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ज़रूरत: स्वास्थ्य सर्वोच्च प्राथमिकता बने

महामारी के अनुभवों का अगर कोई सबसे बड़ा सबक़ है तो यही है कि हमारे जैसे देश के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के व्यापक और मजबूत ढाँचे का कोई विकल्प नहीं है।
कोरोना वायरस

अब देश में महामारी के लगभग 80-85 हजार नए मामले रोज आ रहे हैं और 1 हजार के आसपास लोगों की प्रतिदिन मौत हो रही है। ट्रेंड के अनुसार आज रात भारत कुल मामलों के लिहाज से ब्राज़ील से आगे निकल जायेगा और केवल अमेरिका से पीछे है।

दरअसल, देश के अलग अलग इलाकों में सीरो टेस्ट के नतीजों से साफ है कि महामारी देश की आबादी के अच्छे खासे हिस्से को प्रभावित कर चुकी है और तेज रफ्तार से उसका प्रसार जारी है। तेजी से फैलता संक्रमण अब herd immunity के भरोसे छोड़ दिया गया है, जिसमें अप्रत्याशित स्तर पर मौतों का खतरा बढ़ गया है। महामारी को हम (contain) नियंत्रित कर पाते तो यह immunisation वैक्सीन के माध्यम से होता और हमारे देशवासियों के जीवन को कम क्षति होती, जो रास्ता  महामारी के फैलाव पर प्रभावी नियंत्रण हासिल कर अन्य देश अपने लिए बनाने में सफल हुए हैं।

यह भयावह स्थिति महामारी से निपटने की मोदी सरकार की करतूतों - acts of omission and commission - का दुःखद परिणाम है। अन्य देशों ने जहां महामारी को विवेक और कुशलता के साथ contain किया, वहीं हमारे देश में इसे तमाशा बना दिया गया, राजनैतिक स्वार्थ के लिए-नमस्ते ट्रम्प, मप्र में सरकार गिराने बनाने-containment के प्रयासों में आपराधिक देरी की गई, तबलीगी जमात और मुसलमानों को खलनायक बनाने में पूरी ऊर्जा लगा दी गई, अविवेकपूर्ण ढंग से लॉकडाउन लागू किया गया, फिर उतने ही मूर्खता पूर्ण ढंग से खोला गया, बड़ी बड़ी परीक्षाएं तक छात्रों-अभिभावकों के लाख विरोध के बावजूद युवाओं की जान जोखिम में डाल कर करवाई जा रही हैं, चुनावों की जोर शोर से तैयारी चल रही है। बड़े शहरों में संक्रमण बुरी तरह फैलने के बाद प्रवासी मजदूरों को गांव जाने की अनुमति दी गयी, फलतः यह गांव गांव तक फैल गया जहाँ स्वास्थ्य सुविधायें शून्य हैं।

विशेषज्ञों ने पहले ही यह चेतावनी दी थी कि विराट आबादी, अत्यधिक जनसंख्या घनत्व, गरीबी, छोटे छोटे  कमरे/आवास, अशिक्षा, पिछड़ेपन आदि के कारण यहां यदि शुरू में ही महामारी को contain नहीं कर लिया गया तो यह भारत में भयावह रूप ले सकती है। आज वे बदतरीन आशंकाएं सच साबित हो रही हैं!

स्थिति की भयावहता कई गुना बढ़ गयी है क्योंकि हमारी स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही एकदम खस्ताहाल थीं, महामारी की पहली लहर में ही वे पूरी तरह चरमरा गयी हैं।

एक तरह से यह भयानक सच हमारे सार्वजनिक विमर्श से ओझल रहता था, कोरोना महामारी ने इसे  उजागर कर दिया कि हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की असलियत क्या है।

आयुष्मान बीमा योजना का प्रधानंत्री जी इस तरह ढिंढोरा पीटते थे जैसे भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में, 70 साल में पहली बार,  उन्होंने कोई क्रांति कर दिया है और अब कोई गरीब चिकित्सा के अभाव में नहीं मरेगा। आज कहाँ है आयुष्मान योजना? निजी अस्पताल में आम आदमी लिए बेड नही हैं, सरकारी अस्पताल भरे हैं और इतने बदहाल हैं की लोग वहां जाने से डर रहे हैं।

आज आयुष्मान योजना का खोखलापन पूरी तरह बेनकाब हो गया है।

सच्चाई यह है कि भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र को कभी भी महत्वपूर्ण प्राथमिकता माना ही नहीं गया। जरूरत थी कि स्वास्थ्य के अधिकार को आजाद भारत में नागरिकों के बुनियादी अधिकार के रूप में स्वीकार किया जाता और आम आदमी के स्वास्थ्य का दायित्व सरकार वहन करती।  समाजवादी देशों में तो यह रहा ही है, यूरोप के देशों में भी जो लोक-कल्याणकारी राज्य की धारणा आयी , उसका एक प्रमुख स्तंभ यही था कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत किया जाय और सरकार जनता के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी ले।

भारत में वैसे तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की शुरू से ही उपेक्षा हुई, पर 90 के दशक में नव-उदारवादी नीतियों के आगमन के साथ यह परिघटना नए धरातल पर पहुंच गई। स्वास्थ्य क्षेत्र में  बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र का प्रवेश शुरू हुआ। देखते देखते प्राइवेट मेडिकल कालेजों, अस्पतालों , नर्सिंग होम की बाढ़ आ गयी जो दरअसल मुनाफाखोरी और लूट के अड्डे बन गए। उसी अनुपात में सरकारी अस्पताल और स्वस्थ्य सेवाओं की बदहाली और उपेक्षा और बढ़ती चली गयी। आम आदमी के लिए निजी अस्पताल में बेहद मंहगा इलाज हासिल करना संभव नहीं था और सरकारी अस्पताल खुद ही बीमार-खस्ताहाल होते गए।

आज हालत यह है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में कुल सरकारी खर्च हमारी जीडीपी का मात्र 1.28% (2018-19) है । यह यूरोपियन यूनियन के देशों में 7% है।

दरअसल, हमारे यहां सरकारी खर्च हमारे गरीब पड़ोसी देशों भूटान, श्रीलंका, नेपाल से भी कम है। यह दुनिया के Lower Income Countries के स्वास्थ्य सेक्टर पर औसत सरकारी खर्च ( जीडीपी के 1.57% ) से भी कम है।

अगर स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च को देखें, जिसमें सरकारी और निजी खर्च दोनों शामिल है तो यह क्यूबा में 11.74%, फ्रांस 11.31%, जर्मनी 11.25%, UK 9.63% है, वहीं यह भारत में शर्मनाक 3.53% है (2017 ), जो Sub-Sahara क्षेत्र के सबसे गरीब देशों के औसत 5.18% से भी काफी कम है।

यह गौरतलब है कि यूरोपीय देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का मजबूत ढांचा है जो आम जनता के लिए सुलभ है।

परन्तु अमेरिका में बीमा आधारित निजी अस्पतालों का ढांचा है। यहाँ इलाज बीमा प्रीमियम भर सकने वालों को ही उपलब्ध है। इसी की नकल मोदी जी भारत में कर रहे हैं। लेकिन अमेरिका में स्वास्थ्य पर कुल खर्च जीडीपी का 17.06% है और भारत में 3.53% !

यह अनायास नहीं है कि यूरोप की तुलना में अमेरिका में मौतें अधिक हो रही हैं और उनमें सबसे ज्यादा कमजोर आर्थिक स्थिति के काले और अफ्रीकी-अमेरिकी हैं जो बीमा आधारित इलाज का खर्च नहीं वहन कर सकते।

सरकारी अस्पतालों को ध्वस्त कर स्वास्थ्य सेवाओं को और भी बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र के हवाले किया जा रहा है। सरकारी अस्पताल ppp मोड पर निजी क्षेत्र को सौंपे जा रहे है, ऊपर से सरकार उन्हें चलाने के लिये पैसे भी दे रही है। पैसा सरकार का,  मुनाफा निजी मालिकों का !

निजी अस्पतालों और बीमा कम्पनियों पर आधारित मॉडल जब खुद धनवानों के देश अमेरिका में बुरी तरह फेल हो गया तो विराट गरीब आबादी वाले हमारे देश में कैसे सफल होता!  संवेदनहीनता का आलम यह है कि, महामारी का संकट आते ही निजी क्षेत्र के अस्पतालों ने हाथ खड़े कर दिए, सरकार के दबाव डालने पर ही वे हरकत में आये क्योंकि उनके लिये अपना मुनाफा और निजी सुरक्षा सर्वोपरि है।

महामारी के अनुभवों का अगर कोई सबसे बड़ा सबक है तो यही है कि हमारे जैसे देश के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के व्यापक और मजबूत ढाँचे का कोई विकल्प नहीं है।

लेकिन मोदी सरकार जनता के जीवन के इस सबसे जरूरी सवाल पर इतनी कीमत चुकाने के बाद भी गंभीर होने की बजाय शिगूफेबाज़ी पर आमादा है।

15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री जब सम्बोधन के लिए खड़े हुए तो बहुतों को  उम्मीद थी कि महामारी की विभीषिका के बीच राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए वह कोरोना की चुनौती से युद्धस्तर पर निपटने की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदमों, उपायों तथा सबको कारगर इलाज मिल सके इसके लिए स्वास्थ्य सेवाओं के सम्बंध में कुछ जरूरी नीतिगत घोषणाएं करेंगे। 

परन्तु यह सब तो उनके भाषण से बिल्कुल गायब ही था। अलबत्ता उन्होंने एक नया शिगूफा छोड़ दिया नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन (NDHM ) का- हर भारतीय का National Health ID बनेगा जिसमें उसका सारा मेडिकल रिकार्ड रखा जाएगा। यानी एक और कार्ड (मोबाइल App के माध्यम से) -आधार, वोटर, पैन..... अब हेल्थ ID. 

लगे हाथों प्रधानमंत्री ने इसे स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक नई क्रांति घोषित कर दिया !

सचमुच, यह देखना बेहद निराशाजनक था कि जब दुनिया की सभी जिम्मेदार सरकारें अपने अपने देशों में कोरोना की चुनौती से निपटने के लिए तत्काल क्या किया जाना है, इसकी कोशिशों में युद्धस्तर पर लगी हुई हैं, उस समय हमारा देश, जिसे दुनिया में कोरोना का epicentre कहा जा रहा है, उसके प्रधानमंत्री वर्तमान समय की इन ठोस चुनौतियों पर बात करने की बजाय संदिग्ध उपयोगिता वाले एक ID की हवा हवाई घोषणा को क्रांति बताकर पेश करे रहे हैं।

याद करिये, नोटबन्दी के समय यही किया गया था। जब अर्थशास्त्रियों ने कहा कि इससे जीडीपी तेजी से गिर रही है तो जवाब दिया गया कि इससे देश digital होने की ओर बढ़ रहा है! इसी तरह अब नया जुमला है, देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में digital होरहा है।

प्रधानमंत्री जी को इसका जवाब देना चाहिए कि इस पूरे मामले में जो stakeholders हैं, क्या उनमें से किसी ने इसकी मांग की थी? स्वास्थ्य राज्य सूची का अंग है। क्या राज्य सरकारों से consult किया गया? इस ID में जब नागरिकों की प्राइवेसी का गंभीर मामला involve है, तब बिना संसद में इस पर विचार हुए जहां पहले से ही privacy bill लंबित है, इसे कैसे घोषित कर दिया गया ? क्या देश के स्वास्थ्य विशेषज्ञों, चिकित्सकों अथवा जनता की ओर से ऐसी मांग हुई कि ऐसी ID बनना इस समय जरूरी है?

खबरों के अनुसार एक IT कंसल्टिंग फर्म को National Health Stack बनाने का काम दिया जा रहा है जो देश के 8 लाख डॉक्टरों, 10 लाख फार्मासिस्ट, 60 हजार अस्पतालों को जोड़ेगी, बाद में इसमें ऑनलाइन फ़ार्मेसी, बीमा कंपनियों, और दूसरे stakeholders को भी जोड़ लिया जाएगा।

विशेषज्ञों का मानना है कि इस पूरी कवायद में हजारों करोड़ खर्च होंगे।

महामारी के इस दौर में जब हम अपनी जान पर खेल कर काम में लगे तमाम डॉक्टरों, नर्सों को कई जगहों पर समय से वेतन नहीं दे पा रहे, हमारे पास पर्याप्त संख्या में मेडिकल स्टाफ, बेड, वेंटिलेटर, अस्पताल नहीं हैं तब सरकारी खजाने से इस संदिग्ध उपयोगिता वाली कागजी योजना पर हजारों करोड़ खर्च करना राष्ट्रीय अपराध से कम नहीं है।

इसी तुगलकी सोच और सनकभरी घोषणाओं ने आज देश को गहरे संकट में धकेल दिया है और हमारी करोड़ों जनता की जान पर बन आयी है।

हम उम्मीद करें कि आने वाले दिनों में जनता के जीवन की बेहतरी की लिए विराट जनजागरण और आंदोलन इस देश में खड़ा होगा, जिसके बैनर पर सबसे ऊपर लिखा होगा " जनता का जीवन हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है, जनस्वास्थ्य हमारा सर्वोच्च कार्यभार।"

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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