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दिल्ली हिंसा, पुलिस का रोल और जज का तबादला : क्या अब भी कोई भ्रम बाक़ी है

यह तथ्य अब पूरी तरह उजागर हो चुका है कि हिंसा भड़काने का मकसद दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ पिछले ढाई महीने से जारी अहिंसक आंदोलन को बदनाम कर उसे खत्म कराना और आंदोलन में भागीदारी कर रहे नागरिक समूहों, खासकर मुस्लिम समुदाय को सबक सिखाना था।
Delhi violence

दिल्ली में भड़की हिंसा के सिलसिले में पुलिस की भूमिका पर सवाल खडे करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि भड़काऊ बयान देने वाले नेताओं और दंगों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले तत्वों कार्रवाई हो, लेकिन कार्रवाई हो गई यह आदेश देने वाले जज पर। जस्टिस एस. मुरलीधर को मामले की सुनवाई से हटाकर उनका रातोंरात तबादला कर पंजाब भेज दिया गया। इसी के साथ केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने यह भी साफ कर दिया है कि वह भडकाऊ बयान देने वाले नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने जा रही है।

पुलिस ने दंगों में सक्रिय भूमिका निभाने वालों के खिलाफ भी अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है, लेकिन दंगों के दौरान इंटेलीजेंस ब्यूरो के एक नौजवान अफसर अंकित शर्मा के मारे जाने के मामले में आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर खान के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया है। केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस के इस रवैये से जाहिर है कि एक व्यापक परियोजना के तहत दिल्ली को दंगों की आग में झोंका गया और इस परियोजना में दिल्ली की पुलिस ने भी भागीदारी की।

यह तथ्य भी अब पूरी तरह उजागर हो चुका है कि हिंसा भड़काने का मकसद दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ पिछले ढाई महीने से जारी अहिंसक आंदोलन को बदनाम कर उसे खत्म कराना और आंदोलन में भागीदारी कर रहे नागरिक समूहों, खासकर मुस्लिम समुदाय को सबक सिखाना था। कहने की आवश्यकता नहीं कि पूरे घटनाक्रम के जरिए दिल्ली के साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध कर रहे लोगों को भी संदेश दे दिया गया है कि अगर आंदोलन आगे भी जारी रहा तो दिल्ली का घटनाक्रम देश में अन्य जगह भी दोहराया जा सकता है। यानी दिल्ली तो सिर्फ झांकी है, पूरा देश बाकी है।

इस हकीकत का खुलासा उन तमाम वीडियो से भी हो चुका है, जो पब्लिक डोमेन में आ चुके हैं। किसी वीडियो में भाजपा नेता नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलन करने वालों के खिलाफ पुलिस की मौजूदगी में भडकाऊ भाषण और हिंसक कार्रवाई की चेतावनी दे रहे हैं, तो किसी-किसी में साफ दिखाई दे रहा है कि दंगाई गोली चला रहे हैं। पत्थरबाजी कर रहे हैं। भड़काऊ नारे लगाते हुए लोगों के मकानों-दुकानों में आग के हवाले कर रहे हैं और पुलिस के जवान तमाशबीन बने हुए हैं। कुछेक वीडियो में पुलिस के जवान भी पत्थरबाजी करते हुए देखे गए हैं। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़े किए थे, जो कि स्वाभाविक और आम आदमी की अपेक्षाओं के अनुरूप ही थे।

दिल्ली की दंगा परियोजना की परतें उधेड़ने और दिल्ली पुलिस को सुधरने की नसीहत देने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के जज के तबादले के लिए जारी हुए आदेश में तीन खास संदेश छुपे हैं।

पहला संदेश तो यही है कि न तो दिल्ली पुलिस सुधरेगी और अगर वह सुधरना चाहेगी भी तो केंद्र सरकार उसे सुधरने नहीं देगी। यानी पुलिस को हर स्थिति में सरकार की इच्छा के मुताबिक काम करना होगा और सरकार उसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक एजेंडा को आगे बढाने के लिए करती रहेगी। पुलिस का यही मॉडल उन राज्यों में भी लागू है, जहां भाजपा की सरकारें हैं।

जस्टिस मुरलीधर के तबादले का दूसरा संदेश यह है कि जिन लोगों ने भड़काऊ बयान देकर दिल्ली में दंगों की जमीन तैयार की और जिन लोगों ने दंगों में सक्रिय भूमिका निभाई उनके खिलाफ सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं होगी।

तीसरा महत्वपूर्ण संदेश न्यायपालिका के उस हिस्से के लिए है, जो सरकारों की राजी-नाराजी की परवाह किए बगैर निष्पक्षता और ईमानदारी के साथ देश के संविधान और कानून के मुताबिक करना चाहता है। ये तीनों ही संदेश इस बात का संकेत है कि आने वाले समय देश के लोकतंत्र और दिल्ली सहित पूरे देश के नागरिक समाज के लिए बेहद संकट भरा है।

दिल्ली में हिंसा के दौरान पुलिस की भूमिका का बचाव करते हुए सरकार ने अदालत में भी अदालत के बाहर भी साफ कर दिया है कि वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहती जिससे कि पुलिस के मनोबल पर प्रतिकूल असर पडे। जाहिर है कि दिल्ली की हिंसा में 40 से ज्यादा लोगों के मारे जाने के बावजूद केंद्र सरकार को नाकारा साबित हुई दिल्ली पुलिस के मनोबल की तो खूब चिंता है, मगर ध्वस्त हो चुकी दिल्ली की कानून व्यवस्था के चलते लोगों का दम तोड़ता मनोबल उसकी चिंता के दायरे में नहीं है। इसीलिए उसे पुलिस की भूमिका पर जस्टिस मुरलीधर की टिप्पणियां नागवार गुजरी और उसने उनका रातोरात तत्काल प्रभाव से लागू होने वाला तबादला आदेश जारी कर दिया।

कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद कह रहे हैं कि जस्टिस मुरलीधर का तबादला निर्धारित प्रक्रिया के तहत हुआ है, उसे दिल्ली दंगों के मामलों की सुनवाई से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। सवाल उठता अगर तबादला सामान्य प्रक्रिया के तहत हुआ है तो फिर जस्टिस मुरलीधर ने दिल्ली के हिंसा के सिलसिले में जो आदेश दिए हैं उन पर सरकार अमल क्यों नहीं कर रही है?

कहने की ज़रूरत नहीं कि जस्टिस मुरलीधर ने अपने संवैधानिक दायित्व के तहत दिल्ली पुलिस की अक्षमता और लापरवाही पर जो तेवर अपनाए थे वे सरकार के राजनीतिक नेतृत्वकारियों को रास नहीं आए। उनके तबादले से जाहिर हो गया कि दंगे भडकाने वाले उन लोगों खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई करने का सरकार इरादा नहीं है, जिनके नामों का उल्लेख जस्टिस मुरलीधर ने सुनवाई के दौरान किया था। दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष भी सरकार की ओर से यही कहा गया कि भड़काऊ भाषण देने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिए यह उचित समय नहीं है। इस दलील को मुख्य न्यायाधीश ने स्वीकार भी कर लिया और मामले की सुनवाई को 13 अप्रैल तक के लिए टाल दिया।

हाईकोर्ट के इस नए रुख से दिल्ली पुलिस के मनोबल पर तो किसी तरह का असर नहीं होगा। क्योंकि उसे तो आगे भी वही करना होगा, जैसा गृह मंत्रालय का राजनीतिक नेतृत्व चाहेगा। हां, भड़काऊ भाषण देने वाले नेताओं और दंगों में सक्रिय भागीदारी करने वाले तत्वों का मनोबल जरूर बढ़ेगा।

वैसे हाल के दिनों में यह पहला मौका नहीं है जब दिल्ली में पुलिस हिंसक घटनाओं की मूकदर्शक बनी रही हो या खुद ने भी हिंसा भडकाने में हिंसक तत्वों का साथ दिया हो। पिछले दिनों जामिया यूनिवसिर्टी और गार्गी कॉलेज में भाजपा से जुडे असामाजिक तत्वों ने जब छात्रों के छात्र मारपीट, तोडफोड और आगजनी की थी तब भी पुलिस काफी समय तक मूकदर्शक बनी रही थी। जामिया में तो उसने खुलकर इन तत्वों का साथ दिया था और लाइब्रेरी में घुसकर वहां पढ रहे छात्रों की बेरहमी से पिटाई थी।

दिसंबर महीने में भी दरियागंज और जामा मस्जिद इलाके में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुए प्रदर्शन के दौरान ऐसे वीडियो सामने आए थे, जिनमें पुलिस के जवान लोगों के घरों के बाहर खडे वाहनों को तोड़फोड़ रहे थे, घरों में घुसकर लोगों के साथ मारपीट कर रहे थे। ऐसे ही वीडियो हिंसा की ताजा घटनाओं के सिलसिले में भी आए हैं।

जहां तक पुलिस के मनोबल की बात है, उसे तो बढ़ाने का काम पिछले कुछ समय से खुद प्रधानमंत्री ही कर रहे हैं। बीते दिसंबर महीने में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में जब दिल्ली सहित देश के विभिन्न शहरों में आयोजित प्रदर्शनों में शामिल लोगों पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई की थी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसकी सार्वजनिक रूप से सराहना की थी। दिल्ली के रामलीला मैदान की रैली में प्रधानमंत्री ने पुलिस की पीठ थपथपाते हुए वहां मौजूद उस भीड से से पुलिस के समर्थन में नारे लगवाए थे, जो उनका भाषण शुरू होने से पहले नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का विरोध करने वालों के खिलाफ नारे लगा रही थी- 'देश के गद्दारों को, गोली मारो ...को।’ यही नारा बाद में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने दिल्ली में अपनी चुनावी सभाओं में लगवाया।

प्रधानमंत्री का यह रवैया एक व्यक्ति के तौर पर भी बेहद आपत्तिजनक और अफसोसनाक था। प्रधानमंत्री ने ऐसा करके पुलिस द्वारा देश के विभिन्न शहरों में प्रदर्शनकारी छात्रों, नौजवानों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर की गई बर्बर कार्रवाई और गुंडागर्दी का न सिर्फ स्पष्ट रूप से बचाव किया था, बल्कि आगे भी ऐसा करने के लिए पुलिस को अपनी ओर से हरी झंडी दिखाई थी और अपने समर्थकों को भी इस तरह की हिंसक कार्रवाइयों में पुलिस का साथ देने के लिए प्रेरित किया था।

प्रधानमंत्री से मिली इस शाबासी से पुलिस ने पुलिस के मनोबल को निश्चित ही बढाया है, जिसका प्रदर्शन वह लगातार कर रही है और दिल्ली की ताजा हिंसा में भी उसने मूकदर्शक बनकर और हिंसक तत्वों का साथ देकर किया है।

यही नहीं, इससे पहले एक अन्य मौके पर प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को इशारों-इशारों में मुस्लिम बताते हुए यह भी कहा था कि इस कानून के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों को उनके कपडों से पहचाना जा सकता है।

जिस सभा में प्रधानमंत्री ने यह बात कही थी, उसी सभा में उन्होंने यह तक कह दिया था कि पाकिस्तानी मूल के लोग ही इस कानून का विरोध कर रहे है। उसी सभा में उन्होंने नागरिकता कानून का विरोध कर रहे विपक्षी नेताओं को भी पाकिस्तान और आतंकवादियों का हमदर्द तक करार दे दिया था।

यह सब कह चुकने के एक सप्ताह बाद उन्होंने दिल्ली, उत्तर प्रदेश सहित देश के अन्य हिस्सों में आंदोलकारियों पर पुलिस की हिंसक कार्रवाई की तरफदारी करते हुए अपने समर्थको से पुलिस की जय-जयकार कराई थी। जाहिर है कि उन्होंने पुलिस को स्पष्ट संदेश दिया था कि वह मुसलमानों की उनके कपड़ों से शिनाख्त कर उनका दमन करे और मौका आने पर विपक्षी नेताओं के साथ भी कोई रियायत न बरतें।

देश में जिस तरह के हालात बने हुए हैं, उसके मद्देनजर प्रधानमंत्री से अपेक्षा तो यह थी कि वे पुलिस से संयम बरतने को कहते। यह न भी कहते तो कम से कम ऐसे मौके पर पुलिस का महिमामंडन करते हुए अपने समर्थको को पुलिस की 'मदद’ करने के लिए तो न कहते। लेकिन उन्होंने इस अपेक्षा के विपरीत किया।

कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री सीधे-सीधे पुलिस को और अपने समर्थकों को हिंसा के लिए उकसा कर देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा करने की कोशिश कर रहे थे। उनके इन सार्वजनिक उद्गारों के बाद पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई भीड़ की हिंसा में तेजी आना स्वाभाविक थी और वह दिल्ली में हाल की घटनाओं साफ तौर नजर भी आई।

यह प्रधानमंत्री की शह पर दिल्ली पुलिस के बढे हुए 'मनोबल’ का ही नतीजा था कि हाल के दिनों में जामिया इलाके में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में छात्रों के एक शांतिमार्च के दौरान गोपाल नामक एक युवक ने जब खुले आम हवाई फायर किए थे तो पुलिस वहां मूकदर्शक बनी हुई थी। हालांकि बाद में उसे गिरफ्तार भी किया गया लेकिन एक स्कूल के फर्जी प्रमाण पत्र के आधार उसे नाबालिग बताकर उसे छोड दिया गया। इसी तरह एक युवक ने शाहीन बाग इलाके में धरना स्थल के पास भी जय श्रीराम के नारे लगाते हुए हवाई फायर किए थे और वहां मौजूद पुलिस के जवान मूकदर्शक बने हुए थे।

दिल्ली पुलिस किस कदर राजनीतिक दबाव में काम कर रही है, इसका अंदाजा पिछले महीने देश के सबसे प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में छात्रों पर हुए हिंसक हमले की घटना से भी लगाया जा सकता है। वहां पुलिस ने हमला करने वाले नकाबपोश गुंडों को काफी देर तक न सिर्फ खुल कर आतंक मचाने की छूट दी थी, बल्कि एफआईआर दर्ज होने के बाद आज तक उस घटना के सिलसिले में किसी की गिरफ्तारी भी नहीं की है। वहां नकाबपोश गुंडों को इकट्ठा करने वालों की पहचान और उनके बनाए व्हाट्सएप ग्रुप की जानकारी सार्वजनिक हो गई है। एक न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में भाजपा के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद से जुडे एक छात्र खुद स्वीकार कर चुका है कि उसने हिंसा की थी और बाहरी गुंडों को इकट्ठा किया था।

इसके बावजूद ब्रिटेन की स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस के बाद दुनिया की सबसे सक्षम पुलिस फोर्स माने जाने वाली दिल्ली पुलिस ने जांच का नाटक करने के बाद बड़ी मुश्किल से आठ-नौ संदिग्धों के जो फोटो जारी किए उसमें नकाबपोश गुंडों के हमले का शिकार हुई जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष की भी फोटो है। जाहिर है कि पुलिस मारपीट का इल्जाम उन्हीं छात्रों पर मढने का इरादा रखती है, जो हिंसा के शिकार हुए हैं, घायल हैं। गुंडों को खोजने की बजाय पुलिस गुंडों की हिंसा का शिकार हुए छात्रों और शिक्षकों के पीछे पडी है। ऐसे में राहत इंदौरी का यह शेर याद आता है- अब कहां ढूंढने जाओगे हमारे कातिल, आप तो कत्ल का इल्ज़ाम हमीं पर रख दो।

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