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दिल्ली विश्वविद्यालय: दीन दयाल उपाध्याय कॉलेज में फंड की कमी, बीजेपी-आप की राजनीति

कॉलेज में फंड की कमी के चलते शिक्षकों के वेतन कटौती का नोटिस जारी किया गया है। जिसे लेकर बीजेपी हमलावर है, तो वहीं सवालों के घेरे में आम आदमी पार्टी है, जो शिक्षा को अपनी राजनीति का एक अहम मुद्दा बताती रही है।
Deen Dayal Upadhyaya

भारत सरकार देश को विश्व गुरु बनने की चाहत रखती है, लेकिन इसके लिए न तो शिक्षा स्तर पर ध्यान दिया जा रहा है और न ही शिक्षकों पर। आए दिन कभी विश्वविद्यालयों की बढ़ती फीस को लेकर छात्र सड़कों पर रहते हैं तो कभी सैलरी न मिलने या उसमें कटौती को लेकर शिक्षक। ताज़ा मामला दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज दीन दयाल उपाध्याय है, जहां फंड की कमी के चलते शिक्षकों के वेतन कटौती का नोटिस जारी किया गया है। हालांकि इस बार शिक्षा की बात को लेकर बीजेपी हमलावर है, और सवालों के घेरे में आम आदमी पार्टी है, जो शिक्षा को अपनी राजनीति का एक अहम मुद्दा बताती रही है।

बता दें कि मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली सरकार दिल्ली यूनिवर्सिटी के 28 कॉलेजों को फंडिंग करती है। इनमें से 16 कॉलेज ऐसे हैं जिनको केजरीवाल सरकार आंशिक रूप से फंड करती है। जबकि 12 कॉलेजों को 100% फंड करती है। साल 1990 में गठित दीन दयाल उपाध्याय कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय का हिस्सा है और इसकी पूरी फंडिंग दिल्ली सरकार करती है। ऐसे में बीते कुछ समय से दिल्ली सरकार और इन विश्वविद्यालयों के प्रबंधन के बीच टकराव देखने को मिला है।

क्या है पूरा मामला?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक बीते 6 सितंबर को डीडीयू कॉलेज के कार्यवाहक प्रिंसिपल द्वारा जारी एक नोटिस में कहा गया कि जुलाई, 2022 महीने के लिए असिस्टेंट प्रोफेसरों की सैलरी में से 30 हजार रुपये और एसोसिएट प्रोफेसरों/प्रोफेसरों की सैलरी में से 50 हजार रुपये काटे जाएंगे। संस्थान ने कहा कि फंड का इंतजाम हो जाने पर इस पैसे को लौटा दिया जाएगा। हालांकि, कॉलेज ने इस पैसे को लौटाने की कोई स्पष्ट 'समय सीमा' नहीं बताई है।

प्रशासन ने नोटिस में कहा, "सभी स्थाई टीचिंग स्टाफ को यह सूचित किया जाता है कि फंड की कमी के कारण जुलाई, 2022 महीने के लिए असिस्टेंट प्रोफेसर की सैलरी से 30,000 रुपये और एसोसिएट प्रोफेसर/प्रोफेसर की सैलरी से 50,000 रुपये काटे जाएंगे? फंड का इंतजाम हो जाने पर इसे वापस किया जाएगा।”

इस मामले में दिल्ली यूनिवर्सिटी ने दीन दयाल उपाध्याय कॉलेज से जवाब मांगा है। यूनिवर्सिटी के चेयरमैन की तरफ से कॉलेज के प्रिंसिपल प्रोफेसर हेम चंद जैन को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। साथ ही कहा गया है कि जिन टीचिंग स्टाफ की जुलाई महीने से सैलरी रोक दी गई थी, उसे जल्द ही बहाल किया जाए।

उधर, दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर एसोसिएशन के अध्यक्ष एके बागी ने मीडिया से कहा कि फंड की कमी के चलते दिल्ली सरकार के 12 कॉलेजों में पिछले 2 साल से चल रहे प्रोफेसरों के सैलरी में कटौती की जा रही है। टीचर्स ने सीएम के घर के बाहर धरना प्रदर्शन किया, डिप्टी सीएम के पास गए, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। ऐसे में हम चाहते हैं कि केंद्र सरकार इन कॉलेजों को अपने अधीन ले। हालांकि केंद्र सरकार खुद केंद्रीय विश्वविद्यालयों की फंड कटौती कर रही है। जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के फंड में इस बार तीस प्रतिशत तक की कटौती की गई है।ऐसे में साफ है शिक्षा और शिक्षकों की सरकार लगातार अनदेखी कर रही है।

पक्ष-विपक्ष का आरोप प्रत्यारोप

इस नोटिस के बाद से विपक्ष आम आदमी पार्टी सरकार पर हमलावर है। बीजेपी ने आरोप लगाया है कि केजरीवाल सरकार के 'रेवड़ी कल्चर' के कारण दीन दयाल उपाध्याय कॉलेज को प्रोफेसरों की सैलरी काटनी पड़ रही है। ऐसे में इन टीचिंग स्टाफ की ईएमआई, बच्चों की फीस, परिजनों की दवाइयों इत्यादि का क्या होगा।

हालांकि, इसे लेकर आप सरकार ने पलटवार किया है। पार्टी के विधायक सौरभ भारद्वाज ने दावा किया कि दिल्ली सरकार ने कॉलेज को फंड मुहैया करा दिया है, लेकिन कॉलेज खुद के पास फंड रखकर तनख्वाह नहीं देना चाह रहा है। भारद्वाज ने कहा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन में भी बीजेपी के लोग हैं, इसलिए वो ऐसी बातें कर रहे हैं।

उन्होंने कहा, “कॉलेज को दिल्ली सरकार ने फंड दे दिया और खर्च का ब्यौरा मांगा है, जो मेरी जानकारी में नहीं दिया गया है। कॉलेज के पास 30 करोड़ की एफडी है, कॉलेज वो रखकर टीचर्स को तनख्वाह नहीं देना चाहता है। एक कॉलेज के टीचर को पैसे न देने का मुद्दा अगर बीजेपी का केंद्रीय एजेंडा बन रहा है, तो स्पष्ट है कि वो अरविंद केजरीवाल की कल्याणकारी योजनाओं को रोकना चाहते हैं। वो गरीबों के लिए जारी योजनाओं पर सवाल नहीं उठा सकते हैं, इसलिए वो ऐसा कर रहे हैं।"

गौरतलब है कि इस साल कॉलेजों में शिक्षा का वैसे ही भट्टा बैठ चुका है। सितंबर महीना लगभग आधा गुजरने को है और कॉलेजों में छात्रों का दाखिला नहीं हुआ है। एक और छात्र परेशान हैं तो वहीं दूसरी ओर समय से सैलरी न मिलने के चलते शिक्षक अलग दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। सालों से शिक्षा के लिए बजट के दसवें हिस्से की मांग हो रही है, लेकिन सरकार इसकी लगातार अनदेखी कर फीस बढ़ाने और फंड में कटौती करने को अपना हथियार बना रही है।

बीते दिनों शिक्षक दिवस पांच सितंबर को दिल्ली के प्रेस क्लब में ज्वाइंट फोरम फॉर मूवमेंट ऑन एजुकेशन के बैनर तले शिक्षा और शिक्षकों के समक्ष आज के समय में मौजूद तमाम समस्याओं और चुनौतियों पर चर्चा की थी। इसमें शिक्षकों को आज के समय में तनख्वाह से लेकर पेंशन और मेडिकल रीम्‍बर्समेंट में सामने आ रही दिक्कतों के बारे में खुलकर बात रखने के साथ ही नई शिक्षा नीति और कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट को शिक्षा विरोधी करार दिया गया था। तमाम शिक्षक और छात्र संगठन से जुड़े लोगों ने इसे सरकार की शिक्षकों को ही शिक्षा व्यवस्था से बाहर कर देने की साजिश बताया था। जानकारों के अनुसार शिक्षकों का खर्चा अब सरकार नहीं उठाना चाहती, इसलिए शिक्षा विरोधी नीतियों को लागू किया जा रहा है, जिससे धीरे-धीरे शिक्षक खुद ही अपने दायरे में सिमट जाए और आवाज़ तक न उठा सके।

बहरहाल, केंद्र और राज्य सरकार की अलग-अलग नीतियों पर अलग-अलग तर्क है, राजनीति है, आरोप-प्रत्यारोप है, लेकिन अगर इन सबको अगर समग्र कर के देखें तो ये शिक्षा, छात्रों और शिक्षकों के लिए कतई लाभकारी नज़र नहीं आतीं। चूंकि शिक्षा संविधान में समवर्ती सूची का विषय है, जिसमें राज्य और केन्द्र सरकार दोनों का अधिकार होता है, इसलिए अगर बेहतर शिक्षा को बढ़ावा देना है तो आपसी तालमेल पहली जरूरत है। राजनीति से परे शिक्षा के अधिकार के रक्षा-सुरक्षा की जरूरत है, जिसे छात्रों और शिक्षकों का भविष्य सुरक्षित हो सके।

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