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क्या कॉलेजियम सिस्टम भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित कर पाएगा?

'न्यायिक स्वतंत्रता' के कथित विचार के मामले में भारत में न्यायिक जवाबदेही की बहस या उस पर कानून बनाने के प्रयास विफल हो गए हैं। 
न्यायपालिका

लोकतांत्रिक देशों में लोकलुभावनवाद और निरंकुश प्रवृतियों में आई तेज़ी से न्यायपालिकाओं की भूमिका पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।

यह विशेष रूप से हुकूमत की कार्रवाई पर नज़र रखने और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए है। पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विभिन्न क्षेत्राधिकार के भीतर न्यायिक शक्ति का विकास संवैधानिक कानून के विद्वानों के लिए अध्ययन का विषय बन गया है। न्यायिक शक्ति का सबसे अधिक समकालीन विश्लेषण इस बात पर केंद्रित है कि न्यायपालिका और उनके द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति राजनीतिक परिवर्तनों को कैसे प्रभावित करती है।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय को वर्तमान मोदी सरकार के तहत सबसे अधिक ढुल-मूल रवैये के साथ देखा गया है। दलित और मुस्लिम समुदायों के खिलाफ व्यवस्थित भेदभाव तथा लगातार दक्षिणपंथी हिंसा की निर्विवाद वृद्धि ने लोकतंत्र में सर्वोच्च न्यायालय के कर्तव्य पर सवाल उठाए हैं।

सबसे पहली बात कि न्यायपालिका लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए और नागरिकों को हुकूमत के हमलों से बचाती है और जनता में लोकतांत्रिक वैधता हासिल करती है। दूसरी बात कि न्यायालय की शक्ति अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं के मद्देनजर न्यायिक नियुक्तियां के मामले में भिन्न है।

नागरिक अधिकार की रक्षा में न्यायिक शक्ति को फिर से हासिल करना 

कई संवैधानिक कानून के स्कोलर्स ने भारत में राजनीतिक अस्थिरता के समय न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच सत्ता संघर्ष पर अक्सर न्यायिक स्वतंत्रता के संदर्भ में लिखा है।

उदाहरण के लिए, रेहान एबेरात्ने अपने अध्ययन में भारत और श्रीलंका में तुलनात्मक रूप से न्यायिक स्वतंत्रता के नागरिक अधिकारों से संबंधित मुद्दों पर संवैधानिक अदालतों के निर्णयों और प्रतिक्रियाओं का इस्तेमाल करते है। वह नागरिकों की अधिकारों की रक्षा के मामले में मनमाने ढंग से की गई सरकारी कार्रवाई के मद्देनजर दोनों देशों के सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया की जांच करने के लिए केसों का इस्तेमाल करता है।

हालाँकि, कुछ हद तक, भारत के उच्च न्यायालय नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा में निश्चित रूप से अधिक प्रभावी रहे हैं, जैसे कि शांतिपूर्ण रूप से असंतुष्टि का अधिकार, अगर राजनीतिक उथल-पुथल के इस समय में सुप्रीम कोर्ट की तुलना उच्च न्यायालय से की जाए तो उच्च न्यायालयों का प्रदर्शन बेहतर है।
 
इसी तरह, मोदी सरकार के तहत भारतीय सुप्रीम कोर्ट की गतिविधि पर सामाग्री/साहित्य भी बढ़ रहा है।

सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के परिणामस्वरूप, मुस्लिम समुदाय और प्रदर्शनकारियों के खिलाफ लक्षित हिंसा की कई घटनाएं हुईं हैं। दक्षिणपंथी हिंसा के कारण, न तो पुलिस और न ही सर्वोच्च न्यायालय लक्षित समुदायों के बचाव में खड़ा हुआ। 

हालाँकि, कुछ हद तक, भारत के उच्च न्यायालय नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा में निश्चित रूप से अधिक प्रभावी रहे हैं, जैसे कि शांतिपूर्ण रूप से असंतुष्टि का अधिकार, अगर राजनीतिक उथल-पुथल के इस समय में सुप्रीम कोर्ट की तुलना उच्च न्यायालय से की जाए तो उच्च न्यायालयों का प्रदर्शन बेहतर है।

शायद अदालतें जो न्यायिक पदानुक्रम में नीचे हैं, उनके पास केंद्र के ऊपर सर्वोच्च न्यायालय के दबाव बनाने के काम के बजाय राज्य के अधिकारियों पर अपनी शक्ति का इस्तेमाल करने का एक आसान/बेहतर समय है? अदालतों के सामने स्थानीय सरकारों और उनकी व्यक्तिगत कार्रवाइयों की निंदा करना आसान हो सकता है, बजाय सर्वोच्च न्यायालय के केंद्र सरकार पर अपनी शक्ति का दावा करना और यूएपीए जैसे राष्ट्रीय-स्तर के कानून की आलोचना करना।  

यह सच है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पास ’एक्टिविस्ट’ बनने का एक समय था, जिसे संवैधानिक कानून के विद्वान याद करना पसंद करते हैं।

अदालत ने बंधुआ मजदूरी को खत्म करने, निजता के अधिकार को कायम रखने, समलैंगिकता को डिक्रिमिनलाइज करने आदि के मामले में नागरिक अधिकारों के पक्ष में फैसला किया है। हालाँकि, कोर्ट ने भारत में कोविड-19 की वजह से किए गए लॉकडाउन के दौरान नागरिक अधिकारों की रक्षा में छोटी और अप्रभावी भूमिका निभाई है; विशेष रूप से बड़े पैमाने पर प्रवासन और प्रवासी श्रमिकों के जीवन की हानि के संबंध में।

यह बहस का विषय है कि नियुक्ति प्रणाली में राजनीतिक नेताओं को बाहर रखना भारत में न्यायिक स्वतंत्रता के आदर्श को सफलतापूर्वक संरक्षित करता है, और ऐसा करके क्या न्यायपालिका ने अपनी शक्ति को फिर से हासिल करती है।
 
सर्वोच्च न्यायालय के विशेषाधिकार में इस कमी से यह संदेश मिलता है कि यह सरकार के अधीनस्थ है, खासकर जब नागरिकों के बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा की बात आती है।

नियुक्ति प्रणाली के तहत न्यायिक शक्ति दिखाना 

भारत के उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति एक कॉलेजियम की प्रणाली के तहत होती है, जो किसी भी अधिनियमित कानून के तहत नहीं है, लेकिन यह व्यवस्था न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से बनी है। 

1998 में, तीन न्यायाधीशों के मामले में निर्णयों की एक श्रृंखला ने अंततः तय कर दिया कि भारत के उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का चयन मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में न्यायाधीशों के एक समूह द्वारा ही किया जाएगा। जबकि भारत के मुख्य न्यायाधीश को कार्यकारी यानी राष्ट्रपति या राज्य के राज्यपाल से परामर्श करना होगा, मुख्य न्यायाधीश का उनकी राय से "सहमत" होना जरूरी नहीं है। इस प्रकार, यह (अब) स्पष्ट रूप से स्पष्ट है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का शब्द न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में, उच्च न्यायपालिका की न्यायिक नियुक्तियों में अंतिम शब्द है। 

कॉलेजियम प्रणाली की 2015 में फिर से पुष्टि की गई जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक नया कानून लागू किया, जिसमें भारत में न्यायिक नियुक्तियों की प्रणाली (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, या 'एनजेएसी') को बदलने की बात कही गई थी। न्यायालय का मानना था कि अधिनियम ने न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन किया है क्योंकि प्रस्तावित आयोग के राजनीतिक सदस्यों के पास मतदान शक्ति अधिक थी। 

यह बहस का विषय है कि नियुक्ति प्रणाली में राजनीतिक नेताओं को बाहर रखना भारत में न्यायिक स्वतंत्रता के आदर्श को सफलतापूर्वक संरक्षित करता है, और ऐसा करके क्या न्यायपालिका ने अपनी शक्ति को फिर से हासिल किया है।

'न्यायिक स्वतंत्रता' के कथित विचार के मामले में भारत में न्यायिक जवाबदेही पर कानून पारित करने की बहस और प्रयास पूरी तरह से विफल हो गए हैं।'
 
जैसा कि संवैधानिक कानून स्कोलरशिप और अन्य न्यायालयों में ऐसी प्रवृत्ति हो सकती है कि भारत न्यायिक स्वतंत्रता को एक अखंड मानता है।
भारत में, न्यायिक स्वतंत्रता को बड़े पैमाने पर नियुक्तियों के कॉलेजियम प्रणाली के संरक्षण के संदर्भ में समझा गया है।

जैसा कि निर्णय लेने में स्वतंत्रता का संबंध है, घटनाएं इस तथ्य की ओर इशारा करती हैं कि न्यायपालिका में अक्सर सरकार के खिलाफ निष्पक्ष निर्णय देने की शक्ति का अभाव होता है। इसलिए, कार्यकारी को न्यायिक नियुक्तियों के दायरे से बाहर रखने के निर्णय से सरकार से न्यायपालिका की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं होती है। इसके अलावा, अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि सरकार के पक्ष में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को भारत में सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्तियां मिलने की अधिक संभावना होती है।

कॉलेजियम व्यवस्था में सुधार करना 

तीन न्यायाधीशों के केस में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आपातकाल के बाद न्यायिक नियुक्तियों पर नियंत्रण और शक्ति हासिल करने का सबसे स्पष्ट प्रयास था जब यह पूरी तरह से इंदिरा गांधी सरकार के पास था। हालांकि, यह कहना मुश्किल होगा कि क्या कोलेजियम प्रणाली की फिर से पुष्टि से न्यायालय अपनी शक्ति को फिर से हासिल कर पाया है या नहीं।

पहले से ही धवस्त न्यायिक नियुक्ति प्रणाली की अस्पष्टता और भाई-भतीजावाद को आगे बढ़ाने की कड़ी आलोचना की गई थी। फिर, मोदी सरकार के तहत मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली कार्यकारी के हस्तक्षेप का सामना करने में असमर्थ रहने की आलोचना का भी सामना किया है, इस प्रकार न्यायपालिका (विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट की) की स्वतंत्रता के बारे में सवाल खड़े हुए हैं। 

'न्यायिक स्वतंत्रता' के कथित विचार के मामले में भारत में न्यायिक जवाबदेही की बहस या उस पर कानून बनाने के प्रयास विफल हो गए हैं। 
 
विडंबना यह है कि भारत दुनिया के उन बहुत कम देशों में से एक है जहाँ न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीशों द्वारा की जाती है। अन्य न्यायालयों में फिर बेहतर या बदतर लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आयोग हैं। वास्तव में भारतीय संदर्भ में न्यायिक वर्चस्व की 2015 में एनजेएसी पर आए फैसले से पुष्टि हो गई थी।

हालांकि, देखने से लगता तो ऐसा है कि जैसे न्यायपालिका ने अपनी न्यायिक शक्ति को पुनः हासिल कर लिया है, लेकिन हुकूमत की मनमानी के सामने न्यायपालिका की चुप्पी से तो यही लगता है कि कहानी बहुत अधिक जटिल है।

यह लेख मूल रूप से The Leaflet में प्रकाशित हुआ था।

(मेधा श्रीवास्तव बर्लिन की हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी में पीएचडी स्कॉलर और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Does the Collegium System Ensure Independence of Indian Judiciary?

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