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घटता उत्पादन, बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी की चौतरफ़ा मार

भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति समझने के लिए उत्पादन दर, महंगाई दर, ब्याज दर, दैनिक मजदूरी दर, बेरोजगारी दर जैसी सभी सूचनाओं को एक- दूसरे के साथ जोड़कर विश्लेषण करने पर निष्कर्ष यह निकलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत बुरे दौर से गुजर रही है और इससे उबरने के लिए सरकार आम जनता पर बोझ बढ़ाएगी।
Inflation
Image courtesy: Vadodaradhwani

आर्थिक मोर्चे पर एक ही दिन में कई महत्वपूर्ण सूचनायें सामने आईं हैं। एक ओर अक्टूबर में लगातार तीसरे महीने औद्योगिक उत्पादन में 3.8% की गिरावट हुई है तो वहीं फुटकर महंगाई दर बढ़कर तीन साल के उच्चतम स्तर 5.54% पर पहुँच गई। यह भी खबर आई कि ग्रामीण क्षेत्र में दैनिक मजदूरी दर में 3.54% की कमी दर्ज की गई है। वहीं सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा लगातार एक साल से ब्याज दरों में कमी की कोशिश करने के बाद भी खुद सरकार के अपने ऋण पर ब्याज दर गिर नहीं रही बल्कि 10 वर्षीय सरकारी प्रतिभूति पर ब्याज दर बढ़कर 6.80% हो गई है। ऐसे में भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति समझने हेतु इन सब सूचनाओं को एक साथ जोड़कर विश्लेषण करने की जरूरत है।

औद्योगिक उत्पादन को देखें तो बिजली उत्पादन, खनन, मैनुफेक्चरिंग, निर्माण सभी में लगातार कमी आ रही है। उपभोक्ता सामानों में टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों का उत्पादन 18% घटा है। पर उससे भी महत्वपूर्ण है रोज़मर्रा के प्रयोग वाले उपभोक्ता उत्पादों के उत्पादन में 1.1% की कमी क्योंकि नमक, चीनी, चाय, बिस्कुट, ब्रेड, जैसे रोज़मर्रा इस्तेमाल के इन सामानों की बिक्री पर किसी भी आर्थिक चक्र का प्रभाव सबसे अंत में होता है अतः आम तौर पर इनके उत्पादन में गिरावट दुर्लभ ही होती है। इनके उत्पादन में कमी आर्थिक संकट की तीव्रता की परिचायक है।

एक और अन्य महत्वपूर्ण सूचना है पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में 22% की भारी कमी। ये वह वस्तुएं हैं जो उपभोक्ताओं द्वारा नहीं खरीदी जातीं बल्कि इनका उपयोग नए उद्योगों की स्थापना द्वारा पूंजी निवेश में होता है। इनका उत्पादन तभी कम होता है जब अर्थव्यवस्था में नया निवेश ठप हो जाये। इस समय यही होता नजर आ रहा है। इसकी वजह भी है। पहले से ही अर्थव्यवस्था में माँग के अभाव और अति-उत्पादन की समस्या जारी है जिससे उद्योगों में पहले से ही स्थापित क्षमता का उपयोग कई वर्षों से 68-75% के बीच रहा है।

किन्तु हाल के महीनों में औद्योगिक उत्पादन में आई गिरावट ने स्थापित क्षमता के उपयोग को लगभग 65% तक गिरा दिया है। यदि पहले से ही स्थापित उद्योग अपनी एक तिहाई क्षमता का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं तो कोई पूँजीपति नया पूंजी निवेश क्यों करेगा? इसलिए पूँजीगत वस्तुओं की माँग और उत्पादन में भारी कमी दर्ज की जा रही है। परंतु यह एक दुष्चक्र है क्योंकि पूँजीगत वस्तुएं खुद औद्योगिक उत्पादन का एक महत्वपूर्ण अंश हैं। अतः इनके उत्पादन में कमी से माँग में और भी कमी आती है।

उत्पादन में कमी का प्रभाव रोजगार पर होना निश्चित है इसीलिये हम पिछले काफी समय से बेरोजगारी की दर में ऐतिहासिक वृद्धि देख रहे हैं, खास तौर पर 15-29 वर्ष वाले युवा वर्ग में तो बेरोजगारी की दर लगभग 30% पर पहुँच रही है जो देश की युवा पीढ़ी के जीवन में गहन हताशा और कुंठा को जन्म देकर बहुत सी सामाजिक समस्याओं का भी कारण बन रहा है। साथ ही विकराल बेरोजगारी के कारण श्रम बाजार में श्रम शक्ति की आपूर्ति माँग की तुलना में बेहद अधिक हो जाने से श्रम शक्ति के बाजार दाम उसके वास्तविक मूल्य से नीचे चले गए हैं अर्थात मजदूरी की दर गिर रही है।

विशेषतया ग्रामीण श्रमिकों की मजदूरी दर पर इसका अत्यंत नकारात्मक असर पड़ा है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में रोजगार में हुई कमी से बहुत से ग्रामीण मजदूर जो पूर्ण या अंशकालिक तौर पर शहरों में मजदूरी करते थे अब उन्हें कृषि या अन्य ग्रामीण पेशों में मजदूरी ढूँढने के लिए विवश होना पड़ रहा है और इस होड के कारण वहाँ मजदूरी दर गिर रही है। लेबर ब्यूरो द्वारा जुटाये आंकड़ों के अनुसार 25 ग्रामीण पेशों में औसत दैनिक मजदूरी सितंबर 2019 के महीने में 331 रुपये रही जो आंकिक तौर पर तो सितंबर 2018 से 3.42% अधिक है पर अगर वास्तविक मजदूरी अर्थात ग्रामीण मजदूरों के लिए महँगाई दर को मिलाकर देखें तो यह पिछले वर्ष से 3.77% कम हुई है। शहरी क्षेत्रों में भी कमोबेश ऐसा ही हाल है।

किंतु यह वो श्रमिक हैं जो अपनी पूरी आय को मूलभूत आवश्यकता की उपभोक्ता वस्तुओं के उपभोग में खर्च करते हैं। उनकी वास्तविक आय में हुई इस कमी से हमें उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट के कारण का भी पता चल जाता है। साथ ही यह राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन के उस सर्वेक्षण के नतीजों की भी पुष्टि करता है जिसमें ग्रामीण उपभोग में गिरावट की बात सामने आई थी जिसके बाद सरकार ने उस सर्वेक्षण के आँकड़ों को सार्वजनिक तौर पर जारी करने से इंकार कर दिया था।

किंतु आम लोगों के जीवन में संकट को जो बात और भी बढ़ा रही है वह है फुटकर महँगाई दर में जारी वृद्धि। नवंबर में यह बढ़कर 40 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुँच गई है। सामान्य परिस्थितियों में माँग व बिक्री में गिरावट से महँगाई दर में वृद्धि के बजाय कमी होनी चाहिए थी। थोक मूल्य सूचकांक को देखें तो ऐसा हुआ भी है। परंतु फुटकर मूल्य सूचकांक खास तौर पर खाद्य वस्तुओं के मूल्य सूचकांक में तेज वृद्धि हुई है। ध्यान देने की बात यही भी है कि खाद्य वस्तुओं के मूल्य सूचकांक में ग्रामीण के मुक़ाबले शहरी क्षेत्रों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। इसका अर्थ है कि खाद्य वस्तुओं के व्यापार में मौजूद एकाधिकार इस वृद्धि का कारण है और इसका लाभ उत्पादकों के बजाय इस बीच के वर्ग को ही हो रहा है। अतः इससे ग्रामीण माँग में वृद्धि पर भी कोई सकारात्मक लाभ मिलने वाला नहीं है।

अब हम ब्याज दरों वाले चौथे पक्ष को देखते हैं। कई वर्षों से भारतीय पूँजीपति वर्ग का सरकार और रिजर्व बैंक पर भारी दबाव रहा है कि ब्याज दरों में कटौती की जाये। इसकी मुख्य वजह है पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के अपने नियमों के कारण प्रति इकाई पूँजी पर लाभ की दर में हो रही गिरावट जिसके कारण पूँजीपति वर्ग के लिए ऊँची ब्याज दर पर लिए गए ऋणों का ब्याज चुकाना मुश्किल हो रहा है और बैंकों के सामने डूबते ऋणों का भारी संकट खड़ा हो गया है। चूँकि कर्ज पर ब्याज लाभ में से ही चुकाया जाता है अतः लाभ दर गिरने पर ब्याज दर गिरने की आवश्यकता खड़ी हो जाती है। हालाँकि इससे बचत करने वालों जैसे मध्यम वर्ग व पेंशनरों आदि को तकलीफ होता है जो बचत कर बैंकों को देते ही इसलिए हैं ताकि इससे पूँजीपतियों को ऋण देकर उनके लाभ का एक हिस्सा प्राप्त करें।

ब्याज दर कम करने के इस दबाव के चलते रिजर्व बैंक ने पिछले एक वर्ष में 5 बार में अपनी ब्याज दर में 1.35% की कमी की है। किंतु पहले से ही यह जाहिर है कि रिजर्व बैंक द्वारा की गई इस कटौती से आम तौर पर ऋणों पर ब्याज दर में समुचित कमी नहीं हो रही है बल्कि पहले से लिए गए ऋणों पर यह उल्टे औसतन 0.02% बढ़ गई है। वजह है कि एक और तो परिवारों की आमदनी घटने और महँगाई बढ़ने के कारण बचत क्षमता में गिरावट हुई है, दूसरी ओर सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर में कमी को रोकने के लिए सरकार ने ऋण लेकर काफी खर्च किया है। साथ में बजट के बाहर सार्वजनिक उद्यमों के नाम पर भी सरकार ने काफी ऋण लिया है।

बजट में बताये गये 3.4% के वित्तीय घाटे के मुक़ाबले अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि केंद्र-राज्य सरकारों व सार्वजनिक क्षेत्र का कुल घाटा लगभग 10% है। आर्थिक मंदी के कारण कर वसूली लक्ष्य से बहुत पीछे है, उधर सरकार बड़े पूँजीपतियों को प्रत्यक्ष करों में छूट भी दे रही है। नतीजा यह कि चालू वित्तीय वर्ष में अब तक अनुमान से 2 लाख करोड़ रुपए कम कर राशि एकत्र हुई है। इसके चलते सरकार की ऋण आवश्यकता परिवारों द्वारा की जाने वाली कुल बचत से भी अधिक हो गई है। माँग-पूर्ति में इस असंतुलन के चलते सरकार को दिये जाने वाले ऋणों पर ब्याज दर घटने का नाम नहीं ले रही है और 10 वर्षीय प्रतिभूतियों पर यह 6.80% के उच्च स्तर पर पहुँच गई है।

बढ़ते सरकारी ऋण का एक और पक्ष यह है कि सितंबर तिमाही में आंकिक जीडीपी वृद्धि दर 6.1% रही। किंतु सरकार को उससे अधिक ब्याज दर पर ऋण लेना पड़ रहा है, अतः सरकार की कर या गैर कर आय ब्याज के मुक़ाबले कम गति से बढ़ने वाली है अर्थात सरकार के कर्ज जाल फँसने की संभावनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। इस वजह से भी बैंक उसे कम ब्याज दर पर ऋण देने के इच्छुक नहीं हैं। सरकार के कर्ज जाल में फँस जाने से उसके लिए यह जरूरी हो जायेगा कि वह आय बढ़ाने के प्रयास करे।

पूँजीपतियों को तो पहले से रियायत दी जा रही है अतः उन पर तो नया बोझ डालने संभावना को नकारा जा सकता है। अतः एक ही रास्ता बचता है आम जनता पर इस सब का बोझ डालना – एक और अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि कर जिसके लिए जीएसटी की दर बढ़ाने का प्रस्ताव है, दूसरी ओर जरूरी मदों में खर्च घटाकर, जैसे प्राथमिक शिक्षा के लिए आबंटित बजट में पहले ही तीन हजार करोड़ रुपये की कटौती की खबर आ चुकी है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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