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भारत
राजनीति
बिजली की मौजूदा तंगी सरकारी नियोजन में आपराधिक उपेक्षा का नतीजा है
जहां तक बिजलीघरों में पर्याप्त कोयला न रहने के वर्तमान संकट का सवाल है, यह नियोजन के अभाव और सरकार की घोर अक्षमता के योग का नतीजा है। 
प्रबीर पुरकायस्थ
18 Oct 2021
Translated by राजेंद्र शर्मा
Coal
Image Courtesy: New Indian Express

त्यौहार के इस मौसम में जब सामान्य रूप से बिजली की मांग ज्यादा बढ़ जाती है, मोदी सरकार ने बिजली की कृत्रिम तंगी पैदा कर दी है। कोविड-19 की दूसरी लहर के उतार के साथ, अर्थव्यवस्था के चक्के फिर चल पडऩे से, अक्टूबर में बिजली की मांग बढऩा पूरी तरह से प्रत्याशित था। इसके ऊपर से, इसमें त्यौहार का सीजन और जुड़ गया। ऐसे में बिजली की खपत में अच्छी-खासी बढ़ोतरी होनी तो तय ही थी। आज स्थिति  यह है कि शाम के बिजली की सबसे ज्यादा मांग के घंटों में करीब 7,000 मेगावाट की तंगी चल रही है। यह तंगी पंजाब, राजस्थान, झारखंड और बिहार में खासतौर पर ज्यादा है। लेकिन, दूसरे भी अनेक राज्यों में ब्लैकआउटों की आशंकाएं सिर पर मंडरा रही हैं। दिल्ली में लोड शेडिंग के नोटिस जारी कर दिए गए हैं और अन्य कई राज्यों ने भी बिजली में कटौती होने की संभावनाओं की चेतावनी दे दी है।

हमें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि बिजली की यह तंगी पूरी तरह से कृत्रिम है। हमारे देश में बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता 3,90,000 मेगावाट के करीब है। फिलहाल पीक मांग भी करीब 1,70,000 मेगावाट के करीब ही चल रही है, जो कि स्थापित क्षमता के 50 फीसद के बराबर भी नहीं है। ऐसी स्थिति में किसी भी तरह की लोडशेडिंग की जरूरत होनी ही नहीं चाहिए थी। तब यह बिजली का संकट देखने को क्यों मिल रहा है और पंजाब, झारखंड तथा राजस्थान बिजली की गंभीर कमी से क्यों जूझ रहे हैं?

क्या वजह है कि बिजली तथा कोयला मंत्रालयों ने आपस में तालमेल कर के यह सुनिश्चित नहीं किया कि अक्टूबर के महीने में बिजली की मांग में यह जो बढ़ोतरी होने ही वाली थी, उसके हिसाब से बिजलीघरों के पास कोयले का पर्याप्त स्टॉक हो? बिजली मंत्रालय ने यह कबूल किया है कि देश के 135 बिजलीघरों में कोयले के पर्याप्त स्टॉक नहीं हैं। सेंट्रल इलैक्ट्रिसिटी अथॉरिटी (सीईए) की रिपोर्टों के अनुसार, औसत स्टॉक करीब चार दिन का है, जबकि बिजलीघरों में कम से कम 20 दिन का कोयले का स्टॉक रखे जाने का नियम है।

इस तरह, बिजली मंत्रालय खुद ही कबूल कर रहा है कि बिजलीघरों में कोयले की भारी किल्लत हो गयी है। बिजलीघरों के कोयले के स्टॉक के संबंध में सीईए की रिपोर्ट बताती है कि 135 बिजलीघरों में से, 16 बिजलीघरों में, जिनकी 17,000 मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है, कोयले के भंडार शून्य स्तर पर पहुंच चुके हैं। इसके अलावा 76 और बिजलीघरों में, जिनकी उत्पादन क्षमता कुल 98,000 मेगावाट की है, चार दिन से कम का कोयला रह गया है!

यह सब को पहले से पता था कि मानसून का असर कोयले के उत्पादन पर पड़ता ही है। पूर्वी क्षेत्र में, जहां अनेक कोयला खदानें हैं, इन महीनों में बारिश और बाढ़ की मुश्किल का सामना करना ही पड़ता है। इसीलिए तो कोल इंडिया ने बिजलीघरों से आग्रह किया था कि मानसून के चलते कोयला उत्पादन में गिरावट आने से पहले, अपने यहां कोयले का अतिरिक्त भंडार कर के रखें। लेकिन बिजलीघरों ने, जिनमें केंद्र सरकार द्वारा संचालित एनटीपीसी के बिजलीघर भी शामिल हैं, कोयले के अतिरिक्त भंडार जमा नहीं किए।

इस साल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कोयले के दाम, पिछले साल के 60 डालर प्रतिटन से बढक़र, इस साल 180-200 डालर प्रतिटन हो जाने ने, जाहिर है कि समस्या और बढ़ाने का ही काम किया है। टाटा और अडानी के मुंद्रा बिजलीघर ने, जो आयातित कोयले पर निर्भर है, अपने बिजली उत्पादन में उल्लेखनीय कटौती कर दी। आयातित कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को सिर्फ बहुत ऊंचे दाम की बिजली के बल पर चलाया जा सकता है, जैसे पीक ऑवर की किल्लत की भरपाई के लिए बिजली, जिसका दाम 16-20 रुपए प्रति यूनिट बैठता है।

लेकिन, भारत दुनिया के सबसे बड़े कोयले के भंडार वाले देशों में आता है। इसलिए, हमारे देश में कोयले की कमी क्यों हो रही है और खासतौर पर बिजली जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए कोयले की आपूर्ति में तंगी क्यों देखने को मिल रही है? क्या वजह है कि पिछले कई महीने से बिजलीघरों में कोयले के स्टॉक, सामान्य से निचले स्तर पर चल रहे थे? इसके बावजूद क्यों सरकार ने इसकी कोई तैयारी नहीं की कि जब अर्थव्यवस्था दोबारा खुलेगी, बिजली की मांग बढऩे ही जा रही है? उसके ऊपर से त्यौहार का सीजन आ रहा है, जब बिजली की जरूरत अपने शीर्ष पर पहुंच जाती है। क्या इसे मौजूदा सरकार की मुजरिमाना लापरवाही का ही मामला नहीं कहा जाएगा?

कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कोयले की किल्लत के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमतों में बढ़ोतरी को और भारी बारिश को जिम्मेदार ठहराया है। उनकी यही मेहरबानी क्या कम है कि उन्होंने यह तो मान लिया कि कोयले की किल्लत है। वर्ना मोदी सरकार के ज्यादातर प्रवक्ता तो किसी किल्लत के होने से ही इंकार करने में लगे रहे हैं। वैसे यह भी उनकी मेहरबानी है कि इस बार इस संकट के लिए उन्होंने राष्ट्रविरोधी ताकतों और विपक्षी पार्टियों को दोष नहीं दिया है।

इस बार किल्लत का ठीकरा कोल इंडिया के सिर पर फोड़ा जा रहा है, जो दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खनन कंपनी है। 2016 में कोल इंडिया के हाथों में पचास हजार करोड़ रुपए  का कैश रिजर्व था, जो 2021 तक घटाकर बीस हजार करोड़ रुपए के स्तर पर पहुंचा दिया गया है। इस कंपनी के कैश रिजर्व में यह गिरावट आयी है, उसके द्वारा केंद्र सरकार को दिए गए लाभांश से तथा सरकारी खाते में किए गए अन्य भुगतानों से। सरल भाषा में कहें तो अपने कैश रिजर्व का अपने विकास के लिए निवेश करने के बजाए, इस सार्वजनिक क्षेत्र कंपनी को मोदी सरकार के घाटे की भरपाई करने में अपने संसाधन डालने के लिए मजबूर किया जा रहा था। बल्कि यही कहना ज्यादा सही होगा कि इन संसाधनों का मोदी सरकार द्वारा देश के खरबपतियों, अंबानी, टाटा, अडानी आदि आदि को दी गयी कर रियायतों की भरपाई करने के लिए ही इस्तेमाल किया जा रहा था।

कोल इंडिया, भारतीय रेलवे की कमाई का भी सबसे बड़ा स्रोत है। रेलवे की यह कमाई होती है, बिजलीघरों के लिए कोयले की ढुलाई से मिलने वाले भाड़े से। घरेलू कोयला उपभोग के 85 फीसद की आपूर्ति भी कोल इंडिया ही करता है, यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद कोयला खदानें निजी क्षेत्र के हवाले करने की नीति को, यूपीए और मोदी सरकारों ने मिलकर आगे बढ़ाया है। एक कटु सत्य, जिसे जनता से छुपाने के लिए बाजार- पूजक कुछ भी करने को तैयार हो जाएंगे, यही है कि ढांचागत क्षेत्र के मामले में बाजार काम नहीं करता है। कोयला क्षेत्र ने एक बार फिर इस सचाई को हमारे सामने ला दिया है।

पिछले दो साल से लगातार कोयले का उत्पादन घटता रहा था क्योंकि कोविड-19 की महामारी की कोयला उद्योग पर भारी चोट पड़ी थी। लेकिन, इस दौरान ऊर्जा की जरूरत भी गिरावट पर बनी रही थी। लेकिन, जब कोविड- 19 की दूसरी लहर के बाद, अर्थव्यवस्था के चक्के घूमने शुरू हुए, उसके बाद यह समझने के लिए किसी आला दर्जे की विशेषज्ञता की जरूरत नहीं थी कि आने वाले दिनों में बिजली की मांग बढ़ेगी और इसलिए कोयले की मांग भी बढ़ रही होगी। लेकिन, सवाल यह है कि जुलाई से अक्टूबर तक की इस अवधि में विद्युत मंत्रालय और कोयला मंत्रालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए क्या किया था कि कोयले से चलने वाले बिजलीघरों के पास कोयले के पर्याप्त भंडार हों?

और कोयले से चलने वाले बिजलीघरों ने कोयले के समुचित स्टॉक जमा कर के क्यों नहीं रखे और नियमानुसार जब उन्हें कम से कम 20 दिन का कोयला अपने पास रखना चाहिए था, उन्होंने इस नियम का पालन क्यों नहीं किया? इस सवाल का जवाब बहुत आसान है। कोयला जमा करके रखने का मतलब है, अतिरिक्त लागत। दूसरे शब्दों में कोई बिजलीघर, कोयले के जितने कम भंडार में काम चलाएगा, उसका मुनाफा उतना ही बढ़ जाएगा। इसे पूंजीवाद का सब कुछ ‘ऐन वक्त पर’ का सिद्घांत कह सकते हैं। जहां तक किसी भी फर्म के अपने हित का सवाल है, उसके हित में तो यही होगा कि कोयले का कम से कम भंडार जमा कर के रखे, भले ही इसकी वजह से कभी-कभार उत्पादन ही घट जाने की और उसकी वजह से दूसरों को तंगी होने की नौबत ही क्यों नहीं आ जाए। ये स्वस्थ पूंजीवादी सिद्घांत या बाजार के नियम हैं, जिनसे कथित रूप से सार्वजनिक क्षेत्र अनजान ही होता है!

पिछले कुछ साल से भारत के सामने यह विकल्प मौजूद रहा था कि घरेलू कोयला उत्पादन में रह जाने वाली कसर को पूरा करने के लिए, इंडोनेशिया या आस्ट्रेलिया से कोयले का आयात कर ले। लेकिन, इस साल यह विकल्प उपलब्ध नहीं था। जैसे-जैसे विश्व अर्थव्यवस्था के चक्के चलने शुरू हुए, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कोयले के दाम बढक़र तीन गुने से ज्यादा हो गए। आयातित कोयले के दाम 60 डालर से बढक़र 200 डालर हो गए और इसका नतीजा यह हुआ कि मुख्यत: आयातित कोयले पर निर्भर बिजलीघरों ने बिजली उत्पादन में कटौती शुरू कर दी।

और जब बाजार में मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन पैदा होता है, उतार-चढ़ाव के बीच मांग की भरपाई के लिए, कच्चे माल या तैयार माल के अतिरिक्त भंडारों का होना जरूरी हो जाता है। लेकिन, बिजली के क्षेत्र की असली समस्या यह है कि उसके तैयार माल यानी बिजली को, भंडार कर के नहीं रखा जा सकता है। कोयला-आधारित बिजलीघरों से उत्पादन को तो फिर भी पर्याप्त कोयला भंडारों की मदद से कम-ज्यादा किया जा सकता है, लेकिन जब हम अक्षय ऊर्जा के विकल्प पर चले जाएंगे और कोयला-आधारित बिजलीघरों से दूर चले जाएंगे, तब क्या होगा?

समस्या सिर्फ हमारी रोजमर्रा की बिजली की मांग और सौर व पवन बिजली के बीच असंतुलन की ही नहीं है। हमारी बिजली की मांग अपने चरम पर शाम को पहुंचती है, जब सूरज डूब जाता है। इसका समाधान यह बताया जा रहा है कि ग्रिड-समर्थ बैटरी बैंक बनाए जाएं यानी ऐसी विशाल बैटरियां लगायी जाएं, जो सूरज की रौशनी वाले घंटों में बिजली जमा कर के रख सकें और सूरज डूबने के बाद यह बिजली उपयोग के लिए उपलब्ध करा सकें। बहरहाल, वर्तमान संकट यह ध्यान दिलाता है कि अक्षय ऊर्जा के मामले में सिर्फ दिन-रात के चक्र की ही समस्या नहीं है बल्कि मौसमी चक्र की समस्या भी है। मिसाल के तौर पर इस समय जर्मनी, जिसने पवन बिजली पर काफी दांव लगाया हुआ है, अप्रत्याशित रूप से हवाओं के शांत हो जाने की समस्या का सामना कर रहा है, जिसके चलते उसे कोयले पर आधारित बिजलीघरों से आपूर्ति पर अपनी निर्भरता बढ़ानी पड़ी है।

तो जब हम हरित बिजली के विकल्प को अपनाएंगे, तो मौसमी बदलावों-मानसून और त्यौहारी सीजन की मांग के लिए क्या व्यवस्था करेंगे? लेकिन, इसका एक आसान समाधान, जो अब तक योजना निर्माताओं को पसंद नहीं आ रहा है (अगर अब कोई योजना निर्माता बचे हों), वह जल विद्युत के मामले में पम्प कर के भंडारण (पम्प्ड अप स्टोरेज) का है। हमारे जल विद्युत संसाधनों को आसानी से, विशाल बैटरियों के रूप में काम करने के हिसाब से तब्दील किया जा सकता है; जब ग्रिड में बिजली फालतू हो, पानी को पम्प कर के ऊपर उठाया जा सकता है और जब मांग हो, उसे नीचे लाते हुए बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन, बाजार की शक्तियों को ऐसे समाधान पसंद नहीं आते हैं जिनमें तेजी से पूंजी पर लाभ न आते हों, पर जो दीर्घावधि में समाज के लिए हितकारी हों। इसलिए, उपयोगिता के आकार की बैटरियों को ही ज्यादा बढ़ावा दिया जा रहा है।

जहां तक बिजलीघरों में पर्याप्त कोयला न रहने के वर्तमान संकट का सवाल है, यह नियोजन के अभाव और सरकार की घोर अक्षमता के योग का नतीजा है। मोदी सरकार अपने ही बिजली तथा कोयला मंत्रालयों के बीच तालमेल करने की अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी पूरी करने तक में विफल रही है और अब बहानों की तलाश कर रही है। यह सरकार तो माने बैठी थी कि  बाजार ही किसी चमत्कार से उसकी सारी समस्याएं खुद ब खुद हल कर देगा और उसे इसकी कोई मंसूबेबंदी करने की जरूरत ही नहीं थी कि जब अर्थव्यवस्था के चक्के चल पड़ेंगे, बिजलीघरों को अतिरिक्त कोयले की जरूरत पड़ेगी। अब देश को नियोजन के मामले में और मंत्रालयों के बीच के तालमेल जैसी न्यूनतम जिम्मेदारियां पूरी करने के मामले में भी, इस सरकार की अक्षमता की कीमत चुकानी पड़ रही है। इस संकट का एक और सबक यह भी है कि नीति आयोग, योजना आयोग की जगह नहीं ले सकता है, जिसे मोदी सरकार ने शुरूआत में ही भंग कर दिया था। 

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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