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यह स्मृति को बचाने का वक़्त है

हमसे कहा जा रहा हैः हम सब-कुछ भूल जायें। हम पॉलिटिक्स न करें। जिसने देश को मुर्दाघर बना दिया—उसके साथ बैठकर विकास की बात करें। यही वो वक़्त हैः जब स्मृति को बचाने के लिए हमें हमलावर होना चाहिए।
यह स्मृति को बचाने का वक़्त है

कई तरह की बीमारियां लायी गयी हैं: हमारी स्मृति को धुंधला कर देने, फिर उसे नष्ट कर देने के लिए।

बीमारियां आसमान से नहीं टपकतीं, न वे ख़ुद-ब-ख़ुद हवा में तैरती चली आती हैं। उन्हें सोच-समझकर लाया जाता है। और फिर तोप के गोले की तरह लोगों पर दाग दिया जाता है। और कहा जाता है लोगों सेः तुम सब-कुछ भूल जाओ, सिर्फ़ बीमारी और उसके ख़ौफ़ और अपनी मौत के बारे में सोचो, कारणों के बारे में बात तक न करो।

यह सवाल न करो कि बीमारियों से कौन फ़ायदा उठा रहा है। कौन अकूत मुनाफ़ा कमा रहा है। कौन प्रति घंटा 90 करोड़ रुपये की कमाई कर रहा है। कौन जानलेवा हथियारों, घातक क़ानूनों से लैस हो रहा है। कौन है वह जो सारे लोकतांत्रिक संस्थानों को नष्ट करता हुआ आपदा को अवसर की तरह भुना रहा है। कौन है वह जो देश को क़ब्रिस्तान, जलती चिता बना रहा है और देश को लगातार बेच भी रहा है।

इस पर बात न करो।

अगर ऐसा न हो तो ज़हरीले शासक वर्ग का काम कैसे चले। अगर ऐसा न हो तो लूटपाट करनेवाले अश्लील पूंजीपतियों का काम कैसे चले।

बीमारी दुनिया भर के सरमायेदारों और हरामज़ादे थैलीशाहों के लिए दुधारू भैंस है।

हमसे कहा जा रहा हैः हम सब-कुछ भूल जायें। हम पॉलिटिक्स न करें। जिसने देश को मुर्दाघर बना दिया—उसके साथ बैठकर विकास की बात करें।

यही वो वक़्त हैः जब स्मृति को बचाने के लिए हमें हमलावर होना चाहिए। हमें कहना चाहिएः हत्यारों, जनसंहार रचाने वालो, स्मृति का ध्वंस करनेवालो, भारत छोड़ो! सफ़ेद दाढ़ी की आड़ में रक़्त की नदी बहाने वालो, तुम सबको अरब सागर में फेंक दिया जाना चाहिए!

ऐसे में हमें अपने देश को नये सिरे से ढूंढ़ना चाहिए।

यही वो वक़्त है जब हम कश्मीर को याद करें। कश्मीर की जनता 5 अगस्त 2019 से लगातार कर्फ़्यू, लॉकडाउन, घेराबंदी, तलाशी, फ़र्ज़ी मुठभेड़, सेना की गोलीबारी के बीच रह रही है। किस तरह रह रही है। हम उसके साथ खड़े हों। उसके असह्य दुख और यातना को महसूस करें। और कश्मीर को कश्मीर की जनता को कभी अपने दिमाग़ी नक़्शे से गायब न होने दें।

यही वो वक़्त है जब हम भीमा कोरेगांव को याद करें। याद करें उन 16 आला दिमाग़ों को जो वर्षों से जेलों में बंद हैं। सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने ग़रीबों के लिए लड़ाई लड़ी। सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने न्याय का पक्ष लिया। सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने सत्ता से सवाल किया। और ज़ालिम तानाशाह का हुक़्म मानने से इनकार किया। भीमा कोरेगांव अब सिर्फ़ एक जगह का नाम नहीं।

यही वो वक़्त है जब हम शाहीन बाग़ को याद करें। यानी नये भारत की खोज की मुहिम। जिसने देश के संविधान की प्रस्तावना की ओर हमारा ध्यान दिलाया। जिसे 70 सालों से भुलाया जा चुका था। विस्मृति के ख़िलाफ़ सभी नागरिकों को एकजुट करने की कारगर लड़ाई का मैदान बना शाहीन बाग़। ब्राह्मणी पितृसत्ता के ख़िलाफ़ औरतों की तनी मुट्ठियां।

यही वो वक़्त है जब हम दिल्ली हिंसा फ़रवरी 2020 को न भूलें। यह सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमानों का क़त्लेआम था। बड़ी सरकार की सरपरस्ती में। जब क़त्लेआम करा रही बड़ी सरकार तब छोटी सरकार हाथ बांधे खड़ी थी। वह इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर रही थी। उसका मौन इस भयानक अपराध में भागीदार था। जो इस हिंसा के शिकार हुए, जिन्होंने इस हिंसा को रोकने की कोशिश की, ऐसे कई नौजवान स्त्री-पुरुष साथियों को झूठा-बेबुनियाद आरोप लगाकर जेलों में डाल दिया गया। इनमें मुसलमानों की संख्या ज़्यादा। दिल्ली हिंसा ने एक बार फिर बतायाः हिंदुस्तान में मुसलमान होना किसी गुनाह से कम नहीं। हिंदुस्तान में इंसाफ़पसंद होना किसी गुनाह से कम नहीं।

यही वो वक़्त है जब हम दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन व जत्थेबंदी को याद करें। और उसके साथ जुड़ें। तीन किसान-विरोधी कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ 26 नवंबर 2020 से जारी यह किसान आंदोलन लोकतंत्र के विस्तार का सुनहरा संकेत है। इस आंदोलन ने शायद पहली बार बतायाः सिर्फ़ ‘किसान भाई’ ही नहीं होते, ‘किसान बहनें’ भी होती हैं। और उनकी अगुआ भूमिका होती है। कई तरह की दिक्कतें हैं जटिलताएं हैं। लेकिन यह किसान आंदोलन नयी इबारत लिख रहा है।

यही वो वक़्त है जब दिल्ली के रीगल बस स्टैंड को याद किया जाये। यहां दिल्ली परिवहन निगम की 9 नंबर की बस से एक नौजवान लड़की उतरती थी। एक नौजवान लड़का उसका इंतजार करता होता था। वे दोनों इंडियन कॉफ़ी हाउस में हॉट कॉफ़ी पीते। कभी जेब में कुछ ज़्यादा पैसे हुए एक प्लेट सांबर-वड़ा मंगा लिया जाता। उसी से उन दोनों का काम चल जाता। उन दिनों इंडियन कॉफ़ी हाउस प्रेम साहित्य कला राजनीति का नायाब अड्डा होता था। वह पवित्र आवारागर्दों का पता-ठिकाना होता था।

यही वो वक़्त है जब जिंदा रहने आगे लड़ने के लिए नये प्रेम की संभावना तलाशी जाये। और पुराने सभी प्रेमों को पुनर्जीवित किया जाये। प्रेम करने का सिलसिला बिना रुके जारी रहना चाहिए। यही चीज़ हमें बचायेगी। हमारी स्मृति को बचायेगी।

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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