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फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लोकतंत्र की लड़ाई का निर्णायक चरण

2024 के चुनाव में पराजय फ़ासीवाद की निर्णायक शिकस्त के लिए पर्याप्त तो नहीं है, लेकिन उसे कमज़ोर करने के लिए बेहद ज़रूरी है।
democracy

देश में लोकतंत्र बचाने की लड़ाई निर्णायक चरण में प्रवेश कर गयी है। वैसे तो फ़ासीवाद के बारे में यह समझ सरलीकृत है कि महज चुनाव से उसे खत्म किया जा सकता है। पर, हिंदुत्व फ़ासीवाद के इस मुकाम तक पहुंचने के गतिपथ ( Trajectory ) से साफ है कि उसके दैत्याकार शक्ति-अर्जन में चुनावों के माध्यम से सत्ता में पहुंचने और फिर राज्य का इस्तेमाल कर सारी संस्थाओं और समाज पर कब्जे की भूमिका crucial रही है।

इस दृष्टि से 2024 के चुनाव में पराजय फ़ासीवाद की निर्णायक शिकस्त के लिए पर्याप्त तो नहीं है, लेकिन उसे कमजोर करने के लिए बेहद जरूरी है।

2024 का चुनाव हमारे लोकतंत्र की नियति तय करने जा रहा है, हालांकि इस चुनाव को लेकर ही अभी बहुत से ifs and buts हैं। मसलन, क्या यह चुनाव अब तक होते आये चुनावों की तरह होने दिया जाएगा, जिसमें यहाँ-वहाँ कई तरह के distortions के बावजूद कुल मिलाकर जनता की popular will अभिव्यक्त हो सके? अथवा 2024 का चुनाव असामान्य तौर-तरीकों से, असाधारण माहौल में करवाया जाएगा जिसमें विपक्ष को पंगु बना कर जनता की लोकतान्त्रिक अभिव्यक्ति को manipulate कर लिया जाएगा या crush कर दिया जाएगा?

बहरहाल, यह निर्विवाद है कि 2024 में मोदी-भाजपा की पुनर्वापसी होती है तो हमारे लोकतान्त्रिक गणराज्य का स्वरूप radically बदल जायेगा जिसकी अनिवार्य परिणति मौजूदा संविधान के बुनियादी ढांचे और चरित्र में रद्दो-बदल में होगी, वैसे तो अभी ही संविधान के subversion का खेल जारी ही है।

हिंदुत्व की ताकतों के लिए भी RSS की स्थापना की शतवार्षिकी के ठीक पूर्व मोदी जैसे ' न भूतो, न भविष्यति इतिहास-पुरुष ' के नेतृत्व में होने जा रहा यह चुनाव हिन्दूराष्ट्र की स्थापना के मिशन में " अभी नहीं तो कभी नहीं " क्षण ( moment ) है।

जाहिर है लोकतान्त्रिक शक्तियों तथा फ़ासीवादी ताकतों, दोनों के लिए 2024 जीवन-मरण संग्राम है जिसमें आर या पार होना है, बीच की जगह नहीं बची है।

इसीलिए दोनों खेमे अब पूरी तरह कमर कस कर लड़ाई के इस अंतिम निर्णायक दौर के लिये उतर पड़े हैं।

9 सालों के शासन के बाद भी कोई चुनाव-जिताऊ उपलब्धि showcase कर पाने में विफल, हर मोर्चे पर बुरी तरह नाकामी झेलती, चौतरफा जनता के आक्रोश व आंदोलनों से घिरती सरकार और संघ-परिवार दंगा और दमन, खतरनाक साजिशों, बहुसंख्यकवादी अंधराष्ट्रवादी उन्माद, विदेशी षडयंत्र- सुपारी-कब्र खोदने जैसी बातों द्वारा विक्टिम कार्ड का भावुक नैरेटिव गढ़ने में लगी है।

रामनवमी जुलूसों के नाम पर पूरे देश में, विशेषकर विपक्ष शासित राज्यों में, जिस तरह दंगाई माहौल बनाया गया, वह आने वाले दिनों की बड़ी घटनाओं का ट्रेलर हो सकता है। पूरी देश में जारी तरह-तरह की उन्मादी Provocative कार्रवाइयों की श्रृंखला में राजधानी दिल्ली के पूर्वोत्तर जिले को हिन्दू राष्ट्र का पहला जिला बनाने की घोषणा कर दी गई, कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय मंत्री समेत कई बीजेपी नेता मौजूद थे।

जिस तरह की अजूबी घटनाएं घट रही हैं, वे किसी बड़े षडयंत्र की ओर इशारा करती हैं।

कोई नहीं जानता किरण पटेलों के तार कैसी-कैसी खतरनाक साजिशों से जुड़े हैं और उनका आने वाले दिनों में क्या अंजाम होने वाला है ! लोग चर्चित संदिग्ध पुलिस अधिकारी दविंदर सिंह को भूले नहीं हैं जो पुलवामा कांड के समय वहां के DSP थे और बाद में आतंकवादियों के साथ पकड़े गए थे।

यह स्वागत योग्य है कि लोकतांत्रिक ताकतें सड़क पर उतर कर दिन-ब-दिन गहराती चुनौती का मुकाबला कर रही हैं। 5 अप्रैल को 15 दिन के अंदर दूसरी बार दिल्ली का ऐतिहासिक रामलीला मैदान किसानों-मजदूरों की हुंकार से गूंज उठा !

CITU, अखिल भारतीय किसान सभा तथा खेत मजदूर संगठन द्वारा आयोजित मजदूर-किसान संघर्ष रैली में देश भर से आये हुए लाखों मजदूर-किसानों ने नारा दिया, " यह देश हमारा आपका, नहीं किसी के बाप का !", " कौन बनाता हिंदुस्तान ? देश का मजदूर-किसान !" मंच से लगवाए जा रहे ये अर्थपूर्ण सीधे-सपाट नारे मोदी-राज में अम्बानी-अडानी को ही राष्ट्र घोषित कर देने के फतवे के ख़िलाफ़ देश पर मजदूर किसानों की वर्गीय दावेदारी का उद्घोष था।

याद करिए हिंडनबर्ग रिपोर्ट द्वारा जब अडानी के कथित महाघोटाले का पर्दाफाश हुआ तो अडानी ने गुहार लगाई, " यह भारत पर हमला है। " देश पर किसानों मजदूरों की दावेदारी के नारे इसी का जवाब थे।

यह उल्लेखनीय था कि रैली के समर्थन में नागरिक समाज की तमाम नामचीन हस्तियों -प्रभात पटनायक, इरफान हबीब, सुमित सरकार, मनोरंजन मोहंती, पी. साईनाथ, हर्ष मंदर, जॉन दयाल, एन. राम, एडमिरल एल. रामदास, नसीरुद्दीन शाह, तीस्ता सीतलवाड़, नंदिता नारायण, आनन्द पटवर्धन, सईद मिर्जा आदि ने अपने हस्ताक्षर से बयान जारी किया, " रैली मेहनतकश जनता के सभी तबकों के जीवन और आजीविका में तेज गिरावट की ओर ध्यान आकर्षित करती है, जो सरकार के व्यवस्थित नीतिगत हमलों का परिणाम हैै। सरकार की इन नीतियों का मूल मकसद  कॉरपोरेट क्षेत्र के मुनाफे को बढ़ावा देना है। इन नीतियों से ध्यान हटाने के लिए जहरीले घृणा के अभियान और सरकारी संस्थानों का दुरुपयोग किया जा रहा है; जो हमारे समाज को विखंडित करने और हमारे संविधान के मूलभूत स्तंभों- लोकतंत्र, संघवाद और धर्मनिरपेक्षता को नष्ट करने का खतरा पेश करता है।....दिल्ली में होने वाला यह ऐतिहासिक प्रदर्शन जनप्रतिरोध को आगे बढ़ाएगा।यह सरकार को चेतावनी है कि उसकी जनविरोधी नीतियों को अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। "

इसके पूर्व 20 मार्च को संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर रामलीला मैदान पहुंचे देश भर से आये किसानों ने महापंचायत करके MSP गारंटी कानून समेत तमाम लंबित मांगों पर सरकार की वायदाखिलाफी के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की और आंदोलन के नए चरण का ऐलान किया। वे 20 अप्रैल को पुनः दिल्ली में बैठक करके अपने आंदोलन के विस्तृत कार्यक्रम की घोषणा करने जा रहे हैं।

उधर 3 अप्रैल को दिल्ली में ही देश के सैकड़ों युवा संगठनों ने मिलकर रोजगार के सवाल पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने का एलान किया।

आयोजकों ने दावा किया है कि दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में हुई इस बैठक में देश भर के 113 संगठन  साथ आये और 'संयुक्त युवा मोर्चा' का गठन हुआ। बैठक में 22 राज्यों से भर्ती समूह और युवा संगठन शामिल हुए। रोजगार को देश के हर नागरिक का संवैधानिक, कानूनी अधिकार बनाने की दिशा में ' भारत रोज़गार संहिता' लागू कराने के लिए देशव्यापी आंदोलन पर सहमति बनी। आंदोलन की ज़मीन तैयार करने को लेकर देश भर में युवा महापंचायत करने के अलावा दिल्ली में  राष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजन का ऐलान हुआ। 

युवा मोर्चा के बयान में संकल्प व्यक्त किया गया है, " हम भारत के युवाओं को हताशा और निराशा से निकालकर उम्मीद और समाधान की दिशा में ले जाएंगे। " और युवाओं से आह्वान किया गया है, " राष्ट्रनिर्माण के इस आंदोलन में आप भी भागीदार बनिए! " युवा नेताओं द्वारा आयोजित पत्रकार वार्ता को वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने भी संबोधित किया। 

उम्मीद है आने वाले दिनों में तमाम संगठित वाम-लोकतान्त्रिक राष्ट्रीय युवा संगठनों से coordinate करते हुए संयुक्त युवा मोर्चे के दायरे को और व्यापक तथा प्रभावी बनाया जाएगा।

किसान नेताओं ने पिछले दिनों जो दावा किया था कि 2023 जनांदोलनों के नाम होगा, क्या वह सच होने जा रहा है ?

ये सारे developments एक ट्रेंड के indicator हैं कि मोदी राज में हुई चौतरफा तबाही, लूट और दमन के खिलाफ आने वाले दिनों में जनता के विभिन्न तबकों का आक्रोश आंदोलनों की शक्ल में फूटता रहेगा और 2024 की ओर बढ़ते हुए " जनता की आजीविका-शिक्षा-स्वास्थ्य, देश और लोकतंत्रको बचाने के लिए तथा मोदी सरकार को हटाने" के लिए एक बड़े एकताबद्ध राजनीतिक जनान्दोलन में तब्दील होता जाएगा।

प्रगति और प्रतिक्रिया की ताकतों के बीच इस Epic battle में प्रत्येक इंसाफ़पसन्द देशभक्त नागरिक को अपने हिस्से की लड़ाई में उतरना होगा। हर हाल में जमीनी स्तर पर सामाजिक सौहार्द और साम्प्रदायिक सद्भाव की रक्षा करना होगा तथा आम चुनाव में राष्ट्रीय विनाश की ताकतों की हार सुनिश्चित करना होगा।

उम्मीद है चुनाव की ओर बढ़ते हुए 2023-24 जनांदोलनों और विपक्ष की व्यपकतम सम्भव एकता और अग्रगति का साक्षी बनेगा तथा हर मोर्चे पर साहसिक संघर्षों के बल पर जनता अंततः फ़ासीवाद की महाआपदा को पीछे धकेलने में कामयाब होगी।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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