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अग्निपथ योजना: हठधर्मिता छोड़े सरकार

अग्निपथ योजना के देशव्यापी विरोध के बावजूद सरकार इसकी समीक्षा और इस पर पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं है। सरकार की यह हठधर्मिता देश को आगामी वर्षों में हिंसा और अराजकता के दुष्चक्र में धकेल सकती है।
agneepath
फाइल फ़ोटो

रक्षा विशेषज्ञों और युद्ध तथा सैन्य प्रशासन का सुदीर्घ अनुभव रखने वाले सेवा निवृत्त अधिकारियों की प्रतिक्रियाएं यह दर्शाती हैं कि सरकार ने इस योजना के क्रियान्वयन से पहले उनसे चर्चा, विमर्श और सलाह मशविरा नहीं किया था। देश के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले यह पूर्व सैन्य अधिकारी आहत हैं, हतप्रभ हैं, हताश हैं।

रक्षा विशेषज्ञ सेवानिवृत्त मेजर जनरल यश मोर के अनुसार जिस दिन सैनिकों की भर्ती में आर्थिक बचत हमारी प्राथमिकता बन जाएगी वह दिन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए  विनाशकारी सिद्ध होगा। रिटायर्ड मेजर जनरल बी एस धनोवा कहते हैं कि पेशेवर सेनाएं रोजगार कार्यक्रम नहीं चलाया करतीं। इन पूर्व सैन्य अधिकारियों ने अनेक गंभीर प्रश्न उठाए हैं जो अब तक अनुत्तरित हैं। यद्यपि सरकार के कहने पर  सेवारत थ्री स्टार कमांडर्स को उनके संबंधित सर्विस मुख्यालयों द्वारा यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे असंतुष्ट सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों से संपर्क करें और उन्हें अग्निवीर योजना के लाभों के विषय में जानकारी दें ताकि इस योजना के प्रति उनकी राय बदल सके। किंतु अनेक बुनियादी सवालों का जवाब न तो सरकार के पास है और न ही उसमें यह विनम्रता दिखाई देती है कि वह अपने कदम पीछे खींचे एवं कोई नई अधिक तर्कपूर्ण और व्यावहारिक पहल करे।

रक्षा विशेषज्ञों और पूर्व सैन्य अधिकारियों की आपत्तियां अनेक हैं। इतनी अल्प अवधि में किन 25 प्रतिशत अग्निवीरों को आगे की सेवा के लिए रखना है और किन 75 प्रतिशत अग्निवीरों को बाहर का रास्ता दिखाना है यह तय करना असंभव है। उनकी योग्यता और क्षमता के आकलन के लिए यह अवधि बड़ी छोटी है।

क्या इन नए नवेले अग्निवीरों को गुप्त मिशनों पर भेजा जा सकता है? क्या इन्हें गोपनीय उत्तरदायित्व दिए जा सकते हैं? जिन 75 प्रतिशत अग्निवीरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा क्या उनसे यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे ऐसे गोपनीय अभियानों के रहस्यों और खुफिया जानकारियों को स्वयं तक सीमित रखेंगे और उनका दुरुपयोग नहीं करेंगे? ऐसे कम उम्र युवा वैसे भी जरा से अपमान और उपेक्षा से आहत हो जाते हैं और यहां तो उन्हें अयोग्य मान कर  सेवा से बाहर निकाला गया है।

इन्फेंट्री, आर्टिलरी, कॉम्बैट इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा मेकैनिकल इंजीनियरिंग, सिग्नल एवं एयर डिफेंस ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें सात-आठ वर्षों के प्रशिक्षण और अनुभव के बाद ही कुछ विशेषज्ञता अर्जित हो पाती है। क्या मात्र 6 माह के प्रशिक्षण के बाद इन अग्निवीरों से उस तकनीकी कुशलता की अपेक्षा की जा सकती है? क्या किसी अनाड़ी अतिउत्साही राष्ट्रभक्त की आत्मघाती मूर्खताओं की तुलना में किसी प्रशिक्षित, अनुभवी, युद्ध की रणनीतियों को  ठंडे दिमाग से अंजाम देने वाले वाले दक्ष तकनीशियन की सेवाएं देश की सुरक्षा में ज्यादा सहायक नहीं होंगी?

ब्रिगेडियर ए मदान के अनुसार कोई भी बुद्धिमान कमांडिंग ऑफिसर ऐसे वास्तविक सैन्य संघर्ष के लिए जिसमें जीवन दांव पर लगाना हो इन अग्निवीरों का चयन नहीं करेगा। कोई भी कार्यकुशल सेना 75 प्रतिशत की हाई वेस्टेज रेट को सहन नहीं कर सकती।

यह आशंका भी व्यक्त की गई है कि 4 साल की सेवा के बाद दुबारा न चुने जाने वाले अग्निवीरों पर नक्सलियों, उग्रवादियों और संगठित अपराधी गिरोहों की नजर रहेगी और वे उन्हें अपने खतरनाक इरादों को पूरा करने के लिए अपने गिरोह में शामिल करने का पूरा प्रयास करेंगे।

अनेक पूर्व सैन्य अधिकारी इस तर्क से असहमत हैं कि अग्निवीरों की भर्ती के बाद हमारे देश के पास एक युवा सेना होगी जो कि शारीरिक रूप से अधिक सक्षम एवं सशक्त होगी। इनके प्रश्न गंभीर और विचारणीय हैं। क्या  23-24 वर्ष का व्यक्ति 28-30 साल के व्यक्ति से अधिक चुस्त दुरुस्त होता है? किसी भी फिट युवा के लिए 21 से 35 वर्ष की आयु उसका स्वर्णिम काल होती है। मांस पेशियों की ताकत तो 25 वर्ष की आयु में अपने सर्वश्रेष्ठ स्तर पर पहुंच जाती है किंतु शरीर तो 35 वर्ष और उसके कुछ वर्ष बाद भी स्वस्थ और सशक्त बना रहता है। इसलिए फिट आर्मी का तर्क अर्थहीन है।

सैनिकों की भर्ती और उनके प्रशिक्षण से लंबे समय तक जुड़े रहे सैन्य प्रशासन के जानकार अग्निवीरों के अपर्याप्त कार्यकाल को लेकर असंतुष्ट हैं। इनके अनुसार चाहे 4 वर्ष के लिए मानव संसाधन का उपयोग किया जाए या 10,12 अथवा 15 वर्ष के लिए प्रतिवर्ष सेना में प्रवेश करने वाले और बाहर निकलने वाले लोगों की संख्या समान रहेगी। कोई भी मैनेजमेंट गुरु हमें यह सलाह देगा कि इस मानव संसाधन को लंबी अवधि तक उपयोग में लाना लाभकारी होगा।

लेफ्टिनेंट जनरल प्रकाश कटोच के अनुसार सरकार सेना के उस अद्वितीय रेजीमेंटल सिस्टम को मिटा देना चाहती है जो वास्तविक युद्ध में जमीनी लड़ाकों के आपसी तालमेल की आधारशिला है। सरकार 'सबका साथ सबका विकास' के घातक अनुप्रयोगों द्वारा  'नाम, नमक और निशान' की समय सिद्ध सैन्य परिपाटी को समाप्त कर देना चाहती है जिसके बलबूते पर हमने युद्ध लड़े और जीते हैं।

सिंगल क्लास(सिख रेजिमेंट, डोगरा रेजिमेंट, गढ़वाल राइफल्स, सिख लाइट इन्फेंट्री), फिक्स्ड क्लास(राजपूताना राइफल्स,कुमाऊँ रेजिमेंट की कुछ यूनिटें) और मिक्सड फिक्स्ड क्लास(पंजाब रेजिमेंट) रेजिमेंटों ने हमें युद्धों में गौरवशाली सफलताएं दिलाई हैं। त्याग, बलिदान, वीरता और राष्ट्र भक्ति के उच्चतम स्तर को स्पर्श करने वाले लगभग सभी पूर्व सैन्य अधिकारी यह मानते हैं कि वर्तमान रेजिमेंटल सिस्टम सैनिकों के पारस्परिक विश्वास, मनोबल और युद्धभूमि में साथ जीने साथ मरने की उनकी भावना का आधार रहा है। अग्निपथ योजना के बाद धीरे धीरे इनका स्थान ऑल इंडिया ऑल क्लास सिस्टम ले लेगा। जब 1984 में स्वर्ण मंदिर के भीतर छिपे आतंकवादियों पर हुई कार्रवाई के उपरांत सिख रेजिमेंट की बिहार और राजस्थान यूनिटों में अंसतोष की खबरें आईं तब प्रायोगिक तौर पर ऑल इंडिया ऑल क्लास सिस्टम लागू करने का प्रयास किया गया था। किंतु शीघ्र ही सेना को अपने कदम वापस खींचने पड़े क्योंकि ऑल इंडिया ऑल क्लास यूनिट्स में पारस्परिक बंधन, आपसी विश्वास और सामूहिक भावना की कमी दृष्टिगोचर होने लगी थी।

सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हरवंत सिंह (पूर्व डिप्टी आर्मी चीफ ऑफ स्टॉफ) की शंकाएं जायज हैं- क्या सीमित समय के लिए चुने गए इन अग्निवीरों में देश के लिए अपना जीवन होम देने की प्रेरणा और इच्छा होगी? क्या इनमें रेजीमेंटों में दिखाई देने वाली वह भावना उपस्थित होगी जिसके वशीभूत होकर कोई सैनिक अपने चारों और बरसती गोलियों और बमों के बीच, अपने दाएं-बाएं साथियों की गिरती रक्तरंजित देहों को देखकर भी अविचलित रहते हुए असंभव को संभव कर दिखाता है?

रिटायर्ड ब्रिगेडियर राहुल भोंसले जैसे अनेक विशेषज्ञ यूक्रेन में रूसी सेनाओं के खराब एवं निराशाजनक प्रदर्शन के लिए रूस के अनिवार्य सैनिक भर्ती संबंधी नियमों को उत्तरदायी मान रहे हैं जब आंशिक और अपूर्ण रूप से प्रशिक्षित रूसी सैनिक यूक्रेन की समर्पित सेना के सामने परेशानी में दिखाई दे रहे हैं। अग्निपथ योजना युवकों के लिए अनिवार्य सैन्य भर्ती की पूर्वपीठिका तैयार करती लगती है। यह भी संभव है कि सेना में जाने वाले युवाओं हेतु कुछ आकर्षक छूटों का एलान कर सरकार बिना कानून पास किए यह स्थिति उत्पन्न कर दे कि युवाओं के पास भविष्य के बेहतर रोजगार के लिए पहले सेना में जाना अप्रत्यक्ष रूप से अनिवार्य बन जाए।

सामान्य तौर पर सरकार का समर्थन करने वाले रिटायर्ड मेजर जनरल जी डी बख्शी ने लिखा,”मैं अग्निवीर योजना से हतप्रभ रह गया था। प्रारंभ में मुझे लगा कि यह  प्रायोगिक आधार पर परीक्षण किया जा रहा था। यह भारतीय सशस्त्र बलों को चीनियों की तरह अल्पकालीन अर्ध-प्रतिनिधि बल में परिवर्तित करने के लिए एक बड़े कदम जैसा है। भगवान के लिए ऐसा मत कीजिए।”

अग्निवीरों को विभिन्न नौकरियों में प्राथमिकता देने के सरकारी आश्वासनों पर विश्वास करने से पहले हमें उस स्याह हकीकत से रूबरू होना होगा जो पूर्व सैनिकों को रोजगार देने में हमारी विफलता और उनके प्रति हमारी असंवेदनशीलता को दर्शाती है। हम सेना से रिटायर होने वाले नौजवानों को अतिरिक्त कौशलों में प्रशिक्षित करने तथा उन्हें दूसरा रोजगार देने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार नौकरी के लिए पंजीयन कराने वाले 5,69,404 पूर्व सैनिकों में से केवल 14155 को सरकारी, अर्द्ध सरकारी अथवा निजी क्षेत्र में किसी प्रकार का कोई रोजगार मिल पाया। आंकड़े यह भी बताते हैं कि केंद्र सरकार के 34 विभागों में कार्यरत 10,84,705 ग्रुप सी कर्मचारियों में केवल 13976 एक्स सर्विसमैन थे जबकि 3,25,265 ग्रुप डी कर्मचारियों में केवल 8642 एक्स सर्विसमैन थे। केंद्र के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में ग्रुप सी वर्ग में एक्स सर्विसमैन के लिए कोटा 14.5 प्रतिशत है किंतु डीजीआर के मुताबिक इनकी वास्तविक हिस्सेदारी केवल 1.15 प्रतिशत है जबकि ग्रुप डी के लिए निर्धारित 24.5 प्रतिशत कोटा के बावजूद इनकी संख्या .3 प्रतिशत है।

हमारे देश का कानून किसी व्यक्ति को तब वयस्क मानता है जब वह 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेता है। इससे पहले उसे अवयस्क माना जाता है, वह विवाह नहीं कर सकता और उससे मजदूरी या नौकरी कराना अपराध माना जाता है। क्या साढ़े सत्रह वर्ष के किशोरों को युद्ध के लिए सेना में भर्ती करना वैधानिक है? इससे भी अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या यह नैतिक रूप से उचित है? संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकारों के लिए कार्य करने वाले संगठन बच्चों के युद्ध में हो रहे इस्तेमाल पर निरंतर आपत्ति करते रहे हैं। क्या हम इसी गलत दिशा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं?

अग्निपथ योजना भारतीय सेना के स्वरूप एवं कार्यप्रणाली में इस प्रकार का क्रांतिकारी परिवर्तन ले आएगी कि हम विश्व की अग्रणी सैन्य शक्ति बन जाएंगे यह आशा कभी पूरी होगी ऐसा नहीं लगता। यह योजना न तो रणनीतिक तौर पर उचित है न ही नैतिक तौर पर। अल्प कार्यकाल वाले, प्रारंभिक प्रशिक्षण प्राप्त अनुभवहीन अग्निवीरों को निर्णायक युद्ध में सम्मिलित करने अथवा उन्हें कोई गोपनीय उत्तरदायित्व देने का दुस्साहस शायद ही कोई देशभक्त सेनानायक करेगा। सेना में इन अग्निवीरों द्वारा व्यतीत किया गया समय बहुत संभव है कि ऐसे तुच्छ एवं महत्वहीन कार्यों में बीते जो इनमें हताशा और कुंठा उत्पन्न करें। जो 75 प्रतिशत अग्निवीर सेना से बाहर आएंगे यदि उनमें से कोई भी गलत रास्ते पर चल निकला तो उसके पास युद्ध कला और हथियारों के संचालन की इतनी जानकारी तो अवश्य होगी कि वह एक शांतिप्रिय सभ्य समाज में हिंसक गतिविधियों को परवान चढ़ा सके। जिस प्रकार से हमारा समाज साम्प्रदायिक और जातीय वैमनस्य की अग्नि में झुलस रहा है, सम्मानजनक नौकरी की तलाश में भटकते सेना से बाहर आए इन अग्निवीरों के आक्रोश को गलत दिशा मिलना एक स्वाभाविक परिणति होगी।

यह तर्क कि अग्निपथ योजना से राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत होगी बहुत खोखला है। तकनीकी विकास ने युद्ध की रणनीतियों को इतना बदल दिया है कि अब पारंपरिक प्रत्यक्ष युद्ध का स्थान अप्रत्यक्ष युद्ध की ऐसी रणनीतियों ने ले लिया है जिनके द्वारा सीधे सैन्य संघर्ष के बिना ही शत्रु देश को राजनीतिक,आर्थिक और सामरिक तौर पर कमजोर किया जा सकता है। अग्निवीरों की यह फौज इतने कम समय में शायद देश की सीमाओं की रक्षा के लायक कौशल तो अर्जित नहीं कर पाएगी किंतु साम्प्रदायिक ताकतों और संगठित अपराधी गिरोहों द्वारा बरगलाए जाने पर यह देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरे में अवश्य डाल देगी।

सेना में प्रवेश लेना हमारे देश में गौरव का विषय माना जाता रहा है। सुरक्षित भविष्य, रोमांचपूर्ण सेवाकाल और देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देने की संभावना, वे विशेषताएं हैं जो सेना की सेवा को महज एक नौकरी नहीं रहने देतीं बल्कि इसे एक अलग आयाम प्रदान करती हैं।

देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर एक सम्मानजनक जीवन जीने की आशा संजोए लाखों नवयुवकों को जब यह ज्ञात हुआ कि सेना की यह गरिमापूर्ण सेवा अब एक तदर्थ प्रकृति की अल्पकालिक, अस्थायी नौकरी में बदली जा रही है तो उनका आक्रोशित होना स्वाभाविक था। इन नवयुवकों पर यह आक्षेप लगाना कि इनमें देशभक्ति की कमी है या मोटी तनख्वाह और पेंशन के लालच में ये सेना में जाना चाहते हैं, सर्वथा अनुचित है। हमारे देश में कितने ही ऐसे परिवार मिल जाएंगे जिनमें पिता की शहादत के बाद दुगुने जोश से उनके बेटों ने सेना में प्रवेश लिया, अग्रज के वीरगति को प्राप्त होने के बाद उसके अनुज का सेना में जाने का संकल्प दृढ़तर ही हुआ। कितने ही ग्राम ऐसे हैं जहां हर घर का कोई सपूत सेना में है। भारतीय सेना निर्जीव युद्धक मशीन नहीं है, इसके साथ सेवा, समर्पण, मर्यादा, त्याग और बलिदान जैसे मूल्य सम्बद्ध हैं। भारतीय सेना हमारे जीवन का एक संस्कार है। जब भारत का देशभक्त युवा अपने सपनों की उस आदर्श भारतीय सेना के गौरव के साथ समझौता होता देखता है तो उसे क्षोभ तो होगा ही।

सरकार का यह तर्क कि वह हर युवा को सैन्य सेवा का अनुभव देना चाहती है उचित नहीं है। हमारी सेना केवल लड़ने मारने वाले युवाओं का संगठन नहीं है। हमारी सेना जोड़ने वाली है, हमारी सेना जान बचाने वाली है। सरकार चाहे तो देश के युवाओं को युद्ध के अतिरिक्त कितने ही सैन्य कौशलों में प्रशिक्षित कर सकती है जो नागरिक जीवन को बेहतर बना देंगे। युवाओं को आपात परिस्थितियों में अपनी और दूसरों की प्राण रक्षा का प्रशिक्षण दिया जा सकता है, उन्हें उस सैन्य अनुशासन एवं समर्पण का प्रशिक्षण दिया जा सकता है जिसके बल पर सैनिक रातों रात पुल खड़ा कर देते हैं, सड़कें बना देते हैं, असंभव अभियानों को अंजाम दे लेते हैं। सरकार देश के हर युवा में यह भाव भर सकती है कि वह चाहे किसी भी पेशे में हो वह देश का एक समर्पित सैनिक है- देश के सेकुलर चरित्र, संविधान तथा एकता और अखंडता को सुरक्षित रखने के लिए अहर्निश तत्पर सैनिक।

अनेक विशेषज्ञ सरकार की अग्निपथ योजना को उग्र हिंदुत्व की विचारधारा से जोड़ कर देखते हैं। उग्र और असमावेशी हिंदुत्व के समर्थकों में हिन्दू युवाओं को आक्रामक युद्धक समुदाय में बदलने की लालसा प्रारंभ से रही है। यह 1931 की घटना है जब उग्र हिंदुत्व के प्रारंभिक पुरोधा और हिन्दू  महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष(1927-1937) बालकृष्ण मुंजे इटली की यात्रा करते हैं, वहां वे मुसोलिनी से मिलते हैं, वे इटली के प्रमुख सैन्य विद्यालयों का दौरा करते हैं और उनसे बहुत प्रभावित भी होते हैं। बाद में भारत लौटकर वे नाशिक में 12 जून 1937 को भोंसला मिलिट्री विद्यालय की स्थापना करते हैं। हिंदुओं का सैन्यकरण और ब्रिटिश सेना का भारतीयकरण वे उद्देश्य थे जिन्होंने श्री मुंजे को इस विद्यालय की स्थापना हेतु प्रेरित किया। जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब श्री मुंजे से हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद का कार्यभार ग्रहण करने वाले श्री सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से ब्रिटिश सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे। उन्होंने नारा दिया था, ”हिंदुओं का सैन्यकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो।" लगभग 3 वर्ष पहले यह खबरें आईं थीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिक्षण विंग विद्या भारती द्वारा उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर ज़िले के शिकारपुर में ‘रज्जू भैया सैनिक विद्या मंदिर’ वर्ष 2020 से प्रारंभ किया जा रहा है।

यह देश का दुर्भाग्य होगा यदि देश का भविष्य निर्माता युवा वर्ग युद्धकला में प्रशिक्षित और साम्प्रदायिक भावना से संचालित एक हिंसक समूह के रूप में निर्माण के स्थान विनाश करता नजर आए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और एक राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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