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संकट: मज़दूरों का पलायन मानवीय त्रासदी के साथ आर्थिक व्यवस्था की नाकामी भी है

महानगरों से लाखों श्रमिकों का पलायन एक मानवीय त्रासदी के अलावा यह भी दर्शा रहा है कि अपने कठोर परिश्रम से शहरी जीवन को संचालित करने वालों के प्रति हमारे महानगर कितने निष्ठुर हैं।
मज़दूरों का पलायन
Image courtesy: Twitter

देश भर में सड़कों और हाईवे पर लोगों की कतारें सरकारों को परेशान कर रही हैं। कोरोना वायरस के रोकने के लिए पूरे देश में 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा के बाद से पिछले चार दिनों में देश के अलग अलग हिस्सों में एक नया संकट उभरा है। इसमें लोग जत्थों में महानगरों से अपने घरों के लिए निकल पड़े हैं।

इस पूरे घटनाक्रम को मज़दूरों का पलायन कहा जा रहा है, लेकिन यह न तो सिर्फ पलायन है, न ही इसमें केवल मज़दूर शामिल हैं, यह उससे कही ज्यादा है। इसमें कामगारों के अलावा छात्र और अन्य असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोग शामिल हैं। दरअसल हजारों की संख्या में लोगों का सड़कों पर आना और पैदल ही अपने गांव की ओर चल पड़ना अपने आप में कई वजहें छिपाए है।

साथ ही सवाल यह भी है कि जब बार-बार यह कहा जा रहा था कि जो जहां है वह वहीं रहें तो फिर ऐसी नौबत क्यों आई कि लाखों लोग अनजानी आशंका से घिर गए और अपना ठौर-ठिकाना छोड़कर निकल लिए?

सबसे पहला कारण आर्थिक परेशानी का है। कामकाज बंद होने के चलते बड़ी संख्या में लोग आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं। हालांकि सरकारों ने इसके लिए व्यवस्था की है लेकिन लोगों को सरकारी व्यवस्था पर उतना भरोसा बचा नहीं है। भरोसे का टूटना एक दिन में नहीं हुआ है। सालों या कहें दशकों तक सरकारों ने जो रवैया देश की जनता के साथ दिखाया है सड़कों पर निकली यह भीड़ उसी का परिणाम है।

दरअसल ऐसे किसी भी संकट के समय इस देश की सरकारों ने देश की जनता को अकेले छोड़ दिया है। इसलिए इस बार भी लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा है। इस देश के ज्यादातर लोगों का अनुभव यही होता है कि आप अपने भरोसे जो अच्छा कर लें, वो कर लें, देश की सरकारें आपके पीछे नहीं खड़ी हैं।

हालांकि इस बार की त्रासदी थोड़ी ज्यादा बड़ी है। अपनी नाक बचाने के लिए ही केंद्र एवं राज्य सरकारें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के इन लोगों को सुरक्षित ठिकानों पर ठहराने और उनके खाने-पीने की उचित व्यवस्था करने में जुटी हुई हैं। इस व्यवस्था में समाज के सक्षम तबके, स्वयंसेवी संस्थाओं की ओर से बढ़-चढ़कर जिस तरह योगदान दिया जा रहा है वह भी काबिले तारीफ़ है।

इसी तरह दूसरा कारण भावनात्मक है। बड़े शहर लोगों को रोजगार तो मुहैया करा दे रहे हैं लेकिन भावनात्मक स्तर पर लोग इससे कनेक्ट नहीं हो पा रहे हैं। इस महामारी और संकट के बीच वो गांव या घर पहुंचकर खुद को सुरक्षित महसूस कराना चाह रहे हैं।

यह भी बहुत अजीब सी बात है कि अपने कठोर परिश्रम से शहरी जीवन को संचालित करने वालों के प्रति हमारे महानगर निष्ठुर नजर आ रहे हैं। शहरों की चकाचौंध, ऊंची इमारतें, सफाई व्यवस्था, सड़कें सब यही मजदूर बनाते हैं। लेकिन यही महानगर उन्हें पराया मानते हैं। ये गंभीर सवाल है जिस पर हर किसी को और खासकर राजनीतिक वर्ग को कहीं अधिक गहनता से विचार करना होगा।

यह वही राजनीतिक वर्ग है जो दिन-रात गरीबों-मजदूरों के हित की बातें करता है, लेकिन जब उसके लिए अपने कहे को सार्थक साबित करने का अवसर आया तो वह नाकामी की इबारत लिखते हुए पाया गया।

अगर हम सिर्फ दिल्ली एनसीआर की बात करें तो यहां हजारों की संख्या में राजनेता रहते हैं लेकिन पिछले चार दिनों से सड़कों पर घूम रहे मजदूरों की फिक्र लेने ये सड़कों पर नहीं नज़र आए। जब आनंद विहार में ये मजदूर लाइन में लगे हुए थे तब किसी भी नेता ने जाकर ये नहीं कहा कि इस दिल्ली को आपने बनाया है। आप इसे संकट के समय में छोड़कर मत जाइए। यहां आपके खाने पीने का इंतजाम है। रुक जाइए।

हालांकि अपील की जा रही थी लेकिन सोशल मीडिया के जरिये। लेकिन त्रासदी यह थी कि सोशल मीडिया में फैली तमाम अफवाहों ने उन मजदूरों को सड़क पर उतार दिया था। ऐसे में सड़क पर उतरे मजदूरों ने इन नेताओं के वीडियो को भी गंभीरता से नहीं लिया।

सबसे अंत में मजदूरों का पलायन मानवीय त्रासदी होने के साथ ही आर्थिक व्यवस्था की नाकामी भी है। रोजी रोटी के तलाश में पलायन सदियों से होता आया है। इसमें बुराई नहीं है लेकिन उदारीकरण के बाद जिस तरह की आर्थिक नीतियां हमारी सरकारों ने लागू किया है उसने इस पलायन में इज़ाफ़ा ला दिया है।

रोजगार की तलाश में बड़े शहरों में जाने की मजबूरी ने गांव के गांव खाली कर दिए है तो वहीं इसके उलट बड़े शहरों में दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है लेकिन सरकार इस व्यवस्था में बदलाव करने के आतुर नहीं दिख रही है।

उद्योगों के छोटे छोटे हब बनाने के बजाय सिर्फ मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों पर निर्भरता ने उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों को वीरान कर दिया है। ऐसे में जब इस वायरस ने लॉकडाउन के लिए मजबूर किया तो यह साफ दिखने लगा कि आर्थिक कुनीतियों के चलते कितनी बड़ी संख्या में पलायन हुआ है।

सड़कों पर निकली मजदूरों की भीड़ ने तमाम बातों के अलावा सरकारों और नीति नियंताओं को यह सोचने की राह भी दिखाई है कि वह अपनी आर्थिक नीतियों पर भी गंभीरता से विचार करें। इसमें बदलाव लाए ताकि ऐसी स्थिति का सामना आगे न करना पड़े। हालांकि कहा जाता है कि हर ऐसे बड़े संकट के बाद दुनिया की अर्थनीति में बड़ा बदलाव आता है। उम्मीद है कि इस बार का बदलाव मज़दूरों के हक़ में होगा।

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