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अंधेर नगरी, चौपट राजा: कोविड-19 के शिकंजे में भारत

शिकायत मत करो, चुपचाप मर जाओ! मोदी सरकार को शर्मिंदा मत करो, न तो मौजूदा लहर के उछाल का सामना करने के लिए तैयारियां करने में उसकी घनघोर विफलता के लिए और न इस संकट का सामना करने के लिए जरूरी न्यूनतम शासन मुहैया कराने में उसकी नाकामी के लिए।
Modi
Image courtesy : The Indian Express

कोविड-19 की महामारी, जिसने भारत को अपने मौत के शिकंजे में जकड़ रखा है, कहीं से भी खत्म होती नजर नहीं आ रही है। भारत में इस समय इस वायरस के शिकंजे में आए लोगों के आंकड़ों ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। आज स्थिति यह है कि दुनिया भर में हर रोज आने वाले कुल नये केसों में से आधे से ज्यादा भारत में ही आ रहे हैं! हालांकि बीच में रोजाना आने वाले केसों की संख्या में थोड़ी सी कमी दिखाई भी दी, लेकिन इसके साथ ही कुल टैस्टों की संख्या में भी गिरावट हुई थी। इसलिए, नये केसों की संख्या में देखने में आयी यह कमी, वास्तव में नये केसों के घटने के बजाए, संभावित संक्रमितों में से पहले से कम का टैस्ट किए जाने के ही चलते ज्यादा आयी लगती है। यह सवाल पूछा जाना स्वाभाविक है कि क्या हमारे यहां टैस्टिंग के किटों तथा टैस्ट करने वाले कार्मिकों की कमी पड़ रही है? या फिर मौजूदा डरावने आंकड़ों को सहनीय बनाने के लिए ही टैस्टों की संख्या कम कर दी गयी है?

चिंताजनक तरीके से जहां महाराष्ट्र, पंजाब तथा दिल्ली जैसे राज्यों में, जहां से दूसरी लहर के प्रकोप की शुरूआत हुई थी, संक्रमितों की संख्या कम हो रही है या उनकी संख्या का ग्राफ समतल हो रहा है, अन्य राज्यों में और खासतौर पर उन राज्यों में जहां हाल ही में चुनाव हुए थे, ये आंकड़े बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। इसमें भी बदतरीन हालत पश्चिम बंगाल की है। ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग ने बंगाल के लिए आठ चरण के मतदान का जो कार्यक्रम तैयार किया था, उसमें मोदी के चुनाव प्रचार की जरूरतों का तो पूरा ख्याल रखा गया था, लेकिन कोविड-19 संक्रमितों की बढ़ती संख्या और समस्याओं पर जैसे उसने आंखें ही मूंद ली थीं।

इस सब के बीच हम जो अस्पताल आदि की व्यवस्थाओं के पूरी तरह से बैठ जाने के दृश्य देख रहे हैं, उसका मुख्य कारण यही है कि मरीजों की तेजी से बढ़ी संख्या के आगे, अस्पतालों की क्षमताएं बहुत कम पड़ गयी हैं। सिर्फ अस्पतालों में बैडों की ही कमी नहीं हो गयी है बल्कि स्वास्थ्यकर्मियों-डाक्टरों, नर्सों, अन्य स्वास्थ्यकर्मियों-पर दबाव, उनकी क्षमताओं से बहुत ऊपर निकल चुका है। आक्सीजन की आपूर्ति के संकट ने, अस्पतालों के संकट को और गहरा बनाने का ही काम किया है। बेशक, आक्सीजन के इस संकट की दिल्ली पर खासतौर पर ज्यादा मार पड़ी है, लेकिन कर्नाटक, महाराष्ट्र, बिहार आदि में भी कमोबेश ऐसा ही संकट है। और तो और उत्तर प्रदेश तक में आक्सीजन का संकट बना हुआ है, हालांकि उसका जिक्र करने वालों पर आदित्यनाथ सरकार एनएसए लगा रही है। कोविड-19 से मौत लिखी है तो, बिना शोर मचाए मर जाओ; योगी सरकार को बदनाम करने की जरूरत नहीं है। इसकी तुलना में दिल्ली के मामले में सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने फिर भी ‘उदारता’ दिखाई और उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि दिल्ली रोंदू बच्चे जैसा बर्ताव कर रही है, जो हाई कोर्ट में आक्सीजन की कमी की शिकायत करने पहुंच गयी है। बेशक, संदेश वही था: शिकायत मत करो, चुपचाप मर जाओ! मोदी सरकार को शर्मिंदा मत करो, न तो मौजूदा लहर के उछाल का सामना करने के लिए तैयारियां करने में उसकी घनघोर विफलता के लिए और न इस संकट का सामना करने के लिए जरूरी न्यूनतम शासन मुहैया कराने में उसकी नाकामी के लिए।

दिल्ली जैसे राज्यों में अगर कोविड-19 संक्रमण संबंधी आंकड़े नहीं बढ़ रहे हैं या घट ही रहे हैं तो उसके बाद फिर कैसे  वहां आक्सीजन तथा अस्पतालों का संकट बना हुआ है? इसके दो  कारण हैं। पहला तो यह कि आज जो लोग बीमार पड़ते हैं, उनमें गंभीर रूप से बीमार होने वालों को उस स्थिति तक पहुंचने में एक हफ्ता या दस दिन तक लगेंगे। इसलिए, नये केसों के शिखर और गंभीर केसों के शिखर में, हफ्ते भर या उससे ज्यादा का अंतर होगा। नये केसों के शिखर के आने के एक अंतराल के बाद ही गंभीर केसों का शिखर आएगा। इसके अलावा अस्पतालों का संकट सिर्फ नये केसों की संख्या की वजह से नहीं है। नये केसों की संख्या तो हमें सिर्फ इतना बताती है कि महामारी किधर जा रही है, और कितना जोर पकड़ रही है या एक स्तर पर ठहरी हुई है? किसी एक समय में एक साथ आ रहे गंभीर रूप से बीमार मरीजों की कुल संख्या से अस्पतालों की व्यवस्था तो चरमरा ही रही है। इस संख्या का अनुमान लगाने के लिए हम एक्टिव केसों की कुल संख्या की दशा को देख सकते हैं। अगर एक्टिव केसों की संख्या बढ़ रही है, तो गंभीर केसों की संख्या भी बढ़ रही होगी।

एक्टिव केसों की संख्या तो तभी घटती है, जब रोगमुक्त होने वालों की संख्या, नये केसों की संख्या से ज्यादा हो। जब तक ऐसा नहीं होता है, एक्टिव केसों की संख्या बढ़ती रहेगी और आखिरकार इनके बोझ के तले अस्पतालों की व्यवस्था ही बैठ जाएगी। हम देश भर में एक्टिव केसों की संख्या को देखें तो, 4 मई को (covid19india.org) को यह संख्या 34 लाख से ज्यादा थी और इसका ग्राफ ऊपर ही चढ़ रहा था! महाराष्ट्र में एक बार फिर एक्टिव केसों की संख्या बढ़ रही है, हालांकि मुंबई में एक्टिव केसों की संख्या घट रही है। मुंबई में एक्टिव केसों की संख्या में हो रही गिरावट को, दूसरे इलाकों में हो रही केसों में बढ़ोतरी पूरा करती जा रही है और इस तरह महाराष्ट्र में संकट बना ही हुआ है। इसी प्रकार, हालांकि दिल्ली में नये केसों की संख्या में उतार नजर आता है, फिर भी एक्टिव केसों की संख्या में कोई उल्लेखनीय बदलाव दिखाई देना शुरू नहीं हुआ है। इसीलिए, दिल्ली में अस्पतालों का संकट बना ही हुआ है।

यही है वर्तमान संकट की असली जड़। किसी महामारी में मौतों की संख्या तेजी से तभी बढ़ती है, जब गंभीर मरीजों की संख्या, अस्पतालों में बैडों की उपलब्धता और आक्सीजन की सप्लाई से ऊपर निकल जाती है। ऐसे हालात में ही मौतें बढ़ने लगती हैं, जो कि हम इस समय देख रहे हैं।

दिल्ली हाईकोर्ट की सुनवाइयों से यह साफ है कि दिल्ली के अस्पतालों को जितनी आक्सीजन की जरूरत है, उससे काफी कम आक्सीजन दिल्ली को मिल रही थी। मिसाल के तौर पर 3 मई को हाईकोर्ट में दिल्ली सरकार ने यह कहा था कि उसे 976 मीट्रिक टन आक्सीजन की जरूरत है। इस जरूरत के सामने केंद्र सरकार ने दिल्ली के लिए जब 700 मीट्रिक टन का आवंटन भी कर दिया, उसके बाद भी उसे 433 मीट्रिक टन आक्सीजन की ही आपूर्ति की गयी। अगर अस्पतालों को 976 मीट्रिक टन आक्सीजन की जरूरत है और उससे करीब आधी आक्सीजन ही मिल रही है, तो मरीजों को कितनी आक्सीजन मिलेगी? जाहिर है कि उन्हें जितनी आक्सीजन की जरूरत है, उससे करीब आधी ही। तब क्या अचरज कि मौतों की दर तेजी से बढ़ रही है। गंगाराम, जयपुर गोल्डन तथा बत्रा अस्पताल जैसे कहीं ज्यादा चर्चित प्रकरणों में आक्सीजन पहुंच ही नहीं पाने के चलते तो मरीजों की जानें गयी ही हैं, अस्पतालों में पर्याप्त आक्सीजन न मिल पाने के चलते भी बहुतों की जानें गयी हैं। जाहिर है कि ऐसे मरीजों की भी संख्या काफी बड़ी होगी, जो इस रोग की सबसे महत्वपूर्ण दवा--आक्सीजन न मिल पाने के चलते, कहीं ज्यादा समय अर्से तक गंभीर रूप से बीमार बने रहने की स्थिति में धकेल दिए गए होंगे। इसके साथ ही उन सब को भी जोड़ लें जिन्हें अस्पतालों में बैड मिल ही नहीं पाया है और जो घरों पर ही आक्सीजन कन्सेंट्रेटरों या सिलेंडरों के सहारे काम काम चला रहे हैं।

इनका सहारा भी उन्हीं को नसीब है, जो खुशकिस्मत हैं। यह भी याद रहे कि गंभीर रूप से बीमार होने वालों को, आक्सीजन के जितने प्रवाह की जरूरत होती है, वह आक्सीजन कन्सेंट्रेटरों से नहीं मिल सकती है। इसके बावजूद, देश भर में बहुत से गंभीर मरीजों का घर पर ही उपचार किया जा रहा है या घरों पर ही मर रहे हैं क्योंकि उनके लिए अस्पताल में बैड ही उपलब्ध नहीं हैं।

मोदी सरकार की अक्षमता का केंद्रीयकरण तब और भी गाढ़े रंग से सनी हुई नजर आती है, जब हम इस पर नजर डालते हैं कि इस सरकार को आक्सीजन सिलेंडर बनाने के लिए आक्सीजन की सप्लाई पर रोक लगाने के अपने आदेश को पलटने में कितना समय लग गया। आक्सीजन सिलेंडरों का उत्पादन, तकनीकी  रूप से आक्सीजन के औद्योगिक उपयोग की श्रेणी में आता है और इस आधार पर हम शायद इस शुरूआती गलती को फिर भी माफ कर सकते हैं कि सरकार का ध्यान इसे अपवाद के रूप में अलग करने पर नहीं गया। लेकिन, शोर मचने के बाद भी इस आदेश को पलटने में और आक्सीजन सिलेंडर बनाने के लिए आवश्यक आक्सीजन की आपूर्ति की इजाजत देने में, इस सरकार को पूरे दो हफ्ते लग गए!

शायद भाजपाई सरकार खुद ही अपने इस इस प्रचार को सच मान बैठी है कि महामारी को रोकने में उसे जबर्दस्त ‘कामयाबी’ मिल गयी थी। इसी साल जनवरी में वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम में तो मोदी ने एलान ही कर दिया था कि, ‘एक ऐसे देश के नाते, जहां दुनिया की 18 फीसद आबादी रहती है, हमारे देश नेे कोरोना पर कारगर तरीके से रोक लगाकर, मानवता को बहुत भारी तबाही से बचाया है।’ फरवरी के महीने में सत्ताधारी भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने मोदी की प्रशंसा की थी: ‘पार्टी बिना किसी किंतु-परंतु के अपने नेतृत्व का अभिनंदन करती है जिसने भारत को, कोविड के खिलाफ लड़ाई में एक गर्वित तथा विजयी देश के रूप में दुनिया के सामने पेश किया है।’ यह खोखली जीत और ढपोरशंखी दावे, आज और भी पीड़ादायक हो गए हैं क्योंकि आज हमारा सामना महामारी की ऐसी आंधी से है, जिसके सामने पहले वाली लहर तो ऐसे लगती है, जैसे तब एक नमूना मात्र हो। अब मोदी सरकार की इस घोर अक्षमता की भारी कीमत इस देश के लोगों को अदा करनी पड़ रही है।  

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