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यूपी चुनाव में दलित-पिछड़ों की ‘घर वापसी’, क्या भाजपा को देगी झटका?

पिछड़ों के साथ दलितों को भी आश्चर्यजनक ढंग से अपने खेमे में लाने वाली भाजपा, महंगाई के मोर्चे पर उन्हें लंबे समय तक अपने साथ नहीं रख सकती। 
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फाइल फोटो।

हिंदू-मुस्लिम और मंदिर कार्ड निश्चित तौर पर बीजेपी के लिये लंबी अवधि तक सत्ता में बने रहने का ट्रंप कार्ड साबित होता। और शायद यही वजह थी कि अमित शाह ने पूरे ठसक के साथ कहा था- अब बीजेपी 50 साल तक राज करेगी। लेकिन महंगाई और बेकारी के मैनेजमेंट को लेकर सत्ता में बैठी यह पार्टी खुद गफ़लत में रही।

पिछड़ों के साथ दलितों को भी आश्चर्यजनक ढंग से अपने खेमे में लाने के बावजूद महंगाई के मोर्चे पर अब ये पार्टी लंबे समय तक उन्हें अपने साथ नहीं रख सकती। यूपी विधान सभा चुनाव 2017, लोकसभा चुनाव 2019 और अब यूपी विधान सभा चुनाव 2022 की चुनावी जमीन के तुलनात्मक आँकलन में पूर्वांचल के ग्रामीण क्षेत्र की हवा तो यही कह रही है।

हिंदू-मुस्लिम कार्ड को बीजेपी का लंबी अवधि के शासन के लिए ट्रंप कार्ड कहने का आशय यही है कि बहुसंख्यक दलितों-पिछड़ों को अपने खेमे में लाने के लिए यही उसके पास बेहतर जमीन है। जहां सवर्ण तबके में मुस्लिमों से एक डर भर है तो दलितों-पिछड़ों में एक हद तक आक्रामकता भर गई है।

डा. आंबेडकर के संस्कृतिकरण संबंधी (ऊपर से नीचे की ओर अनुकरण) नजरिये और जमीनी पड़ताल में देखें तो यह बात बिल्कुल सच भी मालूम पड़ती है। वैसे भी खुद के मेहनत-मशक्कत से एक न्यूनतम निर्वाह स्थिति बनाने के बाद उनके उत्सवधर्मी तानेबाने में हिंदुत्व के गढ़े मिथक ही फिट बैठते हैं। इसीलिये बीजेपी बार-बार बिना किसी डर-भय के इस कार्ड को फेंकती रहती है।

पिछले चुनवों की जमीन:

लोकसभा चुनाव 2019 में गोरखपुर मंडल में वोटिंग के करीब एक हफ्ते पहले नगर के एक स्थानीय होटल में चुनावी आकलन करने पहुंचे बीबीसी पत्रकार और एक स्थानीय पत्रकार की चर्चा में पूरी तरह सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को दलित-पिछड़ा और अल्पसंख्यकों की लामबंदी का फायदा मिलने का विश्वास बन रह था। हालांकि उस समय इस विश्वास पर थोड़ी असहमति होने के बावजूद मैं चर्चा में अपना विश्वास नहीं प्रकट कर पाया।

चुनावी शाम में वोटिंग के लिए गांव (महराजगंज) लौटते समय रोडवेज के बस में नगर की दिहाड़ी से वोटिंग के लिए ही गांव लौटते दर्जन भर दलित-पिछड़े युवा हिंदुत्व और मंदिर के पक्ष में जोरदार बहस करते हुए मिले। वोटिंग के दिन सुबह से ही मेरे अपने गांव का दलित टोला आश्चर्यजनक रूप से कमलमय दिख रहा था। कइयों से पूछने पर यही पता चला कि वह राम मंदिर निर्माण के लिए बीजेपी को दोबारा जीतना जरूरी मान रहे हैं। बहरहाल, यूपी से लोकसभा में बीजेपी का प्रदर्शन शानदार रहा।

2017 के यूपी विधान सभा चुनाव में भी ग्रामीण क्षेत्र में दलितों-पिछड़ों के साथ यही स्थिति रही। ग्रामीण क्षेत्र में हिंदुत्व के नाम पर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का इन पर खासा असर रहा। महराजगंज और सिद्धार्थ नगर के एक सीमांत दलित गांव के कुछ युवाओं का इस संदर्भ में दिया गया जवाब उल्लेखनीय है। जहां वह कहते हैं- 'हम्मन के आसपास गांव के सब मुस्लिम विरादर एकजुट होके वोट करत हं, त हम हिंदू लोग के एक हो जायेके चाहीं'।

प्रथम करोना काल का मिलाजुला असर

यह भी सही है कि ग्रामीण क्षेत्र में इस तरह के ध्रुवीकरण पर तब तक नोटबंदी भी कोई सीधा-सीधा असर नहीं डाल पायी थी। लेकिन नोटबंदी, महंगाई और लॉकडाउन वाली क्रोनोलॉजी धीरे-धीरे अपना जमीनी असर बना रही थी। प्रथम लॉकडाउन के काल में इसका मिला-जुला असर साफ-साफ दिखा। महराजगंज में ही एक गांव के दलित परिवार से करीब आधा दर्जन लोग लुधियाना में फंसे थे। इस परिवार को उम्मीद थी कि योगी बाबा (मुख्यमंत्री) परदेशियों को लाने के लिए बस जरूर भेजेंगे।

यही नहीं लॉकडाउन को लेकर इस दलित टोले में अजीबोगरीब चर्चा चल पड़ी थी। जिसमें लोगों को यह कहते हुए सुना गया कि यह सब मोदी जी ने मंदिर निर्माण के लिये किया है, जिससे कि मुस्लिमों को भनक लगे बिना निर्माण कार्य पूरा हो सके। लेकिन लॉकडाउन अवधि की बढ़ती सीमा ने उस दलित परिवार की चिंता और मुश्किलें बढ़ानी शुरू कर दी। लुधियाना में जब उनके बच्चे खाने-पीने की मुश्किल में पड़ गए, तब उन्हें लगा कि सरकार से उम्मीदें बेमानी है।

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बेबस होकर उन्हें बच्चों से पैदल ही वहां से घर आने को कहना पड़ा, लेकिन तब तक प्रदेश की सीमाएं भी बंद हो चुकी थीं। भारी मुश्किलों के बीच वह किसी तरह घर पहुंचे। बावजूद इसके कमजोर व अस्वस्थ हाल में उन्हें बगैर किसी सुविधा के गांव के बाहर क्वारंटीन काल बिताना पड़ा। लॉकडाउन काल में ही गांव में एक मुस्लिम व्यक्ति ऑटो पर सब्जी बेचने आया। थूकने की अफवाह को लेकर गांव के दलित-पिछड़े टोले में लोग उससे सब्जी न खरीदने की आवाज उठाने लगे। 

ऐसी ही एक अन्य घटना में एक दलित परिवार का इकलौता 22 वर्षीय बेटा बेंगलुरु में फंसा पड़ा था। परेशान मां ने बताया कि उसी की कमाई के सहारे सूद के पैसे से घर निर्माण और बेटी की शादी ठान रखी है। इस मुश्किल में बेटे की इतनी दूरी से पैदल आने की जिद को कलेजे पर पत्थर रखकर रोकना पड़ा।

ढहती ग्रामीण अर्थव्यवस्था

प्रथम कोरोना काल के कुछ ही महीनों में ग्रामीण क्षेत्र के बहुसंख्यक कमाऊ पूत या सदस्य, नगरों और महानगरों से अपने गांव या घर लौट चुके थे। ये वही लोग थे जो पिछले कई दशकों से गांव की गरीब व तंगहाल बस्तियों में कम से कम खान-पान और रहन-सहन के स्तर पर चमत्कारिक परिवर्तन किये थे। इस कमाई से भले ही वह कोई संपत्ति नहीं बना पाये लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत बाजारवादी रेस में खड़े होने की गुंजाइश बना लिये थे।

गांव-कस्बे के गली-नुक्कड़ में चाय-पानी, साग-सब्जी या अंडा-चिकेन की दुकानें इन्हीं से गुलजार थीं। किसी परिवार के अगर दो बच्चे बाहर थे तो उस परिवार की हैसियत गांव में रह रहे एक औसत खेतिहर परिवार से बेहतर थी। ऐसे में वे सिर्फ नमक, तेल और राशन के लिये लालायित रहने वाली स्थिति ये ऊपर उठ चुके थे। इस संदर्भ में पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले 60 वर्षीय बरखू की यह बात मायने रखती है- 'बाबू, हमके उहो दिन याद बा जब एक पसर चाउर (चावल) के मुहताजी रहल, सेखुआ के फर (साखू का फल) उबाल के पेट भरल जा। अब तs बहुत फरक आ गइल'।

दूसरे कोरोना काल तक आते-आते गांवों में दलितों-पिछड़ों की यह न्यूननतम लेकिन संतोषजनक जीवन निर्वाह स्थिति भी ढहने लगी। अभी 50 फीसदी कामगार ही नगरों में लौट पाये थे। उसमें भी पहले जैसी पगार या दिहाड़ी बना पाने में कुछ थोड़े ही सफल हो पाये। बाकी के लिए गांवों में पहले से उजड़ती खेती, किसानी और मजदूरी की परिस्थिति प्रतिकूल थी। बेंगलुरू और हैदराबाद से लौटे कई लड़कों ने बताया कि डबल ड्यूटी करने के बाद भी सेठ पहले जैसा पगार देने में आनाकानी करते हैं।

एक रहस्यमयी खामोशी

दूसरे कोरोना काल के बाद 'सबका साथ सबका विकास' अपने असल रूप में सामने था। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बर्बादी के अच्छे दिन अब साफ-साफ दिखने लगे। गांवों में सब्जी, अंडे और कटेरों (चिकेन) की दुकानें बढ़ गईं। घट गये तो खरीददार। न पहले वाली भीड़, न पहले जैसी रौनक। भीड़ में जल्द से जल्द ग्राहकों की बारी का निपटान करने वाले नियाज, चिकेन शॉप पर फुर्सत में खड़े कहते हैं- 'बहुत मंदी आ गइल। केहू के पास पइसा नाहीं, का खरीदिहैं?'

बावजूद इसके महंगाई की मार और पस्तहाली के बीच ग्रामीण क्षेत्र में एक रहस्यमयी खामोशी थी। गांव कस्बों के चौराहों और खास जगहों पर वर्चस्ववादी या सवर्णवादी बहसों का जोर था। जिनमें राशन, गैस, सड़क-बिजली के साथ विश्वनाथ कॉरिडोर तक का महिमामंडन होता, साथ ही 'आयेंगे तो योगी ही' का संपुट होता। इन बहसों मे इस तबके का सतर्क मौन रहता। कभी-कभार ही प्रतिवाद के बोल सुनाई पड़ते। 

ट्रेन की एक यात्रा में 'उज्ज्वला' की बखान पर एक यात्री का ऐसा ही जमीनी प्रतिवाद गौरतलब है। जिसमें वह कहता है- 'सरकार ने गैस कनेक्शन देकर हमारी औरतों की आदत को बिगाड़ दिया है। अब वह लकड़ी-कंडी पर खाना नहीं बनाना चाहतीं। कालिख पुते बर्तन धोना अब उनके लिए मुश्किल काम है। कोरोना की वजह से सारे कामकाज बंद हैं। इस महंगाई में हर महीने हजार रुपये का प्रबंध कहां से हो? अब तो घर की थाली भी मुहाल होने वाली है।'

यूपी विधान सभा चुनाव, 2022

यूपी विधान सभा चुनाव, 2022 के कार्यक्रम घोषित होते ही स्थितियां एकदम से बदल गईं। यदा-कदा प्रतिवाद ने सीधा-सीधा बहस का रूप ले लिया। लगातार अंधड़-बारिश से खेती-किसानी की बर्बादी और रबी फसल व सब्जियों की नर्सरी में गाय-साड़ों की घुड़दौड़ से लोगों का गुस्सा उबाल पर था। हिंदू-मुस्लिम, मंदिर और हिजाब के मुद्दे उन्हें चुभने लगे। जैसे-जैसे चुनावी माहौल बनने लगा लोगों की खामोशी टूटने लगी। हार्डवेयर की एक दुकान पर कुछ युवाओं से चुनावी हाल पूछने पर वह कहते हैं- 'अबहिन तक हिंदुत्व पर वोट दिहल गइल, लेकिन अब हिंदुत्व खाये के नाहीं देई।'

हिंदुत्व व राष्ट्रवाद की आड़ में गोदी मीडिया के झूठे और नफरती अभियान अब पढ़े-लिखे दलित-पिछड़े युवा के लिए अबूझ नहीं थे। सोशल मीडिया में असल मुद्दों पर जमीनी पड़ताल और झूठ की पोस्टमार्टम करते तमाम वीडियो व खबर उनके स्मार्टफ़ोन की पहुंच में थे। किसान और छात्र-बेरोजगार आंदोलन की धमक अब गांव तक पहुंच चुकी थी। वह अपने आसपास की बहस में अब एक समझ बनाने में समर्थ थे। सिद्धार्थ नगर के बहादुरगंज कस्बे के चाय-नाश्ते वाले एक दुकानदार ने बताया- 'ई औरत सब राशन तेल के भुलावे में भले मगन हैं, घर के पढ़े-लिखे लड़के सब समझते हैं। वह झांसा में नहीं आने वाले।'

नहीं सुहाये विकास के दिव्य-भव्य प्रदर्शन

सरकारी माध्यमों और प्रचार तंत्र में विकास के दिव्य-भव्य प्रदर्शन भी लोगों को नहीं सुहाये। रैलियों में शक्ति प्रदर्शन के लिए गांवों में भेजे गए बस बहुतों को सड़कों पर पैदल चलने के दिन याद दिला दिए। गांव के एक दलित युवा का ऐसा ही भड़ास मायने रखता है- 'धरम-करम क काम चला ठीक बा। आज ई गांव-गांव बस अउर रुपिया भेजत हं। ऊ दिन नाही भुलाई जब हमन के मुंबई से पैदल चल दिहल गइल। राहि में पानी पूछे वाला केहू नाहीं ऊपर से डंडा बरसावल जात रहल।' वाकई, बेबसी-बेकारी ने कहीं न कहीं लोगों को आडंबर और पाखंड की चमक-दमक में अपनी स्थिति को देखने का हुनर सिखा ही दिया।

ऐसे ही गांव के रात्रिकालीन खुली बहस में कुछ युवकों की चर्चा मजेदार है। एक कहता है, 'राशन तेल मिलत बा, अब का चाहीं? दूसरा बोल उठा, 'मोटा चाउर अब के खात बा हो, यही पर ऊ वोट ले लीहें? पहले ने फिर कहा, 'का, तब तूहें सरकार कालानमक (स्थानीय खुशबूदार चावल की खास प्रजाति) देई।' इसी बीच कुछ और लड़के आते हैं, वह बताते हैं कि खेत में काला डाकू घुस गया है। सभी खेत की तरफ दौड़ते हैं। असल में यह काला डाकू एक काली गाय है जो अंधेरे में अपने कई बछड़ों के साथ खेतों में घुसती है।

बहस की एक ऐसी ही चर्चा गोरखपुर में ऑटो के सफर की है। ऑटो में मेरे अलावा एक सामान्य घर की महिला सहित सिर्फ दो लोग बैठे थे। लेबर चौराहे पर एक मजदूर व्यक्ति एकदम से बड़बड़ाते हुए अगली सीट पर आ कर बैठता है, 'सब परेशान बा। व्यापारी भी, दुकानदार भी, काम का मिली?' मैं भी तपाक से पूछ बैठा, 'काहें हो?' उन्होंने कहा, 'का पता बाबू।' 

कुछ ही दूर चलने पर एक मजदूर महिला ऑटो में बैठती है। उसके हाथ में मोदी झोला देखकर पहले से बैठी महिला हंसते हुए टोकती हैं, 'का हो, मोदी के वोट दियाई का?'  वह बोलीं, 'नाहीं हो, काहें मोदी के वोट दियाई, एतना महंगाई में जीयल दुश्वार कइले बाटं।' अब ऑटो ड्राइवर भी बहस में कूद पड़ा, 'काहे हो, राशन मिलत बा, चना मिलत बा अउर रिफाइन मिलत बा। अब का, पकौड़ी बना के खा।' महिला ने बहस खतम करते हुए कहा, 'चला-चला तुहीं भर समझदार नाहीं बाटा।'

अलग था वोटिंग की सुबह का नजारा

यूपी विधान सभा चुनाव, 2022 के छठे चरण में एक बार फिर गोरखपुर से चुनाव की शाम रोडवेज़ से गांव आना हुआ। बस में इस बार सन्नाटा था। ढाबे पर बस रुकते ही दो ग्रामीण बुजुर्गों के साथ मैं भी उतरा। बाहर निकलते ही उनमें से एक ने कहा, 'कल तs वोट पड़ी।' मैं भी पूछ बैठा, वोट कहां दियाई, चचा? वह जो बोले और दूसरे ने भी जो अपने यहां की रुझान बताई उसमें फिलहाल 'कमल' शामिल नहीं। 

दोबारा बस में बैठने पर बगल की सीट पर नये व्यक्ति बैठे मिले। थोड़ी बातचीत हुई। मार्केटिंग से जुड़े लखनऊ क्षेत्र के थे। उन्होंने मुझसे पूछा, 'क्या स्थिति इधर की है?' मैंने कहा, 'लहर जैसा कुछ नहीं।' वह बोले, 'लड़ाई तो मेरे तरफ भी है। महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर गुमराह किया जा रहा है। हर तरफ लोग परेशान हैं। यह सरकार झूठ बोलती है, इसके झूठ में मीडिया भी साथ है।'

गांव में दूसरे दिन वोटिंग की सुबह का नजारा अलग था। न तो पक्ष-विपक्ष की गिरोहबंदी, न किसी तरह की आक्रामकता। पोलिंग बूथ के बाहरी एरिया में न कोई भीड़-चकल्लस न ही दाएं-बाएं किसी को जांचने-परखने की कोशिश। कमाल का शांत और निष्पक्ष माहौल। लेकिन इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं। इसकी जमीन तो दो-तीन महीने पहले ही तैयार थी। महंगाई और गाय-साड़ों के कोहराम में देशभक्ति और राष्ट्रवादी बहस को मुंह की खानी पड़ गई। तो दूसरी तरफ प्रधानों को अपने खेमे में ख़ास तवज्जो देने का दांव भी बीजेपी को उल्टा पड़ गया। अधिकतर गांवों में उसके ही झंडाबरदार विपक्षी खेमे के लोग उससे छिटक लिए।

दलितों-पिछड़ों की लगभग घर वापसी

शाम होने तक बहुत से आँकलन साफ हो गये। दलितों-पिछड़ों की लगभग घर वापसी हो गई। मेरे गांव की विधान सभा सीट विपक्ष की तकनीकी लड़ाई में कांग्रेस के पाले में थी। शाम की मजेदार बहस यह थी कि जहां बीजेपी समर्थक कह रहे थे- 'सभी अपने जाति और खेमे में चले गये।' तो दूसरी ओर काफी हद तक कांग्रेस की तरफ वोट करने वाले दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों ने प्रत्याशी की लगातार दो हार के प्रति सहानुभूति वोट बताया। विपक्ष में पड़े वोट के तर्क के पीछे का फलसफा अब गंभीरता से समझिये बहुत कुछ साफ-साफ नजर आएगा। बहरहाल वोटिंग खत्म होने के बाद आस-पास के 10-12 गांवों के रिपोर्ट में यही स्थिति थी।

वोटिंग के दूसरे दिन की मार्निंग वॉक में पड़ोसी गांव के प्रधान जी मिल गए। खीजे हुए मन से भड़ास निकालने लगे- 'नेगेटिव वोट ज़्यादा पड़ गए। सब भेड़ों की झुंड हैं। इनको देश राष्ट्र की क्या समझ, फिर से जाति-बिरादरी में घुस गए। मूर्खों को यह भी नहीं पता जिसको वोट दिये उसकी सरकार भी नहीं बननी। अब तो कोई चमत्कार ही माननीय विधायक जी को जीत दिला सकती है।' 

वैसे ये नेगेटिव वोट आसपास के तीन-चार जिलों में खूब असर दिखाए हैं। गोरखपुर महराजगंज, सिद्धार्थ नगर की जमीनी हकीकत तो यही हाल बयां कर रही है। यहां की लगभग सारी की सारी मिली सीटों में बीजेपी हाफ होने जा रही है। बाकी पूरे नेगेटिव वोट का असर तो 10 मार्च को ही साफ होगा। तभी पता चल पायेगा कि जाति-बिरादरी में घुसे यह भेड़ के झुंड राष्ट्रवादी खोल में छिपे भेड़ियों को सबक सिखा पाएंगे या नहीं।

(लेखक ओंकार सिंह गोरखपुर स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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