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दिल्ली हिंसा : घर और हमसायों के खो जाने का दुख

जिसका घर जला, जिसका घर लुटा, जिसका घर अब घर नहीं रहा, वह घर के बारे में सोच रहा है। जिसका घर बच गया, वह भी सोच रहा है कि ऐसा क्या हुआ कि अब घर घर जैसा नहीं लग रहा है?
Delhi violence

हर भाषा में कुछ ऐसे शब्द होते हैं जिनका अर्थ कई तरह की भावनाओं, अनुभवों और यादों के साथ जुड़ा होता है। हमारी हिंदुस्तानी भाषा में भी एक ऐसा शब्द है ‘घर’। इस शब्द का अर्थ सिर्फ़ दीवारों, खिड़कियों, दरवाज़ों, कमरों, पलंग, मेज़ और कुर्सियों तक सीमित नहीं है। उसके अर्थ में रिश्ते और संबंध शामिल हैं, सुख और दुख की यादें जुड़ी हैं, धीरे धीरे छोटा और बड़ा सामान जुटाने की जद्दोजहद यह शब्द जगाता है।

उस छोटे से शब्द  में एक कोठरी से लेकर एक महाद्वीप तक समाया हुआ है। ऐसा ही एक अन्य शब्द है ‘हमसाया’ यानी पड़ोसी। हमसाया दो शब्दों को मिलाकर बना है – ‘हम’ जिस में मैं और मेरे साथ मेरे तमाम घर के लोग, जिनके साथ मेरे तरह तरह के रिश्ते हैं, शामिल हैं;  और ‘साया’ यानी परछाईं, जो हमारा साथ तभी छोड़ता है जब रात का घुप्प अंधेरा सब कुछ ढक देता है। सूरज की पहली किरण के साथ वह फिर हमारा साथ देने लगता है। तो हमसाया का मतलब हुआ वह जो हमारे साये का हिस्सेदार हैं, जो हमारे इतना करीब है की उससे हम कभी अलग हो ही नहीं सकते हैं। घर और हमसाये का आपस में अजब, अटूट रिश्ता है जिसे हमारी संस्कृति, हमारा साहित्य, हमारी तमाम भावनाएँ एक ख़ास स्थान प्रदान करती हैं।

एक महीने पहले, दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाके में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं जिन्होंने घर, हमसाया, रिश्ता, संबंध, दोस्ती, हमदर्दी, जैसी तमाम जीवित रहने की निवार्यताऑ को दांव पर रख दिया। इन अनिवार्यताओं के अस्तित्व और भविष्य पर शक और संदेह पैदा हो गया है। जिन लोगों ने इन अनिवार्यताओं के ज़िंदा होने का अनुभव किया, उनको भी इस बात का भय अब घेरे हुए है कि यह ज़िंदा कब तक रहेंगे।

दिल्ली के इस उत्तर-पूर्वी इलाके में हजारों की संख्या में हिन्दी भाषी इलाके के विभिन्न हिस्सों से आए हुए लोग सालों से, पुश्त दर पुश्त रह रहे हैं। बड़ी संख्या में वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों के लोग भी यहाँ बसे हुए हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग मज़दूरी करते हैं। वह निर्माण के अलग-अलग कामों में लगे हैं और कारीगरी का काम भी करते हैं। लेकिन काम करते हैं दिहाड़ी पर। सिले-सिलाये कपड़ों का बड़ा कारोबार भी इस क्षेत्र से जुड़ा है और यहाँ काम करने वाले और करवाने वाले दोनों रहते हैं। उनके कपड़ों की बड़ी मंडी भी यहीं है। यह इतनी बड़ी मंडी है कि देश भर का व्यापारी यहाँ से कपड़ा ले जाता है और यहाँ के लोग भी इस कपड़े को देश भर में बेचने ले जाते हैं।

दूसरा बड़ा काम यहाँ बेकरियों का है। हर गली में कई-कई बेकरियाँ है जहां तरह-तरह की डबल रोटी और बिस्कुट बनते हैं। यहाँ अब भी वह चीज़ें मिलती हैं जो हमारे बचपन में हर जगह मिला करती थीं जब छोटी बेकरियों का धंधा बड़ी कंपनियों द्वारा छीना नहीं गया था। इन गलियों में बेकरियों के मालिक, उनके मज़दूर और उनके ग्राहक, सभी रहते हैं। 

यहाँ छोटे दुकानदार भी हैं, दर्ज़ी और हज्जाम भी, फेरी वाले और रेहड़ी वाले भी। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो छोटे से बड़े कारोबारी बन गए हैं और कुछ बनने की राह में हैं। टाटा-अंबानी नहीं लेकिन खाते पीते, दो-तीन मंज़िल के मकान में रहने वाले, गाड़ियों और मोटर सायकीलों पर चलने वाले लोग हैं यह।

इन गलियों में बहुतों के अपने घर हैं और उनसे अधिक किराये पर रहने वाले भी हैं। सारे मक़ान एक दूसरे से सटे हैं, बहुतों की छत एक दूसरे से मिलती है और गलियां इतनी पतली हैं कि आमने-सामने की खिड़कियों में खड़ी पड़ोसिने अगर चाहें, अगर एक दूसरे की तरफ हाथ बढ़ायेँ तो एक दूसरे का हाथ थाम सकती हैं। 

इसी इलाके मे, तीन चार दिन कहर बरपा किया था। हमला, हिंसा, कत्ल, आगजनी और लूट सब कुछ लोगों पर फूट पड़ा। मरने वाले, लुटने वाले, बेघर होने वाले ज़्यादातर एक समुदाय के लोग थे जिनको चुन चुनकर निशाना बनाया गया था। दूसरे समुदाय को भी नुकसान पहुंचा लेकिन जलने में, लुटने में, घर से बेघर होने और मरने में उनकी संख्या बहुत कम थी। दोनों में कोई मुक़ाबला नहीं था।

कहर के गुज़र जाने के बाद, अब चारों तरफ उधेड़ बुन शुरू हो गयी है, कहीं कम कहीं ज़्यादा लेकिन उधेड़ भी वही है और बुन भी वही। जिसका घर जला, जिसका घर लुटा, जिसका घर अब घर नहीं रहा, वह घर को लेकर सोच रहा है। जिसका घर बच गया, वह भी सोच रहा है कि ऐसा क्या हुआ कि अब घर घर जैसा नहीं लग रहा है?  घर कहाँ और कैसा, हमसाया कहाँ और कैसा, यही बातें न उधेड़ते उधड़ रही है और न बुनते बुन रही है।

इस इलाके में जिसे अब ‘प्रभावित क्षेत्र’ कहते हैं, में एक बड़ा मोहल्ला है, मुस्तफ़ाबाद। कई कई पतली गलियों का इलाका। गली नंबर 21 में एक तिमंज़िला मकान है। इस तरह के मकान पूरी गली में हैं जो एक जैसे, पतले मकान हैं, एक दूसरे से जुड़े हुए। बस, इसके सामने वाला मकान थोड़ा चौड़ा और कुछ दबदबे वाला है। यह इस पतले मकान के मकान मालिक का मकान है। यह आदमी अच्छे दिल का है। उसने सामने वाले पतले घर का नीचे का कमरा सीपीआईएम की रिलीफ़ कमेटी को सामान रखने और कार्यालय चलाने के लिए दे दिया है।

उसने इससे पहले कभी सीपीआईएम का नाम भी नहीं सुना था लेकिन उसके कार्यकर्ताओं, जो हिंसा के तुरंत बाद ही सर्वे और राहत कार्य में जुट गए थे, उनसे प्रभावित होकर उसने यह कमरा अपनी तरफ से उन्हें उपलब्ध करा दिया। यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है। अंजाने लोगों को और वह भी ऐसे लोगों को जो किसी राजनैतिक दल से जुड़े हुए हैं, लोग अपने घरों में झाँकने नहीं देते हैं, कमरा देना तो दूर की बात है। लेकिन उन्होने कमरा दे दिया। उसको प्रभावित करने वाली एक बात और थी। इस पार्टी को किसी ने इस इलाके में कभी वोट नहीं दिया लेकिन फिर भी उसके कार्यकर्ता रोज़, गोल बनाकर, सुबह से शाम तक अपने काम में जूते दिखाई देते थे। जिनको वोट दिया था, उनके तो केवल हवाई दौरों की खबर मिलती और जब तक खबर मिलती, तब तक दौरा समाप्त हो जाता।

तो उसने राहत कमेटी को कमरा दे दिया। उसने इस कमरे के ऊपर वाले 3-4 कमरे भी एक बड़े परिवार को रहने के लिए दे दिया जिनको अपने छोटे किराये के मकान और अपना पुराना मोहल्ला छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था। उनसे वह किराया ले रहा था। किसी दयालु व्यक्ति ने 6 महीने का किराया उसके पास जमा कर दिया था।

ऊपर के हिस्से में बहुत सारी औरतें और अलग-अलग उम्र के बच्चे हैं। मर्दों के न होने के कई कारण हैं। यह सब एक परिवार के लोग हैं। वह अलग-अलग, लेकिन आस-पास, के किराए के घरों में रहते थे। उनके मकान मालिक सब हिन्दू हैं; मकान मालिक भी हैं और हमसाये भी।

परिवार में सबसे प्रभावशाली हैं तबस्सुम। उनके पति ने उनको छोड़ दिया है और वह अलग अपनी दूसरी पत्नी के साथ रहते हैं। तबस्सुम के 4 बच्चे हैं। वह अच्छी शक्ल-सूरत की, आत्म सम्मान से भरपूर, ज़िंदगी भर काम करके अपना और अपने बच्चों का पेट पालने वाली है। उसका भाई, मुशर्रफ़, जो गाड़ी-चालक था, वह हिंसा के दौरान मारा गया। 24 फरवरी की रात मे, बाहर के लोगों ने उनके मोहल्ले पर हमला कर दिया। मोहल्ले के लोग उसमें शामिल नहीं थे लेकिन हमलावरों की संख्या और हथियारों का मुक़ाबला वे नहीं कर पाये। मुशर्रफ़ को उन्होने बुरी तरह से पीटा, उसका सर दीवार से बार बार मारा, उसे सीढ़ियों से गिराया और वह मर ही गया।

कमरे के कोने मे, बिलकुल गठरी बनी, उसकी बेवा, मालिका, अपने छोटे बच्चे को गोद में लिए बैठी थी। उसका बच्चा बीमार था और वह उस पर इस तरह से झुक कर, उसे छिपाए हुए बैठी थी जैसे की वह उसे उस बाला से बचाना चाहती है जिससे उसका पति बच नहीं पाया। मलिका बंगाली है। उसके माँ बाप बहुत साल पहले दिल्ली आए थे और बहुत ही छोटी उम्र में ही उसकी शादी हो गई थी। तब तक उसके माँ बाप भी मर चुके थे और उसकी सास, जो उसी कमरे में मौजूद थी, ने बताया की उसका बेटा यही कहता था की इसका कोई नहीं है तो मैं ज़िंदगी भर इसकी देख भाल करूंगा।

मुशर्रफ़ को मारने वालों ने उसके भाई आसिफ को भी मारा और मरा समझकर उसे ज़िंदा छोड़ गए। उसकी पत्नी भी अपने बच्चों के साथ उसी कमरे में है। आसिफ अस्पताल में हैं। एक भाई और है तो वह कैंप में लिखापढ़ी करने गए हुआ था।

तबस्सुम ने बताया की जब हमला समाप्त हुआ तो मुअज़्ज़्म और उसके भाइयों के परिवार को उनके हिन्दू पड़ोसियों ने औरतों के माथे पर बिंदी लगाकर, मोहल्ले से निकाला। रास्ते में उन्हें रोककर उनसे उनका जब धर्म पूछा गया तो उन्होने एक 3 साल के बच्चे की चड्डी उतारकर उन्हे दिखाया की उसका खतना नहीं हुआ है। वह बच गए और किसी तरह से मुस्तफ़ाबाद पहुँच गए।

तबस्सुम और उसके बच्चों को उसके मकान मालिक के परिवार ने अपने घर में शरण देकर बचाया। उसने कहा की वह लोग ज़मीन पर सोये और हमें अपने बच्चों के साथ बिस्तर पर सुलाया। खाना भी खिलाया। दूसरे दिन दोपहर को उन्होने उसको बच्चों समेत मुस्तफ़ाबाद पहुंचा दिया।

तबस्सुम का काम छूट गया लेकिन वह अपने बड़े लड़के को किसी तरह से उसके स्कूल भेज रही है। वह फिर से काम करना चाहती है। कहती है कि खाली बैठना और मांगे का खाने उसे बर्दाश्त नहीं है। काम और स्कूल की चिंता तो है ही लेकिन बड़ी चिंता है कि घर भी गया और हमसाये भी। 

खजूरी ख़ास मुस्तफ़ाबाद से थोड़ी दूरी पर है। यह एक मेन रोड पर बसा हुआ है और इस मेन रोड पर बड़े बड़े मकान हैं। नेताओं के मकान, सरकारी अधिकारियों के मकान। पुलिस का अधिकारी, अंकित शर्मा, का मकान भी यहीं हैं। बड़ी बेरहमी से मारा गया था। उसका घर तो सही सलामत लेकिन बहुत सूना है। उसकी मौत में हमसायों का हाथ होने की बात कही जा रही है लेकिन उसकी माँ का कहना है की इतने सालों से हम लोग यहाँ सबके साथ रहे हैं, मैं नहीं चाहती कि अब किसी माँ की गोद सूनी पड़े।

इसी इलाके में खजूरी ख़ास गली नंबर 5 है। यहाँ 2, 3, 4 और 5 मंज़िले मकान हैं। यहाँ छोटे बड़े व्यापारी रहते हैं और वे सब अपने निजी घरों में ही रहते हैं। ‘हैं’ नहीं ‘थे’। 25 तारीख को सुबह के 8 बजे से लेकर दोपहर के 2 बजे तक इस मोहल्ले पर लगातार हमला हुआ। घरों के अंदर जलते सिलेन्डर फेंके गए, लोगों को पीटा गया, घरों का सामान लूटा गया और तोड़कर बर्बाद किया गया। अधिकतर मकान तो इस बुरी तरह से जले हैं की लगता है उन पर बम गिरे थे।

गली नंबर 5 में घरों की तीन लाइने हैं। कुल मिलाकर करीब 50 घर हैं। इनमें 8 घर हिंदुओं के है। वह सब मुसलमान हमसायों के घरों से सटे हुए हैं लेकिन उनको खरोच भी नहीं लगी है। बिलकुल ठीक ठाक खड़े हैं। उनमें रहने वाले अपने परिवारजन के पास चले गए हैं क्योंकि माहौल ठीक नहीं है लेकिन वे जब चाहें, चाभी घुमाकर अपने घरों में जा सकते हैं। जिनके घर पूरी तरह से जल गए हैं वे ऐसा नहीं कर सकते हैं। दरवाज़े तो जल गए हैं तो चाभी की आवश्यकता नहीं है लेकिन घर के अंदर का ज़ीना भी तो जल गया है, ऊपर की छत राख़ के आँसू रो रही है, कब ढह जाएगी, क्या भरोसा? तो वे तो टूटी, टेढ़ी मेढ़ी कुर्सियाँ डालकर केवल उन खँड़रों को निहार सकते हैं जो कभी उनके घर थे।

उनमें से एक का ही घर चमचमा रहा है। मोहम्मद अनीस जो बीएसएफ़ का जवान है वह भी इसी मोहल्ले में रेहता है। वह देश की सीमाओं की रक्षा करता है लेकिन वह अपने घर को उस दिन हुए हमले से नहीं बचा पाया। घर अंदर से जलाकर राख़ कर दिया गया। वह उड़ीसा में ड्यूटी पर था। जब तक वह लौटा तो उसके bsf के अधिकारियों और जवानो ने उसके घर की मरम्मत करके उसको नया सा बना दिया। लेकिन उसके बाकी भाई-बंद इतने भाग्यशाली नहीं हैं। सब खगरिया ज़िला, बिहार के मूल निवासी हैं, सब दूर-करीब के रिश्तेदार नातेदार हैं लेकिन bsf में तो एक ही है।

गली नंबर 5 के लोग 30 साल से एक साथ रह रहे हैं। यहाँ के नौजवान एक साथ बड़े हुए, एक साथ खेले, एक साथ स्कूल गए लेकिन अब वह बंट गए हैं। घरवालों और बेघरों में बंट गए हैं। आपस में बात भी नहीं होती है। बस एक है जो अब तक अपने पुराने हमसायों से पहले जैसा व्यवहार करता है। बाकी फोन रख देते हैं, आंखे चुराकर गली से निकलते हैं। जिनके घर जल गए उन्हें उम्मीद है कि घर तो धीरे-धीरे, किसी तरह से फिर बन ही जाएंगे लेकिन हमसाये कहाँ से लाएँगे?

यह उधेड़ बुन, यह तमाम सवाल, यह इन गलियों तक सीमित नहीं। क्या कोई बिना घर के रह सकता है? क्या कोई बिना हमसाये के जी सकता है?

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