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बहुसंख्यकवाद का बढ़ता ख़तरा: पीड़ित को ही मुजरिम ठहराने की कोशिशें

पिछले महीने नवंबर में प्रधानमंत्री मोदी रोम से पोप फ्रांसिस के साथ मुलाक़ात कर और उन्हें भारत आने का निमंत्रण देकर लौटे। इधर प्रधानमंत्री मोदी की पार्टी के ही अनुषांगिक संगठनों के लोग ईसाई समुदाय को निशाना बना रहे हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। चित्र साभार: एएफपी

सन 1963 में अमेरिका के मशहूर एबिंगटन स्कूल मुकदमे में अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने 8 के मुकाबले 1 बहुमत से फैसला दिया था कि अमरीकी स्कूलों में बाईबल आधारित प्रार्थना नहीं करवाई जा सकती। अमरीकी अदालत ने माना था कि देश में बहुसंख्यक ईसाई हैं जिसका मतलब यह नहीं कि देश को उसके रंग में रंग दिया जाए। 

आज दुनिया के अधिकांश देश लोकतंत्र में बहुसंख्यकवाद के शिकार हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं, मगर बहुसंख्यकवाद संख्या बल पर सत्ता का सदुपयोग करे तो समझ आता है, परेशानी यह है संविधान समता के अधिकार के बावजूद सरकार को इसके लिए बाध्य नहीं कर सकता कि वह धर्म निरपेक्षता को अक्षुण बनाए रखे। जेवारस्की और जेएम मारावाल ने अपनी पुस्तक 'डेमोक्रेसी एंड द रूल ऑफ़ लॉ' में 'बहुसंख्यकवाद' को समझाते हुए लिखा है कि बहुसंख्यकवाद एक पारंपरिक राजनीतिक दर्शन या एजेंडा है जो दावा करता है कि आबादी का बहुमत (कभी-कभी धर्म, भाषा, सामाजिक वर्ग, या किसी अन्य पहचान कारक द्वारा वर्गीकृत) समाज में कुछ हद तक प्रधानता का हक रखते हैं, और यह बहुमत समाज को प्रभावित करने वाले निर्णय कर सकते हैं। यह पारंपरिक दृष्टिकोण बढ़ती आलोचना के अधीन आ गया है, और लोकतंत्रों ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए संसदीय बहुमत क्या कर सकता है, इस पर बंदिशों को शामिल किया है।

पिछले महीने नवंबर में प्रधानमंत्री मोदी रोम से पोप फ्रांसिस के साथ मुलाक़ात कर और उन्हें भारत आने का निमंत्रण देकर लौटे हैं। यह सिर्फ इत्तेफाक़ ही है कि उधर रोम में प्रधानमंत्री मोदी, पोप फ्रांसिस को भारत आने का निमंत्रण दे रहे थे और इधर प्रधानमंत्री मोदी की पार्टी के अनुषांगिक संगठनों के लोग ईसाई समुदाय को निशाना बना रहे थे। बजरंगदल समेत दूसरे हिंदुत्तववादी संगठनों के लोग हिंदुओं के जबरन धर्मांतरण के आरोप में कई राज्यों में चर्च के प्रतिनिधियों को निशाना बना रहे हैं। हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली के द्वारका स्थित चर्च के सामने हिंदुत्तववादी संगठनों के लोगों ने धर्मांतरण कराने के आरोप में प्रदर्शन किया, और अब मध्यप्रदेश के विदिशा में एक ईसाई मिशनरी के स्कूल पर इन्हीं दक्षिणपंथीं संगठनों के लोगों ने हमला किया। छः दिसंबर को यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम (UCF), एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स और यूनाइटेड अगेंस्ट हेट ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि ईसाईयों पर जिन तीन राज्यों में सबसे अधिक हमले हुए हैं, उनमें से दो राज्य में भाजपा की सरकार है, जबकि एक राज्य छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है। 

UCF द्वारा जारी राज्यवार आंकड़ों के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में ऐसे सबसे ज्यादा 66 मामले, इसके बाद छत्तीसगढ़ में 47 और कर्नाटक में 32 मामले सामने आए। ईसाईयों पर हमलों के मामले में जहां उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश टॉप पर है, वहीं दक्षिण भारत में कर्नाटक टॉप पर है। रिपोर्ट के मुताबिक, सितंबर 2021 तक यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम की हेल्पलाइन ने देश भर से 305 मामलों को दर्ज किया। इन शिकायतों में भीड़ द्वारा किए गए हमले के 288 मामले थे और प्रार्थना स्थल को नुकसान पहुंचाने के 28 मामले थे। रिपोर्ट के अनुसार, इन हमलों में 1,331 महिलाएं, 588 आदिवासी और 513 दलित घायल हुए।

इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि इस साल कम से कम 85 मामलों में पुलिस ने धार्मिक सभा की अनुमति नहीं दी। इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अधिकतर हमले दक्षिणपंथी समूहों द्वारा किए जाते हैं और पुलिस आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती है। UCF की इस रिपोर्ट में पुलिस द्वारा किये जाने वाले भेदभाव की पुष्टी की कर्नाटक पुलिस द्वारा ईसाई समुदाय को दी गई ‘सलाह’ से हो जाती है। राज्य के बेलगावी में हिंदुत्व संगठनों द्वारा ईसाइयों पर हमले की कुछ घटनाओं के बाद पुलिस ने ईसाई समूहों को विधानसभा के शीतकालीन सत्र के ख़त्म होने तक प्रार्थना सभाएं आयोजित करने से बचने को कहा है। 

13 से 24 दिसंबर तक चलने वाले इस सत्र में विवादास्पद धर्मांतरण विरोधी क़ानून पेश होने की उम्मीद है। बेलगावी में क़रीब 200 ईसाई एक सामुदायिक भवन में प्रार्थना कर रहे थे, इसी दौरान दक्षिणपंथी संगठन श्री राम सेना के लोग धर्मांतरण कराने का आरोप लगाकर जबरन उस भवन में घुस गए। हालांकि पुलिस ने खुद माना कि कम्युनिटी हॉल में लोग रविवार की प्रार्थना के लिए इकट्ठा हुए थे, जो कई महीनों से वहां आयोजित हो रही थी। लेकिन पुलिस ने हिंदू संगठन की शिकायत पर, पादरी के खिलाफ ही एक केस दर्ज कर दिया। पुलिस द्वारा आरोपी के बजाय पीड़ितो पर ही कार्रवाई करना, बताता है कि भारतीय लोकतंत्र बहुसंख्यकवाद ग्रस्त होता जा रहा है। जब पुलिस को दक्षिणपंथी उपद्रवियों के ख़िलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए थी, तब पुलिस ईसाई समुदाय को ही सलाह दे रही थी कि वे प्रार्थना सभाएं आयोजित करने से बचें। पुलिस की इस ‘सलाह’ में छिपा संदेश यह है कि वह दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी संगठनों के उपद्रव एंव अराजकता के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकती। 

धार्मिक अल्पसंख्यकों के मामलों में पुलिस प्रशासन की ऐसी ही ‘बेबसी’ दिल्ली से सटे गुरुग्राम में बीते कई महीनों से हर शुक्रवार को देखने को मिलती है। गुरुग्राम में मस्जिद के अभाव में हर शुक्रवार को जुमा की नमाज़ खुले में होती है। मई 2018 में प्रशासन द्वारा हिंदू और मुस्लिम समुदायों के सदस्यों के साथ परामर्श कर 37 स्थलों को नमाज पढ़ने के लिए चिन्हित किया था। इन 37 स्थानों पर हर शुक्रवार को जुमा की नमाज़ होती आ रही थी, लेकिन हिंदुत्तवादी संगठनों के लोग हर शुक्रवार को जुमा की नमाज़ में बाधा डालने के लिये नारेबाज़ी करते, खुले में नमाज़ का विरोध करते।

हिंदुत्ववादियों के इस विरोध के कारण गुरुग्राम में नमाज़ अदा करने के लिये चिन्हित 37 नामित स्थलों में से 8 स्थानों पर नमाज पढ़ने की अनुमति को रद्द कर दिया गया। दिवाली के तुरंत बाद पड़ने वाले शुक्रवार को भाजपा नेता कपिल मिश्रा अपने समर्थकों के साथ गुरुग्राम पहुंचे, और जहां नमाज़ होनी थी, ठीक उसी जगह पर गौवर्धन पूजा का आयोजन किया, उसके बाद अगले शुक्रवार को जिस मैदान में नमाज़ होती थी, वहां पर गोबर फैला दिया गया। हर शुक्रवार को उन स्थानों पर हिंदुत्ववादी संगठनों के लोग नमाज़ में बाधा डालते हैं, और यह सब प्रशासन की मौजूदगी में होता है। हिंदुत्ववादियों का कहना है कि सार्वजिनक स्थानों पर नमाज़ नहीं होनी चाहिए, मगर ये बातें तो सभी पर लागू होती हैं, क्या सार्वजनिक स्थानों पर जगराते, जागरण नहीं होते? हर साल सावन में होने वाली कांवड़ यात्रा के लिये हरिद्वार से दिल्ली तक एनएच-58 लगभग दो सप्ताह के लिये बंद कर दिया जाता है। क्या इसका विरोध करने की किसी में हिम्मत है? अगर सार्वजनिक स्थल पर धार्मिक कार्यक्रम का ही विरोध करना है तो फिर ये विरोध किसी एक संप्रदाय का ही क्यों? दरअसल ये मानसिकता मानती है कि चूंकि हम ही देश में ‘बहुसंख्यक’ हैं इसलिये हम ही देश के मालिक हैं, हम जो करें, जो कहें, वो सब जायज है, भले ही संविधान इसकी इजाज़त देता हो या नहीं। 

न्याय की विशेषता होती है वो विवेक से संचालित होता है। विवेक तभी क़ायम रहता है जब न्यायप्रियता समाज, सत्ता और प्रमुख का धर्म हो। अन्याय विदरूपता, अत्याचार और जड़ता को जन्म देता है। इसकी कीमत समाज सदियों चुकाता है। संख्या बल में अधिकता को शक्ति में बदलने की प्रक्रिया ही अनैतिक और अन्यायपूर्ण है। संविधान को हम किताब नहीं जब निर्देशिका का दर्जा देंगे तो नया सवेरा भी हो जाएगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, विचार निजी हैं)

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