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धनखड़ का बयान दशकों में विकसित हुई मौलिक अवधारणाओं पर सवाल उठाता है

उपराष्ट्रपति के हस्तक्षेप और हमले संवैधानिक और क़ानूनी शब्दावली में बुने हुए हैं, जिससे वे भोले-भाले लोगों को एक क़िस्म की सच्चाई के रूप में दिखाई देते हैं।
Dhankhar
फोटो साभार: पीटीआई

संविधान के अनुच्छेद 63 में कहा गया है कि, "भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा।" अनुच्छेद 71 तक किसी भी अनुच्छेद में यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि उपराष्ट्रपति को कार्यालय में रहते अपना काम और व्यवहार गैर-पक्षपातपूर्ण रखना चाहिए।

फिर भी यह माना जाता है – और केवल परंपरा के कारण नहीं – बल्कि दूसरे संवैधानिक सर्वोच्च पद पर आसीन प्रत्येक व्यक्ति को राजनीतिक विचार और वर्तमान राय की परवाह किए बिना गरिमापूर्ण ढंग से काम करना चाहिए। मानक सिद्धांत यह है कि कार्यालय के आचरण में संबंध व्यक्ति को राजनीतिक मान्यताओं को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहिए।

संवैधानिक अधिकारियों, विशेष रूप से देश के शीर्ष दो नागरिकों को अपनी राय पर नियंत्रण रखना चाहिए और संवैधानिक सिद्धांतों को कायम रखने वाले कार्यों के मामले में उदार होना चाहिए। राजनीतिक नेताओं, विशेष रूप से जो विपक्ष में हैं, का सम्मान करने की क्षमता उनमें अंतर्निहित होनी चाहिए।

इसे अर्जित करने के लिए, व्यक्ति के दावे और सत्ता पक्ष के दावे के बीच थोड़ा सा अलगाव जरूरी है। प्रधानमंत्री (पीएम) या अन्य मंत्रियों के विपरीत, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के मामले में, 'राजनीतिक बयान' और सरकार की 'नीति घोषणा' के बीच अंतर नहीं किया जा सकता है।

उत्तरदायित्व विशेष रूप से उपराष्ट्रपति के मामले में गंभीर है क्योंकि वह राज्य सभा के पीठासीन अधिकारी भी होते हैं। ऐसे कार्यालय को निष्पक्ष रहना चाहिए क्योंकि यह भारत की संसद की वैश्विक छवि को प्रभावित करता है।

प्रणब मुखर्जी और हामिद अंसारी के कार्यकाल के बाद, एक तरफ राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के कार्यालयों और दूसरी तरफ सरकार या सत्तारूढ़ दल के बीच अलगाव की रेखा 2017 में धुंधली होने लगी थी।

लेकिन दोनों कार्यालयों के किसी भी व्यक्ति ने सक्रिय रूप से भावनाओं को भड़काने वाले की तरह काम नहीं किया था, और न ही सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेताओं को मात देने की कोशिश की गई जैसा कि वर्तमान उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ कर रहे हैं।

देश में हर राजनीतिक नेता, विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लोगों को पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ब्रिटेन की विवादास्पद यात्रा के दौरान यह आरोप लगाने का अधिकार है लेकिन संसद में तब माइक्रोफोन बंद कर दिए जाते हैं जब विपक्षी नेता सरकार की आलोचना करते हैं।

अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का ध्यान आकर्षित करने की उम्मीद में जैसे तीखे बयान भाजपा के मध्य स्तर के नेता या प्रवक्ता देते हैं, उसी शैली में कांग्रेस नेता के खिलाफ लाठी उठाकर, धनखड़ ने अपने कार्यालय के सम्मान को गिरा दिया है।

राजनीति के निजीकरण के युग में यह समझ में आता है कि पीएम नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी आदतन अपनी, सरकार या पार्टी की सभी आलोचनाओं को देशद्रोह के कृत्यों के रूप में चित्रित करते हैं जो आलोचना उनके मुताबिक राष्ट्र को 'निशाना' और 'कमजोर' बनाते हैं।

लेकिन उपराष्ट्रपति का लोगों को "इन तत्वों' के खिलाफ बोलने के लिए उकसाना अशोभनीय है, जो भारत को 'बदनाम' करते हैं और संसद को बाधित करते हैं यानी विपक्ष, यह तर्क देते हुए कि केवल लोकप्रिय हस्तक्षेप ही उन्हें घुटनों पर ला सकता है"।

धनखड़ का बयान प्रभावी रूप से सतर्क कार्रवाई का आह्वान था– जोकि अधिक समस्याग्रस्त है क्योंकि यह एक शैक्षिक संस्थान, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में एक आधिकारिक समारोह में दिया गया बयान था।

इस बात पर कोई अस्पष्टता नहीं थी कि वे जो दावे कर रहे थे उनके ज़रिए वे लोगों को क्या करने के लिए कह रहे थे: "केवल लोगों का हस्तक्षेप ही इन तत्वों को सही रास्ते पर ला सकता है।" उन्होंने जिस 'सही रास्ते' का संकेत दिया, उसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा हो जाती है।

धनखड़ को उपराष्ट्रपति बनाने से, क्या किसी विजिलेंट समूह के प्रेरक गुरु और उपराष्ट्रपति के बीच कोई अंतर रह गया है?

एक वैध दृष्टिकोण यह हो सकता है कि धनखड़ का लोगों से राहुल के खिलाफ कार्रवाई करने का आह्वान अंततः उन्हें मोदी और भाजपा के सामने विक्टिम के रूप में पेश कर सकता है।

आखिरकार, मोदी और उनकी टीम से प्रशंसा हासिल करने के बजाय, धनखड़ इस बात का जोखिम उठा रहे हैं कि शायद उनके पास आगे जाकर कुछ न बचे। लेकिन यह राज्य के विभिन्न संवैधानिक कार्यालयों और शाखाओं के बीच संतुलन बिगाड़ने से हुए नुकसान की भरपाई नहीं कर पाएगा।

लेकिन इससे भी अधिक चिंता, इस बात की है कि पिछले अगस्त में कार्यालय में आने के बाद से, धनखड़ सुनियोजित तरीके से राज्य के अन्य अंगों और भारत के पवित्र संवैधानिक सिद्धांतों और परंपराओं को अपमानित करते रहे हैं।

वास्तव में, उन्होंने न्यायपालिका, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय (SC) के खिलाफ आरोप लगाने में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू का भी संदिग्ध रूप से साथ दिया है।

हमला दो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर किया गया, जो उच्चतम न्यायालय को संविधान में उसकी भूमिका की परिकल्पना के अनुसार कार्य करने में सक्षम बनाता है: जिसमें उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश करने की शक्ति और सांसदों या संसद द्वारा पारित कानूनों की जांच करने की क्षमता और उनकी संवैधानिक वैधता की जांच करना शामिल है।

इस बात की जांच करना सार्थक होगा कि धनखड़ को इस पद के लिए क्यों चुना गया, भले ही वह संघ परिवार के भीतर से नहीं थे, बल्कि अन्य राजनीतिक कैंपों में रहने के बाद पीछे के रास्ते से भाजपा में घुसे थे, और इस कारण वे गठबंधन के दौर में केंद्रीय मंत्री बने थे।

जाहिर है, सरकार ने एम॰ वेंकैया नायडू को राज्यसभा में विपक्ष पर लगाम लगाने में कम सक्षम पाया था। धनखड़ की उम्मीदवारी पर पिछले साल हर तरफ से मोदी की मुहर लग गई थी।

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद, गवर्नर रहते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ लगातार टकराव के कारण उन्हें 'पुरस्कृत' किया गया था।

गौरतलब है कि धनखड़ को उप-राष्ट्रपति पद के लिए सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में नामांकित किए जाने के बाद, मोदी ने कहा था कि उन्हें संविधान की अच्छी जानकारी है और वे "विधायी मामलों से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं।"

पिछले साढ़े तीन महीनों में हमें विधायी और संवैधानिक मुद्दों पर उनके कौशल की झलक देखने को मिली है।

यह सब दिसंबर की शुरुआत में वार्षिक एलएम सिंघवी स्मारक व्याख्यान के साथ शुरू हुआ, जब उन्होंने शीर्ष अदालत द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना करने वाले कानून को रद्द करने के विरोध में संसद और दोनों सदनों के सांसदों के आवाज़ न उठाने पर आलोचना की।

कुछ दिनों के भीतर ही, राज्यसभा में दिए अपने पहले संबोधन में उन्होंने एससी कॉलेजियम सिस्टम पर फिर से हमला किया, जिसे अगले पांच वर्षों तक के लिए उनके इरादे और बयान के रूप में समझा जाना चाहिए क्योंकि वे इन पांच वर्षों तक उपराष्ट्रपति और सदन के अध्यक्ष रहेंगे। उनका बयान तब और अधिक चिंताजनक हो गया क्योंकि उनका बयान रिजिजू के साथ मेल खाता था जिन्होंने कॉलेजियम सिस्टम को अपारदर्शी होने और पर्याप्त रूप से जवाबदेह न होने के मामले में कॉलेजियम की आलोचना की थी।

सदन में उन्होंने कहा, कि "लोकतांत्रिक इतिहास में इस तरह के विकास के समानांतर कोई नहीं है, जहां एक विधिवत वैध संवैधानिक नुस्खे को न्यायिक रूप से पूर्ववत किया गया है", अत्यधिक विवादास्पद है और इसे 'सही' या 'दोष रहित' नहीं माना जा सकता है।

धनखड़ के बड़बोलेपन और उनके दावों की कोई सीमा नहीं है क्योंकि "लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिए इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर, सात वर्षों से संसद में कोई ध्यान नहीं दिया गया है।" जाहिर तौर पर, वह यह संकेत देकर मोदी को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे थे कि जहां तक संसद द्वारा पारित कानूनों की जांच करने में न्यायपालिका की भूमिका का संबंध है, उनकी मंशा न्यायपालिका को कमज़ोर करने की थी।

पिछले तीन महीनों में दिए गए कई बयानों में, धनखड़ ने राज्य के अन्य स्तंभों पर निर्वाचित प्रतिनिधियों के वर्चस्व की वकालत करते हुए इन दावों को दोहराया है।उन्होंने जजों को यहां तक कह दिया कि उनकी राय इसलिए कम मायने रखती है क्योंकि वे चुने हुए नहीं हैं।

धनखड़ की राय में, लोगों को उन लोगों के साथ मेल बैठा लेना चाहिए जिन्हें लोकप्रिय वोट के आधार पर जनादेश मिलता है फिर चाहे वह विचार कितना ही शक्तिहीन क्यों न हो।

उपराष्ट्रपति ने एक और व्यापक मोर्चा खोल दिया है- जो संविधान की मूल संरचना के अपरिवर्तनीय होने के विचार को खत्म करने की बात करता है। अप्रैल 1973 में ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले में अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विकसित अवधारणा पर हमला किया गया और धनखड़ ने कहा कि बुनियादी ढांचे जैसी "कोई चीज नहीं" होती है।

जिस तरह से उन्होंने शीतकालीन सत्र और बजट सत्र के पहले भाग के दौरान राज्यसभा की अध्यक्षता की और राहुल के खिलाफ सार्वजनिक कार्रवाई का खुला आह्वान किया, उसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मौलिक संवैधानिक सिद्धांतों पर हमले के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए जो धनखड़ को भारत के संस्थागत ढांचे के लिए बड़ा खतरा बनाता है।

इन हस्तक्षेपों और हमलों को और अधिक जो कपटपूर्ण बनाता है वह यह कि ये संवैधानिक और कानूनी शब्दावली में निहित हैं, जिससे वे भोले-भाले लोगों को सच्चाई के रूप में दिखाई देने लगती हैं।

इसके अलावा, ये हमले सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं द्वारा सिर्फ टीवी बहस और चुनावी सभाओं के दौरान नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि एक संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा पूरी गंभीरता से किए जा रहे हैं।

इस प्रकार उपराष्ट्रपति के प्रत्येक हमले/आरोप का विश्लेषण अन्य बयानों के संयोजन के साथ-साथ किया जाना चाहिए जो मूलभूत सिद्धांतों पर सवाल उठाता है, जिन पर दशकों से आम सहमति विकसित हुई है।

(लेखक एनसीआर स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक 'द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकंफिगर इंडिया' है। उन्होंने 'द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट' और 'नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स' किताबें भी लिखी हैं। उनका ट्वीटर अकाउंट है- @NilanjanUdwin)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें :

Dhankhar’s Diatribes Question Fundamentals Evolved Over Decades

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