हो, अमेरिका का इराक पर हमला हो या फ़िलिस्तीन का मामला। सऊदी अरब से लेकर तमाम देशों की क्या रवैया रहा, सब जानते हैं।

इधर, लोकल लेवल पर सरकार और भाजपा की मंशा हो सकती है कि मामला जितना बढ़ता है बढ़ने दिया जाए, ताकि कहीं से कोई हिंसा हो, और हिंसा रोकने के नाम पर कोई बड़ा एक्शन लिया जाए और सख़्ती से पूरे विरोध को कुचल दिया जाए। और यही हो भी रहा है।

कानपुर के बाद अब इस शुक्रवार 10 जून को नमाज़ के बाद देश के अलग-अलग हिस्सों ख़ासकर प्रयागराज (इलाहाबाद) में जिस तरह का प्रदर्शन देखने को मिला है, वह इसी आशंका को बढ़ाता है।

प्रयागराज (इलाहाबाद) में प्रदर्शन की तस्वीरें। इस दौरान पत्थरबाज़ी भी हुई और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोले भी छोड़े।

इन पंक्तियों का लेखक अपने हक़-हकूक के लिए लोकतांत्रिक ढंग से किए गए हर धरने, प्रदर्शन, आंदोलन के साथ पूरी मज़बूती से खड़ा होता है, लेकिन मेरा निजी मत है कि धार्मिक या भावनात्मक मुद्दों पर हमें बहुत ज़्यादा प्रतिक्रिया देने से बचना चाहिए। मैं अभिव्यक्ति की आज़ादी का भी पैरोकार हूं, इसकी भरसक रक्षा की जानी चाहिए, हालांकि मैं अभिव्यक्ति की आज़ादी और उकसावे की कार्रवाई या नफ़रती बयानबाज़ी का फ़र्क़ अच्छी तरह जानता हूं, फिर भी मेरा सोचना है कि अब पैगंबर पर टिप्पणी मामले को यही थाम लेना चाहिए।

और किसी भी उकसावे या बहकावे में आकर किसी भी तरह की हिंसा से भी बचना चाहिए। अगर कुछ अराजक तत्व ऐसा करते भी हैं तो उन्हें चिह्नित कर रोकना होगा, वरना पूरे समुदाय को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा, पड़ता ही है। कहीं से पुलिस प्रशासन के ऊपर एक पत्थर आएगा और एक बड़ी आबादी को कुचलने का तंत्र को बहाना मिल जाएगा। फिर झेलते रहिए निर्दोष नौजवानों की गिरफ़्तारी और लड़ते रहिए मुकदमे। कानपुर और अब प्रयागराज इसका उदाहरण है, जहां न जाने कितने लोगों की प्रदर्शन के सिलसिले में गिरफ़्तारी होगी और एक लंबी मुकदमेबाज़ी की प्रक्रिया से गुज़रना होगा। इस चक्कर में घर के घर बर्बाद हो जाते हैं।

यही वजह है कि अब इस मामले में और सार्वजनिक जुलूस-प्रदर्शन की जगह राजनीतिक और क़ानूनी प्रक्रिया पर ज़ोर दिया जाए। इसके अलावा जुमे की नमाज़ के बाद तो ऐसे जमावड़े या प्रदर्शन बिल्कुल न किए जाएं, इससे भाजपा जैसे दलों का ही एजेंडा कामयाब होता है और वे ध्रुवीकरण में कामयाब हो जाते हैं। ख़ैर ध्रुवीकरण तो वे हर तरह से करेंगे और मुसलमानों को टार्गेट भी हर बहाने से करेंगे, कर ही रहे हैं, लेकिन एक जागरूक भारतीय नागरिक होने के नाते हमें इसकी काट तो सोचनी ही होगी, ऐसे हर मंसूबे, हर चाल का लोकतांत्रिक अहिंसक ढंग से जवाब देना सीखना ही होगा। इसकी सीख हमें शाहीन बाग़ आंदोलन से मिलती है। जो 101 दिन चला लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद उसे कुचला नहीं जा सका। उसे बदनाम करने की भरसक कोशिश हुई, हिंसा भड़काने की बहुत कोशिश हुई, लेकिन सरकार हो या पार्टी के ‘फ्रिंज एलिमेंट’ या कट्टर हिन्दुत्ववादी तत्व, ऐसा करने में नाकामयाब रहे। हालांकि बाद में इसका बदला दिल्ली दंगों से चुका लिया गया, लेकिन पूरी सरकार और पार्टी मिलकर भी आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों को डिगा नहीं सके। कुचल नहीं सके।

इसलिए मुझे तो लगता है कि अब ऐसे हर छोटे-बड़े आंदोलन की कमान महिलाओं के हाथ में होनी चाहिए, उनके रहते हिंसा की संभावना न के बराबर रहती है। और आंदोलन में एक तहज़ीब और अनुशासन बना रहता है।

इसी कड़ी में किसान आंदोलन भी हमारे सामने बड़ा उदाहरण है, उसमें से अगर 26 जनवरी के लाल क़िले वाले वाले प्रकरण को छोड़ दें जिसमें ज़्यादा संभावना यही है कि वो प्रायोजित था, पूरे 13 महीने चला आंदोलन पूरी तरह शांतिपूर्ण और असरदार था। मीडिया में इस आंदोलन के प्रमुख चेहरे भले ही पुरुष थे, लेकिन इस आंदोलन को जिस तरह महिला किसानों ने संभाल रखा था, वो अपने आप में मिसाल है। इसलिए मुझे तो लगता है कि मुसलमानों को भी बिना भावनाओं में बहे सोचना चाहिए कि इस मुद्दे का क्या जायज़ हल हो सकता है।

इसके अलावा वैसे सोचा जाए तो हमारे पास एक भारतीय नागरिक होने के नाते महंगाई, बेरोज़गारी से लेकर मॉब लिंचिंग तक कितने मुद्दे हैं जिनपर आंदोलन किया जा सकता है। असल भावनाएं तो इस बात से आहत होनी चाहिए कि देश में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है (सच्चर कमेटी की रिपोर्ट)। हिन्दू-मुसलमान की भावनाएं तो इससे आहत होनी चाहिए कि देश में बेरोज़गारों की एक पूरी फ़ौज खड़ी है लेकिन हमारी सरकार इसपर ध्यान नहीं दे रही। लोगों के पास रोज़गार नहीं है, पैसा नहीं है और महंगाई है कि आसमान छू रही है। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है। किसने किया था अच्छे दिन का वादा। इसका भी तो कुछ जवाब और हिसाब लेना चाहिए।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest