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महामारी और मीडिया  

कोविड-19, बेकारी और आर्थिक बेहाली से लोगों का ध्यान हटाने के लिए सत्ता ने कैसे न्यूज़ चैनलों को अपना औज़ार बनाया! वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का विश्लेषण
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प्रतीकात्मक तस्वीर

अप्रैल-मई के बीच टेलीविजन चैनल हों या बड़े अखबार, सत्ताधारी दल के नेता और प्रवक्ता इस बात की लगातार डींगें हांकते थे कि सही वक्त पर लॉकडाउन के फैसले और मोदी सरकार की अन्य नीतियों के चलते भारत में कोविड-19 को काफी हद तक नियंत्रित किया जा चुका है। सत्ताधारी नेताओं के इन जुमलों को चैनलों के एंकर्स भी उसी शिद्दत के साथ दुहराते थे कि जब अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश कोविड-19 से बेहाल हैं तब भारत अपने प्रधानमंत्री की ‘दूरदर्शिता’ के कारण काफी बेहतर स्थिति में है। लेकिन जून-जुलाई आते-आते पांसा पलट गया। भारत न सिर्फ महामारी के चलते बेहाल होने लगा बल्कि सरकारी नीतियों के चलते राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की सांस बुरी तरह फूलने लगी। बेरोजगारी का ग्राफ तेजी से उछला। हमारे भाषण-प्रिय प्रधानमंत्री का 15 अगस्त का भाषण बेहद फीका रहा। बेहाली का आज आलम ये है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) शून्य से 23.9 फीसद नीचे गिर चुका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक देश में कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या 40 लाख से ऊपर और मरने वालों की संख्या 70 हजार पहुंच रही है।

इस वक्त भारत में प्रतिदिन संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या पूरी दुनिया में सबसे अधिक है। बहुत संभव है कि इन पंक्तियों के छपने तक भारत संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में ब्राजील को पछाड़ कर विश्व में दूसरे नंबर पर आ जाये! 

प्रतिदिन संक्रमित लोगों की इस वक्त संख्या 83 हजार के ऊपर है, जबकि टेस्टिंग के मामले में हम काफी पीछे हैं। कई प्रदेशों में तो टेस्टिंग लगभग ठप्प है। यूरोप और अमेरिका की बात छोड़िये, हमसे भी ज्यादा आबादी वाले एशिया के ही एक पड़ोसी देश-चीन से अपनी स्थिति की तुलना करें तो अपने देश की भयावह स्थिति दिख रही है। बीते नौ-दस महीने में चीन के कुल संक्रमित लोगों की संख्या मात्र 85077 और मरने वालों की संख्या 4634 है। यानी चीन में जितने लोग अब तक संक्रमित हुए हैं, उसके ही आसपास भारत में रोजाना संक्रमित हो रहे हैं। यह कितना भयावह आंकड़ा है!

पर हमारे न्यूज चैनलों में इसकी भूलवश भी कोई चर्चा नहीं दिखेगी। सुशांत-रिया प्रसंग अगर रोजाना ‘ब्रेकिंग न्यूज’ रहेगा तो कंगना राणावत के मुंबई को ‘पाक-अधिकृत-कश्मीर’ बताता बयान भी किसी दिन हेडलाइन्स में आ जायेगा।  बाहर कम लोगों को मालूम कि इस दौरान टेलीविजन के जिन कुछ बचे-खुचे संवेदनशील पत्रकारों ने इस तरह के फूहड़ कवरेज और बेमतलब कंटेट परोसने के फैसले का अपने न्यूजरूम या संपादकीय बैठकों में विरोध किया, उन्हें फौरन नौकरी से बाहर किया गया या वे इस्तीफा देकर स्वयं बाहर हो गये।

देश के सात प्रमुख चैनलों में ऐसे कई प्रमुख पत्रकारों की नौकरियां गईं। इनमें दो प्रमुख टीवी पत्रकारों ने तो नौकरी से बाहर होने के साथ ही बाकायदा ‘ओपेन लेटर’ लिखकर चैनलों के अंदर के हालात का पर्दाफाश किया कि किस तरह अब वे न्यूज के धंधे में नहीं रह गये हैं। उनका धंधा सिर्फ सत्ता के लिए काम करना है!

टेलीविजन की छोड़िये, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर अखबारों, खासकर भाषायी अखबारों में भी भारत की इस भयावह स्थिति का गंभीर कवेरज नहीं दिखेगा। उपरोक्त आंकड़ों का तुलनात्मक आकलन करते वक्त अब तो कोई नेता या एंकर ये भी नहीं कह सकता कि भारत की आबादी ज्यादा है इसलिए हमारे यहां ज्यादा तबाही दिख रही है! अगर सिर्फ आबादी कारक होता तो चीन की आबादी तो हमसे भी ज्यादा है और वायरस का सबसे पहला हमला भी वहीं हुआ था। यूपी, बिहार सहित देश के कई प्रदेशों के हालात इतने बुरे हैं कि जितने लोगों की मौत कोरोना से हो रही है, उससे बहुत ज्यादा लोगों की मौत गैर-संक्रमण वाले आम रोगों से हो रही है। क्योंकि देश के ज्यादातर हिस्सों में अस्पतालों के ओपीडी या तो बंद हैं या पहले की तरह नियमित रूप से काम नहीं कर रहे हैं।

कोविड-19 के लिए अलग से व्यापक चिकित्सीय व्यवस्था और आधारभूत संरचना निर्मित न होने के चलते पहले से बेहाल सरकारी अस्पतालों की बदहाली और बढ़ गई है। लेकिन ऐसे सवालों पर हमारे मुख्यधारा मीडिया का जैसा कवरेज होना चाहिए था, वह कहीं नजर नहीं आता। इस मामले में सिर्फ स्थानीय स्ट्रिंगर या स्थानीय संवाददाता ही अपने पेशे के प्रति ज्यादा ईमानदार और सचेत नजर आये हैं। उन्होंने अपनी क्षमता के हिसाब से अस्पतालों की बेहाली और मरीजों की उपेक्षा पर इस दरम्यान अनगिनत खबरें भेजी हैं। पर वे सारी खबरें बड़े अखबारों के क्षेत्रीय संस्करणों में स्थानीय पन्ने के किसी कोने में छापी गईं। सबसे अधिक पाठक संख्या वाले हिंदी अखबारों के राष्ट्रीय या प्रांतीय संस्कऱणों में ऐसी खबरों को प्रमुखता नहीं दी गई। सिर्फ नेताओं-मंत्रियों के बयानों, भारत-चीन सरहदी विवाद, रफाल का भारत आना, सुशांत मौत प्रकरण या फिर ऐसे ही कुछ भटकाऊ मामलों को प्रमुखता दी गई।

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हिंदी अखबारों पर न्यूज चैनलों का नशा चढ़ा रहा है। अखबारी हेडलाइंस, लीड, संपादकीय और अन्य विश्लेषणात्मक कथाओं के विषय का चयन चैनलों द्वारा उछाले जा रहे मुद्दों पर ही आधारित रहा है। इनके मुकाबले अंग्रेजी के कुछेक अखबारों का कवरेज अपेक्षाकृत बेहतर कहा जा सकता है।     

महामारी से हमारी सरकार ने किस तरह निपटना चाहा और मीडिया ने कैसे उसका बढ़-चढ़ कर साथ दिया, इसका ज्वलंत उदाहरण है- मार्च के आखिर और अप्रैल-मई में लंबे समय तक भारतीय मीडिया के कोरोना-कवरेज का सांप्रदायिक अंदाज!  उस दरम्यान, कोविड-19 के संक्रमण और प्रसार आदि को लेकर हमारा मीडिया, खासकर न्यूज चैनल और ज्यादातर भाषायी अखबार देशवासियों को जो सबसे बड़ी जानकारी दे रहे थे, वो ये कि दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में अवस्थित एक अल्पसंखयक धार्मिक संगठन-तब्लीगी जमात के कारण यह महामारी भारत में दाखिल हुई है। कुछ चैनलों ने तो इस जानकारी में और भी इजाफा किया कि इस ‘जमात’ ने ‘योजना के तहत’ कुछ ‘कोरोना जेहादियों’ के जरिये भारत में कोरोना फैलाया!  दूसरी सबसे बड़ी जानकारी स्वयं हमारी सरकार दे रही थी। उसका स्वास्थ्य मंत्रालय 13 मार्च तक कह रहा था कि भारत में कोरोना को लेकर कोई ‘मेडिकल इमरजेंसी’ नहीं आने वाली है। जब कोरोना अपने देश में सचमुच ‘मेडिकिल इमरजेंसी’ बन गया तो स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्वयं भी इसके लिए प्रमुखतया तब्लीगी जमात को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया।

इससे यह भी साफ हो गया कि मीडिया, खासकर न्यूज चैनलों में तब्लीगी जमात के कोरोना का कारण बताने का जो ‘कैम्पेन’ चला, वह शासकीय सोच और सूचना से प्रेरित और उस पर आधारित था। दुनिया में शायद भारत इकलौता मुल्क होगा, जिसके स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोरोना-संक्रमित लोगों के आंकड़ों में यह आंकड़ा भी शामिल किया कि कितने लोग  किसी खास समुदाय या जमात के चलते संक्रमित हुए। किसी सवाल के बगैर न्यूज चैनलों और अनेक अखबारों ने उन सरकारी आंकड़ों को हू-ब-हू पेश किया। शुरुआती दौर में एक और दिलचस्प वाकया हुआ। पहले लॉकडाउन के ऐलान के कुछ ही समय बाद हमारे प्रधानमंत्री ने अफसरों और सलाहकारों की अति-उत्साही ब्रीफिंग से प्रभावित होकर अपने संसदीय क्षेत्र-वाराणसी की जनता से वर्जुअल संवाद में कहा कि महाभारत की लड़ाई 18 दिन में जीती गई थी। कोरोना पर विजय प्राप्त करने में हमें 21 दिन लगेंगे। प्रधानमंत्री ने 24 मार्च से लॉकडाउन का ऐलान किया था। उसके ठीक एक दिन पहले तक भारत में कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या 468 और मौतों की संख्या 9 रिकार्ड की गई थी। इनमें ज्यादातर ऐसे थे, जिनका तब्लीगी जमात से सीधा या दूर-दूर का भी कोई रिश्ता नहीं था।

23-24 मार्च से काफी पहले, 30 जनवरी को भारत में कोरोना के पहले मरीज के तौर पर केरल की एक छात्रा सरकारी रिकार्ड में दर्ज हुई थी। वह विदेश से आयी थी। समय पर इलाज पाकर कुछ समय बाद वह स्वस्थ भी हो गई। पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु सहित देश के कई प्रदेशों में कोविड-19 से संक्रमित सैकड़ों लोगों की पहचान हो चुकी थी। इनमें पंजाब के एक बुजुर्ग की कोरोना से मौत हो गई। वह जर्मनी से अपने पुश्तैनी सूबे पंजाब पहुंचे थे। उनका किसी जमात से कोई सम्बन्ध नहीं था। इसके बावजूद मीडिया, खासकर न्यूज चैनल रोजाना यह खबर चलाते रहे कि भारत में कोरोना हरगिज नहीं आता, अगर तब्लीगी जमात के मरकज में कुछ संक्रमित लोग नहीं पाये जाते!

यह बात मीडिया को मालूम थी कि जमात के मरकज में आये विदेशी डेलीगेट वैध वीजा पर भारत आये और सरकारी एजेंसियों ने न तो उनका एयरपोर्ट पर परीक्षण किया और न तो समय रहते क्वारंटीन किया। पर हमारे मीडिया ने सारे देश में कोरोना फैलाने के लिए ‘जमात’ को जिम्मेदार ठहरा दिया। लोगों के बड़े हिस्से ने इस झूठ को सच माना। कई लोगों के विरुद्ध मामले दर्ज किये गये। इसके प्रधान मौलाना साद को उन दिनों भारत में कोरोना संक्रमण का ‘सबसे बड़ा गुनहगार’ करार देते हुए फरार बताया गया। सुनकर अचरज करेंगे कि मौलाना साद के खिलाफ अप्रैल से सितंबर तक इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई कार्रवाई नहीं की गई! वह दिल्ली, मेरठ या शामली के बीच ही रहे पर केंद्र या राज्य सरकार की किसी एजेंसी ने उन्हें गिरफ्तार करने की जरूरत नहीं समझी।

ऐसे में यह सवाल गैरवाजिब नहीं, क्या उस वक्त ‘जमात’ के रूप में एक ‘प्रिय दुश्मन’ तलाशा गया था? ‘प्रिय’ इसलिए कि महामारी में शासकीय कमजोरियों को ढंकने में ‘जमात’ का आवरण मिल गया! उस वक्त शासन जामिया, जेएनयू और दिल्ली विवि के छात्रों के विभिन्न मुद्दों पर आयोजित प्रदर्शनों तक को रोकने में व्यस्त था। उसके कुछ ही समय बाद सरकार ने भीमा कोरेगांव में हुए एक आयोजन के पीछे किसी कथित षडयंत्र के नाम पर भारतीय संविधान के निर्माताओं में सबसे प्रमुख विद्वान डॉ बी आर अम्बेडकर के एक नातेदार और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े को तमाम संगीन मामलों में गिरफ्तार करा लिया। उनके साथ दिल्ली से एक वरिष्ठ पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को भी ऐसी ही धाराओं में गिरफ्तार कर मुंबई ले जाया गया। लेकिन भारत के न्यूज चैनलों के लिए यह बड़ी खबर नहीं थी।

ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है, क्या भारतीय न्यूज चैनलों ने सत्ता की योजना के तहत कोविड-19 जैसे वायरस के संक्रमण को लेकर ‘फेक न्यूज’ चलाई, ऐसी ‘फेक न्यूज’ जिसका मकसद समाज में एक समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत फैलाना और शासन की विफलताओं पर पर्दा डालना था?

मीडिया ने जिस तरह के झूठ का प्रसार किया, वैसा उदाहरण महामारी से घिरी दुनिया के मीडिया में शायद ही कहीं मिलेगा। अब सच सबके सामने है कि तब्लीगी जमात के मरकज में जिस तरह लोग संक्रमित पाये गये, उसी तरह देश के कई अन्य धार्मिक प्रतिष्ठानों में पाये जा चुके हैं। कई राजनीतिक दलों के दफ्तरों में भी दर्जनों लोग संक्रमित पाये जा चुके हैं।

आंध्र स्थित देश के विख्यात तिरुपति बालाजी मंदिर परिसर में कार्यरत उसके 743 कर्मियों को कोरोना संक्रमित पाया गया। 11 जून से अब तक वहां तीन कर्मियों की मौत भी हो चुकी है। मंदिर एक बार खुला तो फिर बंद नहीं हुआ। कई और धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों या प्रतिष्ठानों में भी संक्रमित लोग पाये गये। 5 अगस्त को अयोध्या में जब स्वयं प्रधानमंत्री के कर-कमलों से मंदिर का शिलान्यास हो रहा था तो अयोध्या के कुछ हलकों में कथित रामभक्तों का मेला सा लगा हुआ था। सैकड़ों लोगों की भीड़ को नाचते-गाते दिखाया गया। ये सब रिकार्डेड तथ्य हैं। पर मीडिया, खासकर न्यूज चैनलों के जरिये किसी के बारे में वैसा दुष्प्रचार नहीं किया या कराया गया, जैसा तब्लीगी जमात के बारे में हुआ था। जमात के जिन लोगों को पुलिस ने अलग-अलग राज्यों में तरह-तरह के आरोपों के तहत गिरफ्तार किया था, अब अदालतें उनको क्रमशः बाइज्जत रिहा करने का आदेश दे रही हैं क्योंकि शासन ने जो भी आरोप मढ़े थे, वे सब आधारहीन पाये गये। इसके लिए न्यूज चैनलों द्वारा माहौल तैयार कराया गया था।

अब जबकि सबकुछ साफ हो चुका है, इन चैनलों ने अपने घृणित दुष्प्रचार और फेक न्यूज के लिए आज तक न माफी मांगी और न ही किसी भारतीय प्रेस नियामक प्राधिकार या कौंसिल ने इस बाबत किसी तरह की कार्रवाई की।

क्या यह किसी कार्यशील और गतिशील जनतंत्र की निशानी है? क्या इससे यह साफ नहीं होता कि इस वक्त अपने समाज में ‘फेक न्यूज’ और ‘हेट न्यूज’ के सबसे बड़े स्रोत कुछ ‘मोबाइल मेसेजिंग ऐप’ के अलावा सरकार का ‘बैंड-बाजा बने’ टीवी न्यूज चैनल ही हैं! ये चैनल खास राजनीतिक एजेंडे के तहत झूठी या नफरती खबरों का धंधा करते हैं। कुछ शक्तिशाली संगठनों द्वारा इनकी खबरों का अपने राजनैतिक-औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। मीडिया और खबर के धंधे की ऐसी अमर्यादित और कलंकित तस्वीर कहां मिलेगी!

महामारी से निपटने के लिए सरकार ने 20 लाख करोड़ के एक पैकेज की घोषणा की थी। उसमें स्वास्थ्य सेवा संरचना के विकास के लिए भी एक निश्चित रकम शामिल होने का दावा किया गया था। ‘पीएम केयर’ नामक एक अलग कोष भी बना, जिसकी किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं सुनिश्चित की गई। इन मदों से कुछ हजार वेंटिलेटर्स और मेडिकल स्टाफ के लिए मास्क और पीपीई किट्स आदि खरीदे जाने की सूचना सामने आई। पर स्वास्थ्य सेवा संरचना के विस्तार और विकास के लिए केंद्र ने राज्य़ों को कितना सहयोग दिया? कुछेक राज्य़ों को जो रकम मिली, वह उनके आपदा प्रबंधन फंड़ की लंबित राशि के हिस्से के तौर पर थी। इस कोष में जिन राज्यों को पहले रकम मिल चुकी थी, उन्हें कोविड-19 से निपटने के लिए खास सहयोग नहीं मिला। अब तो राज्यों को उनके जीएसटी की लंबित किस्तें तक नहीं मिल रही हैं।

दुनिया भर के मीडिया में खबरें आ रही हैं कि मोदी सरकार ने भारत की चढ़ती हुई अर्थव्यवस्था का सत्यानाश कर दिया लेकिन क्या मजाल कि हमारे मीडिया, खासतौर पर न्यूज चैनलों पर इस बाबत किसी तरह की चर्चा हो! जब अपने देश में कोविड-19 से प्रतिदिन संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या कई बड़े देशों के बीते छह से नौ महीने में कुल संक्रमित लोगों की संख्या को पार करने लगी तो हमारे न्यूज चैनलों के पर्दे पर सुशांत-रिया कथा किसी धारावाहिक के तौर पर चल पड़ी। शुरू में ही सरकारी पहल पर रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय धार्मिक धारावाहिकों की पब्लिक ब्राडकास्टर्स पर वापसी हुई थी। पर इन फार्मूलों से न तो महामारी थमनी था और न अर्थव्यवस्था की ढलान रूकनी थी। न्य़ूज चैनल फिर भी सत्ता की अनुशासित बटालियन की तरह डंटे रहे।

ऐसे में इन कथित न्यूज चैनलों को मीडिया कैसे कहा जा सकता है? उनमें मीडिया जैसा क्या बचा है, जिसके आधार पर उन्हें मीडिया या यहां तक कि गोदी मीडिया कहें?  फिलहाल तो वे सिर्फ सत्ता के ‘राजनीतिक औजार’ नजर आ रहे हैं, ऐसे औजार जिनका ‘प्रयोग’ जनता और समाज को भ्रमित, अशिक्षित और अपसूचित करने में हो रहा है! इसका कोई समाजशास्त्र नहीं है, सिर्फ ‘राजनीतिक षडयंत्र-शास्त्र’ है और वह है-महामारी, बेकारी, महंगाई और चारों तरफ मंडराती मौत की असलियत से आम लोगों का ध्यान हटाना। इसके लिए टेलीविजन को औजार बनाया गया है। बड़े घटनाक्रमों की सूचना और तथ्यात्मक जानकारी देने की बजाय टेलीविजन के जरिये खबरिया-बुलेटिनों और सायंकालीन चर्चाओं को वीभत्स धारावाहिकों में तब्दील किया गया है। कोरोना जैसे खतरनाक वायरस के हमले से बेहाल समाज और नागरिक जीवन पर चैनलों के सियासी औजार का यह सत्ता-प्रायोजित हमला हमारे वक्त की बड़ी त्रासदी है!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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